मानसून
को जलवायु परिवर्तन के परिपेक्ष्य में समझना होगा
पंकज
चतुर्वेदी
भारत में इस बार जून में सामान्य से 11 प्रतिशत कम बारिश दर्ज की गई जबकि गर्मी ने 122 साल का रिकार्ड तोड़ दिया । वही मौसम विभाग ने बताया दिया है कि इस बार जुलाई में सामान्य से अधिक बारिश हो सकती है, जो लंबी अवधि के औसत (एलपीए) 28.04 सेमी से 106 प्रतिशत अधिक रह सकती है। गौर करें अभी भारतीय केलेंडर के अनुसार यह हाल आषाढ़ महीने का है और आगे सावन-भादों बचा है ।
भारत सरकार के केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा तीन साल पहले तैयार पहली जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट में स्पष्ट चेताया गया था कि तापमान में वृद्धि का असर भारत के मानसून पर भी कहर ढा रहा है| रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के ऊपर ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (जून से सितंबर) में 1951 से 2015 तक लगभग छह प्रतिशत की गिरावट आई है, जो भारत-गंगा के मैदानों और पश्चिमी घाटों पर चिंताजनक हालात तक घट रही है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्मियों में मानसून
के मौसम के दौरान सन 1951-1980 की अवधि की तुलना में वर्ष 1981–2011 के दौरान 27
प्रतिशत अधिक दिन सूखे दर्ज किये गए | इसमें चेताया गया है कि बीते छः दशक के दौरान बढती गर्मी और मानसून में
कम बरसात के चलते देश में सुखा-ग्रस्त इलाकों में इजाफा हो रहा है | खासकर मध्य
भारत, दक्षिण-पश्चिमी तट, दक्षिणी
प्रायद्वीप और उत्तर-पूर्वी भारत के क्षेत्रों में औसतन प्रति दशक दो से अधिक अल्प
वर्षा और सूखे दर्ज किये गए | यह चिंताजनक
है कि सूखे से प्रभावित क्षेत्र में प्रति
दशक 1.3 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है ।
पर्याप्त आंकड़े , आकलन और चेतावनी के
बावजूद अभी तक हमारा देश मानसून के बदलते मिजाज के अनुरूप खुद ढाल नहीं पाया है । न हम उस तरह के जल संरक्ष्ण उपाय कर पाए , न सड़क-पूल-
नहर- के निर्माण कर पाए । सबसे अधिक
जागरूकता की जरूरत खेती के क्षेत्र में है और वहां अभी भी किसान उसी पारम्परिक केलेंडर
के अनुसार बुवाई कर रहा है .
असल
में पानी को ले कर हमारी सोच प्रारंभ से ही त्रुटिपूर्ण है- हमें पढ़ा दिया गया कि
नदी,
नहर, तालाब झील आदि पानी के स्त्रोत हैं,
हकीकत में हमारे देश में पानी का स्त्रोत केवल मानूसन ही हैं,
नदी-दरिया आदि तो उसको सहेजने का स्थान मात्र हैं। यह धरती ही
पानी के कारण जीवों से आबाद है और पानी के आगम मानसून को हम कदर नहीं करते
और उसकी नियामत को सहेजने के स्थान हमने खुद उजाड़ दिए। गंगा-यमुना के उद्गम स्थल से छोटी नदियों के
गांव-कस्बे तक बस यही हल्ला है कि बरसात ने खेत-गांव सबकुछ उजाड़ दिया। यह भी समझना होगा कि मानसून अकेले बरसात नहीं हैं – यह
मिटटी की नमी, घने जंगलों के लिए अनिवार्य, तापमान नियंत्रण का अकेला उपाय सहित
धरती के हजारों- लाखों जीव- जंतुओं के प्रजनन-भोजन- विस्थापन और निबंधन का भी काल
है . ये सभी जीव धरती के अस्तित्व के महत्वपूर्ण घटक है, इन्सान अपने लोभ में
प्रकृति को जो नुकसान पहुंचाता है . उसे दुरुस्त करने का काम मानसून और उससे उपजा
जीव-जगत करता है .
सभी
जानते हैं कि मानसून विदा होते ही उन सभी इलाकों में पानी की एक-एक बूंद के लिए
मारा-मारी होगी और लोग पीने के एक गिलास पानी में आधा भर कर जल-संरक्षण के प्रवचन
देते और जल जीवन का आधार जैसे नारे दीवारों पर पोतते दिखेंगे। और फिर बारिकी से
देखना होगा कि मानसून में जल का विस्तार हमारी जमीन पर हुआ है या वास्तव में हमने
ही जल विस्तार के नैसर्गिक परिघि पर अपना कब्जा जमा लिया है।
मानसून
शब्द असल में अरबी शब्द ‘मौसिम’ से आया है, जिसका अर्थ
होता है मौसम। अरब सागर में बहने वाली मौसमी हवाओं के लिए अरबी मल्लाह इस षब्द का
इस्तेमाल करते थे। हकीकत तो यह है कि भारत में केवल तीन ही किस्म की जलवायु है -
मानसून, मानून-पूर्व और मानसून-पश्चात। तभी भारत की जलवायु
को मानसूनी जलवायु कहा जाता है । जान लें मानसून का पता सबसे पहले पहली सदी ईस्वी
में हिप्पोलस ने लगाया था और तभी से इसके मिजाज को भांपने की वैज्ञानिक व लोक
प्रयास जारी हैं।
भारत
के लोक-जीवन, अर्थ व्यवस्था, पर्व
-त्योहार का मूल आधार बरसात या मानसून का मिजाज ही है। कमजोर मानसून पूरे देश को
सूना कर देता है। कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी
है। खेती-हरियाली और साल भर के जल की जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर है। इसके बावजूद
जब प्रकृति अपना आशीष इन बूंदों के रूप में देती है तो समाज व सरकार इसे बड़े खलनायक
के रूप में पेश करने लगते हैं। इसका असल कारण यह है कि हमारे देश में मानसून को
सम्मान करने की परंपरा समाप्त होती जा रही है - कारण भी है , तेजी से हो रहा शहरों की ओर पलायन व गांवों का शहरीकरण।
विडंबना
यह है कि हम अपनी जरूरतों के कुछ लीटर पानी को घटाने को तो राजी हैं लेकिन मानसून
से मिले जल को संरक्षित करने के मार्ग में खुद ही रोड़ अटकाते हैं। नदियों का
अतिरिक्त पानी सहेजने वाले तालाब-बावली-कुएं नदारद हैं। फिर पानी सहेजने व उसके बहुउद्देशीय इस्तेमाल
के लिए बनाए गए बांध, अरबों की लागत , दशकों के समय, विस्थापन के बाद भी थोडी सी बरसात
को समेट नहीं पा रहे हैं। पहाड़, पेड, और
धतरी को सांमजस्य के साथ खुला छोड़ा जाए तो
इंसान के लिए जरूरी सालभ्र का पानी को भूमि अपने गर्भ में ही सहेज ले।
असल
में हम अपने मानसून के मिजाज, बदलते मौसम में बदलती
बरसात, बरसात के जल को सहेज कर रखने के प्राकृतिक खजानों की
रक्षा के प्रति ना तो गंभीर हैं और ना ही कुछ नया सीखना चाहते हैं। पूरा जल तंत्र महज भूजल पर टिका है जबकि यह
सर्वविविदत तथ्य है कि भूजल पेयजल का सुरक्षित साधन नहीं है। हर घर तक नल से जल पहुंचाने की योजना का सफल
क्रियान्वयन केवल मानूसन को सम्मान देने से ही संभव होगा।
मानसून
अब केवल भूगोल या मौसम विज्ञान नहीं हैं- इससे इंजीनियरिंग, ड्रैनेज ,सेनिटेशन, कृषि ,
सहित बहुत कुछ जुड़ा है। बदलते हुए मौसम के तेवर के मद्देनज़र मानसून-प्रबंधन
का गहन अध्ययन हमारे समाज और स्कूलों से ले कर
इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में हो , जिसके तहत केवल
मानसून से पानी ही नहीं, उससे जुड़ी फसलों, सड़कों, शहरों में बरसाती पानी के निकासी के माकूल
प्रबंधों व संरक्षण जैसे अध्याय हों। खासकर अचानक चरम बरसात के कारण उपजे संकटों के प्रबंधन पर ।
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