कूड़ादान बना है रेल पथ
पंकज चतुर्वेदी
अभी
छह जुलाई 2024 को केरल हाईकोर्ट ने एक सतह
संज्ञान मामले में कड़ी शब्दों में कहा कि रेलवे , थोक में कचरा उपजा रहा है क्योंकि पटरियों पर पाया जाने
वाला अधिकांश कचरा ट्रेनों से आता है। न्यायालय ने कहा कि रेलवे का कर्तव्य है कि
वह पटरियों के करीब कचरा फैंकना बंद करे । अदालत ने कहा कि पटरियों पर फेंका गया
कचरा जल निकायों में बह जाता है जिससे पर्यावरण को काफी नुकसान होता है। हालांकि
स्टेशनों के पास कचरे का उचित प्रबंधन किया जाता है, लेकिन पटरियों के किनारे से
कचरे को हटाने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए जाते हैं। न्यायालय ने कहा कि डंपिंग
का एक कारण यह है कि डिब्बों में पर्याप्त कचरा डिब्बे नहीं हैं।
कहते हैं कि भारतीय रेल हमारे समाज का असल आईना है। इसमें इंसान नहीं, बल्कि देश के सुख-दुख, समृद्धि- गरीबी, मानसिकता- मूल व्यवहार जैसी कई मनोवृत्तियां सफर करती हैं। भारतीय रेल 66 हजार किलोमीटर से अधिक के रास्तों के साथ दुनिया का तीसरा सबसे वृहत्त नेटवर्क है, जिसमें हर रोज बारह हजार से अधिक यात्री रेल और कोई सात हजार मालगाड़ियां 24 घंटे दौड़ती हैं। अनुमान है कि इस नेटवर्क में हर रोज कोई दो करोड़ तीस लाख यात्री तथा एक अरब मीट्रिक टन सामान की ढुलाई होती है। दुखद है कि पूरे देश की रेल की पटरियों के किनारे गंदगी, कूड़े और सिस्टम की उपेक्षा की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। कई जगह तो प्लेटफार्म भी अतिक्रमण, अवांछित गतिविधियों और कूड़े का ढेर बने हुए हैं।
देश की राजधानी दिल्ली से आगरा के रास्ते दक्षिणी राज्यों, सोनीपत-पानीपत के रास्ते पंजाब, गाजियाबाद की ओर से पूर्वी भारत, गुडगांव के रास्ते जयपुर की ओर जाने वाले किसी भी रेलवे ट्रैक को दिल्ली षहर के भीतर ही देख लें तो जाहिर हो जाएगा कि देश का असली कचरा घर तो रेल पटरियों के किनारे ही संचालित हैं। सनद रहे ये सभी रास्ते विदेशी पर्यटकों के लोकप्रिय रूट हैं और जब दिल्ली आने से 50 किलोमीटर पहले से ही पटरियों के दोनों तरफ कूड़े, गंदे पानी, बदबू का अंबार दिखता है तो उनकी निगाह में देश की कैसी छबि बनती होगी। सराय रोहिल्ला स्टेशन से जयपुर जाने वाली ट्रैन लें या अमृतसर या चंडीगढ़ जाने वाली वंदे भारत , जिनमें बड़ी संख्या में एनआरआई भी होते हैं, गाड़ी की खिड़की से बाहर देखना पसंद नहीं करते। इन रास्तों पर रेलवे ट्रैक से सटी हुई झुग्गियां, दूर-दूर तक खुले में शौच जाते लोग उन विज्ञापनों को मुंह चिढ़ाते दिखते हैं जिसमें सरकार के स्वच्छता अभियान की उपलब्धियों के आंकड़े चिंघाड़ते दिखते हैं।
असल में रेल पटरियों के किनारे की कई-कई हजार
एकड़ भूमि अवैध अतिक्रमणों की चपेट में
हैं। इन पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भूमाफिओं का कब्जा है जो कि वहां रहने वाले
गरीब मेहनतकश लोगों से वसूली करते हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लेगां के
जीवकोपार्जन का जरिया कूड़ा बीनना या कबाड़ी का काम करना ही हैं। ये लोग पूरे शहर का
कूड़ा जमा करते हैं, अपने
काम का सामान निकाल कर बेच देते हैं और बकाया को रेल पटरियों के किनारे ही फैंक देते हैं ,
जहां
धीरे-धीरे गंदगी के पहाड़ बन जाते हैं। यह भी आगे चल कर नई झुग्गी का
मैदान होता है।
दिल्ली से फरीदाबाद रास्ते को ही लें,
यह
पूरा औद्योगिक क्षेत्र है। हर कारखने वाले
के लिए रेलवे की पटरी की तरफ का इलाका अपना कूड़ां, गंदा
पानी आदि फैंकने का निशुल्क स्थान होता हे। वहीं इन कारखानों में काम करने वालों
के आवास, नित्यकर्म का भी
बेरोकटोक गलियारा रेल पटरियों की ओर ही खुलता है।
कचरे का निबटान पूरे देश के लिए समस्या बनता
जा रहा है। यह सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिशत का
ईमानदारी से निबटान हो पाता है। राजधानी
दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष
या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है या फिर रेल पटरियों के किनारे फैंक
दिया जाता है। समूचे देश में कचरे का निबटान अब हाथ से बाहर निकलती समस्या बनता जा
रहा है।
पटरियों के किनारे जमा कचरे में खुद रेलवे का
भी बड़ा योगदान है। खासकर शताब्दी,
वंदे भारत , राजधानी जैसी प्रीमियम गाड़ियों में, जिसमें
ग्राहक को अनिवार्य रूप से तीन से आठ बार तक भोजन परोसने होते हैं। इन दिनों पूरा
भोजन पेक्ड और एक बार इस्तेमाल होने वाले
बर्तनों में ही होता है। यह हर रोज होता है कि अपना मुकाम आने से पहले खानपान
व्यवस्था वाले कर्मचारी बचा भोजन, बोतल,
पैकिंग
सामग्री के बड़े-बड़े थप्पे चलती ट्रैन से पटरियों के किनारे ही फैंक देते हैं। यदि
हर दिन एक रास्ते पर दस डिब्बों से ऐसा कचरा फैंका जाए तो जाहिर है कि एक साल में
उस वीराने में प्लास्टिक जैसी नश्ट ना होने वाली चीजों का अंबार हागा। कागज,
प्लास्टिक,
धातु जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर
रिसाईकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने
की चीजें, मरे हुए जानवर आदि
कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है,
जो
हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है । उल्लेखनीय है कि यही हाल इंदौर या
पटना या बंगलूरू या गुवाहाटी या फिर इलाहबाद रेलवे ट्रैक के भी हैं। शहर आने से
पहले गंदगी का अंबार पूरे देश में एकसमान ही है।
राजधानी दिल्ली हो या फिर दूरस्थ कस्बे का
रेलवे प्लेटफार्म, निहायत
गंदे, भीड़भरे,
अव्यवस्थित
और अवांछित लोगों से भरे होते हैं, जिनमें
भिखारी से ले कर अवैध वैंडर और यात्री को छोड़ने आए रिश्तेदारों से ले कर
भांति-भांति के लोग होते हैं। ऐसे लेग रेलवे की सफाई के सीमित संसाधनों को तहर-नहस
कर देते हैं। कुछ साल पहले बजट में ‘रेलवे स्टेशन विकास निगम’ के गठन की घोषणा की
गई थी, जिसने रेलवे स्टेशन
को हवाई अड्डे की तरह चमकाने के सपने दिखाए थे। कुछ स्टेशनों पर काम भी हुआ,
लेकिन
जिन पटरियों पर रेल दौड़ती है और जिन रास्तों से यात्री रेलवे व देश की सुंदर छबि
देखने की कल्पना करता है, उसके
उद्धार के लिए रेलवे के पास ना ता कोई रोड़-मेप हैं और ना ही परिकल्पना।
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