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बुधवार, 28 अगस्त 2024

game in the market, game market

 

बाजार में खेल, खेल का बाजार

पंकज चतुर्वेदी



यह हर बार होता है कि जब ओलंपिक या कोई अंतर्राष्ट्रीय  खेल स्पर्धा समाप्त होती हैं औरर भारत के खिलाड़ी अपेक्षा से बहुत काम सफलता के बाद लौटते हैं तो  आलोचन, व्यंग, व्यवस्था में सुधार  की मांग और सुझाव का एक हफ्ते का दौर चलता है, और फिर  सब कुछ पुराने  ढर्रे पर आ जाता है – खिलाड़ी को न सुविधा,  न सम्मान । जो सफल हो कर आए उन्हें  झोली भर भर कर पुरस्कार और  व्यावसायिक विज्ञापन  भी  लेकिन  सफलता पाने को मेहनत करने वालों को न्यूनतम  सहयोग भी नहीं ।  सफल खिलाड़ी व  तैयारी कर रहे प्रतिभावान खिलाड़ी के बीच की इस असीम दूरी की कई घटनाएं आए रोज सामने आती हैं । उसके बाद वही संकल्प दुहराया जाता है कि ‘‘कैच देम यंग’’ और फिर वही खेल का ‘खेल’ शुरू  हो जाता है।





एरिक प्रभाकर! यह नाम कई के लिये नया हो सकता है लेकिन अगर आप भारतीय ओलंपिक के इतिहास को खंगालेंगे तो इस नाम से भी परिचित हो जाएंगे। 23 फरवरी 1925 को जन्में प्रभाकर ने 1948 में लंदन ओलंपिक में भारत की तरफ से 100 मीटर फर्राटा दौड़ में हिस्सा लिया था। उन्होंने 11.00 सेकेंड का समय निकाला और क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे। महज षुरू दशमलव तीन सेंकड से वे पदक के लिए रह गए थे। हालांकि  सन 1944 में वे 100 मीटर के लिए 10.8 सेकंड का बड़ा रिकार्ड बना चुके थे। वे सन 1942 से 48 तक लगातार छह साल 100400 मीटर दौड के राश्ट्रीय चेंपियन रहे थे।  उस दौर में अर्थशास्त्र में एमए, वह भी गोल्ड मेडल के साथ, फिर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शिक्षा के लिए रोड्स फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय, यही नहीं आजाद भारत की पहली आईएएस में चयनित श्री एरिक प्रभाकर की किताब  ‘द वे टु एथलेटिक्स गोल्ड’ सन 1994 में आई थी व बाद में उसका हिंदी व कई अन्य भारतय भाशाओं में अनुवाद नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापा। 


काश हमारे खेल महकमे में से किसी जिम्मेदार ने उस पुस्तक को पढ लिया होता। उन्होंने बहुत बारीकी से और वैज्ञानिक तरीके से समझाया है कि भारत में किस तरह से सफल एथलीट तैयार किये जा सकते हैं। उन्होंने इसमें भौगोलिक स्थिति, खानपान चोटों से बचने आदि के बारे में भी अच्छी तरह से बताया है। भारतीय खेलों के कर्ताधर्ताओ हो सके तो कभी यह किताब पढ़कर उसमें दिये गये उपायों पर अमल करने की कोशिश करना। यदि वह पुस्तक हर खिलाड़ी, हर कोच, प्रत्येक खेल संघ के सदस्यों को पढने और उस पर ईमादारी से मनन करने को दी जाए तो मैं गारंटी से कह सकता हूं कि परिणाम अच्छे निकलेंगे। कुछ दशक पहले तक स्कूलों में राष्ट्रीय खेल प्रतिभा खोज जैसे आयोजन होते थे जिसमें दौड, लंबी कूद, चक्का फैक जैसी प्रतियोगिताओं में बच्चों को प्रमाण  पत्र व ‘सितारे’ मिलते थे। वे प्रतियोगिताएं स्कूल स्तर, फिर जिला स्तर और उसके बाद राष्ट्रीय  स्तर तक होती थीं। तब निजी स्कूल हुआ नहीं करते थे या बहुत कम थे और कई बार स्कूली स्तर पर राश्ट्रीय रिकार्ड के करीब पहुंचने वाली प्रतिभाएं भी सामने आती थीं। जिनमें से कई आगे जाते थे। ऐसी प्रतिभा खेज की नियमित पद्धति अब हमारे यहां बची नहीं है।

लेकिन चीन, जापान के अनुभव बानगी हैं कि ‘‘केच देम यंग’’ का अर्थ है कि सात-आठ साल से कड़ा परिश्रम, सपनों का रंग और तकनीक सिखाना। चीन की राजधानी पेईचिंग में ओलंपिक के लिए बनाया गया ‘बर्डनेस्ट स्टेडियम’ का बाहरी हिस्सा पर्यटकों के लिए है लेकिन उसके भीतर सुबह छह बजे से आठ से दस साल की बच्चियां दिख जाती है। वहां स्कूलों में खिलाड़ी बच्चों के लिए शिक्षा की अलग व्यवस्था होती है, तोकि उन पर परीक्षा जैसा दवाब ना हो। जबकि दिल्ली में स्टेडियम में सरकारी कार्यालय व सचिवालय चलते हैं। कहीं षादियां होती हैं। महानगरों के सुरसामुखी विस्तार, नगरों के महानगर बनने की लालसा, कस्बों के शहर बनने की दौड़ और गांवों के कस्बे बनने की होड़ में मैदान, तालाब, नदी बच नहीं रहे हैं , जहां  स्वाभाविक खिलाड़ी उन्मुक्त  प्रेक्टिस किया करते थे। मैदान कंक्रीट के जंगल के उदरस्थ हुए तो खेल का मुकाम क्लब या स्टेडियम में तब्दील हो गया। वहां जाना, वहां की सुविधाओं का इस्तेमाल करना आमोखास के बस की बात होता नहीं ।

 फिर खेल एसोशिसन की राजनीति तो है ही । हाल के पेरिस ओलंपिक में ऐसे राज्यों से भी दो-दो  लोग गए जहां से कोई खिलाड़ी ही नहीं गया । सैंकड़ाभर से ज्यादा गैर खिलाड़ियों के दल ने कर दिया है। यह कटु सत्य है कि विजेता खिलाड़ियों पर जिस तरह से लोग  पैसा लुटाते हैं असल में यह उनका खेल के प्रति प्रेम या खिलाड़ी के प्रति सम्मान नही होता, यह तो महज बाजार में आए एक नए नाम पर निवेश होता है। क्रिकेट की बानगी सामने है, जिसमें ट्रैनिंग से ले कर आगे तक कारपोरेट घरानों का सहयोग व संलिप्तता है।

हमारे यहां बच्चों के लिए, शिक्षा के लिए किए जा रहे काम को जिम्मेदारी से ज्यादा धर्माथ का काम माना जाता है और तभी स्कूलों, हॉस्टल, खेल मैदान, खिलाड़ियों की दुर्गति, स्कूली टूर्नामेंट स्तर पर खिलाड़ियों को ठीक से खाना तक नहीं मिलना जैसी बातों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता। हुक्मुरान समझते हैं कि ‘‘इतना कर दिया वह कम है क्या’’। मुल्क का हर बच्चा भलीभांति विकसित हो, शिक्षित हो, उसकी प्रतिभा को निखरने का हरसंभव परिवेश मिले, यह देश के लिए अनिवार्य है, ना कि इसके लिए किए जा रहे सरकारी बजट का व्यय कोई दया । यह भाव जब तक पूरी मशीनरी में विकसित नहीं होगा, हम बालपन में उर्जावान, उदीयमान और उच्च महत्वाकांक्षा वाले बच्चों को सही ऊंचाई तक नहीं ले जा पांगे।

अब समाज को ही अपनी प्रतिभाओं को तलाशने, तराशने का काम अपने जिम्मे लेना होगा। किस इलाके की जलवाय कसी है और वहां किस तरह के खिलाड़ी तैयार हो सकते हें इस पर वैज्ञानिक तरीके से काम हो। जैसे कि समुंद के किनारे वाले इलाकों में दौड़ने का स्वाभाविक प्रभाव होता हे। पूर्वोत्तर में शरीर का लचीलापन है तो वहां जिम्नास्टिक, मुक्केबाजी पर काम हो। झारखंड व पंजाब में हाकी। ऐसे ही इलाकों का नक्शा बना कर प्रतिभाओं को उभारने का काम हो। जिला स्तर पर समाज के लेगों की समितियां, स्थानीय व्यापारी और खेल प्रेमी ऐसे लेगों को तलाशें। इंटरनेट की मदद से उनके रिकार्ड को आंकड़ों के साथ प्रचारित करें। हर जिला स्तर पर अच्छे एथलेटिक्स के नाम सामने होना चाहिए। वे किन प्रतिस्पर्दाओं में जाएं उसकी जानकारी व तैयारी का जिम्मा जिला खेल कमेटियों का हो। बच्चों को संतुलित आहार, खेलने  का ,माहौल, उपकरण मिलें , इसकी पारदर्शी व्यवस्था हो और उसमें स्थानीय व्यापार समूहों से सहयोग लिया जाए। सरकार किसी के दरवाजे जाने से रही, लोगों  को ही ऐसे खिलाड़ियों  को शासकीय योजनाओं का लाभ दिलवाने के प्रयास करने होंगे। सबसे बड़ी बात जहां कहीं भी बाल प्रतिभा की अनदेखा या दुभात होती दिखे, उसके खिलाफ जोर से आवाज उठानी होगी।

सोमवार, 12 अगस्त 2024

Independence, partition and the third party

 

            आज़ादी, विभाजन और तीसरा पक्ष
                    पंकज चतुर्वेदी



 

विज्ञापनों से लदे फदे  अखबार और अपनी फोटो तिरंगे के साथ चस्पा कर आ रहे  व्हाट्सएप संदेशों ने जता दिया कि आज़ाद भारत को 77 साल हो गये – कोई विभाजन की त्रासदी के दर्द में अपने वोट खोज कर उसे मना रहा है तो कोई विज्ञापन के साथ प्रेसनोट जारी कर यह खबर पहले पन्ने पर लाने की कोशिश कर रहा है कि विभाजन के असली दोषी नेहरु ही थे. आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस एक प्रमुख दल था लेकिन  हिन्दू महासभा , मुस्लिम लीग, अकाली दल सहित कई दल भी इसमें शामिल थे , यह सच है कि  अधिकांश दल आज़ादी के बाद अपना अलग हिस्सा चाहते थे लेकिन आज़ादी कुछ साल आगे ही इस लिए खिसकी कि कांग्रेस पहले विभाजित आज़ादी के पक्ष में नहीं थी . फिर भी विभाजन देखना पड़ा , तो क्या बाकी  द्लोंकी इसमें कोई भूमिका थी ?



यदि सवाल किया जाए कि क्या देश की आजादी के लिए उसका विभाजन अनिवार्य था? क्या सावरकार की  हिन्दू महासभा का कोई ऐसा दखल आजादी  की लड़ाई में था कि विभाजन रूक जाता ? यदि उस काल की परिस्थितियों, जिन्ना के सांप्रदायिक कार्ड और ब्रितानी सरकार की फूट डालो वाली नीति को एकसाथ रखें तो स्पष्ट  हो जाता है कि भारत की जनता लंबे संघर्ष  के परिणाम ना निकलने से हताश हो रही थी और यदि तब आजादी को विभाजन की र्त पर नहीं स्वीकारा जाता तो देश भयंकर सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ जाता और उसके बाद आजादी की लड़ाई कुंद हो जाती।  अभी तक कोई दस्तोवज, घटना या साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसमें जेल से लौटने के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति तक कोई 27 साल के दौरान सावरकर द्वारा ब्रितानी हुकुमत के विरूद्ध कोई भाषण , आंदोलन, लेख, आदि उपलब्ध नहीं है। सो साफ है कि वह आजादी  की बातचीत में कोई पक्ष थे ही नहीं।  यदि उन दिनों के हालात पर गौर करें तो धार्मिक, जातीय या सांस्कृतिक टकराव और शासन के कारण पैदा किए गए तनाव  आपस में गुथ कर इस स्थिति में पहुंच गए थे कि या तो गृह युद्ध स्वीकार करो या विभाजन की षर्त पर आजादी। हां, यह हालात को गर्मी देने में मुसिलम लीग के विभाजनकारियों के साथ हिंदु महासभा जरूर कदम से कदम मिला रही थी।


देश का विभाजन क्यों जरुरी था ? इस पर पहले भी बहुत लिखा गया – लेकिन जान लें कि स्वतंत्रता संग्राम में सीधा संघर्ष केवल कांग्रेस कर रही थी – हिन्दू महासभा की भूमिका संदिग्ध थी और इसी लिए उसके साथ जनसमर्थन नहीं था. तीनों गोलमेज कॉन्फ्रेंस में हिन्दू महासभा मौजूद थी लेकिन उने द्वारा दिए गए सुझाव , परिकल्पना आदि न प्रभावी रहे न उल्लेखनीय. जहां तक लन्दन पहुँच की बात रही – नेहरु से पहले लन्दन तक पहुँच तो सावरकर की थी –महान मनीषी और स्वतंत्रता के दीवाने श्याम जी कृष्ण वर्मा के “इंडिया हाउस “ में किस तरह सावरकर ने हत्यारे तैयार किये और  श्यामजी वर्मा द्वारा संकल्पित अआज़दी का मॉडल नष्ट हुआ, उन्हें ब्रिटेन छोड़ कर जाना पडा – वह सब एक अलग कहानी है – लेकिन लन्दन दरबार में सावरकर की पहुँच नेहरु और कांग्रेस से पहले की थी – पहले आम चुनाव में कांग्रेस एक दल था और दूसरा  मुस्लिम लीग – कांग्रेस एक समूचे देश की आज़ादी की बात कर रहा था और  मुस्लिम लीग अलग से मुस्लिम देश की – मास्टर तारा सिंह कीसिख राज की मांग बहुत छोटे से हिस्से में थी – हिन्दू महासभा भी थी – वह हिन्दुओं के अलग देश  अर्थात मुस्लिम लीग के सिक्के के दुसरे पहलु के रूप में थी . जनता ने मुस्लिम लीग और महासभा दोनों  को नकार दिया और एक राज्य में लीगी और महासभा वालों को साथ में  सरकार चलानी पड़ी.

सन 1935 में अंग्रेज सरकार ने एक एक्ट के जरिये भारत में प्रांतीय असेंबलियों में निर्वाचन के जरिये सरकार को स्वीकार किया। सन 1937 में चुनाव हुए। जान लें इसी 1937 से 1942 तक  सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे और चुनाव परिणाम में देश की जनता ने उहें हिंदुओं की आवाज मानने से इंकार कर दिया था। इसमें कुल तीन करोड़ 60 लाख मतदाता थे, कुल वयस्क आबादी का 30 फीसदी जिन्हें विधानमंडलों के 1585 प्रतिनिधि चुनने थे। इस चुनाव में मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित की गई थीं। कांग्रेस ने सामान्य सीटों में कुल 1161 पर चुनाव लड़ा और 716 पर जीत हांसिल की। मुस्लिम बाहुल्य 482 सीटों में से 56 पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा व 28 पर जीत हांसिल की। 11 में से छह प्रांतों में उसे स्पष्ट  बहुमत मिला।

ऐसा नहीं कि मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग को सफलता मिली हो, उसकी हालत बहुत खराब रही व कई स्थानीय  छोटे दल कांग्रेस व लीग से कहीं ज्यादा सफल रहे।  पंजाब में मुस्लिम सीट 84 थीं और उसे महज सात सीट पर उम्मीदवार मिल पाए व जीते दो। सिंध की 33 मुस्लिम सीटों में से तीन और बंगाल की 117 मुस्लिम सीटों में से 38 सीट ही लीग को मिलीं। यह स्पष्ट  करती है कि मुस्लिम लीग को मुसलमान भी गंभीरता से नहीं लेते थे।

हालांकि इस चुनाव में मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ उत्तर प्रदेश चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन नेहरू ने साफ मना कर दिया। यही नहीं 1938 में नेहरू ने कांग्रेस के सदस्यों की लीग या हिंदू महा सभा दोनों  की सदस्यता या उनकी गतिविधियों में शामिल होने पर रोक लगा दी।  1937 के चुनाव में आरक्षित सीटों पर लीग महज 109 सीट ही जीत पाई। लेकिन सन 1946 के चुनाव के आंकड़ें देखे तो पाएंगे कि बीते नौ सालों में मुस्लिम लीग का सांप्रदायिक एजेंडा खासा फल-फूल गया था।  केंद्रीय विधान सभा में मुसलमानों के लिए आरक्षित सभी 60 सीटों पर लग जीत गई। राष्ट्रवादी  मुसलमान महज 16 सीट जीत पाए जबकि हिंदू महासभा को केवल दो सीट मिलीं। जाहिर है कि हिंदुओं का बड़ा तबका कांग्रेस को अपना दल मान रहा था, जबकि लीग ने मुसलमानों में पहले से बेहतर स्थिति कर ली थी।  यदि 1946 के राज्य के आंकड़े देखें तो मुस्लिम आरक्षित सीटों में असम में 1937 में महज 10 सीठ जीतने वाली लीग 31 पर, बंगाल में 40 से 113, पंजाब में एक सीट से 73 उत्तर प्रदेश  में 26 से 54 पर लीग पहुँच गई थी। हालांकि इस चुनाव में कां्रगेस को 1937 की तुलना में ज्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन लीग ने अपने अलग राज्य के दावे को इस चुनाव परिणाम से पुख्ता कर दिया था।

वे लोग जो कहते हैं कि यदि नेहरू जिद नहीं करते व जिन्ना को प्रधानमंत्री मान लेते तो देश का विभाजन टल सकता था, वे सन 1929 के जिन्ना- नेहरू समझौते की शर्तों  के उस प्रस्ताव को गौर करें,(क्या देश का विभाजन अनिवार्य ही था, सर्व सेवा संघ पृ. 145) जिसमें जिन्ना   नौ शर्तें  थीं जिनमें  मुसलमानें को गाय के वध की स्वतंत्रता, वंदेमातरम गीत ना गाने की छूट और तिरंगे झंडे में लीग के झंडे को भी शामिल करने की बात थी और उसे नेहरू ने बगैर किसी तर्क के  अस्वीकार कर दिया था।

सन 1940 के लाहौर सम्मेलन में भी जिन्ना ने कहा था - ‘‘  िंहंदू और मुसलमान एक जाति में विकसित होंगे, यह एक सपना ही है। उनके धर्म, दर्शन समाजिक रहन-सहन अलग हैं। वे आपस में षादी नहीं करते, एकसाथ खाते भी नहीं। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के रास्ते में हदीस और कुरान के निर्देशों का हवाला दे कर अलग देश की मांग को जायज ठहराया।’’ हालांकि मौलाना अब्दुल कलाम आजाद सहित कई राष्ट्रवादी नेताओं ने इसे मिथ्या  करार दिया लेकिन इस तरह के जुमलों से लीग ने अपना आधार मजबूत कर लिया।

इससे पहले सन 1937 के चुनाव में अपने ही लोगों के बीच हार से बौखला कर जिन्ना ने  कांग्रेस मंत्रीमंडलों के विरूद्ध जांच दल भेजने, आरोप लगाने, आंदोलन करने आदि शुरू  कर दिए थे। उस दौर में कांग्रेस की नीतियां भी राज्यों में अलग-अलग थी । जैसे कि संयुक्त प्रांत में कांग्रेस भूमि सुधार के बड़े बदलाव की समर्थक थी लेकिन पंजाब में वह इस मसले पर तटस्थ थी। मामला केवल जमीन का नहीं था, यह बड़े मुस्लिम जमींदारों के हितों का था। सन 1944 से 1947 तक भारत के वायसराय रहे फीलड मार्शल ए पी बेवेल के पास आजादी और स्वतंत्रता को अंतिम रूप देने का जिम्मा था और वह मुस्लिम लीग से नफरत करता था। उसके पीछे भी कारण था- असल में जब भी वह लीग से पाकिस्तान के रूप में राष्ट्र  का नक्शा चाहता, वे  सत्ता का संतुलन या मनोवैज्ञानिक प्रभाव जैसे भावनात्मक मुद्दे पर तकरीर करने लगते, ना उनके पास कोई भौगोलिक नक्शा था ना ही उसकी ठोस नीति।  एक तरह से कांग्रेस व अंग्रेज दोनो ही भारत का विभाजन नहीं चाहते थे। उन दिनों ब्रितानी हुकुमत के दिन गर्दिश में थे, ऐसे में अंग्रेज संयुक्त भारत को आजादी दे कर यहां अपनी विशाल सेना का अड्डा बरकरार रख  दुनिया में अपनी धाक की आकांक्षा रखते थे। वे लीग और कांग्रेस के मतभेदों का बेजा फायदा उठा कर ऐसा तंत्र चाहते थे जिसमें सेना के अलावा पूरा शासन दोनों दलों के हाथो में हो ।

नौ अप्रेल 1946 को पाकिस्तान के गठन का अंतिम प्रस्ताव पास हुआ था। उसके बाद 16 मई 1946 के प्रस्ताव में हिंदू, मुस्लिम और राजे रजवाडों की संयुक्त संसद का प्रस्ताव अंग्रेजों का था।  19 और 29 जुलाई 1946 को नेहरू ने संविधान संप्रभुता पर जोर देते हुए सैनिक  भी अपने देश को होने पर बल दिया। फिर 16 अगस्त  का वह जालिम दिन आया जब जिन्ना ने सीधी कार्यवाही के नाम पर खून खराबे का ख्ेल खेल दिया।  हिंसा गहरी हो  गई और बेवेल की योजना असफल रही।  हिंसा अक्तूबर तक चलती रही और देश में व्यापक टकराव के हालात बनने लगे। आम लोग अधीर थे, वे रोज-रोज के प्रदर्शन, धरनों, आजादी की संकल्पना और सपनों के करीब आ कर छिटकने से हताश थे और इसी के बीच विभाजन को अनमने मन से स्वीकार करने और हर हाल में ब्रितानी हुकुमत को भगा देने पर मन मसोस कर सहमति बनी। हालांकि केवल कांग्रेसी ही नहीं, बहुत से लीगी भी यह मानते थे कि एक बार अंग्रेज चलें जाएं फिर दोनो देश  एक बार फिर साथ हो जाएंगे।

आजादी की घोषणा  के बाद बड़ी संख्या में धार्मिक पलायन और घिनौनी हिंसा, प्रतिहिंसा, लूट, महिलओं के साथ पाशविक व्यवहार, ना भूल पाने वाली नफरत में बदल गया। खोया देने तरफ के लोगों ने। पाकिस्तान बनने के हिमायती जमींदार आज  भले ही संपन्न हों लेकिन वे आम आदमी जो उप्र, बिहार से पलायन कर गया था आज मुहाजिर के नाम  उपेक्षा की जिंदगी जीता है, वे सामाजिक, आर्थिक  और शैक्षिक स्तर पर बेहद पिछड़े हैं। आजादी की लड़ाई, उसमें गांधी-नेहरू की भूमिका, विभाजन की त्रासदी को ले कर केवल नेहरू की आलोचन करना एक शगल सा बन गया है लेकिन उस समय के हालात को गौर करें तो कोई एक फैसला लेना ही था और आजादी की लड़ाई चार दशकों से  लड़ रहे लोगों को अपने अनुभवों में जो बेहतर लगा, उन्होंने ले लिया। कौन गारंटी देता है कि आजादी के लिए कुछ और दशक रूकने या ब्रितानी सेना को बनाए रखने के फैसले इससे भी भयावह होते।  कुल मिला कर आजादी-विभाजन आदि में हिन्दू महा सभा की कोई भूमिका थी तो बस यह कि वे भी  धर्म के आधार पर देश के विभाजन के पक्षधर थे।

 

 

शनिवार, 3 अगस्त 2024

Is this what a smart city is?

 

क्या ऐसी होती है स्मार्ट सिटी?
पंकज चतुर्वेदी





देश की राजधानी दिल्ली में  संसद भवन से बमुश्किल  चार किलोमीटर दूर  सीवर के पानी में डूब का  तीन होनहार बच्चे मर जाते हैं ।  रांची में एक बरसात में शहर दरिया बन गया । भोपाल में सड़क गड्ढों में तब्दील हो गई । याद करें सन 2014 में एन डी  ए सरकार बनने के बाद देश ने जिस महत्वाकांक्षी परियोजना से बहुत अधिक उम्मीदें पालीं  थीं उनमें  देश के 100 शहरों  को स्मार्ट सिटी बनाने का वायदा था ।  100 शहरों को स्मार्ट बनाने की जून 2024 की  समय सीमा  बीत चुकी है और सावन में  स्मार्ट सिटी पहले से अधिक डूब रही हैं। ये शहर अभी एक महीने पहले तक पानी के लिए भी वैसे ही तरस रहे थे जैसे कुछ सौ करोड़ खर्च करने से पहले ।



यदि सरकारी रिकार्ड की माने तो  जुलाई 2024 तक, 100 शहरों ने स्मार्ट सिटी मिशन के हिस्से के रूप में ₹ 1,44,237 करोड़ की राशि की 7,188 परियोजनाएं (कुल प्रोजेक्ट का 90 प्रतिशत) पूरी कर ली हैं। ₹ 19,926 करोड़ की राशि की शेष 830 परियोजनाएं भी पूरा होने के अंतिम चरण में हैं। वित्तीय प्रगति के मामले मेंमिशन के पास 100 शहरों के लिए ₹ 48,000 करोड़ का भारत सरकार का आवंटित बजट है। आज तकभारत सरकार ने 100 शहरों को ₹ 46,585 करोड़ (भारत सरकार के आवंटित बजट का 97 प्रतिशत) जारी किए हैं। शहरों को जारी किए गए इन फंडों में सेअब तक 93 प्रतिशत का उपयोग किया जा चुका है। मिशन ने 100 में से 74 शहरों को मिशन के तहत भारत सरकार की पूरी वित्तीय सहायता भी जारी कर दी है।भारत सरकार ने शेष 10 प्रतिशत परियोजनाओं को पूरा करने के लिए मिशन की अवधि 31 मार्च 2025 तक बढ़ा दी है। शहरों को सूचित किया गया है कि यह विस्तार मिशन के तहत पहले से स्वीकृत वित्तीय आवंटन से परे किसी भी अतिरिक्त लागत के बिना होगा।


 जानना जरूरी है कि स्मार्ट सिटी  की संकल्पना क्या थी ? इसमें शहर के एक छोटे से हिस्से को पर्याप्त पानी की आपूर्ति, निश्चित विद्युत आपूर्ति, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन सहित स्वच्छता, कुशल शहरी गतिशीलता और सार्वजनिक परिवहन, किफायती आवास, विशेष रूप से गरीबों के लिए, सुदृढ़ आई टी कनेक्टिविटी और डिजिटलीकरण, सुशासन, विशेष रूप से ई-गवर्नेंस और नागरिक भागीदारी, टिकाऊ पर्यावरण, नागरिकों की सुरक्षा और संरक्षा, विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों एवं बुजुर्गों की सुरक्षा, और स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए विकसित किया जाना था।  असल में भारत ने यूरोप की तर्ज पर हमारे शहरों को विकसित करना छह , जबकि भारत  में शहरीकरण की अवधारणा और कारण , यूरोप से बहुत भिन्न हैं । हमारे यहाँ रोजगार, बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे कारणों से शहरीकरण बढ़ रहा है और शहर में रहने वाली बड़ी आबादी के लिए शहर उनका घर नहीं, बल्कि कमाने की जगह है ।



एक तो यह बात लोगों को देर  से समझ आई कि जिन 100 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए इतना बड़ा बजट रखा गया है, असल में यह उस शहर के एक छोटे से हिस्से के पुनर्निर्माण की योजना है , कुछ शहरों में तो विशाल महानगर का महज एक फीसदी हिस्सा ही । दूसरा लोग अभी तक समझ नहीं पाए कि जो हिस्सा कागजों पर स्मार्ट हो गया है , उसमें जलभराव और जल- आपूर्ति जैसी मूलभूत सुविधायने  पहले से और अधिक खराब  क्यों हो गई है । अजमेर हो या अयोध्या , त्रिवेंद्रम या पटना , भोपाल या जयपुर – हर जगह पहले पाँच साल शहर के लोग बेतरतीब खुदाई से परेशान रहे , फिर जब कागजों पर स्मार्ट सिटी का काम पूरा होना दर्ज हो गया तो दिक्कतें और बढ़ गई ।


कुछ जगहों पर तो अंतिम समय में योजनों में कटौती कर दी गई । पुडुचेरी में स्मार्ट सिटी पहल के तहत यातायात, सीवेज, बाजार सुविधाओं और पार्किंग संबंधी समस्याओं को दूर करने के लिए नियोजित 66 विकास परियोजनाओं में से 32 को हाल ही में स्थगित कर दिया गया। परियोजनाओं का प्रारंभिक परिव्यय 1,056 करोड़ रुपये था, जो 34 परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिए लगभग 620 करोड़ रुपये रह गया है। केंद्र सरकार का कहना है कि उनके द्वारा उपलबद्ध करवाए गए बजट का इस्तेमाल बहुत काम हुआ इस लिए उन्होंने परियोजना को स्थगित कर दिया । स्थगित की गई परियोजनाओं में 21 करोड़ रुपये की लागत से लॉस्पेट और दुब्रायनपेट में 5.5 एमएलडी की क्षमता वाले दो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापित करने का प्रस्ताव भी शामिल है। यह ऐसे समय में हुआ है जब सीवेज प्रबंधन की समस्याएं गंभीर हो गई हैं, शहरी क्षेत्रों में मैनहोल से सीवेज का ओवरफ्लो हो रहा है और जहरीली गैस का रिसाव हो रहा है, ऐसी ही एक घटना में हाल ही में तीन लोगों की जान चली गई।

संसद की आवास और शहरी मामलों पर स्थायी समिति (अध्यक्ष: श्री राजीव रंजन) ने “स्मार्ट शहर मिशन: एक मूल्यांकन” पर अपनी रिपोर्ट 8 फरवरी 2024 को प्रस्तुत की थी जिसने परियोजन के अपेक्षित परिणाम न आने के कई कारण  गिनाए, जिसमें स्मार्ट सिटी मिशन का कार्यान्वयन करने वाले एस वी पी में स्थानीय शहरी निकायों  और राज्यों के शामिल होने और उनका जल्दी जल्दी तबादला होने कोई बात की गई है ।  वैसे भी एसपीवी मोडेल संविधान के 74 वें संशोधन के अनुरूप ही नहीं हैं। एक पहाड़ी शहर का सालाना बजट 100 करोड़ भी नहीं है और उसके सिर पर 2500 करोड़ की परियोजना का वजन डाल  दिया गया  । स्मार्ट सिटी के लिए गठित समिति की बैठकें  या नहीं होना या फिर बहुत काम होना, बैठक में सांसद आदि का काम शामिल होने की बात  इस रिपोर्ट में कही गई है जिससे परियोजना में जन प्रतिनिधियों के सुझाव कम ही शामिल हुए। संसदीय समिति ने बात कि अमरावती और इम्फाल में मंच बैठकें बिल्कुल नहीं हुईं और अन्य शहरों में अधिकतम आठ बैठकें पांच वर्षों में आयोजित की गईं। इसमें यह भी देखा गया कि सांसद राज्य स्तर के सलाहकार मंचों में शामिल नहीं हैं।  इस समिति ने भी माना कि समूचे शहर के बनिस्पत शहर के एक छोटे से हिस्से में ही स्मार्ट सिटी परियोजन होने से इसके समग्र परिणाम नहीं दिखे । कचरा प्रबंधन, पीने के पानी की आपूर्ति और यातायात प्रबंधन ऐसी चुनौतियाँ  हैं जिन्हे यदि पूरे शहर में एक समान लागू न किया जाए तो उनका सर दिखने से रहा ।

संसदीय समिति ने पाया कि स्मार्ट सिटी के लिए बड़ी मात्रा में निजी और सरकारी डाटा  एकत्र और इस्तेमाल तो किया गया लेकिन उसकी सुरक्षा पर कोई काम ही नहीं हुआ ।  समिति ने साइबर खतरों से डिजिटल अवसंरचना की रक्षा करने के लिए एक तंत्र बनाने और डेटा गोपनीयता बनाए रखने की सिफारिश की।समिति ने देखा कि स्मार्ट सिटी परियोजना  की प्रगति कई छोटे शहरों में धीमी है, जिनमें उत्तरी पूर्वी राज्यों के शहर भी शामिल हैं। कई स्मार्ट शहरों के पास हजार करोड़ परियोजनाओं की योजना बनाने और खर्च करने की क्षमता नहीं थी। केंद्र से 90% मिशन निधि प्रदान करने के बावजूद, मिशन प्रगति के मामले में 15 में से 8 सबसे निचले रैंकिंग वाले शहर उत्तर-पूर्व से हैं। दिसंबर 2023 तक, 20 सबसे निचले रैंकिंग वाले शहरों में 47% परियोजनाएं कार्य आदेश चरण में हैं। इसका सबसे बड़ा कारण स्थानीय शहरी निकाय का तकनीकी और अन्य स्तर पर कमजोर होना और इत्तनी बड़ी परियोजनाओं की निगरानी में अक्षम होना है । यह बानगी है कि केंद्र सरकार ने योजना में सहारों को शामिल करते समय स्थानीय परिस्थियों के बनिस्पत लोकप्रियता  या वाहवाही लूटें पर अधिक ध्यान दिया और आज उसका खामियाजा सरकारी धन के सही तरीके से इस्तेमाल न होने के रूप में सामने हैं ।

इस संसदीय समिति ने समिति ने पाया कि योजना पब्लिक- प्राइवेट पार्टनरशिप की संकल्पना में यह बुरी तरह असफल रही और इस दिशा में छह प्रतिशत ही निजी भागीदारी हो सकी । सांसदों की समिति ने  सिफारिश की है कि मंत्रालय की भूमिका शेयरों के हस्तांतरण तक सीमित नहीं होनी चाहिए और उन्हें सुनिश्चित करने के लिए सतर्क रहना चाहिए कि परियोजनाओं का कार्यान्वयन और पूर्णता हो सके, इसके लिए उन्हें इनपुट और विशेषज्ञता के साथ हस्तक्षेप करना चाहिए।

हमारे शहरों में लगभग  49 प्रतिशत आबादी  झोंपड़ –झुग्गियों और कच्ची कालोनियों में रहती है और स्मार्ट सिटी की सबसे बड़ी मार इन पर विस्थापन  के रूप में पड़ी ।  कुछ जगह इन्हें नए स्थान पर बसाया गया तो इनके कार्य स्थल दूर हो गए , जिससे रोजगार की “स्मार्ट-दिक्कतें” इनके सामने खड़ी हो गई । काम के लिए अधिक दूर जाना और इस पर समय और परिवहन का व्यय बढ़ने से शहरों की स्मार्टनेस आम लोगों के लिए आफत बन गई । 

आज जब नए बजट में केंद्र सरकार ने फिर से नए कागजी महल खड़े किये हैं , किसी को तो जवाब मांगा चाहिए कि 100 स्मार्ट सिटी  और उस पर खर्च कई हजार करोड़ के बावजूद शहर तो क्या एक गली भी “स्मार्ट” क्यों नहीं हो पाई ।

How will the country's 10 crore population reduce?

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