छोटी नदियों को हडपने से डूबते हैं शहर
पंकज चतुर्वेदी
शायद कभी उसका नाम “सुखी” नदी होगा लेकिन बहुत दिन उसमें
पानी आया नहीं तो नाम हो गया “सूखी नदी”।
इंसान भी भूल गया कि कभी यहाँ नदी थी और खाली जगह पर अपनी गाड़ियां खड़ी करने लगा ।
नदियों की याददाश्त बहुत मजबूत होती है ,
वह दो सौ साल अपना रास्ता नहीं भूलती, भले ही लुप्त हो जाए । इस बार आषाढ़ की पहली बारिश में ही नदी अचानक
जिंदा हो गई और भाव में दर्जनों कारें बह गई । यह हुआ हरिद्वार में खड़खड़ी स्मशान के
पास । हर साल की तरह गुरुग्राम फिर जल ग्राम बन गया , कारण वही है कि असल में जहां पानी भरता है,
वह अरावली से चल कर नजफगढ़ में मिलने वाली
साहबी नदी का हजारों साल पुराना मार्ग है, नदी सुखा आकर सडक बनाई । अब समाज कहता है कि उसके घर-मोहल्ले में जल भर गया, जबकि नदी कहती है कि मेरे घर में
इन्सान बलात कब्जा किये हुए हैं . देश के छोटे-बड़े शहर- कस्बों में कंक्रीट के जंगल बोने के बाद जल भराव एक स्थाई समस्या हिया उर इसका मूल कारण है
कि वहां बहने वाली कोई छोटी सी नदी को समाज ने अस्तित्वहीन समझ कर मिटा दिया
यह तो अब समझ आ रहा है कि समाज, देश
और धरती के लिए नदियाँ बहुत जरुरी है ,
लेकिन अभी यह समझ में आना शेष है कि छोटी
नदियों पर ध्यान देना अधिक जरुरी है . गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को
स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है , पर ये नदियाँ बड़ी इसी लिए बनती है क्योंकि इनमें बहुत सी छोटी नदियाँ आ कर मिलती
हैं, यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी , यदि छोटी नदी
में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा .
छोटी नदियां अक्सर गाँव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहती
हैं. कई बार एक ही नदी के अलग अलग गाँव
में अलग-अलग नाम होते हैं . बहुत नदियों का तो रिकार्ड भी नहीं है . हमारे लोक
समाज और प्राचीन मान्यता नदियों और जल को ले कर बहुत अलग थी , बड़ी नदियों से
दूर घर-बस्ती हो . बड़ी नदी को अविरल बहने दिया जाए . कोई बड़ा पर्व या त्यौहार हो
तो बड़ी नदी के किनारे एकत्र हों, स्नान करें और पूजा करें . छोटी नदी , या तालाब
या झील के आसपास बस्ती . यह जल संरचना दैनिक कार्य के लिए जैसे स्नान, कपडे धोने,
मवेशी आदि के लिए . पीने की पानी के लिए घर- आँगन, मोहल्ले में कुआँ , जितना जल
चाहिए, श्रम करिए , उतना ही रस्सी से खींच कर निकालिए . अब यदि बड़ी नदी बहती रहेगी तो
छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा , यदि तालाब और छोटी नदी में पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में कभी जल की
कमी नहीं होगी .
एक मोटा अनुमान है कि आज भी
देश में कोई 12 हज़ार छोटी ऐसी नदियाँ हैं , जो उपेक्षित है , उनके अस्तित्व पर
खतरा है . उन्नीसवीं सदी तक बिहार(आज
के झारखंड को मिला कर ) कोई छः हज़ार
नदियाँ हिमालय से उतर कर आती थी, आज
इनमें से महज 400 से 600 का ही
अस्तित्व बचा है . मधुबनी, सुपौल में बहने
वाली तिलयुगा नदी कभी कौसी से भी विशाल हुआ करती थी, आज उसकी जल धरा सिमट कर कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है .
सीतामढ़ी की लखनदेई नदी को तो सरकारी
इमारतें ही चाट गई. नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड के दर्द साथ –साथ
चलने की कहानी देश के हर जिले और कसबे की
है . लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है , उन्हें
यह समझने में दिक्कत हो रही हैं कि धरती की कोख में जल भण्डार तभी लबा-लब रहता है, जब पास बहने वाली नदिया
हंसती खेलती हो .
अंधाधुंध रेत खनन ,
जमीन पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण , ही छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं – दुर्भाग्य
से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं हैं, उनको शातिर तरीके से नाला बता दिया जाता है , जिस
साहबी नदी पर शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है,
उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं हैं , झारखण्ड- बिहार
में बीते चालीस साल के दौरान हज़ार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गई , हम यमुना में पैसा लगाते हैं लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं – कुल
मिला कर यह नल खुला छोड़ कर पोंछा
लगाने का श्रम करना जैसा है .
छोटी नदी केवल पानी के आवागमन का साधन नहीं
होती . उसके चारो तरफ समाज भी होता है और
पर्यावरण भी . नदी किनारे किसान भी है और
कुम्हार भी, मछुआरा भी और धीमर भी – नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से ले कर
कुएं तक में जल का संकट हुआ – सो परोक्ष और अपरोक्ष समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं
है जो
इससे प्रभावित नहीं हुआ हो . नदी- तालाब से जुड़ कर पेट पालने वालों का जब
जल-निधियों से आसरा ख़त्म हुआ तो मजबूरन
उन्हें पलायन करना पड़ा. इससे एक तरफ जल
निधियां दूषित हुईं तो दूसरी तरफ बेलगाम
शहरीकरण के चलते महा नगर अरबन स्लम में बदल रहे हैं . स्वास्थ्य , परिवहन और शिक्षा
के संसाधन महानगरों में केन्द्रित होने के कारण ग्रामीण सामाजिक- आर्थिक संतुलन भी
इससे गड़बड़ा रहा है . जाहिर है कि नदी-
जीवी लोगों की निराशा ने समूचे समाज को समस्याओं की नई सौगात दी है .
सबसे पहले छोटी नदियों का एक सर्वे और उसके जल
तन्त्र का दस्तावेजीकरण हो ,
फिर छोटी नदियों कि अविरलता सुनिश्चित हो, फिर
उससे रेत उत्खनन और अतिक्रमण को मानव-
द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए . नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें . नदी में पानी
रहेगा तो तालाब, जोहड़, सम्रद्ध रहेंगे और इससे कुएं या भू जल . स्थानीय इस्तेमाल के
लिए वर्षा जल को पारम्परिक तरीके जीला कर एक एक बूँद एकत्र किया जाए , नदी के किनारे कीटनाशक के
इस्तेमाल, साबुन और
शौच से परहेज के लिए जन जागरूकता और वैकल्पिक
तंत्र विकसित हो . सबसे बड़ी बात नदी को सहेजने का जिम्मा स्थानीय समाज, खासकर उससे
सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए , जैसे कि मद्रास से पुदुचेरी तक ऐरी के रखरखाव के जल-
पंचायत हैं .
जरा बारीकी से देखें जो छोटी नदियाँ बरसात में हर बून को खुद में समेत लेती
थी, दो महीने उनका विस्तार होता था , फिर वे धीरी धीर स्थानीय उपयोग और माध्यम
नदियों को अपनी जल निधि साझा करती थी, सो कभी बाढ़ आती नहीं थी . अब ऐसी छोटी नदियों मुख्य धारा के मार्ग में अतिक्रमण
होता जा रहा है । नदी के कछार ही नहीं प्रवाह मार्ग में ही लोगों ने मकान बना लेते
हैं । कई जगह धारा को तोड़ दिया जाता है । साल के अधिकांश महीनों में छोटी नदियाँ
पगडंडी और ऊबड़–खाबड़ मैदान के रूप में तब्दील होकर रह गई है ।
जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम अब सामने आ
रहे हैं . ऐसे में छोटी नदियाँ बाढ़ से
बचाव के साथ साथ धरती के तापमान को
नियंत्रित रखने , मिटटी की नमी बनाए रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य
हैं . नदी तट से अतिक्रमण हटाने, उसमें से
बालू-रेत उत्खनन को नियंत्रित करने , नदी की गहराई के लिए उसकी समय
समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है , सबसे बड़ी बात समाज यदि इन नदियों
को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे समाज
का ही भविष्य उज्जवल होगा .
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