My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 17 नवंबर 2024

How will the country's 10 crore population reduce?

 

                               

 

कैसे  कम होगी देश की दस करोड आबादी ?

पंकज चतुर्वेदी



 

हालांकि  झारखंड की कोई भी सीमा  बांग्लादेश या किसी अन्य देश को नहीं छूती है , इसके बावजूद वहाँ विधान सभा चुनाव में बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा गरम है । यह  कड़वा सच हैं कि हमारे देश के दूरस्थ अंचलों तक बांग्लादेश और वहीं के रास्ते म्यांमार  के रोहांगीय  घुसे हुए हैं । इनमें से बड़ी संख्या में इन  अवैध निवासियों ने मतदाता कार्ड, आधार आदि भी बनवा लिए हैं । हालांकि दिसंबर -23 में केंद्र सरकार  सुप्रीम कोर्ट में बताया चुकी है कि  सरकार के पाद अवैध निवासियों की संख्या का कोई ठीक-ठाक आंकड़ा है नहीं । नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए (2) विषयक एक सुनवाई में सरकार ने कोर्ट को हलफनामे में बताया था कि सन 2017 से 2022 के बीच अकेले असम  से अवैध रूप से रह रहे 14346  लोगों को बांग्लादेश वापिस भेजा गया। 


हमारे देश के सामने असली चुनौती तो इस देश में घुल-मिल गए बगैर बुलाए मेहमानों को पहचानने व उन्हें वापिस करने की है। उनकी भाषा, रहन-सहन और नकली दस्तावेज इस कदर हमारी जमीन से घुलमिल गए हैं कि उन्हें विदेशी सिद्ध करना लगभग नामुमकिन हो चुका है। ये लोग आते तो दीन हीन याचक बन कर हैं, फिर अपने देश को लौटने को राजी नहीं होते हैं । ऐसे लोगो को बाहर खदेड़ने के लिए जब कोई बात हुई, सियासत व वोटों की छीना-झपटी में उलझ कर रह गई । गौरतलब है कि पूर्वोत्तर राज्यों में अशांति के मूल में ये अवैध बांग्लादेशी ही हैं। आज जनसंख्या विस्फोट से देश की व्यवस्था लडखड़ा गई है । मूल नागरिकों के सामने भोजन, निवास, सफाई, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव दिनों -दिन गंभीर  होता जा रहा है । ऐसे में  अवैध बांग्लादे और रोहांगीया  कानून को धता बता कर भारतीयों के हक नाजायज तौर पर बांट रहे हैं । ये लोग यहां के बाशिंदों की रोटी तो छीन ही रहे हैं, देश के सामाजिक व आर्थिक समीकरण भी इनके कारण गड़बड़ा रहे हैं 



कुछ साल पहले  साल मेघालय हाई कोर्ट ने भी स्पष्ट  कर दिया था  कि सन 1971 के बाद आए सभी बांग्लादेशी अवैध रूप से यहां रह रहे है। अनुमान है कि आज कोई दस करोड़ के करीब बांग्लादेशी हमारे देश में जबरिया रह रहे हैं। 1971 की लड़ाई के समय लगभग 70 लाख बांग्लादेशी(उस समय का पूर्वी पाकिस्तान) इधर आए थे । अलग देश बनने के बाद कुछ लाख लौटे भी । पर उसके बाद भुखमरी, बेरोजगारी के शिकार बांग्लादेशियों का हमारे यहां घुस आना अनवरत जारी रहा । पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, त्रिपुरा  के सीमावर्ती  जिलों की आबादी हर साल बैतहाशा बढ़ रही है । नादिया जिला (प बंगाल) की आबादी 1981 में 29 लाख थी । 1986 में यह 45 लाख, 1995 में 60 लाख और 2011 की जनगणना में 51 लाख 67 हजार 600 हो गई थी । अनुमान हैं आज यह  80  लाख को पार कर चुकी है । बिहार में पूर्णिया, किशनगंज, कटिहार, सहरसा आदि जिलों की जनसंख्या में अचानक वृद्धि का कारण वहां बांग्लादेशियों की अचानक आमद ही है ।

अरूणाचल प्रदेश में मुस्लिम आबादी में बढ़ौतरी सालाना 135.01 प्रतिशत है, जबकि यहां की औसत वृद्धि 38.63 है । इसी तरह पश्चिम बंगाल की जनसंख्या बढ़ौतरी की दर औसतन 24 फीसदी के आसपास है, लेकिन मुस्लिम आबादी का विस्तार 37 प्रतिशत से अधिक है । यही हाल मणिपुर व त्रिपुरा का भी है । जाहिर है कि इसका मूल कारण बांग्लादेशियों का निर्बाध रूप से आना, यहां बसना और निवासी होने के कागजात हांसिल करना है । कोलकता में तो अवैध बांग्लादेशी बड़े स्मगलर और बदमाश बन कर व्यवस्था के सामने चुनौति बने हुए हैं ।


राजधानी दिल्ली में सीमापुरी हो या यमुना पुश्ते की कई किलोमीटर में फेली हुई झुग्गियां, लाखें बांग्लादेशी डटे हुए हैं । ये भाषा , खानपान , वेशभूशा के कारण स्थानीय बंगालियों से घुलमिल जाते हैं । इनकी बड़ी संख्या इलाके में गंदगी, बिजली, पानी की चोरी ही नहीं, बल्कि डकैती, चोरी, जासूसी व हथियारों की तस्करी बैखौफ करते हैं । सीमावर्ती नोएडा व गाजियाबाद में भी इनका आतंक है । इन्हें खदेड़ने के कई अभियान चले । कुछ सौ लोग गाहे-बगाहे सीमा से दूसरी ओर ढकेले भी गए । लेकिन बांग्लादेश अपने ही लोगों को अपनाता नहीं है । फिर वे बगैर किसी दिक्कत के कुछ ही दिन बाद यहां लौट आते हैं । जान कर अचरज होगा कि बांग्लादेशी बदमाशों का नेटवर्क इतना सशक्त है कि वे चोरी के माल को हवाला के जरिए उस पार भेज देते हैं । दिल्ली व करीबी नगरों में इनकी आबादी 10 लाख से अधिक हैं । सभी नाजायज बाशिंदों के आका सभी सियासती पार्टियों में हैं । इसी लिए इन्हें खदेड़ने के हर बार के अभियानों की हफ्ते-दो हफ्ते में हवा निकल जाती है ।

सरकारी आंकड़ा है कि सन 2000 से 2009 के बीच कोई एक करोड़ 29 लाख बांग्लादेशी बाकायदा पासपोर्ट-वीजा ले कर भारत आए व वापिस नहीं गए। असम तो अवैध बांग्लादेशियों की  पसंदीदा जगह है। राज्य की अदालतों में अवैध निवासियों की पहचान और उन्हें वापिस भेजने के कोई 40 हजार मामले लंबित हैं। अवैध रूप से घुसने व रहने वाले स्थानीय लोगों में शादी करके यहां अपना समाज बना-बढ़ा रहे हैं।

दिनों -दिन गंभीर हो रही इस समस्या से निबटने के लिए सरकार तत्काल ही कोई अलग से महकमा बना ले तो बेहतर होगा, जिसमें प्रशासन, पुलिस के अलावा मानवाधिकार व स्वयंसेवी संस्थाओं के लोग  भी हों । साथ ही सीमा को चोरी -छिपे पार करने के रैकेट  को तोड़ना होगा । हाल ही में एन आई ए ने देशभर में छापामारी की तो लोगों को अवैध रूप से देश में घुसाने की बड़ी साजिश सामने आई ।  वैसे तो हमारी सीमाएं बहुत बड़ी हैं, लेकिन यह अब किसी से छिपा नहीं हैं कि बांग्लादेश व पाकिस्तान सीमा पर मानव तस्करी का बाकायदा धंधा चल रहा है, जो कि सरकारी कारिंदों की मिलीभगत के बगैर संभव ही नहीं हैं ।

यहां बसे विदेशियों की पहचान और फिर उन्हें वापिस भेजना एक जटिल प्रक्रिया है । बांग्ला देश अपने लोगों की वापिसी सहजता से नहीं करेगा । इस मामले में सियासती पार्टियों का संयम भी महति है । यदि सरकार में बैठे लोग ईमानदारी से इस दिशा में पहल करते है तो एक झटके में देश की आबादी को कम कर यहां के संसाधनों, श्रम और संस्कारों पर अपने देश के लोगों का हिस्सा बढाया जा सकता है।

 

 

 

 

 

गुरुवार, 7 नवंबर 2024

Why do paramilitary forces commit suicide in Bastar?

 

आखिर बस्तर में क्यों खुदकुशी करते हैं अर्ध सैनिक बल

पंकज चतुर्वेदी



गत् 26 अक्टूबर 24 को बस्तर के बीजापुर जिले के पातरपारा , भैरमगढ़ में तैनात हरियाणा निवासी सीआरपीएफ जवान पवन कुमार ने  दिन में ही खुद को गोली मार कर मौत को गले लगा लिया । बीते दो महीने में यह अकेले बस्तर में अर्ध सैनिक बाल के जवानों द्वारा आत्म हत्या की छठी और इस साल की 14 वीं घटना है । जब केंद्र सरकार  लगातार छापामारी कर बड़े नक्सल ऑपरेशन कर रही है और अबूझमाद के उन इलाकों तक सुरक्षा बल पहुँच  रहे हैं जिन्हें अभी तक “अबूझ” कहा जाता था , जवानों में आत्म हत्या की प्रवृति  चिंता की बात है । दुर्भाग्य है कि जब-तब ऐसी घटनाएं होती हैं , जांच आदि के दल गठित होते हैं लेकिन हफ्ता बीतते ही जवानों को उन्हीं परिस्थितियों  का सामना करना पड़ता हि जिससे हताश उनका साथी खुदकुशी कर चुका था 


गत एक दशक के दौरान बस्तर में डेढ़ सौ  से अधिक जवान आत्म हत्या या फिर अपने ही साथी के क्रोध में मारे गए। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कोई भी जवान ऐसे कदम बेहद तनाव या असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो कर उठाता है। आखिर वे दवाब में क्यों ना हों ? ना तो उन्हें साफ पानी मिल रहा है और ना ही माकूल स्वास्थ्य सेवाएं। जान कर दुख होगा कि नक्सली इलाके में सेवा दे रहे जवनों की मलेरिया जैसी बीमारी का आंकड़ा उनके लड़ते हुए शहीद होने से कहीं ज्यादा होता है।



ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने कोई दो दशक पहले एक जांच दल बनाया था जिसकी रिपोर्ट जून -2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं जैसे मसलों पर कई सिफारिशें की गई थीं । इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिशें, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप , शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देश में उपद्रव ग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है अर्ध सैनिक बलों व फौज के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है।

यह एक कड़ा सच है कि हर साल दंगा, नक्सलवाद, अलगाववादियों, बाढ़ और ऐसी ही विकट परिस्थ्तियों में संशर्घ करने वाले इस बल के लोग मैदान में लड़ते हुए मरने से कहीं ज्यादा गंभीर बीमारियों से मर जाते हैं। यह बानगी है कि जिन लेगें पर हम मरने के बाद नारे लुटाने का काम करते हैं, उनकी नौकरी की षर्ते किस तरह असहनीय, नाकाफी और जोखिमभरी हैं।

अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुश्मन से नहीं,  खुद से ही जूझ रही है।  सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान ना तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं , ना ही उन्हें स्थानीय बोली-भाषा - संस्कार की जानकारी होती है और ना ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया है। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशा-निर्देश पर ही काम करते हैं। बस्तर में बहुत सी जगह बबनी हुई सड़क की नगरणी के लिए सीआरपीएफ की दैनिक ड्यूटी लगाई जा रही है । असल में केंद्रीय फोर्स का काम दुश्मन को नष्ट करने का होता है नाकि चौकसी करने का।

दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से है बस्तर, हरियाली, झरने, पशु-पक्षी और इंसान भी सभी नैसर्गिक वातावरण में उन्मुक्त । भले ही अखबार की सुर्खिया डराएं कि बस्तर में बारूद की गंध आती है लेकिन हकीकत तो यह है कि किसी भी बाहरी पर्यटक के लिए कभी भी कोई खतरा नहीं है। पूरी रात जगदलपुर से रायपुर तक आने वाली सड़क वाहनों से आबाद रहती है। यहां टकराव है तो बंदूकों का, नक्सलवाद ने यहां गहरी जड़ें जमा ली है। जब स्थानीय पुलिस उनके सामने असहाय दिखी तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को यहां झोंक दिया गया।  विडंबना है कि उनके लिए ना तो माकूल भोजन-पानी है और ना ही स्वास्थ्य सेवाएं, ना ही सड़कें और ना ही संचार। परिणाम सामने हैं कि बीते पांच सालों के दौरान यहां सीने पर गोली खा कर शहीद होने वालों से कहीं बड़ी संख्या सीने की धड़कनें रूकने या मच्छरों के काटने से मरने वालों की है।

यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व शोषण  की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा करते नहीं हैं। अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है।  बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनावभरा है, यहाँ  दुश्मन अदृश्य  है, हर दूसरे इंसान पर शक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश। इस पर भी हाथ बंधे हुए, जिसकी डोर सियासती आकाओं के हाथों मैं। लगातार इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है।

सड़कें ना होना, महज सुरक्षा के इरादे से ही जवानों को दिक्कत नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी निजी जिंदगी पर भी होता है। उनकी पसंद का भोजन , कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूषित  है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गरमी शुरू  होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का शिकार होते हैं। यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से शोधित  हो कर नहीं आता है। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूट  के साथ डायरिया, पीलिया व टाईफाईड के जीवाणू पीता है।बेहद उमस, तेज गरमी वाला यहां का  मौसम कई बार असहनीय होता है और इसमें उपजते हैं बड़े वाले मच्छर जोकि हर साल कई जवानों की असामयिक मौत का कारण बनते हैं। हालांकि जवानों को कडा निर्देश है कि वे मच्छरदानी लगा कर सोऐं, लेकिन रात की गरमी और घने जंगलों में चौकसी के चलते यह संभव नहीं हो पाता। यहां तक कि बस्तर का मलेरिया अब पारंपरिक कुनैन से ठीक नहीं होता है।

घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देश की तरह मौसम बदलते हैं, उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाशिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। इसके बावजूद केंद्रीय बलों के जवानों के लिए स्वास्थ्य सेवाए बेहद लचर है।। जवान यहां-वहां जा नहीं सकते, जगदलपुर का मेडिकल कालेज बेहद अव्यवस्थित सा है।

मोबाईल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर की क्षेत्रफल केरल राज्य से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाईल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक ना मिलने से टावर कमजोर रहते हैं। बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसला  होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों ने  उनका शिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ ‘इयर फोन‘ लगा कर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट में यह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असुरक्षा  व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख ना जान पाने की दर्द भी उनको भीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और ना ही जवान के पास उसके लिए समय है।

यह भी चिंता का विषय  है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ौतरी हुई है। अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है; ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाश, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेशानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी , चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं जो जवानों में अनुशासन व कार्य प्रतिबद्धता, देनो को बनाए रख सकते हैं। यही नहीं, जब तक सीआरपीएफ के जवान को दुश्मन से लड़ते हुए मारे जाने पर सेना की तरह षहीद का दर्जा व सम्मान नहीं मिलता, उनका मनोबल बनाए रखना कठिन होगा। यह कैसी विडंबना है कि पूरा देश अपने जवानें को याद करने के लिए उनकी षहादत का इंतजार करता है। महज साफ पानी, मच्छर से निबटने के उपाय, जवानों का नियमित स्वास्थ्य परीक्षण कुछ ऐसे उपाय हैं जो कि सरकार नहीं  तो समाज अपने स्तर पर अपने जवानों के लिए मुहैया करवा सकता है ताकि जवान एकाग्र चित्त से देश के दुश्मनों से जूझ सकें ।

 

 

 

 

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...