ecology , water and environment

My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 6 अक्तूबर 2024

Increasing summer days, increasing problems

 

बढ़ते गर्मी के दिन, बढ़ती परेशानियाँ

पंकज चतुर्वेदी





उत्तर पूर्वी राज्यों में जब सबसे भीगा  और पसंदीदा मौसम होता है,  असम में गुवाहाटी समेत  कई जिलों में स्कूल बंद करने पड़े क्योंकि तापमान 45 से पार हो गया और भादौ में उमस के साथ इतनी गर्मी जानलेवा होती है । दुनिया में सबसे अधिक बरसात के लिए मशहूर मेघालय के चेरापूँजी और मौवसिनराम में अब छाते बारिश से बचने की जगह तीखी गर्मी से बचने को इस्तेमाल हो रहे हैं । यहाँ 33 डिग्री तापमान  स्थानीय निवासियों के लिए असहनीय हो गया है । एक तो बरसात काम हुई ऊपर से अधिकतम 24 डिग्री वाले इलाके में तापमान और उमस बढ़ गई । उत्तराखंड में देहरादून में अधिकतम तापमान 35 डिग्री और पंतनगर का अधिकतम तापमान 37.2 होना असामान्य है । कश्मीर में भी इस समय अकेले चुनावी तपिश नहीं, बल्कि मौसमी तपिश लोगों को बेहाल किए है ।  यहाँ इस मौसम के तापमान से कोई 6.6 डिग्री अधिक गर्मी दर्ज की गई है और हालात लू जैसे हैं । कुपवाड़ा में 33.3 , पहलगाम  में 29.5 और गुलमार्ग में 23. 6 तापमान असहनीय सा है । हिमाचल प्रदेश में सितंबर के महीने में जून सी गर्मी है । ऊना समेत प्रदेश के पांच जिलों में तापमान 35 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है। मंगलवार को ऊना का तापमान 38 डिग्री को पार कर गया। जबकि कांगड़ा, मंडी, चंबा और बिलासपुर में भी तापमान 35 डिग्री पर पहुंच रहा है। सामान्य तौर पर सितंबर माह में हल्की सर्दी का दौर शुरू हो जाता है। लेकिन इस बार गर्मी का असर देखने को मिल रहा है। शिमला में भी तापमान 28 डिग्री सेल्सियस बना हुआ है। जो सामान्य से कहीं अधिक है। 


यह संभलने का वक्त  है क्योंकि जलवायु परिवर्तन का असर  सबसे संवेदनशील नैसर्गिक स्थल- हिमाचल की गोद में अब गहरा होता जा रहा है । गर्मी से लोगों की सेहत पर तो बुरा असर हो ही रहा है , लगातार गर्मी ने  पानी की मांग बढ़ाई  और संकट भी । सबसे बड़ी बात गर्मी से शुद्ध पेयजल की उपलबद्धता घटी है।  प्लास्टिक बोतलों में  बिकने वाला पानी हो या फिर आम लोगों द्वारा सहेज कर रखा गया जल, तीखी गर्मी ने प्लास्टिक बोतल में उबाल गए पानी के जहर बना दिया । पानी का तापमान बढ़ना तालाब-नदियों की सेहत खराब कर रहा है। एक तो वाष्पीकरण तेज हो रहा है, दूसरा पानी अधिक गरम होने से जल में विकसित होने वाले जीव-जन्तु और वनस्पति मर रहे हैं ।


तीखी गर्मी भोजन की पौष्टिकता की भी दुश्मन है । तीखी गर्मी में गेंहू, कहने के दाने छोटे हो रहे हैं और उनके  पौष्टिक  गुण घट रहे हैं। वैसे भी तीखी गर्मी में पका हुआ खान जल्दी सड़ –बुस  रहा है । फल-सब्जियां जल्दी खराब हो रही हैं । खासकर गर्मी में आने वाले वे फल जिन्हे केमिकल लगा कर पकाया जा रहा है , इतने उच्च तापमान में जहर बन रहे हैं और उनका सेवन करने वालों के अस्पताल का बिल बढ़ रहा है ।



इस बार की गर्मी की एक और त्रासदी है कि इसमें रात का तापमान कम नहीं हो रहा, चाहे पहाड़ हो या मैदानी महानगर , बीते दो महीनों से  न्यूनतम तापमान सामनी से पाँच डिग्री तक अधिक रहा ही है । खासकर सुबह चार बजे भी लू का एहसास होता है और इसका कुप्रभाव यह है कि बड़ी आबादी की नींद पूरी नहीं हो पा रही। खासकर स्लम, नायलॉन आदि के किनारे रहने वाले मेहनतकश लोग  उनींदे से सारे दिन रहते है और इससे उनकी कार्य क्षमता पर तो असर हो ही रहा है,  शरीर में कई विकार या रहे है।  जो लोग सोचते हैं कि वातानुकूलित संयत्र से वे इस गर्मी की मार से सुरक्षित है , तो यह बड़ा भ्रम है। लंबे समय तक  एयर कंडीशनर वाले कमरों में रहने से  शरीर की नस –नाड़ियों में संकुचन,  मधुमेह और जोड़ों के दर्द का खामियाजा ताजिंदगी भोगना पड़ सकता है ।

मार्च-24 में संयुक्त राष्ट्र के खाध्य और कृषि संगठन (एफ ए ओ ) ने भारत में एक लाख लोगों के बीच सर्वे कर एक रिपोर्ट में बताया है कि गर्मी/लू के कारण गरीब परिवारों को अमीरों की तुलना में पाँच फीसदी अधिक आर्थिक नुकसान होगा। चूंकि आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग बढ़ते तापमान के अनुरूप अपने कार्य को ढाल लेते हैं , जबकि गरीब ऐसा नहीं कर पाते ।

भारत के बड़े हिस्से में दूरस्थ अञ्चल तक  लगातार बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरणीय संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक त्रासदी-असमानता और संकट का कारक भी बन रहा है । यह  गर्मी अकेले शरीर को नहीं प्रभावित कर रही इससे इंसान की कार्यक्षमता प्रभावित होती है , पानी और बिजली की मांग बढती है , उत्पादन लागत भी बढती है । 

सवाल यह है कि प्रकृति के इस बदलते  रूप के सामने इंसान क्या करे ? यह समझना होगा कि  मौसम के बदलते मिजाज को जानलेवा हद तक ले जाने वाली हरकतें तो इंसान ने ही की है । फिर यह भी जान लें कि प्रकृति की किसी भी समस्या का निदान हमारे अतीत के ज्ञान में ही है, कोई  भी आधुनिक विज्ञान इस तरह की दिक्कतों का हाल नहीं खोज सकता। आधुनिक ज्ञान के पास तात्कालिक निदान और कथित सुख के साधन तो हैं लेकिन कुपित कायनात से जूझने में वह असहाय है । अब समय या गया ही कि इंसान बदलते मौसम के अनुकूल अपने कार्य का समय, हालात, भोजन , कपड़े आदि में बदलाव करे । खासकर पहाड़ों पर  विकास और पर्यटन दो ऐसे मसले हैं , जिन पर नए सिरे से विचार अकरण होगा शहर के बीच बहने वाली नदियाँ, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल और अविरल  रहेंगे  तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे । खासकर बिसरा चुके कुएं और बावड़ियों को जीलाने से जलवायु परिवर्तन की इस त्रासदी से बेहतर तरीके से निबटा जा सकता है । आवासीय और  कार्यालयों के निर्माण की तकनीकी और सामग्री में बदलाव , सार्वजनिक  परिवहन को बढ़ावा, बहुमंजिला भवनों का ईको फ्रेंडली होना , उर्जा संचयन, शहरों के तरफ पलायन रोकना , ऑर्गेनिक खेती  सहित कुछ ऐसे उपाय हैं जो बहुत कम व्यय में देश को भट्टी बनने  से बचा सकते हैं । 

 

 

 

 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

Flood is not a villain!

 

बाढ़ खलनायक नहीं होती !

पंकज चतुर्वेदी



साल के दस महीने लाख मिन्नतों के बाद जब आसमान से जीवनदाई बरसात का आशीष मिलता है तो भारत का बड़ा हिस्सा इससे उपजी त्रासदी “बाढ़” को  कोसता दिखता है ।  समझना होगा कि बाढ़ प्राकृतिक  आपदा नहीं , बल्कि प्रकृति के पुनरुत्थान की प्रक्रिया है। दूसरा जहां बाढ़ हानि पहुंचा रही है , वहाँ अधिकांश स्थानों पर इसके मूल में मानवीय त्रुटियाँ ही हैं ।  नैसर्गिक बाढ़ विनाशकारी नहीं होती और उसके कुछ सकारात्मक पहलू भी होते हैं। बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा ही नहीं है, बल्कि यह देश के गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गया है। हमारे पास बाढ़ से निबटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बांध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन,  बढ़ती गरमी, रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई मलवे का नदी में बढ़ना, जमीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों-दिन गंभीर होते जा रहे हैं।



आंकड़ों को पलटें तो यह सच है कि देश में हर साल बाढ़ का दायर और उससे होने वाली हानि का दायरा बढ़ता जा रहा है , लेकिन यह भी सच है कि उसकी अनुपात में बरसात बीतते ही  देश के बड़े हिस्से में पानी की कमी का भी विस्तार है । राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के मुताबिक भारत में तीन करोड़ 42 लाख हेक्टेयर जमीन बाढ़ प्रभावित  है । जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय  के आंकड़े बताते हैं कि भारत देश में पिछले छह दशकों के दौरान बाढ़ के कारण लगभग 4.7 लाख करोड़ का नुकसान हुआ और 1.07 लाख लोगों की मौत हुई, आठ करोड़ से अधिक मकान नष्ट हुए और 25.6 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में 109202 करोड़ रूपये मूल्य की फसलों को नुकसान पहुंचा है। इस अवधि में बाढ़ के कारण देश में 202474 करोड़ रूपये मूल्य की सड़क, पुल जैसी सार्वजनिक संपत्ति पानी में मिल गई। मंत्रालय बताता है कि बाढ़ से प्रति वर्ष औसतन 1654 लोग मारे जाते हैं, 92763 पशुओं का नुकसान होता है। लगभग 71.69 लाख हेक्टेयर क्षेत्र जल प्लावन से बुरी तरह प्रभावित होता है जिसमें 1680 करोड़ रूपये मूल्य की फसलें बर्बाद हुईं और 12.40 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं।



हकीकत यह भी है कि बाढ़ के कारण पता चलता है कि किसी नदी का असली स्वरूप क्या है । जब नदी का पानी फैलता है तो उससे  आस-पास के भूजल स्रोतों का पुनर्भरण होता जाता है। भूजल स्तर में सुधार न केवल  पानी का भंडार होता है बल्कि धरती की सेहत के लिए भी अनिवार्य तत्व है ।  असम का बाड़ा हिस्सा हो या  पश्चिमी उत्तर रदेश का उपजाऊ दोआब , ये सभी बाढ़ से बह कर आई  मिट्टी से ही बने हैं । जब किसी नदी में तेज बहाव  आता है तो साथ में आई मिट्टी में भारी मात्रा में गाद और पोषक तत्व होते हैं। जब यह गाद खेतों में जमा होती है, तो यह मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती है, जिससे आगामी फसलों की पैदावार बेहतर होती है।  खेती के लिए धरती के नवजीवन की यह प्रक्रिया  युगों से बाढ़ के आसरे ही चल रही है ।  नदियों में बाढ़ के साथ मछली, कछुए और अन्य जलचरों के जीवन का विस्तार होता है । इससे  जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित होता है । बाढ़ के पानी के साथ बह कर आने वाले विभिन्न पौधे और जानवर नदियों के किनारे के पारिस्थितिक तंत्र को समृद्ध करते हैं। इस तरह बाढ़ जलीय जीवों और वनस्पतियों की जैव विविधता को बनाए रखने में मदद करती है।


बाढ़  यह भी याद दिलाती है कि नदी इंसान की तरह एक जीवंत संरचना है और उसकी याददाश्त है और उसके जिम्मे पृथ्वी को समयानुसार संरचित करना भी है । तभी नदियाँ अपने पुराने मार्गों को फिर से खोजती हैं या नए मार्ग बनाती हैं, जिससे नदी की धाराएँ स्वाभाविक रूप से पुनर्निर्धारित होती हैं। यह प्रक्रिया भू-आकृतिक  परिवर्तनों को निर्मित करती है, जो लम्बे समय में  धरती पर जीवन के तत्वों को पुष्पित-पल्लवित करने में सहायक होती है। नदियां जब अपने यौवन पर होती है तो अपने साथ सौभाग्य के राज-कान ले कर आती है । खेतों को पोषक तत्व तो जलाशयों में जल भराव के साथ मछली, सिंघाड़ा, मखाने । जब नदी भर्ती है तो ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को पंख लगते हैं ।  सबसे बड़ी बात , इंसान  जो भी कचरा, मालवा चुपके से नदी में डाल देता है, बाढ़ उसे साफ करती है और नदी के लिए गैरजरूरी  तत्वों को भाय कर किनारे पटक देती है । बाढ़ के पानी से नदियों के प्रदूषक बहकर समुद्र या अन्य जल स्रोतों में चले जाते हैं, जिससे नदी की शुद्धता और स्वच्छता में सुधार होता है।


आखिर बाढ़ खलनायक कब बनती है ? एक तो नदियों के रास्ते में व्यवधान , खासकर रेत  उत्खनन के लिए या फिर विभिन्न परियोजनाओं के लिए बनाए गए बांध  या फिर शहरों में पुल  जैसी सुविधाएं जुटाने के लिए नदी के बीचों बीच बनाए गए खंभे या अन्य निर्माण , नदी की नाराजगी का कारण होते हैं । फिर छोटी नदियों को बुलाया देना या उन पर कब्जा , छोटी नदियों के तालाब और बड़ी नदियों से मिलन  मार्ग को बाधित करना , वहाँ स्थाई निर्माण कर लेने आदि से भ्रम होता है कि नदी बस्ती में घुस आई, जबकि हकीकत में उस बाढ़ को इंसान ने  जल धार के बीच घुस कर खुद आमंत्रित  किया होता है । राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकार (एनडीएमए) के पूर्व सचिव नूर मोहम्मद का मानना है कि देश में समन्वित बाढ़ नियंत्रण व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया गया। नदियों के किनारे स्थित गांव में बाढ़ से बचाव के उपाए नहीं किये गए। आज भी गांव में बाढ़ से बचाव के लिये कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं है। उन्होंने कहा कि उन क्षेत्रों की पहचान करने की भी जरूरत है जहां बाढ़ में गड़बड़ी की ज्यादा आशंका रहती है। आज बारिश का पानी सीधे नदियों में पहुंच जाता है। वाटर हार्वेस्टिंग की सुनियोजित व्यवस्था नहीं है ताकि बारिश का पानी जमीन में जा सके। शहरी इलाकों में नाले बंद हो गए हैं और इमारतें बन गई हैं। ऐसे में थोड़ी बारिश में शहरों में जल जमाव हो जाता है। अनेक स्थानों पर बाढ़ का कारण मानवीय हस्तक्षेप है।  जलवायु परिवर्तन एक ऐसा कारक है जो अचानक ही बेमौसम बहुत तेज बरसात की जड़ है और इससे सबसे ज्यादा नुकसान होता है।


मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं,  वरदान साबित हो सकती है । पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी , नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेउ़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ को प्रकोप बनने से बचा सकते हैं । बाढ़ को एक आपदा के रूप में देखने के बनिस्पत इसके दीर्घकालिक लाभों को विचार करना होगा बाढ़ न केवल नदियों और उनके आस-पास के पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करती है, बल्कि यह प्राकृतिक संसाधनों के वितरण में संतुलन बनाए रखने में भी मदद करती है। मानव सभ्यता को बाढ़ के साथ सह-अस्तित्व की रणनीतियों को अपनाने और इसके फायदों को समझने की जरूरत है ताकि प्राकृतिक आपदाओं के नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सके और इसके सकारात्मक पहलुओं का अधिकतम लाभ उठाया जा सके।

 

बुधवार, 11 सितंबर 2024

After all, why did the wolf become a cannibal?

 

                            आखिर भेड़िया क्यों नरभक्षक  बना ?

                                            पंकज चतुर्वेदी



भारत में बच्चों को भेड़िये का परिचय रुडयार्ड क्लिपिंग की किताब “जंगल  बुक” से ही मिला जिसमें भेड़िए जंगल में एक इंसान के बच्चे को पालते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के बहराइच में भेड़िये का खौफ शेर से अधिक है । बीते कुछ दिनों में नौ बच्चों सहित दस लोग भेड़िये का शिकार हुए हैं। कुछ गांवों से पलायन शुरू हो गया है। जंगल महकमा अभी तक चार भेड़ियों को पिंजड़े में डाल चुका है लेकिन अंधेरा होते ही भय, अफवाह और कोहराम थमता नहीं । चार सितंबर को जब बीते 48 घंटों में छह बार भेड़िये के हमले की सूचना आई तो राज्य सरकार ने गोली मारने के आदेश दे दिए । अब ड्रोन , थर्मल कैमरा सहित अत्याधुनिक मशीनों से लैस जंगल महकमे के लोग घाघरा नदी के कछार में चप्पा –चप्पा छन रहे हैं लेकिन वह भेड़िया नहीं मिल रहा जिसके सर इतनी हत्या हैं । अब करीबी लखीमपुर और यहा से दूर मैनपुरी जिले में भेड़िये के हिंसक होने के समाचार हैं।


वैसे भारतीय भेड़िया (कैनिस ल्यूपस पैलिप्स) भूरे भेड़िये की एक लुप्तप्राय उप-प्रजाति है, जो भारतीय उपमहाद्वीप और इजराइल तक विस्तृत क्षेत्र में पाई जाती है।  चिड़ियाघरों में कोई 58 भेड़िये हैं जबकि सारे देश में 55 प्रजाति के तीन हजार से काम भेड़िये ही बचे हैं । उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में शायद इनकी संख्या तीन सौ भी न हो । इनमें से अधिकांश ठंडे इलाकों में हैं । आम तौर पर भेड़िये इंसान से डरते हैं और मनुष्यों पर हमला करना दुर्लभ है। भेड़ियों को मार देना या कैद कर लेना एक तात्कालिक विकल्प तो है लेकिन गहने जंगल और गन्ने की सघन खेती  वाले बहराइच में जानवर का नरभक्षी बन जाना  इंसान-जानवरों के टकराव की ऐसी अनबूझ पहेली है जिसका हाल नहीं खोजा तो यह समस्या विस्तार ले सकती है । 


यदि जंगल के पिरामिड को समझें तो  सबसे गहने वन , जहां पेड़ों की ऊंचाई के कारण उजाला काम पहुंचता है , निशाचर जानवरों जैसे चमगादड़ आदि का पर्यावास होता है । फिर ऊंचे पेड़ और ऊंची हाड़ियों वाले जंगल आते हैं जहां मांसभक्षी जानवर, जैसे बाघ , तेंदुआ आदि अपने –अपने दायरों में रहते हैं । उसके बाद हिरण, खरगोश, भालू, हाथी  आदि  जो कि वनस्पति से पेट भरते हैं , मांसभक्षी जानवरों को जब भूख लगती है तो वे अपने दायरे से बाहर निकाल कर शिकार करते हैं । उनके भोजन से बचे हुए  हिस्से का दायरा बस्ती और जंगल के बीच का होता है , जहां चारागाह भी होते हैं और बिलाव, लोमड़ी, भेड़िये जैसे जानवरों के पर्यावास  जोकि मांसभक्षी जानवरों द्वारा छोड़ी गई गंदगी की सफाई कर अपना पेट भरते हैं । यदा-कदा इंसानों के जानवरों- गाय , बकरी और कुत्ता भी  को पकड़ लेते हैं ।  समझना  होगा कि कोई भी जानवर इंसान या अन्य जानवर पर हमला नहीं करता – या तो वह भोजन के लिए या फिर भय के चलते ही हमलावर होता है । यदि बारीकी से देखें तो जंगल के पिरामिड तहस-नहस हो गए और अब कम घने जंगल में रहने वाले मांसाहारी जानवर भी बस्ती के पास आ रहे हैं । जब उनके लिए भोजन की कमी होती है तो उनके छोड़े पर पलने वाले भेड़िये, सियार आदि तो भूखे रहेंगे ही और चूंकि ये इंसानी बस्ती के करीबी सदियों से रहे हैं तो यहाँ से भोजन लूटने में माहिर होते हैं । जब भेड़िये को बस्ती में उसके लायक छोटा  जानवर नहीं मिलता तो वह छोटे बच्चों को उठाता है और एक बार उसे मानव- रक्त का स्वाद लग जाता है तो वह उसके लिए पागल हो जाता है ।

बहराइच घाघरा या सरयू नदी के किनारे बसा हरियाली और सम्पन्न खेती वाला जिला है । यहाँ साल, सागौन और बांस के घने  जंगल हुआ करते थे जहां बाघ से ले कर खरगोश जैसे जानवरों का बसेरा था । जिले के उत्तरी भाग में अभी भी सघन जंगल है , और तराई का यह इलाका नेपाल की सीमा से सटा है । निश्चित ही जब भेड़िये नरभक्षी हो गए हैं तो उनसे निबटना जरूरी है लेकिन यह भी  समझना होगा कि आखिर ऐसे हालात बने क्यों ? इस प्रकृति में भेड़िये का भी हिस्सा है और उसका इंसान से अचानक टकराव क्यों हो गया ?


भेड़िये एक जटिल सामाजिक संरचना वाले झुंड में रहने वाला जानवर है जिनमें आक्रामक और चंचल दोनों प्रकार के व्यवहार शामिल होते हैं। ये इंसान को देख कर डरते हैं लेकिन भागते नहीं । वे अपने झुंड में अन्य भेड़ियों पर हावी होने या उनकी आक्रामकता को कम करने के लिए आक्रामक व्यवहार का उपयोग कर सकते हैं।   भेड़िये आमतौर पर इंसान से सतर्क रहते हैं, तथा शिकारियों, किसानों, पशुपालकों और चरवाहों के साथ अपने अनुभवों के कारण उनमें मनुष्यों के प्रति भय का भाव होता है। 

भारतीय भेड़िये झाड़ीदार जंगल, घास के मैदान, अर्ध-शुष्क क्षेत्र और कम घने जंगल में रहना पसंद करते हैं । ऐसे स्थान जहां एकांत हो और वे मांद बना सकें उनके पर्यावास की प्राथमिकता होता है । बहराईच का इलाका इसी लिए उन्हें पसंद है । लेकिन जिस तरह से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्रों में भयावह हुआ है ,  उसके अनुकूल जानवरों को खुद को ढालने में दशकों लगेंगे । फिलहाल तो वे मौसम के अस्वाभाविक परिवर्तन के कारण पैदा हुए पर्यवास और भोजन के हालातों से जूझने के लिए पलायन को ही चुन रहे हैं । समझें कि जलवायु के गरम होने पर भेड़ियों का नैसर्गिक आहार कहलाने वाले जानवर भी पलायन करते हैं और उनके पीछे ये भी चलते हैं ।

भेड़िये के व्यवहार में आ रहे बदलाव का कारण रैबीज के अलावा कोई रोग भी हो सकता है । जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न हो रही नई बीमारियाँ और कीट भेड़ियों और उनके शिकार को संक्रमित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, गर्म जलवायु के कारण टिक्स और जूँ उत्तर की ओर बढ़ सकते हैं, तथा भेड़ियों और उनके शिकार को संक्रमित कर सकते हैं।   ये भी उनके  आक्रामक होने का एक कारण है ।  किसी इलाके में इनकी संख्या वृद्धि  या फिर सहवास न कर पाने के चलते भी इनमें आक्रामकता आती है ।

भेड़िया भी जंगल और प्राकृतिक  संतुलन के लिए एक महत्वपूर्ण  जीव है । पिछले कुछ दशकों में अकेले गंगा –यमुना की तराई इलाकों में एक लाख से अधिक भेड़िये  भय और अफवाह में मार दिए गए । उदाहरण सामने है कि हमने ऐसे ही चीते खो दिए थे फिर 75 साल बाद  अफ्रीकी देशों से उन्हें मंगवाना पड़ा । पूर्वी उत्तर प्रदेश के गहन जंगलों वाले इलाके कम होने से  इंसान और जानवर में टकराव बढ़ता जा रहा है, कभी बाघ तो कभी हाथी  और कभीकभी मगरमच्छ भी उस क्षेत्र में इंसानों के बीच पहुँच कर भय और  टकराव का कारक बन रहे हैं । आज जरूरत इस बात की है कि किसी जानवर को इस तरह हिंसक होने से रोका जाए जिससे वह नरभक्षी बने और इसके लिए उनके लिए पर्याप्त जंगल और उनके स्वाभाविक आहार को संरक्षित करने के लिए काम करना  होगा । 

मंगलवार, 3 सितंबर 2024

WITHOUT CARING YAMUNA DELHI CAN NOT BE SAVED BY FLOOD

 



                   ऐसी दिल्ली को तो डूबना ही था


                                                                पंकज चतुर्वेदी


इस बार राजधानी दिल्ली पर कुल आठ बार ठीकठाक बादल बरसे  और बमुश्किल एक घंटे की बरसात में ही दिल्ली ठिठक गई । कोई 65 लोग बरसात में  जलभराव या फिर भरे पानी में बुजली का करेंट आने से मर चुके हैं । आकाश से राहत की बूंदें गिरीं और क्या मिंटो  रोड तो क्या नव निर्मित प्रगति मैदान की सुरंग , हर जगह पानी ने शहर की रफ्तार थम जाती है  । हर साल  अदालत फटकार लगाती है । हर बार कागजों पर योजना बनती है लेकिन इस बार की बरसात ने बताया दिया कि आने वाले सालों में यह संकट और गहराएगा ।

 जिस शहर के बीचों बीच से  22 किलोमीटर तक यमुना बहती है , वह  शहर अपनी प्यास बुझाने को उसी यमुना का पानी 104 किलोमीटर  दूर करनाल से मूनक नहर के जरिए लेता है । जिन जल- तिजोरियों को  बरसात की हर बूंद  को सहेजने के लिए इस्तेमाल किया जाना था , उसे “रियल एस्टेट “ मान  लिया गया  और कुदरत की नियामत बरसते ही  , बेपानी विशालकाय शहर की  पूरी सड़कें, कालेनियां पानी से लबालब हो जाती हैं । काश केवल यमुना को अविरल बहने दिया होता  , उससे जुड़े तालाबों और नहरों को जीवन दे दिया जाए तो दिल्ली से दुगने बड़े शहरों को पानी देने और बारिश के चरम पर भी हर बूंद को अपने में समेट  लेने की क्षमता इसमें हैं ।

दिल्ली में जल भराव का कारण यमुना का गाद और कचरे के  कारण इतना उथला हो जाना है कि यदि महज एक लाख क्यूसेक पानी या जाए तो इसमें बाढ़ या जाती है  । नदी की जल ग्रहण  क्षमता को कम करने में बड़ी मात्रा में जमा गाद (सिल्ट), रेत, सीवरेज, पूजा-पाठ सामग्री, मलबा और तमाम तरह के कचरे का योगदान है । नदी की गहराई कम हुई तो इसमें पानी भी कम आता है । आजादी के 77  साल में कभी भी नदी की गाद साफ करने का कोई प्रयास हुआ ही नहीं , जबकि नदी में  कई निर्माण परियोजनाओं के मलवे को डालने से रोकने में एन जी टी के आदेश नाकाम रहे हैं ।  सन 1994 से लेकर अब तक यमुना एक्शन प्लान के तीन चरण आ चुके हैं, हजारों करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं पर यमुना में गिरने वाले दिल्ली के 21 नालों की गाद भी अभी तक नहीं रोकी जा सकी। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश भी बेमानी ही साबित हो रहे हैं। और फिर जब महानगर के बड़े नाले गाद से बजबजाते हैं तो जल भराव की चोट दोधारी होती है – जब नाले का पानी नदी की तरफ लपकता है और  उथली नदी में पहले से ही नाले के मुंह तक पानी भरा  होता है । ऐसे में नदी के प्रवाह से  उपजे प्रतिगामी बल से नाले फिर पलट कर   सड़कों को दरिया बना देते हैं । कभी यमुना का बहाव और हाथी डुब्बा गहराई  आज के  मयूर विहार, गांधी नगर, ओखला,  अक्षरधाम तक हुआ करता था  । एक तरफ ढेर सारी वैध-अवैध कालोनियों और सरकारी भवनों के कारण नदी की  चौड़ाई कम हुई  तो दूसरी तरफ गहराई में गाद भर दी – इस तरह जीवनदायी बरसात के जल को समेटने वाली  जल धार को कूड़ा ढोने की धार बना दिया गया । वहीं शहर के छह सौ से अधिक तालाब- झीलों तक बरसात का पानी आने के रास्ते रोक दिए गए ।

दुर्भाग्य है कि कोई भी सरकार दिल्ली में आबादी को बढ़ने से रोकने पर काम कर नहीं रही और इसका खामियाजा भी यमुना को उठाना पड़ रहा है , हालांकि  इसकी मार  उसी आबादी को पड़ रही है । यह सभी जानते हैं कि  दिल्ली जैसे  विशाल आबादी वाले इलाके में हर घर पानी और मुफ़्त पानी एक बड़ा चुनावी मुद्दा है और जब नदी-नहर पानी की कमी पूरी कर नहीं पाते तो जमीन में छेद कर पानी उलिछा जाता है , यह जाने बगैर कि इस तरह भूजल स्तर से बेपरवाही का सर यमुना के जल स्तर पर ही पड़ रहा है । मसला आबादी  को बसाने का हो या उनके लिए सुचारु परिवहन के लिए पूल या मेट्रो बनाने का, हर बार यमुना की धारा के बीच ही खंभे गाड़े जा रहे हैं । वजीराबाद और ओखला के बीच यमुना पर कुल 22 पुल बन चुके हैं और चार निर्माणधीन हैं और इन  सभी ने यमुना के नैसर्गिक प्रवाह , गहराई और चौड़ाई को नुकसान किया है ।  रही बची कसर अवैध आवासीय निर्माणों ने कर दी । इस तरह देखते ही देखते यमुना का कछार , अर्थात जहां तक  नदी अपने पूरे यौवन में लहरा सके , को ही  हड़प गए । कछार  में अतिक्रमण ने नदी के फैलाव को ही रोक दिया और इससे जल-ग्रहण क्षमता कम हो गई ।  तभी  इसमें पानी आते ही , कुछ ही दिनों में बह जाता है और फिर से कालिंदी उदास सी दिखती है ।

यह बात सरकारी बस्तों में दर्ज है कि यमुना के दिल्ली प्रवेश वजीराबाद बैराज से लेकर ओखला बैराज तक के 22 किलोमीटर में 9700 हेक्टेयर की कछार भूमि पर अब पक्के निर्माण हो चुके हैं और इसमें से 3638 हैक्टेयर को दिल्ली विकास प्राधिकरण खुद नियमित अर्थात वैध बना चुका है । कहना न होगा यहाँ पूरी तरह सरकारी  अतिक्रमण हुआ- जैसे 100 हेक्टेयर में अक्षरधाम मंदिर, खेल गांव का 63.5 हेक्टेयर, यमुना बैंक मेट्रो डिपो 40 हैक्टेयर और शास्त्री पार्क मेट्रो डिपो 70 हेक्टेयर। इसके अलावा आईटी पार्क, दिल्ली सचिवालय, मजनू का टीला और अबु फजल एनक्लेव जैसे बड़े वैध- अवैध अतिक्रमण  अभी भी हर साल बढ़ रहे हैं ।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक शीध के मुताबिक  यमुना के बाढ़ क्षेत्र में 600 से अधिक आर्द्रभूमि और जल निकाय थे, लेकिन “उनमें से 60% से अधिक अब सूखे हैं। यह  बरसात के पानी को सारे साल  सहेज कर रखते लेकिन अब इससे शहर में बाढ़ आने का खतरा है।” रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि “यमुना बाढ़ क्षेत्र में यमुना से जुड़ी कई जल- तिजोरियों का संपर्क तटबंधों के कारण नदी से टूट गया ।”

समझना होगा कि अरावली से चल कर  नजफ़गढ़ झील में  मिलने वाली साहबी नदी और इस झील को यमुना से  जोड़ने वाली नैसर्गिक नहर का  नाला बनना हो या फिर सराय  कालेखान के पास बारा पुला  या फिर साकेत में खिड़की गाँव का सात पुला या फिर लोधी गार्डेन की नहरें, असल में ये सभी यमुना में जब कभी क्षमता से अधिक पानी आ  जाता था तो उसे जोहड़-तालाब में सहेजने का जरिया थीं । एनजीटी में इन  सभी जल मार्गों को बचाने के मुकदमे चल रहे हैं  लेकिन इन  पर अतिक्रमण और इनकी राह रोकने वाले सरकारी निर्माण भी अनवरत जारी हैं। शहर को चमकाने के नाम पर इन सभी सदियों पुरानी संरचनाओं को तबाह किया गया , सो न अब बरसात का पानी तालाब में जाता है और न ही बरसात के दिनों में सड़कों पर जल जमाव  रुक पाता है ।

वैसे एन जी टी सन 2015 में ही दिल्ली  के यमुना तटों पर निर्माण पर पाबंदी लगा चुका है  लेकिन इससे बेपरवाह  सरकारें मान नहीं  रही । अभी एक साल के भीतर ही लाख आपत्तियों के बावजूद सराय कालेखान के पास  “बांस घर” के नाम से  केफेटेरिया और अन्य निर्माण हो गए ।

जब दिल्ली बसी  ही इस लिए थी कि यहाँ यमुना बहती थी , सो जान लें कि यदि दिल्ली को जल भराव से जूझना है तो यमुना अविरल बहे  उसकी गहराई  और पाट  बचे रहें , यही अनिवार्य है । यह बात कोई जटिल रॉकेट साइंस है नहीं लेकिन बड़े ठेके, बड़े दावे , नदी से निकली जमीन पर और अधिक कब्ज का लोभ यमुना को जीवित रहने नहीं दे रहा । तैयार रहिए , भले ही अदालत डांटती रहे - अपनी संपदा  यमुना को चोट पहुँचाने के चलते सावन-भादों  में  तो हर फुहार के साथ दिल्ली डूबेगी ही !

 

रविवार, 1 सितंबर 2024

Hydroelectric projects increase the risk of landslides in Himachal

 

जल विद्धुत परियोजनाओं ने बढाया हिमाचल में भूस्खलन का खतरा

पंकज चतुर्वेदी



 

पिछले कुछ सालों से हिमाचल प्रदेश में बरसात  के दौरान भूस्खलन और उससे तबाही बढ़ती जा रही है । हर बार  सरकारी निर्माण का जबरदस्त नुकसान होता है । अभी तो बारिश का एक महिना और बचा हुआ है और अभी तक कोई 64,894.27 करोड़ का नुकसान हो चुका है। सार्वजनिक निर्माण विभाग द्वारा किए गए निर्माणों में ही 30160.32  करोड़  बरसात की भेंट चढ़ चुका है। की सड़क टूट गईं, बिजली के ट्रांसफार्मर और तार  टूट गए । राजधानी शिमला से ले कर सुदूर किन्नोर तक पहाड़ों के धसकने से घर, खेत, से ले कर सार्वजनिक संपत्ति का जो नुकसान हुआ है उससे उबरने में राज्य को  सालों लगेंगे. वैसे यदि गंभीरता से देखें तो यह हालात भले ही आपदा से बने हों लेकिन इन आपदाओं को बुलाने में  इन्सान की भूमिका भी कम नहीं हैं. जब दुनियाभर के शोध कह रहे थे कि हिमालय पर्वत जैसे युवा पहाड़ पर पानी को रोकने,  जलाशय बनाने और सुरंगे बनाने के लिए विस्फोटक के इस्तेमाल के अंजाम अच्छे नहीं होंगे, तब हिमाचल की जल धाराओं पर छोटे-बड़े बिजली संयंत्र लगा कर उसे विकास का प्रतिमान निरुपित किया जा रहा था .



नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी,  इसरो द्वारा तैयार देश के भूस्खलन नक्शे में हिमाचल प्रदेश के सभी 12 जिलों को  बेहद संवेदनशील की श्रेणी में रखा गया है .  देश के कुल 147 ऐसे जिलों में संवेदनशीलता की  दृष्टि से  मंडी को 16 वें स्थान पर रखा गया है. यह आंकड़ा और चेतावनी फाइल में सिसकती रही और इस बार मंडी में तबाही का भयावह मंजर सामने आ गया .  ठीक यही हाल शिमला का हुआ जिसका स्थान इस सूची में 61वे नम्बर पर दर्ज है . प्रदेश में 17,120 स्थान भूस्खलन संभावित क्षेत्र अंकित हैं , जिनमें से 675 बेहद संवेदनशील मूलभूत सुविधाओं और घनी आबादी के करीब हैं . इनम सर्वाधिक स्थान 133 चंबा जिले में , मंडी (110), कांगड़ा (102), लाहुल-स्पीती (91), उना (63), कुल्लू (55), शिमला (50), सोलन (44) , आदि हैं . यहाँ भूस्खलन की दृष्टि से किन्नौर जिला को सबसे खतरनाक माना जाता है। बीते साल भी किन्नौर के बटसेरी और न्यूगलसरी में दो हादसों में ही 38 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। इसके बाद किन्नौर जिला में भूस्खलन को लेकर भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के विशेषज्ञों के साथ साथ आई आई टी , मंडी व रुड़की के विशेषज्ञों ने अध्ययन किया है। 


भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 97.42% भूस्खलन की संभावना में है। हिमाचल सरकार की डिज़ास्टर मैनेजमेंट सेल द्वारा प्रकाशित एक “लैंडस्लाइड हैज़ार्ड रिस्क असेसमेंट” अध्ययन ने पाया कि बड़ी संख्या में हाइड्रोपावर स्थल पर धरती खिसकने का खतरा है . लगभग 10 ऐसे  मेगा हाइड्रोपावर प्लांट , स्थल मध्यम और उच्च जोखिम वाले भूस्खलन क्षेत्रों में स्थित हैं।

राज्य  आपदा प्रबंधन प्राधिकरण  ने विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से सर्वेक्षण कर भूस्खलन संभावित 675 स्थल चिन्हित किए है। चेतावनी के बाद भी किन्नोर में , एक हज़ार मेगा वाट की करचम और 300 मेगा वाट की  बासपा परियोजनाओं  पर काम चल रहा है . एक बात और समझना होगा कि "वर्तमान में बारिश का तरीका बदल रहा है और गर्मियों में तापमान सामान्य से कहीं अधिक पर पहुंच रहा है। ऐसे में मेगा जलविद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देने की राज्य की नीति को एक नाजुक और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में लागू किया जा रहा है। 

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 97.42% भूस्खलन की संभावना में है। हिमाचल सरकार की डिज़ास्टर मैनेजमेंट सेल द्वारा प्रकाशित एक लैंडस्लाइड हैज़ार्ड रिस्क असेसमेंट अध्ययन ने पाया कि बड़ी संख्या में हाइड्रोपावर स्थल भूस्खलन आपदा जोखिम के खतरे में हैं और कम से कम 10 ऐसे मेगा हाइड्रोपावर स्थल हैं जो कि मध्यम और उच्च जोखिम वाले भूस्खलन क्षेत्रों में स्थित हैं।

वैसे हिमाचल प्रदेश में  पानी से बिजली बनाने का कार्य 120 सालों से हो रहा है . हिमाचल प्रदेश में ऊर्जा दोहन का कार्य इसके पूर्ण राज्य घोषित होने से पहले ही शुरू हो गया था। इसकी शुरुआत वर्ष 1908 में चंबा में 0.10 मेगावाट क्षमता की एक छोटी जल विद्युत परियोजना के निर्माण के कार्य से शुरू हुई थी। इसके बाद वर्ष 1912 में औपचारिक रूप से शिमला जिले के चाबा में 1.75 मेगावाट क्षमता का बिजली संयंत्र शुरू हुआ जिसे ब्रिटिश भारत की बिजली संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए स्थापित किया गया था। इसका सफल परिचालन होने पर यहां और बिजली संयंत्र लगाने की संभावनाएं तलाशी जाने लगीं। इसी योजना के तहत मंडी जिले के जोगिन्द्र नगर में 48 मेगावाट की बड़ी परियोजना का निर्माण कार्य शुरू किया गया जो वर्ष 1932 में पूरा हुआ। इस संयंत्र की बिजली आपूर्ति केवल रियासतों की राजधानियों के लिए की जाती थी। आज हिमाचल में 130 से अधिक छोटी-बड़ी बिजली परियोजनायें चालू हैं जो जिनकी कुल बिजली उत्पादन क्षमता 10,800 मेगावाट से अधिक है. सरकार का इरादा 2030 तक राज्य में 1000 से अधिक जलविद्युत परियोजनायें लगाने का है जो कुल 22,000 मेगावाट बिजली क्षमता की होंगी. इसके लिये सतलुज, व्यास, राबी और पार्वती समेत तमाम छोटी-बड़ी नदियों पर बांधों की कतार खड़ी कर दी गई है. हिमाचल सरकार की चालू, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं की कुल क्षमता ही 3800 मेगावाट से ज्यादा है. 

हिमाचल प्रदेश में जलवायु  परिवर्तन  की चोट कितनी गहरी है , इसका अंदाज़ इस बात से लगया जा सकता है कि प्रदेश के 50 स्थानों पर  आई आई टी मंदी द्वारा विकसित आपदा पूर्व सूचना यंत्र लगाये गए हैं . भूस्खलन जैसी आपदा से पहले ये लाल रौशनी के साथ  तेज आवाज़ में सायरन बजाते हैं  लेकिन इस बार आपदा इतनी तेजी से आई कि ये उपकरण काम के नहीं रहे .  यह बात कई शोध पत्र  कह  चुके हैं कि हिमाचल प्रदेश में अंधाधुंध जल विद्युत परियोजनाओं से चार किस्म की दिक्कते आ रही हैं. पहला इसका  भूवैज्ञानिक प्रभाव है , जिसके तहत  भूस्खलन , तेजी से मिटटी का ढहना शामिल है . यह सड़कों, खेतों, घरों को क्षति पहुंचाता है . दूसरा प्रभाव जलभूवैज्ञानिक है जिसमें देखा गया कि झीलों और भूजल स्रोतों में जल स्तर कम हो रहा है .   तीसरा नुकसान है - बिजली परियोजनाओं में नदियों के किनारों पर खुदाई और बह कर आये मलवे के जमा होने से वनों और चरागाहों में जलभराव बढ़ रहा है. ऐसी परियोजनाओं का चौथा खतरा है , सुरक्षा में कोताही के चलते हादसों की संभावना .

यह सच है कि विकास का पहिया बगैर  उर्जा के घूम नहीं सकता लेकिन उर्जा के लिए ऐसी परियोजनाओं से बचा जाना चाहिए जो कि कुदतर की अनमोल देन कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश को हादसों का प्रदेश बना दे .

बुधवार, 28 अगस्त 2024

game in the market, game market

 

बाजार में खेल, खेल का बाजार

पंकज चतुर्वेदी



यह हर बार होता है कि जब ओलंपिक या कोई अंतर्राष्ट्रीय  खेल स्पर्धा समाप्त होती हैं औरर भारत के खिलाड़ी अपेक्षा से बहुत काम सफलता के बाद लौटते हैं तो  आलोचन, व्यंग, व्यवस्था में सुधार  की मांग और सुझाव का एक हफ्ते का दौर चलता है, और फिर  सब कुछ पुराने  ढर्रे पर आ जाता है – खिलाड़ी को न सुविधा,  न सम्मान । जो सफल हो कर आए उन्हें  झोली भर भर कर पुरस्कार और  व्यावसायिक विज्ञापन  भी  लेकिन  सफलता पाने को मेहनत करने वालों को न्यूनतम  सहयोग भी नहीं ।  सफल खिलाड़ी व  तैयारी कर रहे प्रतिभावान खिलाड़ी के बीच की इस असीम दूरी की कई घटनाएं आए रोज सामने आती हैं । उसके बाद वही संकल्प दुहराया जाता है कि ‘‘कैच देम यंग’’ और फिर वही खेल का ‘खेल’ शुरू  हो जाता है।





एरिक प्रभाकर! यह नाम कई के लिये नया हो सकता है लेकिन अगर आप भारतीय ओलंपिक के इतिहास को खंगालेंगे तो इस नाम से भी परिचित हो जाएंगे। 23 फरवरी 1925 को जन्में प्रभाकर ने 1948 में लंदन ओलंपिक में भारत की तरफ से 100 मीटर फर्राटा दौड़ में हिस्सा लिया था। उन्होंने 11.00 सेकेंड का समय निकाला और क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे। महज षुरू दशमलव तीन सेंकड से वे पदक के लिए रह गए थे। हालांकि  सन 1944 में वे 100 मीटर के लिए 10.8 सेकंड का बड़ा रिकार्ड बना चुके थे। वे सन 1942 से 48 तक लगातार छह साल 100400 मीटर दौड के राश्ट्रीय चेंपियन रहे थे।  उस दौर में अर्थशास्त्र में एमए, वह भी गोल्ड मेडल के साथ, फिर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शिक्षा के लिए रोड्स फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय, यही नहीं आजाद भारत की पहली आईएएस में चयनित श्री एरिक प्रभाकर की किताब  ‘द वे टु एथलेटिक्स गोल्ड’ सन 1994 में आई थी व बाद में उसका हिंदी व कई अन्य भारतय भाशाओं में अनुवाद नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापा। 


काश हमारे खेल महकमे में से किसी जिम्मेदार ने उस पुस्तक को पढ लिया होता। उन्होंने बहुत बारीकी से और वैज्ञानिक तरीके से समझाया है कि भारत में किस तरह से सफल एथलीट तैयार किये जा सकते हैं। उन्होंने इसमें भौगोलिक स्थिति, खानपान चोटों से बचने आदि के बारे में भी अच्छी तरह से बताया है। भारतीय खेलों के कर्ताधर्ताओ हो सके तो कभी यह किताब पढ़कर उसमें दिये गये उपायों पर अमल करने की कोशिश करना। यदि वह पुस्तक हर खिलाड़ी, हर कोच, प्रत्येक खेल संघ के सदस्यों को पढने और उस पर ईमादारी से मनन करने को दी जाए तो मैं गारंटी से कह सकता हूं कि परिणाम अच्छे निकलेंगे। कुछ दशक पहले तक स्कूलों में राष्ट्रीय खेल प्रतिभा खोज जैसे आयोजन होते थे जिसमें दौड, लंबी कूद, चक्का फैक जैसी प्रतियोगिताओं में बच्चों को प्रमाण  पत्र व ‘सितारे’ मिलते थे। वे प्रतियोगिताएं स्कूल स्तर, फिर जिला स्तर और उसके बाद राष्ट्रीय  स्तर तक होती थीं। तब निजी स्कूल हुआ नहीं करते थे या बहुत कम थे और कई बार स्कूली स्तर पर राश्ट्रीय रिकार्ड के करीब पहुंचने वाली प्रतिभाएं भी सामने आती थीं। जिनमें से कई आगे जाते थे। ऐसी प्रतिभा खेज की नियमित पद्धति अब हमारे यहां बची नहीं है।

लेकिन चीन, जापान के अनुभव बानगी हैं कि ‘‘केच देम यंग’’ का अर्थ है कि सात-आठ साल से कड़ा परिश्रम, सपनों का रंग और तकनीक सिखाना। चीन की राजधानी पेईचिंग में ओलंपिक के लिए बनाया गया ‘बर्डनेस्ट स्टेडियम’ का बाहरी हिस्सा पर्यटकों के लिए है लेकिन उसके भीतर सुबह छह बजे से आठ से दस साल की बच्चियां दिख जाती है। वहां स्कूलों में खिलाड़ी बच्चों के लिए शिक्षा की अलग व्यवस्था होती है, तोकि उन पर परीक्षा जैसा दवाब ना हो। जबकि दिल्ली में स्टेडियम में सरकारी कार्यालय व सचिवालय चलते हैं। कहीं षादियां होती हैं। महानगरों के सुरसामुखी विस्तार, नगरों के महानगर बनने की लालसा, कस्बों के शहर बनने की दौड़ और गांवों के कस्बे बनने की होड़ में मैदान, तालाब, नदी बच नहीं रहे हैं , जहां  स्वाभाविक खिलाड़ी उन्मुक्त  प्रेक्टिस किया करते थे। मैदान कंक्रीट के जंगल के उदरस्थ हुए तो खेल का मुकाम क्लब या स्टेडियम में तब्दील हो गया। वहां जाना, वहां की सुविधाओं का इस्तेमाल करना आमोखास के बस की बात होता नहीं ।

 फिर खेल एसोशिसन की राजनीति तो है ही । हाल के पेरिस ओलंपिक में ऐसे राज्यों से भी दो-दो  लोग गए जहां से कोई खिलाड़ी ही नहीं गया । सैंकड़ाभर से ज्यादा गैर खिलाड़ियों के दल ने कर दिया है। यह कटु सत्य है कि विजेता खिलाड़ियों पर जिस तरह से लोग  पैसा लुटाते हैं असल में यह उनका खेल के प्रति प्रेम या खिलाड़ी के प्रति सम्मान नही होता, यह तो महज बाजार में आए एक नए नाम पर निवेश होता है। क्रिकेट की बानगी सामने है, जिसमें ट्रैनिंग से ले कर आगे तक कारपोरेट घरानों का सहयोग व संलिप्तता है।

हमारे यहां बच्चों के लिए, शिक्षा के लिए किए जा रहे काम को जिम्मेदारी से ज्यादा धर्माथ का काम माना जाता है और तभी स्कूलों, हॉस्टल, खेल मैदान, खिलाड़ियों की दुर्गति, स्कूली टूर्नामेंट स्तर पर खिलाड़ियों को ठीक से खाना तक नहीं मिलना जैसी बातों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता। हुक्मुरान समझते हैं कि ‘‘इतना कर दिया वह कम है क्या’’। मुल्क का हर बच्चा भलीभांति विकसित हो, शिक्षित हो, उसकी प्रतिभा को निखरने का हरसंभव परिवेश मिले, यह देश के लिए अनिवार्य है, ना कि इसके लिए किए जा रहे सरकारी बजट का व्यय कोई दया । यह भाव जब तक पूरी मशीनरी में विकसित नहीं होगा, हम बालपन में उर्जावान, उदीयमान और उच्च महत्वाकांक्षा वाले बच्चों को सही ऊंचाई तक नहीं ले जा पांगे।

अब समाज को ही अपनी प्रतिभाओं को तलाशने, तराशने का काम अपने जिम्मे लेना होगा। किस इलाके की जलवाय कसी है और वहां किस तरह के खिलाड़ी तैयार हो सकते हें इस पर वैज्ञानिक तरीके से काम हो। जैसे कि समुंद के किनारे वाले इलाकों में दौड़ने का स्वाभाविक प्रभाव होता हे। पूर्वोत्तर में शरीर का लचीलापन है तो वहां जिम्नास्टिक, मुक्केबाजी पर काम हो। झारखंड व पंजाब में हाकी। ऐसे ही इलाकों का नक्शा बना कर प्रतिभाओं को उभारने का काम हो। जिला स्तर पर समाज के लेगों की समितियां, स्थानीय व्यापारी और खेल प्रेमी ऐसे लेगों को तलाशें। इंटरनेट की मदद से उनके रिकार्ड को आंकड़ों के साथ प्रचारित करें। हर जिला स्तर पर अच्छे एथलेटिक्स के नाम सामने होना चाहिए। वे किन प्रतिस्पर्दाओं में जाएं उसकी जानकारी व तैयारी का जिम्मा जिला खेल कमेटियों का हो। बच्चों को संतुलित आहार, खेलने  का ,माहौल, उपकरण मिलें , इसकी पारदर्शी व्यवस्था हो और उसमें स्थानीय व्यापार समूहों से सहयोग लिया जाए। सरकार किसी के दरवाजे जाने से रही, लोगों  को ही ऐसे खिलाड़ियों  को शासकीय योजनाओं का लाभ दिलवाने के प्रयास करने होंगे। सबसे बड़ी बात जहां कहीं भी बाल प्रतिभा की अनदेखा या दुभात होती दिखे, उसके खिलाफ जोर से आवाज उठानी होगी।

Increasing summer days, increasing problems

  बढ़ते गर्मी के दिन, बढ़ती परेशानियाँ पंकज चतुर्वेदी उत्तर पूर्वी राज्यों में जब सबसे भीगा   और पसंदीदा मौसम होता है,   असम में गुवाहाटी ...