ecology , water and environment

My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 16 सितंबर 2025

Hindi can not be promote without folk dialects

 बोलियों को बचाए बगैर नहीं संवरेगी हिंदी

पंकज चतुर्वेदी



सितम्बर का महीना विदा होते बादलों के साथ-साथ  विदा होने के भी से ग्रस्त हिंदी की चिंता का होता हैं . हिंदी लोक भाषा है और उसे राज भाषा कैसे बनाया जाए , इस  अंधी दौड़ में देश की बोलियाँ लुप्त हो रही हैं और हिंदी में  उनका समृद्ध  शब्द – संस्कार  संहित होने के बनिस्पत यूरोपीय भाषाओँ के शब्द हिंदी में जगह बनाते जा रहे हैं . सन 1857 के आसपास हमारी जनगणना में महज एक प्रतिशत लोग साक्षर पाए गए थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उससे पहले भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आयुर्वेद ज्योतिष अंतरिक्ष का ज्ञान हमारे पास नहीं था। वह था- देश की बोलियों में, संस्कृत , उससे पहले प्राकृत या पालि में जिसे सीमित लोग समझते थे, सीमित उसका इस्तेमाल करते थे । फिर अमीर खुसरो के समय आई हिंदी, हिंद यानि भारत के गोबर पट्टी के संस्कृति, साहित्य व ज्ञान की भाषा, उनकी बोलियों का एक समुच्चय। इधर भक्ति काल का दौर था । । हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 ई. से 1700 ई. तक माना जाता है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी उसकी लोक बोलियों में साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं। वास्तव में यह हिंदी साहित्य नहीं, बल्कि हिंदी या देश की अन्य लोक बोलियों की रचना का काल था . अब सरकारी हिंदी सप्ताह या पखवाड़ा की चिंता है  कि दफ्तरों में हिंदी कैसी हो ?

 

आज जिस हिंदी की स्थापना के लिए पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा  मनाया जाता है उसकी सबसे बडी दुविधा है मानक हिंदी यानि संस्कृतनिष्ठ हिंदी। सनद रहे संस्कृत की स्वभाव शास्त्रीय है और दरबारी, जबकि हिंदी का स्वभाव लोक है और विद्रोही । ऐसा नहीं कि आम लोगों की हिंदी में संस्कृत से कोई परहेज है। उसमें संस्कृत से यथावत लिए गए तत्सम शब्द भी हैं तो संस्कृत से परिशोधित हो कर आए तत्दव शब्द जैसे अग्नि से आग, उष्ट से ऊंट आदि । इसमें देशज शब्द भी थे, यानि बोलियों से आए स्थानीय शब्द और विदेशज भी जो अंग्रेजी, फारसी व अन्य भाषाओं से आए। आज भी और कल भी जब-जब प्रतिरोध, असहमति की बात होगी लोक बोली और उससे जुडी हिंदी ही काम आएगी . कई बार लगता है कि सरकारी हिंदी का प्रयास भी वही हैं जो  अंग्रेजी का था , आम लोग उसे समझ-बूझ ही न सकें .

संचार माध्यमों की हिंदी आज कई भाषाओं से प्रभावित है। विशुद्ध हिंदी बहुत ही कम माध्यमों में है। दृश्य और श्रव्य माध्यमों में हिंदी की विकास-यात्रा बड़ी लंबी है। हिंदी के इस देश में जहां की जनता गांव में बसती है, हिंदी ही अधिकांश लोग बोलते-समझते हैं, इन माध्यमों में हिंदी विकसित एवं प्रचारित हुई है। इसके लिए मानक हिंदी कुछ बनी हैं। ध्वनि-संरचना, शब्द संरचना में उपसर्ग-प्रत्यय, संधि, समास, पद संरचना, वाक्य संरचना आदि में कुछ मानक प्रयोग, कुछ पारंपरिक प्रयोग इन दृश्य-श्रव्य माध्यमों में हुए है, किंतु कुछ हिंदीतर शब्दों के मिलने से यहाँ विशुद्ध खड़ी बोली हिंदी नहीं है, मिश्रित शब्द, वाक्य प्रसारित, प्रचारित हो रहे हैं।

यह चिंता का विषय है कि समाचार पत्रों ने अपने स्थानीय संस्करण निकालने तो शुरू किए लेकिन उनसे स्थानीय भाषा  गायब हो गई। जैसे कुछ दशक पहले कानपुर के अखबारों में गुम्मा व चुटैल जैसे शब्द होते थे, बिहार में ट्रेन-बस से ले कर जहाज तक के प्रारंभ होने के समय को ‘‘खुलने’ का सम कहा जाता था। महाराष्ट्र के अखबारों में जाहिरा, माहेती जैसे शब्द होते थे। पंजाब -हरियाणा- हिमाचल के हिंदी मीडिया में स्थानीयता का पुट पर्याप्त होता था. अब सभी जगह एक जैसे शब्द आ रहे हैं। लगता है कि हिंदी के भाषा-समृद्धि के आगम में व्यवधान सा हो गया है।  तिस पर सरकारी महकमे हिंदी के मानक रूप को तैयार करने में संस्कृतनिष्ठ हिंदी ला रहे हैं। असल में वे जो मानक हिंदी कहते हैं असल में वह सीसे के लेटर प्रेस की हिंदी थी जिसमें कई मात्राओं, आधे शब्दों के फाँट नहीं होते थे। आज कंप्यूटर की प्रकाशन-दुनिया में लेड-प्रेस के फाँट की बात करने वाले असल में हिंदी को थाम रहे हैं।

हिंदी में बोली और भाषा का द्वन्द  शिक्षा के प्रसार  और स्कूल जाने वाले बच्चो की बढती संख्या और रोजगार के लिए पलायन ने बढाया ही है . संप्रेषणीयता की दुनिया में बच्चे के साथ दिक्कतों का दौर स्कूल में घुसते से ही से शुरू हुआ- घर पर वह सुनता है मालवी, निमाडी, आओ, मिजो, मिसिंग, खासी, गढवाली,राजस्थानी , बुंदेली, या भीली, गोंडी, धुरबी या ऐसी ही ‘अपनी’ बोली-भाषा। स्कूल में गया तो किताबें खड़ी हिंदी या अंग्रेजी या राज्य की भाषा में और उसे तभी से बता दिया गया कि यदि असल में पढ़ाई कर नौकरी पाना है तो उसके लिए अंग्रेजी ही एकमात्र जरिया है - ‘आधी छोड़ पूरी को जाए, आधी मिले ना पूरी पाए’’। बच्चा इसी दुरूह स्थिति में बचपना बिता देता है कि उसके ‘पहले अध्यापक’ मां-पिता को सही कहूं या स्कूल की पुस्तकों की भाषा को जो उसे ‘सभ्य‘ बनाने का वायदा करती है या फिर  जिंदगी काटने के लिए जरूरी अंग्रेजी को अपनाऊं। स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है , अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है।  भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और मात्रभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्यभ बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है।  सभी जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके पास बेइंतिहां शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है। इस टकराव के बीच हिंदी को ना अजाने कब अंग्रेजी श्रेष्ठता के ग्रहण से  ढँक लेती है .  जाहिर है कि इस शिक्षा से पढ़े लोग जिस दफ्तर में जायेंगे , वे भी राज भाषा और लोकभाषा की हिंदी में उलझे रहेंगे .

 

असल में कोई भी भाषा ‘बहता पानी निर्मला’ होती है, उसमें समय के साथ शब्दों का आना-जाना, लेन-देन, नए प्रयोग आदि लगे रहते है।  यदि हिंदी को वास्तव में एक जीवंत भाषा बना कर रखना है तो शब्दों का यह लेन-देन पहले अपनी बोलियों व फिर भाषाओं से हो, वरना हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी। जान लें कि हिंदी का आज का मानक रूप से बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि बोलियों से ही उभरा है और इसकी श्री-वृद्धि के लिए इन बोलियों को ही हिंदी की पालकी संभालनी होगी।

 

 

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

After all, why do death houses become sewers?

  

 

आखिर मौतघर क्यों बन जाते हैं   सीवर?

पंकज चतुर्वेदी



केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय  मंत्रालय  द्वारा कराए गए एक सोशल ऑडिट की एक ताजा रिपोर्ट से बेहद दर्दनाक सच्चाई सामने आई है कि सीवर और सेप्टिक टैंक की सफ़ाई के दौरान जान गंवाने वाले 90% से ज़्यादा मज़दूरों के पास किसी भी तरह के सुरक्षा उपकरण  नहीं थे. जांचकर्ताओं ने  2022 और 2023  के बीच 8 राज्यों के 17 ज़िलों में हुई में हुईं 54 मौतों की गहराई से पड़ताल की . पाया गया कि 54 मौतों में से 49 मामलों में मज़दूरों ने कोई भी सुरक्षा उपकरण नहीं पहना था. सिर्फ़ पांच मामलों में उनके पास दस्ताने थे और सिर्फ़ एक मामले में दस्ताने और गमबूट दोनों थे. इससे भी ज़्यादा गंभीर बात यह है कि 47 मामलों में मज़दूरों को सफ़ाई के लिए कोई भी मशीनी उपकरण नहीं दिया गया था. यही नहीं, 27 मामलों में तो मज़दूरों से काम के लिए सहमति तक नहीं ली गई थी. और जिन 18 मामलों में लिखित सहमति ली भी गई, वहां उन्हें काम में शामिल जान के ख़तरों के बारे में कुछ नहीं बताया गया.


सरकार ने संसद में  स्वीकार किया कि 'नमस्ते' (NAMASTE) योजना के तहत 'खतरनाक तरीक़े से सीवर की सफ़ाई' की समस्या के निराकरण पर काम करना बचा है . नमस्ते योजना के तहत, अब तक देश भर में 84,902 सीवर और सेप्टिक टैंक कर्मचारियों की पहचान की गई है, जिनमें से आधे से कुछ ज़्यादा को ही पीपीई किट और सुरक्षा उपकरण दिए गए हैं.  विदित हो कोई पांच साल पहले सुप्रीम कौर्ट ने आदेश दिया है कि यदि  सीवर की सफाई के दौरान कोई श्रमिक मारे जाते हैं उनके परिवार को सरकारी अधिकारियों को 30 लाख रुपये मुआवजा देना होगा. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस अरविंद कुमार की बेंच ने साथ ही कहा था कि सीवर की सफाई के दौरान स्थायी विकलांगता का शिकार होने वालों को न्यूनतम मुआवजे के रूप में 20 लाख रुपये और अन्य किसी विकलांगता से ग्रस्त होता है तो उसे 10 लाख रुपये का मुआवजा देना होगा . यह आदेश भी  क्रियान्वयन के धरातल पर उतर नहीं पाया क्योंकि अधिकाँश   सीवर सफाई करने वालों  को कार्य सौपने का कोई दस्तावेज ही नहीं होता. एक तरफ कम खर्च में श्रम का लोभ है तो दूसरी तरफ पेट भरने की मजबूरी  और तीसरी है  आम मजदूरों को सरकारी कानूनों की जानकारी न होना .



सीवर के मौतघर बनने का कारण सीवर की जहरीली गैस बताया जाता है । हर बार कहा जाता है कि यह लापरवाही का मामला है। पुलिस ठेकेदार के खिलाफ मामला दर्ज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। यही नहीं अब नागरिक भी अपने घर के सैप्टिक टैंक की सफाई के लिए अनियोजित क्षेत्र से मजदूरों को बुला लेते हैं और यदि उनके साथ कोई दुर्घटना होती है तो ना तो उनके आश्रितों को कोई मुआवजा मिलता है और ना ही कोताही करने वालों को कोई समझाईश । शायद यह पुलिस को भी नहीं मालूम है कि इस तरह सीवर सफाई का ठेका देना हाईकोर्ट के आदेश के विपरीत है। समाज के जिम्मेदार लोगों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि नरक-कुंड की सफाई के लिए बगैर तकनीकी ज्ञान व उपकरणों के निरीह मजदूरों को सीवर में उतारना अमानवीय है।

यह विडंबना है कि सरकार व सफाई कर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढ़ोन की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देता है। राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मुंबई हाईकोर्ट ने 12  साल पहले सीवर की सफाई के लिए दिशा –निर्देश  जारी किए थे, जिनकी परवाह और जानकारी किसी को नहीं है। सरकार ने भी सन 2008 में एक अध्यादेश  ला कर गहरे में सफाई का काम करने वाले मजदूरों को सुरक्षा उपकरण प्रदान करने की अनिवार्यता की बात कही थी। नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लोगों की सुरक्षा-व्यवस्था के कई कानून हैं और मानव अधिकार आयोग के निर्देश  भी । लेकिन इनके पालन की जिम्मेदारी किसी की नहीं। कोर्ट के निर्देशों  के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजेंसी के पास सीवर लाईन के नक़्शे , उसकी गहराई से संबंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई का दैनिक रिकार्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की जांच, आवश्यक  सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लगे कर्मचारियों का नियमित ट्रेनिंग , सीवर में गिरने वाले कचरे की हर दिन जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं; जैसी आदर्श स्थिति कागजों से ऊपर कभी आ नहीं पाई . सुप्रीम कोर्ट का ताजा आदेश है तो ताकतवर लेकिन समस्या यह है कि अधिकांश मामलों में मजदूरों को काम अपर लगाने का कोई रिकार्ड ही नहीं होता . यह सिद्ध करना मुश्किल होता है कि अमुक व्यक्ति को अमुक ने इस काम के लिए बुलाया था या काम सौंपा था ।

भूमिगत सीवरों ने भले ही शहरी जीवन में कुछ सहूलियतें दी हों, लेकिन इसकी सफाई करने वालों के जीवन में इस अंधेरे नाले में और भी अंधेरा कर दिया है । अनुमान है कि हर साल देश भर के सीवरों में औसतन एक हजार लोग दम घुटने से मरते हैं । जो दम घुटने से बच जाते हैं उनका जीवन सीवर की विषैली गंदगी के कारण नरक से भी बदतर हो जाता है । देश  में दो लाख से अधिक लोग जाम हो गए सीवरों को खोलने , मेनहोल में घुस कर वहां जमा हो गई गाद, पत्थर को हटाने के काम में लगे हैं । कई-कई महीनों से बंद पड़े इन गहरे नरक कुंडों में कार्बन मोनो आक्साईड, हाईड्रोजन सल्फाईड, मीथेन जैसी दमघोटू गैसें होती हैं

यह एक शर्मनाक पहलू है कि यह जानते हुए भी कि भीतर जानलेवा गैसें और रसायन हैं, एक इंसान दूसरे इंसान को बगैर किसी बचाव या सुरक्षा-साधनों के भीतर ढकेल देता है । सनद रहे कि महानगरों के सीवरों में  महज घरेलू निस्तार ही नहीं होता है, उसमें ढ़ेर सारे कारखानों की गंदगी भी होती है । और आज घर भी विभिन्न रसायनों के प्रयोग का स्थल बन चुके हैं । इस पानी में ग्रीस-चिकनाई, कई किस्म के क्लोराईड व सल्फेट, पारा, सीसा के यौगिक, अमोनिया गैस और ना जाने क्या-क्या होता है । सीवरेज के पानी के संपर्क में आने पर सफाईकर्मी  के षरीर पर छाले या घाव पड़ना आम बात है । नाईट्रेट और नाईट्राईड के कारण दमा और फैंफड़े के संक्रमण होने की प्रबल संभावना होती है । सीवर में मिलने वाले क्रोमियम से षरीर पर घाव होने, नाक की झिल्ली फटने और फैंफड़े का कैंसर होने के आसार होते हैं । भीतर का अधिक तापमान इन घातक प्रभावों को कई गुना बढ़ा देता है । यह वे स्वयं जानते हैं कि सीवर की सफाई करने वाला 10-12 साल से अधिक काम नहीं कर पाता है, क्योंकि उनका शरीर काम करने लायक ही नहीं रह जाता है । ऐसी बदबू ,गंदगी और रोजगार की अनिश्चितता में जीने वाले इन लोगों का शराब व अन्य नशों की गिरफ्त में आना लाजिमी ही है और नषे की यह लत उन्हें कई ग्रभीर बीमारियों का षिकर बना देती है । 

वैसे यह कानून है कि सीवर सफाई करने वालों को गैस -टेस्टर(जहरीली गैस की जांच का उपकरण), गंदी हवा को बाहर फैंकने के लिए ब्लोअर, टार्च, दस्ताने, चष्मा और कान को ढंकने का कैप, हैलमेट मुहैया करवाना आवष्यक है । मुंबई हाईकोर्ट का निर्देष था कि सीवर सफाई का काम ठेकेदारों के माध्यम से कतई नहीं करवाना चाहिए। सफाई का काम करने के बाद उन्हें पीने का स्वच्छ पानी, नहाने के लिए साबुन व पानी तथा स्थान उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है । काश कानून इतनी कड़ी से लागु हो कि मुआवजा दने की नौबत आये नहीं और सफाई कार्य से पहले ही जिम्मेदार एजेंसियां  सुरक्षा उपकरण और कानून के प्रति संवेदनशील हों .

 

 

शुक्रवार, 27 जून 2025

Puri rath yatar and muslim devotee of jagannath

                                 मुस्लिम सालबेगा के बगैर पूरी नहीं होतीपुरी  की रथ यात्रा

पंकज  चतुर्वेदी



श्री जगन्नाथ पुरी में  मंदिर से रथ चला गुंडेचा मंदिर के तरफ लेकिन रास्ते में एक ही जगह वह रुकता है - वह है भक्त सालबेगा की मजार जगन्नाथ का मुस्लिम अनन्य भक्त ।  ओडिसी  नृत्य हो या  शास्त्रीय गायन या दूरस्थ अंचल की कोई धार्मिक सभा, सलबेगा द्वारा रचित  भजन  के बगैर उसे अधूरा ही माना जाता है । भगवान जगन्नाथ के  भक्त सलबेगा को ओडिया  भक्ति संप्रदाय में  विशिष्ट स्थान मिला हुआ है । कह सकते हैं की वे अपने दौर के क्रांतिकारी रचनाकार थे जो इस्लाम को भी मानते थे और प्रभु जगन्नाथ को भी शीश नवाते थे । भक्त सालबेगा की सबसे प्रसिद्ध  रचना  आज भी सभी धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रमों में सस्वर गाया जाना लगभग अनिवार्य माना जाता  है –

आहे नीला शैला; प्रबल मत्त वरण

मो आराता नलिनी बन कु कर दलना!

सालबेगा के प्रारम्भिक जीवन के बारे में तथ्यों से अधिक किवदंतियाँ चर्चित  हैं । भक्त सालबेगा (1607/1608 - अज्ञात; उड़िया) 17 वीं शताब्दी की शुरुआत के एक ओडिया भाषा के धार्मिक कवि थे। उनका जन्म मुगल सेना के मुस्लिम योद्धा लालबेगा के यहाँ हुआ । उन दिनों मुगल हमेशा श्री मंदिर को गिराने के लिए कब्जा करने की कोशिश कर रहे थे। एक बार जब मुगल योद्धा लाल बेग, पुरी के डंडा मुकुंदपुर इलाके के पास पुरी से लौट रहे थे, तो उन्होंने एक सुंदर युवा ब्राह्मण विधवा को स्नान घाट से लौटते हुए पाया। उसने महिला का अपहरण कर लिया और अंत में मजबूरी में उससे शादी कर ली, जो बाद में फातिमा बीवी के नाम से जानी जाने लगी। सालबेगा फातिमा बीवी और लालबेगा के पुत्र थे। बचपन से ही उन्होंने अपनी माँ से भगवान जगन्नाथ, भगवान कृष्ण और भगवान राम के बारे में सुना। वह उनकी ओर आकर्षित हो गया। वह उनकी भक्ति करता , उन पर गीत लिखता ।

फातिमा बीवी की मृत्यु के समय  भक्त सालबेगा एक बच्चा था.  एक बार वह एक गंभीर बीमारी से ग्रसित हो गया और सभी वेद्ध – हकीमों  ने यह उम्मीद छोड़ दी कि भक्त सालबेगा जीवित नहीं रह सकता। एक दिन जब वह बिस्तर पर था तो उसने भजन सुना और सोचा कि महान भगवान जगन्नाथ जो कि दुनिया के भगवान हैं, मुझे ठीक करने में सक्षम होंगे। सालबेगा भगवान जगन्नाथजी की भक्ति में इतना खो गया था कि वो दिन-रात पूजा-अर्चना और भक्ति करने लगा। इसी भक्ति और पूजा-अर्चना के चलते सालबेगा को मानसिक शांति और जीवन जीने की शक्ति मिलने लगी। मुस्लिम होने के कारण सालबेगा को मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता। वह मंदिर के बाहर ही बैठकर भगवान की भक्ति करने लगता। ऐसा माना जाता है कि भगवान जगन्नाथ जी उसे सपने में आकर दर्शन दिया करते। भगवान उसे सपने में आकर घाव पर लगाने के लिए भभूत देते और सालबेगा सपने में ही उस भभूत को अपने माथे पर लगा लेता। उसके लिए हैरान करने वाली बात यह थी कि उसके माथे का घाव सचमुच में ठीक हो गया था। मुस्लिम होने के कारण सालबेगा कभी भी भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन नहीं कर पाया और उसकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पहले सालबेगा ने कहा था, ‘यदि मेरी भक्ति में सच्चाई है तो मेरे प्रभु मेरी मजार पर जरूर आएंगे।

 मृत्यु के बाद सालबेगा की मजार जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर के रास्ते में बनाई गई थी। इसके कुछ महीने बाद जब जगन्नाथजी की रथयात्रा निकली तो सालबेगा की मजार के पास आकर भगवान का रथ रुक गया और लाख कोशिशों के बाद भी रथ इंच भर भी आगे नहीं बढ़ा। तभी पुरोहितों और राजा ने सालबेगा की सारी सच्चाई जानी और भक्त सालबेगा के नाम के जयकारे लगाए। जयकारे लगाने के बाद रथ चलने लगा। बस तभी से हर साल मौसी के घर जाते समय जगन्नाथजी का रथ सालबेगा की मजार पर कुछ समय के लिए रोका जाता है। भक्त सालबेगा के बनाए भजन, आज भी लोगों को याद हैं।

किवदंती यह  भी है कि उड़ीसा के बालासोर में भी भगवान  जगन्नाथ ने  सालबेगा के लिए चमत्कार दिखाया था.  कहते हैं कि सालबेगा बालासोर होते हुए दिल्ली से पुरी आ रहा था और श्यामसुंदर के मंदिर के पास ठहरा हुआ था। शाम की प्रार्थना के दौरान सालबेगा भगवान को अंदर देखना चाहता था, चूंकि वह मुस्लिम था  सो मंदिर के भीतर जा नहीं पाया । एक शाम पुजारी ने पाया कि प्रभु अपने सिंहासन से गायब हैं। उसी रात बालासोर के राजा को स्वप्न आया कि भगवान का एक बड़ा भक्त भगवान के दर्शन के लिए बाहर प्रतीक्षा कर रहा है। फिर उसने दीवार में छेद करने की व्यवस्था की ताकि सालबेगा भगवान को देख सके। जैसे ही उसने देवताओं के सिंहासन को देखा, देवता फिर से प्रकट हो गए।

भक्त सालबेगा सारा जीवन मंदिर के बाहर बैठकर ही भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन की आस लगाए रहा। प्रभु का नाम जपता और उनके भजन लिखता । धीरे-धीरे उसके भजन अन्य भक्तों की जुबान पर भी चढ़ने लगे। यह है भारतीय अध्यात्म व भारतीय संस्कृति की ताकत,जिसके सामने धर्म,संप्रदाय की दीवारें भी कभी बाधक नहीं बन सकीं , न तो प्राचीन काल में, न ही आज भी। सलबेला द्वारा रचित गीतों के साथ कहानियाँ भी हैं , एक बार सालबेगा  बृंदावन में थे और रथ यात्रा के दिन आ गए । उन्हे लगा की बहुदा जात्रा के समय  उनका पहुँचना मुश्किल हैं । उन्होने गीत लिखा

जगबंधु है गौसाईं

तुमभा श्रीचरन बिणु

अन्य गति नाहीं

और  भगवान का रथ थम गया , जब तक सालबेगा पहुँच नहीं गया ।

सालबेगा की  रचनाएं में  भगवान जगन्नाथ के स्तुति के साथ साथ – कृष्ण – कविता , चौपड़ी और भजन की विधा में हैं और उनमें और राम , ब्राह्मणजन और शक्ति व शिव की आराधना  का भी  आख्यान है ।
उनकी कम से कम 120 रचनाएँ पुरानी ताड़ के पत्तों की पांडुलिपियों के साथ-साथ ओडिशा की सड़कों पर भिखारियों द्वारा गाए जाने वाले गीतों से भी मिली बांग्ला आलोचक  सुकुमार सेन की पुस्तक “हिस्ट्री  ऑफ ब्रिज बोली लिट्रेचर “ ने सालबेगा को उडिया के साथ –साथ हिन्दी और बांगाल में गीत लिखने वाले के रूप में उल्लेखित किया गया है ।

 

बुधवार, 7 मई 2025

failed nation, failed army, failed system

 

असफल राष्ट्र , विफल फौज, निष्फल इंतजाम

पंकज चतुर्वेदी



बीते 15 दिनों से सारी दुनिया को पता था कि भारत पहलगाम का बदला लेगा और जाहीर था  कि हवाई हमले की अधिक संभावना है । पाकिस्तान भी खूब दिखावा और बयानबाजी आकर रहा था । गौरी, अबदाली  और फतेह  जैसी मिसाइलें  चल रहा था । अर्थात लगता था कि पाकिस्तानी फौज अलर्ट पर थी ।  लेकिन हुआ क्या जो 6-7 मई की रात जब भारत का “आपरेशन सिंदूर”  हुआ तो न पाकिस्तान की कोई तकनीक काम आई और न फौज , न ही उसके दावे । एक असफल देश, अनैतिक फौजी और खुद से लड़ते लोग।  जाहीर है भारत का मुकाबला क्या करते? वे सामना भी नहीं कर पाए ।


 पाकिस्तान दुनिया से हथियार खरीदता है और  निश्चित ही  उसकी रक्षा योजना भारत के खिलाफ होती है । टर्की और चीन से मिले तंत्र जिस तरह निष्फल रहे उससे लगता है कि क्या पाकिस्तान को हथियार के नाम पर खिलौना दे दिया गया ?

ऑपरेशन सिंदूर के दौरान, जो कि 7 मई 2025 को भारत द्वारा पाकिस्तान और पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर  में नौ आतंकवादी ठिकानों पर लक्षित हमले थे। इस दौरान पाकिस्तान की रडार और वायु रक्षा प्रणालियों का कोई आता पता ही नहीं रहा । पाकिस्तान के पास चीन से खरीदे गए लो-लेबल एयर डिफेन्स  रडार सिस्टम (एल एल ए डी आर एस) जे वाय -27, वायएलसी -6, वायएलसी -8बी  जैसे राडार हैं जो लंबी दूरी पर और कम ऊँचाई पर उड़ने वाले विमानों को भी ट्रैक कर सकते हैं। इसके अलावा  स्वीडन से लिया गया जिराफ़ या साब -2000 विमान भी हैं जिनमें राडार लगा है । इससे एयरस्पेस की निगरानी और कमांड एंड कंट्रोल क्षमता में बढ़ोतरी होती है। चीन से लिया गया  जेड डी के -03 ए ई डब्लू तो लंबी दूरी से हवाई खतरों की निगरानी के लिए बना है । ये सभी  अत्याधुनिक  तंत्र भारत की क्षमता और योजना के आगे  बेकार हो गए ।



पाकिस्तान द्वारा हमारे जहाजों को खोज न पाने का एक कारण भारत द्वारा स्टैंडऑफ हथियारों का उपयोग किया जाना है ।  भारत ने स्टैंडऑफ हथियारों जैसे सकाल्प (SCALP) मिसाइलों का प्रयोग किया, जिन्हें भारतीय हवाई क्षेत्र से लॉन्च किया गया, जैसा कि पाकिस्तान की सेना ने पुष्टि की है। ये हथियार, जो लंबी दूरी से हमला करने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं, संभवतः कम ऊंचाई की उड़ान मार्गों या स्टील्थ विशेषताओं का उपयोग करके पाकिस्तान के रडार की पकड़ से बच गए। पाकिस्तान ने 24 मिसाइल हमलों की सूचना दी, जिनमें कोई इंटरसेप्शन नहीं हुआ, जिससे पता चलता है कि चीनी निर्मित HQ-9/P और LY-80 जैसे सिस्टम इन मिसाइलों का पता लगाने या उनसे निपटने में असमर्थ रहे।

पाकिस्तान की वायु रक्षा प्रणालियों की सीमाएं: पाकिस्तान की वायु रक्षा मुख्य रूप से चीनी प्रणालियों जैसे HQ-9/P (125–250 किमी रेंज), LY-80 (40–70 किमी), और HQ-16FE पर निर्भर है, साथ ही HT-233 और IBIS-150 जैसे रडारों के साथ। ये प्रणालियाँ कागज पर उन्नत होने के बावजूद कमजोरियां प्रदर्शित कर चुकी हैं। उदाहरण के लिए, HQ-9/P की क्रूज मिसाइलों के खिलाफ प्रभावशीलता लगभग 25 किमी तक सीमित है, जो कि इसके एयरक्राफ्ट एंगेजमेंट रेंज से काफी कम है। इसके अलावा, LY-80 जैसे सिस्टम अर्ध-सक्रिय रडार होमिंग का उपयोग करते हैं, जो निरंतर रडार प्रकाशन पर निर्भर होता है, जिससे कम ऊंचाई पर उड़ने वाले या स्टील्थ लक्ष्यों द्वारा बचाव संभव हो पाता है। 2011 के अमेरिकी एबटाबाद ऑपरेशन ( ओसामा बिन लादेन )और 2024 में ईरान के मिसाइल हमलों जैसे ऐतिहासिक घटनाओं ने भी कम ऊंचाई या स्टील्थ घुसपैठ की पहचान में कमियों को उजागर किया है।



भारत की SEAD क्षमताएं: भारत की दुश्मन वायु रक्षा दबाने (SEAD) रणनीतियाँ भी प्रभावी रही होंगी। भारतीय वायु सेना (IAF) के Su-30MKI जेट्स Kh-31P और Rudram-1 एंटी-रेडिएशन मिसाइलों से लैस हैं, जो रडार को निशाना बनाकर निष्क्रिय करने के लिए डिजाइन की गई हैं। Rudram-1, जिसकी रेंज 100–250 किमी है और जिसमें मेमोरी ट्रैकिंग है, वह रडार विकिरणों को तब भी लॉक कर सकता है जब रडार बंद हो, जिससे ऑपरेशन के दौरान पाकिस्तान के रडार नेटवर्क को बाधित किया जा सकता है। यह इस बात का कारण हो सकता है कि HT-233 या YLC-18A जैसे पाकिस्तान के रडार आने वाले खतरों को प्रभावी ढंग से ट्रैक नहीं कर पाए।

ऑपरेशनल और तकनीकी कमियां: पाकिस्तान की वायु रक्षा प्रणालियाँ, जो मुख्य रूप से चीनी मूल की हैं, अक्सर खराबी, अधिक वादे या अपर्याप्त प्रशिक्षित कर्मियों द्वारा संचालित होने के लिए आलोचना की गई हैं। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान इंटरसेप्शन की कमी से रडार एकीकरण, प्रतिक्रिया समय या सिस्टम तत्परता में संभावित समस्याओं का संकेत मिलता है। उदाहरण के लिए, IBIS-150 और JY-27A रडार ईरान के 2024 के हमलों के दौरान हताहतों को रोकने में विफल रहे, जिससे परिचालन खामियों का पता चलता है। इसके अतिरिक्त, जटिल रडार प्रणालियों के रख-रखाव जैसी लॉजिस्टिक चुनौतियों ने पाकिस्तान की क्षमताओं पर दबाव डाला होगा।

भारत के हमले ;सटीक, गणनात्मक और गैर-प्रवर्धक ; बताए गए, जिन्हें बिना पाकिस्तानी हवाई क्षेत्र का उल्लंघन किए अंजाम दिया गया। IAF की तेज़ और समन्वित हमले करने की क्षमता ने पाकिस्तान की वायु रक्षा प्रतिक्रिया को मात दी। पाकिस्तान की सेना ने हमलों का पता तब लगाया जब वे पहले ही हो चुके थे।

भारत द्वारा  उन्नत इलेक्ट्रॉनिक युद्ध (EW) क्षमताओं का उपयोग, संभवतः Dassault Falcon 20 जैसे प्लेटफॉर्म के माध्यम से, पाकिस्तान के रडार नेटवर्क को जाम या बाधित कर सकता है। ऑपरेशन सिंदूर के लिए इसे स्पष्ट रूप से पुष्टि नहीं मिली है, लेकिन क्षेत्रीय विश्लेषणों के अनुसार भारत की बढ़ती EW क्षमताओं ने पाकिस्तान की स्थिति जागरूकता को कम किया होगा।

सनद रहे बुनियादी सुविधाओं के लिए  धन की कमी झेल रहे पाकिस्तान ने वित्तीय वर्ष 2024–25 के लिए अपने रक्षा बजट में लगभग 15% की वृद्धि करते हुए इसे 2,122 अरब पाकिस्तानी रुपये (लगभग 7.6 अरब अमेरिकी डॉलर) निर्धारित किया है। यह बजट कुल संघीय बजट का लगभग 11.2% और देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 1.7% है

खिसिआए पाकिस्तानी भी कुछ कुतर्कों के साथ अपना बचाव कर रहे हैं । कुछ X पोस्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान ने राजनीतिक या जनमत प्रबंधन के लिए जानबूझकर हमलों की अनुमति दी, और नुकसान कम बताया। हालांकि, यह अटकलें हैं और पाकिस्तान की आधिकारिक प्रतिक्रिया के विपरीत हैं, जिसने हमलों को युद्ध की कार्रवाई करार दिया और जवाबी कार्रवाई का वादा किया।

इंटरसेप्शन की कमी और रिपोर्ट किए गए नागरिक हताहतों (पाकिस्तान ने आठ मौतों का दावा किया) से यह स्पष्ट होता है कि हमला प्रभावी ढंग से रोका नहीं गया। इसके अलावा, जबकि HQ-9BE जैसे सिस्टम बैलिस्टिक मिसाइलों से मुकाबला करने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं, उनका उन्नत स्टैंडऑफ हथियारों या स्टील्थ क्रूज मिसाइलों के खिलाफ प्रदर्शन युद्ध में अभी तक परीक्षण के दायरे में नहीं आया है।

इस हमले से साफ है की पाकिस्तान की किसी भी स्तर पर औकात नहीं है की भारत के साथ युद्ध कर सके ।

 

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