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My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 24 मार्च 2025

How National Book Trust Become Narendra Book Trust

 

नेशनल बुक ट्रस्ट , नेहरू और नफरत

पंकज चतुर्वेदी

नवजीवन 23 मार्च 


देश की आजादी को दस साल ही हुए थे और उस समय देश के नीति निर्माताओं को समझ आ गया था कि पठनशील और वैज्ञानिक सोच के सामज के बगैर  देश के विकास की गति संभव नहीं । शायद उस दौर में दुनिया में ऐसी संस्थाएं विकसित देशों में भी दुर्लभ थीं , भारत में किताबों के प्रोन्नयन और प्रकाशन के लिए 01 अगस्त 1957 को नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया की स्थापना कर दी गई ।  पंडित नेहरू के लिए इसका मकसद, किफायती दाम में अच्छे साहित्य को प्रकाशित करना और उसे लोगों के घरों तक पहुंचना  व लोगों को किताबों के प्रति प्रोत्साहित करना था। नेहरू जी ने कल्पना की थी कि एनबीटी एक नौकरशाही मुक्त संस्था होगी और इसी लिए इसे गांधी जी के न्यासी सिद्धांत के अनुरूप एक स्वतंत्र निकाय के रूप में स्थापित किया । उनका सपना था कि एनबीटी 'पुस्तक अस्पताल' के रूप में काम करे ।  ट्रस्ट की पहली किताब ही बच्चों के लिए छपी और और आज भी गुणवत्तापूर्ण, वैज्ञानिक सोच और काम दाम की किताबों के लिए ट्रस्ट पहचाना जाता है ।

National Herald  23 March

नेशनल बुक ट्रस्ट को दुनिया  में नेहरू के सपनों की संस्था के रूप में पहचान मिली । बात 2007 की है । कराची पुस्तक मेले का उदघाटन  सिंध विधानसभा के स्पीकर ने किए और  जर्मनी के कौनसुलेट  उसके मुख्य अतिथि थे। स्पीकर ने अपने भाषण में कम से काम तीन बार भारत की प्रगति, “वाय टू  के “ में भारत के कंप्यूटर इंजीनियर्स के कामल का जिक्र किया । उदघाटन के बाद जब मेरी उनसे बात हो रही थी और मेरा सवाल था कि जब हम दोनों देश एक साथ आजाद हुए तो आप क्यों पिछड़ गए ? उन्होंने कहा कि आपके यहाँ नेहरू था जिन्होंने ढेर सारे महकमे बनाए और उन्हें काम करने की आजादी दी । उन्होंने खान कि पाकिस्तान में किताबों के लिएब केवल एक विभाग है – पाकिस्तान बुक फाउंडेशन जबकि भारत में नेशनल बुक ट्रस्ट, एन  सी ई आर टी ,  साहित्य अकादमी जैसे दर्जन भर विभाग हैं जो सरकार के बंधन से मुक्त हैं। बहुत फकर महसूस हुआ कि हमारे  घोर दुश्मन  देश के नेता इस तरह से सोचते हैं । नेशनल बुक ट्रस्ट की लंबी यात्रा  में कई बड़े लेखक , विचारक इसके अध्यक्ष और न्यासी मण्डल के सदस्य हुए । सरकारें  आती -जाती रही लेकिन  किसी किताब को रोकने की जरूरत पड़ी नहीं । कोई 55 भारतीय भाषाओं में 18 हजार से अधिक किताबें । अलग-अलग पाठकवर्ग के लिए अलग अलग पुस्तकमालाएं और उन पुस्तकमालाओं के अलग से लोगो—इतना बड़ा किताबों का ब्रांड दुनिया में नहीं हैं । खासकर बच्चों की किताबें  तो नेशनल बुक ट्रस्ट की विशिष्ठ  पहचान रही । इस पुस्तकमाला  का नाम पंडित नेहरू के देहावसान के बाद “नेहरू बाल पुस्तकालय “ रखा गया और इस श्रंखला की किताबों पर गुलाब का फूल होता था जो इसकी पहचान था ।

 एक बात और जान लें भले ही संस्थान की स्थापना पंडित नेहरू ने की लेकिन सन 90 तक नेहरू पर एक ही किताब संस्था ने छापी – तारा अली बेग की बच्चों के लिए नेहरू पर पतली सी किताब । उसके बाद अर्जुनद एव के सम्पादन में “जवाहरलाल नेहरू संघर्ष के दिन “ किताब आई जिसमें नेहरू के  चुनिंदा लेखन को संकलित किया गया था । सन  1996 में नवसाक्षर पुस्तकमाला ( जो  साक्षरता अभियान से साक्षर बने प्रौढ़ लोगों के लिए बनाई गई थी ।) में देशराज गोयल कि दो पतली-पतली किताबें  आई- ‘बात जवाहरलाल की’ और ‘याद जवाहरलाल की’ ।  उसके बाद संन 2005 मे पी डी टंडन ने “अविस्मरणीय  नेहरू”  शीर्षक से एक किताब युवाओं  के लिए लिखी । इंदिरा गांधी पर इन्द्र मल्होत्रा की किताब 2009 मे आई और उसमें इंदिरजी की कई जगह तगड़ी आलोचना है । राजीव गांधी पर कोई किताब नहीं हैं ।  आखिर संस्थान का इरादा अच्छी किताबे  पाठकों की अभिरुचि परिष्कृत करने का था न कि सरकार के प्रचार का । न्यासी मंडल के सामने  नेहरू के सपनों का ‘बुक अस्पताल ‘ रहा ।

World Book fari place of Modi publicity 

Story Of chandr Yaan But photo of Modi 


नेशनल बुक ट्रस्ट के प्रकाशन का उद्देश्य बाजार को यह बताना था कि एक बेहतर पुस्तक कैसी हो ? कई दशक तक नेशनल बुक ट्रस्ट और उसके बाद चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट की किताबें बच्चों के लिए मानक बन कर बाजार में रही। मुक्त व्यापार व्यवस्था और तकनीकी में गुणवत्ता आने के बाद एक तरफ विदेशी किताबों का प्रभाव आया तो हमारी पारंपरिक सोच की बाल पुस्तकों – पंचतंत्र, पौराणिक कथाओं , प्रेरक कथाओं  आदि में भी बदलाव आया । हिंसा, अभद्र भाषा, बदला, आदि से दूर ,  लैंगिक समानता, जाती-धर्म में सौहार्द , वैज्ञानिक सोच आदि विषय बाल साहित्य के लिए अनिवार्य बनते गए ।  सरकार बदलते ही बच्चों की किताबों का हाल भी बहाल होता गया । खासकर मोदी  सरकार-2 के बाद किताबों में अवैज्ञानिक तथ्य , नफरत से जुड़ी बाटने बढ़ती गई । इसे लापरवाही कहें या फिर सुनियोजित कि वर्ष 2024 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा सबसे पहले बच्चों की जो किताब छापी गई वह थी खाटू श्याम पर और उसके चतुर्थ कवर पर एक व्यक्ति की कटी गरदन ले कर खड़े व्यक्ति का चित्र है । दुनिया में कहीं भी आज बाल साहित्य में इस तरह के अमानवीय चित्र की अनुमति नहीं देता। पौराणिक और लोक कथाओं को बच्चों के लिए चुनते समय यह ध्यान दिया जाता है कि उसमें हिंसा या ताकत पाने के लिए कुटिलता का इस्तेमाल न हो ।  नेशनल बुक ट्रस्ट  इससे पहले मनोज दास जैसे महान लेखक की कृष्ण कथा बच्चों के लिए छाप चुका है लेकिन उस किताब में नृशंस हिंसा देखने को नहीं मिलती।  ऐसी ही एक हास्यास्पद किताब अंग्रेजी में चन्द्र यान अभियान पर है और इसके कवर पर किसी वैज्ञानिक नहीं, नरेंद्र मोदी का फोटो लगाया गया है . जाहिर है कि किताब का उद्देश्य चन्द्र यान अभियान की जानकारी देने से ज्यादा प्रधान मंत्री का प्रचार करना है . किताब के चौथे कवर अपर भी वैज्ञानिकों की जगह मोदी जी को इसका श्रेय दिया जा रहा हैं । सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि ऐसी किताबों के लेखक या तो स्वयं ट्रस्ट के निदेशक हैं या उनकी  पत्नी ।  उल्लेख करना होगा कि निदेशक की पत्नी उत्तराखंड न्यायिक सेवा में थीं और और कुछ साल पहले इनके घर से एक नाबालिग लड़की को बुरी तरह घायल और उत्पीड़ित अवस्था में कलेक्टर और हाई कोर्ट के जज ने जब्त किया था । उसके बाद उनकी  सेवाएं बर्खास्त आकर दी गई थीं। जो बाल उत्पीड़न के कारण हाई कोर्ट से दोषी पाया गया हो वह अब बच्चों का लेखक हैं ।

Change the Logo  From green tree to red dry 


सन 2014 के बाद नेशनल बुक ट्रस्ट में बहुत  से बदलाव हुए  और उसमेंसबसे अधिक बदलाव का उद्देश्य यह रहा कि संस्थान में जहां-त्यहाँ नेहरू का नाम हो, मिटा दिया जाए । शुरुआत में ‘ नेहरू बाल पुस्तकालय’  पुस्तकमाला के कवर पेज के लोगों _ गुलाब के फूल को हटाया गया । लगा कि गुलाब का फूल नेहरू की निशानी है । फिर हर साल 14 से 20 नवंबर तक देश के दूरस्थ अंचलों तक “राष्ट्रीय पुस्तक सप्ताह” मनाया जाता था । इसके तहत छोटे छोटे स्कूलों तक तरसुत किताबों से जुड़ी गतिविधियों का फ़ोल्डर भेजता, पोस्टर भेजता , सैंकड़ों जगह  किताबों की प्रदर्शनी लगित। गोष्ठी, सेमीनार, बच्चों की प्रतियोगिताएं होती । एक हफ्ते में औसतन सारे देश में 20 हजार आयोजन किताबों से जुड़े होते । सन 2015 के बाद यह आयोजन बंद कर दिए गए । क्योंकि इनकी शुरुआत 14 नवंबर  पंडित नेहरू के जन्मदिन से होती थी , हालांकि आयोजन में कभी नेहरू के नाम का  इस्तेमाल होता नहीं था ।

नेशनल बुक ट्रस्ट दशकों तक दिल्ली के ग्रीन पार्क में किराये के भवन से संचालित होता रहा। सन 2008 में यह अपने भवन में  वसंत कुंज आया और केंद्र सरकार के मानव संसाधन विभाग के अनुमोदन के बाद इस भवन का नाम नेहरू भवन रखा गए । पिछले तीन सालों में पहले  नेशनल बुक ट्रस्ट की स्टेशनरी  अर्थात लेटेर हेड, विजिटिंग कार्ड, वेब साइटे से  “नेहरू भवन” शब्द को हटाया गया फिर किताबों  में छपने वाले पते से भी “नेहरू भवन “ शब्द हटा दिया । पिछले दिनों प्रगति मैदान में सम्पन्न ‘ नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला ” का केन्द्रीय विषय था - भारत का संविधान। इस विषय पर लगी चित्रों और किताबों की प्रदर्शनी से नेहरू का बायकाट किया गया । हाल ही में  ट्रस्ट की सबसे लोकप्रिय  पुस्तकमाला - नेहरू बाल पुस्तकालय’ का भी नाम बदल कर “नेशनल बाल पुस्तकालय”  कर दिया । कहने की जरूरत नहीं कि बीते 11 सालों में नेशनल बुक ट्रस्ट ने नरेंद्र मोदी की परीक्षा पर चर्चा से ले कर  दर्जनों किताबें छाप दीं । हालांकि सूचना और प्रसारण मंत्रालय का ‘प्रकाशन विभाग’ सरकार के प्रचार-प्रसार की किताबें छपने के लिए नियत है लेकिन इस तरह से न केवल नेहरू के नाम बल्कि इस संस्थान को ले कर उनके सपनों को कुचला जा रहा है । किताबों में पारंपरिक ज्ञान के नाम अपर अंध विश्वास , हिंसा और नफरत भारी जा रही है ।

कि भी राजनेता एक इंसान होता है और उनकी  गलत नीतियों की आलोचना लोकतंत्र का अनिवार्य अंग  है लेकिन   हमार देश के पहले और लंबे समय तक प्रधान मंत्री रहे, आजादी की लड़ाईमें तीन दशक तक संघर्ष करने वाले और दराजनों भविषयोन्मुखी संसतहों की स्थापना करने वाले पंडित नेहरू के प्रति नफरत के भाव से इस तरह की हरकतें  नेशनल बुक ट्रस्ट  जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़ा करती हैं ।  ट्रस्ट की स्थापना आका उद्देश्य केवल सरकारी आपूर्ति के लिए किताबें छापना  कभी रहा नहीं । कभी कहते थे कि एनबीटी  एक “असरकारी “ संस्था है , अब यह एक “सरकारी” महकमा बन कर रहा गया - केवल नेहरू से नफरत के उन्माद में । याद रखें , किताबें  लोगों को जोड़ती हैं - नफरत नहीं सिखातीं ।

मंगलवार, 21 जनवरी 2025

Delhi riots and role of €Kejriwal government

 

दिल्ली हिंसा के पाँच साल  और  इंसाफ की अंधी  गलियां

पंकज चतुर्वेदी


 

 

दिल्ली विधान सभा के लिए मतदान  हेतु तैयार है  और पाँच साल पहले  भड़के  उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों का दर्द  फिर उभर आया है ।  दंगों की बड़ी साजिश के आरोप में बहुत से लोग यू ए पी ए के तहत जेल में  हैं और अभी उस मुकदमें का न्याय ठिठका हुआ है । वैसे पुलिस ने दंगे से जुड़े 758 मामले पंजीकृत किए थे। इनमें से एक स्पेशल सेल, 62 क्राइम ब्रांच और 695 उत्तर पूर्वी दिल्ली के विभिन्न थानों में पंजीकृत हैं। दिल्ली पुलिस में सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक़, पुलिस ने दंगों से जुड़ी कुल 758 एफ़आईआर दर्ज की हैं। इनमें अब तक कुल 2619 लोगों की गिरफ़्तारी हुई थी, इनमें से 2094 लोग ज़मानत पर बाहर हैं। अदालत ने अब तक सिर्फ़ 47 लोगों को दोषी पाया है और 183 लोगों को बरी कर दिया। वहीं 75 लोगों के ख़िलाफ़ पर्याप्त सबूत ना होने के कारण कोर्ट ने उनका मामला रद्द कर दिया है.

लगभग  वर्ष बीतने के बावजूद इनमें अभी 268 मामलों में जांच पूरी नहीं कर पाई है।  पुलिस का रिकार्ड कहता है कि इनकी जाँच चल रही हैं ।  जरा सोचें 1680  दिन बाद दंगे के कौन से साक्ष्य अब मिलेंगे ?  कुछ अर्जियाँ ऐसी भी हैं जिन पर मामले दर्ज ही नहीं किए गए क्योंकि उनमें कुछ बड़े नाम  थे। विभिन्न थानों में दर्ज 57 मामले ऐसे भी हैं जिनमें पुलिस के हाथ  प्रमाण नहीं लगे और इन्हें बंद करने के लिए पुलिस ने अदालत से निवेदन किया । ऐसे 43 मामलों की क्लोजर रिपोर्ट को कोर्ट ने स्वीकार कर लिया है, जबकि 14 रिपोर्ट अभी विचाराधीन हैं। यह सच है कि दिल्ली में कानून व्यवस्था का जिम्मा केंद्र सरकार का है लेकिन न्याय और जेल  राज्य सरकार के हाथों हैं ।  यह भी अब सामने आ चुका है कि दिल्ली हिंसा के पहले दिन ही बहुत सारे जागरूक लोग मनीष सिसोदिया  सहित आप के बड़े नेताओं के घर गए थे कि हम सभी  तनावग्रस्त इलाके में चलते हैं  ताकि  लोगों को समझा कर शांत किया जा सके लेकिन  इन नेताओं ने इससे इनकार कर दिया था । विदित हो  दिल्ली में  विधान सभा चुनाव का नतीजा आने के तत्काल बाद ही दंगे हो गए थे । इस आशय का पत्र और तथ्य  अब चार्जशीट का हिस्सा है ।

 दंगों के तत्काल बाद  दिल्ली सरकार के दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने एक नौ सदस्यीय  कमेटी का गठन किया था । इस कमेटी के चेयरमैन, सुप्रीम कोर्ट के वकील एमआर शमशाद, औऱ गुरमिंदर सिंह मथारू, तहमीना अरोड़ा, तनवीर क़ाज़ी, प्रोफ़ेसर हसीना हाशिया, अबु बकर सब्बाक़, सलीम बेग, देविका प्रसाद तथा अदिति दत्ता, सदस्य थे।अल्पसंख्यक आयोग की नौ सदस्यीय जांच कमेटी ने, दंगो में घोषित मुआवज़े के लिए लिखे गए 700 प्रार्थनापत्रों का अध्ययन किया। अपने अध्ययन के बाद, कमेटी ने पाया कि अधिकतर मामलों में क्षतिग्रस्त जगह का दौरा भी नहीं किया गया है, और जिन मामलों में जान माल के नुकसान को, सही पाया गया है, उनमें भी बहुत कम धनराशि, अंतरिम सहायता के रुप मे दी गई है। दंगों के तुरन्त बाद कई लोग घर छोड़ कर चले गए हैं, इसलिए बहुत से लोग, मुआवज़े के लिए आवेदन नहीं कर सके हैं।  मुआवज़े में भी सरकारी अधिकारी के मरने पर उनके परिवार वालों को एक करोड़ की रक़म दी गई जबकि आम नागरिकों की मौत पर केवल 10 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया गया। मुआवजे का कोई तार्किक आधार तय नहीं किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में क़ानून-व्यवस्था की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की है फिर भी दंगों में पीड़ितों को केंद्र सरकार की ओर से, दंगा पीड़ितों की कोई मदद नहीं की गई। 

इस रिपोर्ट के मुताबिक 11 मस्जिद, पाँच मदरसे, एक दरगाह और एक क़ब्रिस्तान को नुक़सान पहुँचाया गया।. मुस्लिम बहुल इलाक़ों में किसी भी ग़ैर-मुस्लिम धर्म-स्थल को नुक़सान नहीं पहुँचाया गया था।  जबकि दिल्ली पुलिस ने अदालत में जो हलफनामा दिया है उसके अनुसार, इन दंगों में, कुल मृतक, 52 हैं जिंसमे 40 मुस्लिम समुदाय के और 12 हिन्दू समुदाय के हैं। इसी प्रकार घायलों की कुल संख्या, 473 है जिंसमे से धर्म के आधार पर, 257 मुस्लिम और 216 हिंदू हैं। संपत्ति के नुकसान का जो आंकड़ा दिल्ली पुलिस ने हलफनामा में दिया है, उसके अनुसारकुल 185 घर बर्बाद हुए हैं जिनमे से 50 घर, मुस्लिम समुदाय के और 14 घर हिंदुओं के हैं। लेकिन इस हलफनामा में खजूरी खास और करावल नगर में हुए नुकसान का साम्प्रदायिक आधार पर ब्रेक अप नहीं दिया गया। इसी प्रकार इन दंगों में दिल्ली पुलिस के हलफनामे के अनुसार, बर्बाद होने वाली 53.4 % दुकानें मुस्लिम समुदाय की हैं औऱ 14 % हिन्दू समाज की। शेष विवरण नही दिया गया है। साम्प्रदायिक दंगों का कारण धार्मिक कट्टरता होती है तो निश्चय ही उपासना स्थल निशाने पर आते हैं।

इस बात के लिए दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार की भूमिका भी संदिग्ध है कि अप्रैल 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगा दावा आयोग (एनईडीआरसीसी) के गठन के बावजूद, आज भी 2,790 दावे अनसुलझे हैं। तब की केजरिवल सरकार द्वारा गठित इस आयोग को सरकार ने निर्देशित किया था कि परिवार के वयस्क सदस्य की मृत्यु पर 10 लाख रुपये, स्थायी विकलांगता के लिए 5 लाख रुपये, गंभीर चोटों के लिए 2 लाख रुपये और मामूली चोटों के लिए 20,000 रुपये का  मुआवजा दिया जाएगा । इसके साथ ही स्थायी आवासों और वाणिज्यिक इकाइयों के नुकसान के संबंध में, योजना में आवासीय इकाइयों को बड़ी क्षति के लिए 5 लाख रुपये, मध्यम  क्षति के लिए 2.5 लाख रुपये और मामूली क्षति के लिए 25,000 रुपये का उल्लेख था । जबकि ई-रिक्शा को नुकसान के लिए 50,000 रुपये और मवेशी के लिए 5,000 रुपये देने का वादा  था । बिना बीमा वाली वाणिज्यिक इकाइयों के लिए 5 लाख रुपये के मुआवजे की पेशकश थी ।

वायदे-दावे आगे चल कर  सरकार बनाम उप राज्यपाल के झगड़े में फंस गए । 25 अगस्त, 2022 को उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना ने दावों के निपटान में तेजी लाने के लिए आयोग में 40 नए हानि मूल्यांकनकर्ताओं को नियुक्त किया। उन्हें वित्तीय घाटे की सीमा का आकलन करने वाली रिपोर्ट संकलित करने और उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय में पेश करने के लिए कहा गया था। एलजी सक्सेना ने मौजूदा 14 मूल्यांकनकर्ताओं को 25 अगस्त की तारीख से तीन सप्ताह के भीतर उन्हें सौंपे गए दावा निपटान पर अपनी रिपोर्ट जमा करने का भी निर्देश दिया। ऐसा कहा गया कि 40 नए मूल्यांकनकर्ताओं में से कुछ को सरकार द्वारा उन्हें दी गई जिम्मेदारी के बारे में भी पता नहीं था। बहुत से लोगों ने काम ही नहीं शुरू किया । उधर आयोग के अधिकारी कहते हैं कि एल जी द्वारा नियुक्त  एसेस्मेंट टीम के 40 में से केवल 5 से ही उनका संपर्क हो पाया।

हालांकि यहाँ लोगों ने लाखों गँवाए हैं , समय के साथ उनके जख्म भर रहे हैं । बहुत से लोगों ने नए सिरे से रोजी रोटी के रास्ते खोले हैं  लेकिन सरकार के मुआवजे के दावे और निर्दोष लोगों को न्यायिक सहयोग में आम आदमी सरकार की निर्ममता और लापरवाही केंद्र सरकार से काम नहीं हैं ।  दंगा ग्रस्त इलाकों में न्याय की बात हो या राहत की या फिर लोगों की नफरत मिटा कर सौहार्द के लिए प्रयास करना-  तीनों कार्य  राज्य की सरकार की जिम्मेदारी थी । वे मुकदमों  के तेजी से निबटारे और दोषियों को सजा के लिए भी दवाब बना सकती थी, लेकिन आम आदमी अप्रती की दिल्ली सरकार इन  सभी  मुद्दों से मुंह मोड़े  रही ।

 

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

Research and exploration is necessary for children's literature.

 

बाल साहित्य के लिए जरूरी है शोध और अन्वेषण

 

पंकज चतुर्वेदी



सरकार में बैठे लोग यह समझ गए हैं कि भले ही साक्षरता दर बढ़ने के आँकड़े उत्साहजनक हों लेकिन साक्षरता के मुख्य उद्देश्य जागरूकता और शब्दों  का इस्तेमाल अपने दैनिक जीवन में करने कि क्षमत विकसित नहीं हो सकती जब तक बच्चे रंग, अंक, अक्षर और मानवीय संवेदना को आत्मसात नहीं कर सकते । यह सच है कि हमारी शिक्षा का आधार विद्यालय और वहाँ संचालित परीक्षाएं हैं । ऐसे में यह उत्साहजनक है कि सरकार ने दूरस्थ अंचल तक गैर पाठ्यपुस्तकों का बड़ा खजाना पहुंचाया । अधिकांश जागह बच्चों को वो पुस्तकें पढ़ने को मिल रही हैं जिसके आनद में परीक्षा या प्रश्न बाधा  नहीं बनते । राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में भी गैरपाठ्य पुस्तकों के महत्व और प्रसार पर जोर दिया गया है और स्वीकार किया गया बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा में रंग बिरंगी, कहानी की पुस्तकों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। चिंता की बात यह है कि हर साल कई सौ करोड़ रुपये की ऐसी किताबें खरीदी जा रही हैं लेकिन ऐसी किताबों के लेखन, विषय, चित्रांकन आदि पर अभी भी बहुत गंभीर  शोध और दिशा निर्देश तैयार नहीं हो सके हैं ।

यह एक बड़ी चुनौती है कि बेहतर बाल पुस्तकें  विकसित हों, जितनी गंभीरता से  पाठ्य पुस्तकों पर बात होती है , उससे अधिक  गंभीरता  गैर पाठ्य पुस्तक - पठन सामग्री विकसित करने पर भी अनिवार्य है । कारण – पाठ्य पुस्तक तो बच्चा शिक्षक और  परिवार की देखरेख में  बाँचता है लेकिन  मनोरंजक कहलाने वाली पुस्तकों को चुनने, पढ़ने के लिए बच्चा स्वतंत्र होता है । भाषा , विषयवस्तु , चित्र , आकार , कागज – सभी कुछ बदलते समय के साथ  बदलाव चाहता है । सबसे पहले तो यह ही समझना होगा कि पाठ्य पुस्तकों,  नैतिक शिक्षा की पुस्तकों और आनंददायक किताबों में बहुत बड़ा अंतर है ।  देश के आजाद होने के दस साल बाद ही  जब पंडित नेहरू ने नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना की थी तो उसकी पहली कुछ किताबें बच्चों के लिए ही थीं । वैसे भी नेशनल बुक  ट्रस्ट के प्रकाशन  का उद्देश्य बाजार को यह बताना था कि  एक बेहतर पुस्तक कैसी हो  ?  कई दशक तक नेशनल बुक ट्रस्ट और उसके बाद चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट की किताबें मानक बन कर बाजार में रही।  मुक्त व्यापार व्यवस्था और तकनीकी में गुणवत्ता आने के बाद  एक तरफ  विदेशी किताबों का प्रभाव आया तो  हमारी पारंपरिक सोच  की बाल पुस्तकों – पंचतंत्र,  पौराणिक कथाओं ,  प्रेरक कथाओं  आदि में भी बदलाव आया ।  हिंसा, अभद्र भाषा, बदल, लैंगिक समानता, जाती-धर्म में सौहार्द , वैज्ञानिक सोच  आदि विषय बाल साहित्य के लिए अनिवार्य बनते गए । यह कड़वा सच है कि बाल साहित्य की पुस्तकों का  उपभोक्ता तो बच्चा है लेकिन उसका खरीदार नहीं । बाल पुस्तकों का सबसे बड़ा बाजार राज्य सरकारें  हैं और वहाँ कुछ अफसर  ही चयन की मापदंड तय कर लेते हैं । यह सच है कि  नेशनल बुक ट्रस्ट , प्रकाशन विभाग या ऐसे ही सरकारी महकमों की किताबें खरीदने को प्राथमिकता दी जाती है  लेकिन यह सभी संस्थाएं  मिल कर भी हर साल इतनी किताबें छाप नहीं पाते कि हर साल देश  के हर स्कूल  को कुछ नई किताबें मुहैया करवा  सकें । यही नहीं , इन संस्थाओं में भी अब बाल साहित्य को ले कर अनुसंधान  आदि की कोई जगह नहीं हैं । कुछ साल पहले नेशनल बुक ट्रस्ट के अंतर्गत राष्ट्रीय बाल साहित्य केंद्र की स्थापना की गई थी लेकिन अब वह लगभग ठप्प है ।

इसे  लापरवाही कहें या फिर सुनियोजित कि वर्ष 2024 में नेशनल बुक  ट्रस्ट द्वारा पहले बच्चों की जो किताब छपी गई वह थी खाटू श्याम पर  और उसके चतुर्थ कवर पर एक व्यक्ति की कटी  गरदन  ले कर खड़े व्यक्ति का चित्र है । दुनिया में कहीं भी आज बाल साहित्य में इस तरह के अमानवीय  चित्र की अनुमति नहीं देता। पौराणिक और लोक कथाओं को बच्चों के लिए चुनते समय यह ध्यान दिया जाता है कि उसमें हिंसा या ताकत पाने के लिए कुटिलता का इस्तेमाल न हो । नॅशनल बुक ट्रस्ट  ने ही मनोज दास द्वारा लिखी कृष्ण कथा और उससे पहले रामायण और महाभारत पर सुंदर बाल पुस्तकें छपी हैं .

ऐसी ही एक हास्यास्पद किताब अंग्रेजी में चन्द्र यान अभियान पर है और इसके कवर पर किसी वैज्ञानिक नहीं, नरेंद्र मोदी का फोटो लगाया गया है . जाहिर है कि किताब का उद्देश्य चन्द्र यान अभियान की जानकारी देने से ज्यादा प्रधान मंत्री का प्रचार करना है .

 आज तो पर्यावरणीय संकट और जलवायु परिवर्तन का खतरा समूची मानव जाति पर मंडरा रहा है और इसके प्रति संवेदनशीलता आनंददायक पठन सामग्री की प्राथमिकता होना चाहिए । एक बात  और, आज भी बाल साहित्य में कलेक्टर, एसपी , संरपंच या विधायक नहीं हैं । शिक्षक, पोस्टमेन  या पुलिस के अलावा कोई सरकारी विभाग नहीं दिखता । इसकी जगह बहुत सी रचनाओं में राजा-रानी- मंत्री ही चल रहे हैं । शायद यही कारण है कि हमारी नई पीढ़ी अभी भी लोकतंत्र में भरोसा नहीं कर पा रही है । सुदूर विध्यालयों तक बच्चों को ऐसी पठन सामग्री अवश्य मिले जिसमें वन विभाग या खाद्य विभाग आदि की कार्य प्रणाली और जिम्मेदारियों का उल्लेख हो ।

बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक शब्द ही हैं । वहीं जिज्ञासा का सीधा संबंध है कौतुहल से है । शिशु काल में उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेश की हर गुत्थी को सुलझाने की जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल-प्रवृत्ति है ।  भौतिक सुखों व बाजारवाद की बेतहाशा  दौड़ के बीच दूषित  हो रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों की नैसर्गिक जिज्ञासु प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ के कारण एक बोझिल सा माहैल पैदा हो गया है । ऐसे में  बच्चों के चारों ओर बिखरे संसार की रोचक जानकारी सही तरीके से देना बच्चों के लिए राहत देने वाला कदम होता है। पुस्तकें इसका सहज, सर्वसुलभ और सटीक माध्यम रही हैं। जब हम 21वी सदी की बात करते हैं तो सामाजिक, आर्थिक , भौतिक सुखों  में बदलाव की बात पलक झपकते ही पुरानी होती प्रतीत होती है। इतना तेज परिवर्तन कि कल्पना का घोड़ा भी उससे पराजित हो जाए! विकास के बदलते प्रतिमान, नैतिकता के बदलते आधार, ज्ञान के आागम मार्ग की तीव्रता--- और भी बहुत कुछ जिससे समाज का प्रत्येक वर्ग अछूता नहीं रहा। जाहिर है कि बच्चों पर इसका प्रभाव तो पड़ ही रहा है और उससे उनका जिज्ञासा का दायरा भी बढ़ रहा है।रंग, स्पर्ष, ध्वनि और शब्द - इन सभी के व्यक्तिगत अनुभव, जो बचपन की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं, बालक के जीवन से दुर्लभ होते जा रहे हैं । एक जर्जर समाज व्यवस्था के बीच जीवन के लिए संघर्ष करती परंपराएं इन निहायत जरूरी अनुभवों को मुहैया कराने में सक्षम नहीं रह पा रहीं हैं । बालक बड़े अवश्य हो रहे हैं, लेकिन अनुभव जगत के नाम पर एक बड़े शून्य के बीच । पूरे देश  के बच्चों से जरा चित्र बनाने को कहें. तीन-चौथाई बच्चे पहाड़, नदी, झोपड़ी और उगता सूरज उकेर देंगे। बकाया बच्चे टीवी पर दिखने वाले डिज्नी चैनल के कुछ चरित्रों के चित्र बना देंगे। यह बात साक्षी है कि स्पर्ष, ध्वनि, दृष्टि के बुनियादी अनुभवों की गरीबी, बच्चों की नैसर्गिक क्षमताओं को किस हद तक खोखला किए दे रही है । ऐसे में बच्चों को सुनाई गई एक कहानी ना केवल रिश्तों के प्रति उसे संवेदनशील बनाती है, बल्कि उसके कौतुहल और कल्पना के संसार को भी संपन्न बनाती है।

 

अनुमान है कि हमारे देश  में सभी भाषाओं में मिला कर पाठ्येत्तर पुस्तकों का सालाना आंकड़ा मुश्किल से दो हजार को पार कर पाता है और हिंदी में तो यह बमुश्किल 600 है। यह भी दुखद है कि अभी भी हिंदी में बाल साहित्य लिखने वालें को कोई ‘‘स्तरीय बाल साहित्यकार’’ नहीं माना जाता। वह तो भला हो साहित्य अकादेमी का कि उसने बाल साहित्य पर पुरस्कार  देना शुरू कर दिया। दिवंगत लेखक डा हरेकृष्ण देवसरे के परिवार वालों ने भी एक बाल साहित्य पुरस्कार शुरू किया है। बच्चों की पुस्तकों के लिए चित्र बनाना सिखाने के संस्थान लगभग ना होना भी एक बड़ी दिक्कत है। एक तो किताबों के चित्र बनाने में पैसा कम है, दूसरा इसका तकनीकी ज्ञान बहुत कम लोगों के पास है, तीसरा चित्रकार व लेखक साथ बैठ कर काम नहीं करते, इस दूरी को अधिकांषश पुस्तकों में देखा जा सकता है।

बाल साहित्य में मनोरंजन, कौतुहल, पाठकों के भविष्य की चुनौतियों, आधुनिक दृष्टिकोण पर सामग्री समय की मांग है। एक बात और जो कड़वी है- हिंदी में बच्चों के लिए लिखने वालों को अपने आत्ममुग्धता और अखाड़े बनाने की प्रवृति से कुछ परहेज करना होगा, अभी समय अधिक से अधिक लोगों को जोड़ने का है। खासकर बच्चों के लिए कविता लिखने वालों को पहले यह सोचना चाहिए कि वे कविता लिख क्यों रहे है? वही पुराने बिंब, पुराने विषय - चिड़िया, खाने की चीजें, लगभग पाठ्य पुस्तकों की तरह की भाशा। कभी देखें कि क्या उनकी किताब कोई उठा कर खुद पढ़ रहा है ?

नई या उपेक्षित विधायों जैसे - नाटक, काव्य-एकांकी, निबंध, साक्षात्कार, यात्रा-वृतांत, प्रेरक कथाओं पर काम किया जाना चाहिए। वृतांत या अनुभावों में ‘‘मैं’’ से बचना तथा जीवनरित में महिमा मंडन से परहेज रखना नई  सदी के बाल साहित्य के लिए जरूरी है। किसी घटना या व्यक्ति का निश्पक्ष चित्रण या प्रस्तुति बच्चों के लिए एक नसीहत की तरह होता है, जिससे बच्चो स्वयं ही कुछ सीख लेते हैं।

 

 

रविवार, 17 नवंबर 2024

How will the country's 10 crore population reduce?

 

                               

 

कैसे  कम होगी देश की दस करोड आबादी ?

पंकज चतुर्वेदी



 

हालांकि  झारखंड की कोई भी सीमा  बांग्लादेश या किसी अन्य देश को नहीं छूती है , इसके बावजूद वहाँ विधान सभा चुनाव में बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा गरम है । यह  कड़वा सच हैं कि हमारे देश के दूरस्थ अंचलों तक बांग्लादेश और वहीं के रास्ते म्यांमार  के रोहांगीय  घुसे हुए हैं । इनमें से बड़ी संख्या में इन  अवैध निवासियों ने मतदाता कार्ड, आधार आदि भी बनवा लिए हैं । हालांकि दिसंबर -23 में केंद्र सरकार  सुप्रीम कोर्ट में बताया चुकी है कि  सरकार के पाद अवैध निवासियों की संख्या का कोई ठीक-ठाक आंकड़ा है नहीं । नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए (2) विषयक एक सुनवाई में सरकार ने कोर्ट को हलफनामे में बताया था कि सन 2017 से 2022 के बीच अकेले असम  से अवैध रूप से रह रहे 14346  लोगों को बांग्लादेश वापिस भेजा गया। 


हमारे देश के सामने असली चुनौती तो इस देश में घुल-मिल गए बगैर बुलाए मेहमानों को पहचानने व उन्हें वापिस करने की है। उनकी भाषा, रहन-सहन और नकली दस्तावेज इस कदर हमारी जमीन से घुलमिल गए हैं कि उन्हें विदेशी सिद्ध करना लगभग नामुमकिन हो चुका है। ये लोग आते तो दीन हीन याचक बन कर हैं, फिर अपने देश को लौटने को राजी नहीं होते हैं । ऐसे लोगो को बाहर खदेड़ने के लिए जब कोई बात हुई, सियासत व वोटों की छीना-झपटी में उलझ कर रह गई । गौरतलब है कि पूर्वोत्तर राज्यों में अशांति के मूल में ये अवैध बांग्लादेशी ही हैं। आज जनसंख्या विस्फोट से देश की व्यवस्था लडखड़ा गई है । मूल नागरिकों के सामने भोजन, निवास, सफाई, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव दिनों -दिन गंभीर  होता जा रहा है । ऐसे में  अवैध बांग्लादे और रोहांगीया  कानून को धता बता कर भारतीयों के हक नाजायज तौर पर बांट रहे हैं । ये लोग यहां के बाशिंदों की रोटी तो छीन ही रहे हैं, देश के सामाजिक व आर्थिक समीकरण भी इनके कारण गड़बड़ा रहे हैं 



कुछ साल पहले  साल मेघालय हाई कोर्ट ने भी स्पष्ट  कर दिया था  कि सन 1971 के बाद आए सभी बांग्लादेशी अवैध रूप से यहां रह रहे है। अनुमान है कि आज कोई दस करोड़ के करीब बांग्लादेशी हमारे देश में जबरिया रह रहे हैं। 1971 की लड़ाई के समय लगभग 70 लाख बांग्लादेशी(उस समय का पूर्वी पाकिस्तान) इधर आए थे । अलग देश बनने के बाद कुछ लाख लौटे भी । पर उसके बाद भुखमरी, बेरोजगारी के शिकार बांग्लादेशियों का हमारे यहां घुस आना अनवरत जारी रहा । पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, त्रिपुरा  के सीमावर्ती  जिलों की आबादी हर साल बैतहाशा बढ़ रही है । नादिया जिला (प बंगाल) की आबादी 1981 में 29 लाख थी । 1986 में यह 45 लाख, 1995 में 60 लाख और 2011 की जनगणना में 51 लाख 67 हजार 600 हो गई थी । अनुमान हैं आज यह  80  लाख को पार कर चुकी है । बिहार में पूर्णिया, किशनगंज, कटिहार, सहरसा आदि जिलों की जनसंख्या में अचानक वृद्धि का कारण वहां बांग्लादेशियों की अचानक आमद ही है ।

अरूणाचल प्रदेश में मुस्लिम आबादी में बढ़ौतरी सालाना 135.01 प्रतिशत है, जबकि यहां की औसत वृद्धि 38.63 है । इसी तरह पश्चिम बंगाल की जनसंख्या बढ़ौतरी की दर औसतन 24 फीसदी के आसपास है, लेकिन मुस्लिम आबादी का विस्तार 37 प्रतिशत से अधिक है । यही हाल मणिपुर व त्रिपुरा का भी है । जाहिर है कि इसका मूल कारण बांग्लादेशियों का निर्बाध रूप से आना, यहां बसना और निवासी होने के कागजात हांसिल करना है । कोलकता में तो अवैध बांग्लादेशी बड़े स्मगलर और बदमाश बन कर व्यवस्था के सामने चुनौति बने हुए हैं ।


राजधानी दिल्ली में सीमापुरी हो या यमुना पुश्ते की कई किलोमीटर में फेली हुई झुग्गियां, लाखें बांग्लादेशी डटे हुए हैं । ये भाषा , खानपान , वेशभूशा के कारण स्थानीय बंगालियों से घुलमिल जाते हैं । इनकी बड़ी संख्या इलाके में गंदगी, बिजली, पानी की चोरी ही नहीं, बल्कि डकैती, चोरी, जासूसी व हथियारों की तस्करी बैखौफ करते हैं । सीमावर्ती नोएडा व गाजियाबाद में भी इनका आतंक है । इन्हें खदेड़ने के कई अभियान चले । कुछ सौ लोग गाहे-बगाहे सीमा से दूसरी ओर ढकेले भी गए । लेकिन बांग्लादेश अपने ही लोगों को अपनाता नहीं है । फिर वे बगैर किसी दिक्कत के कुछ ही दिन बाद यहां लौट आते हैं । जान कर अचरज होगा कि बांग्लादेशी बदमाशों का नेटवर्क इतना सशक्त है कि वे चोरी के माल को हवाला के जरिए उस पार भेज देते हैं । दिल्ली व करीबी नगरों में इनकी आबादी 10 लाख से अधिक हैं । सभी नाजायज बाशिंदों के आका सभी सियासती पार्टियों में हैं । इसी लिए इन्हें खदेड़ने के हर बार के अभियानों की हफ्ते-दो हफ्ते में हवा निकल जाती है ।

सरकारी आंकड़ा है कि सन 2000 से 2009 के बीच कोई एक करोड़ 29 लाख बांग्लादेशी बाकायदा पासपोर्ट-वीजा ले कर भारत आए व वापिस नहीं गए। असम तो अवैध बांग्लादेशियों की  पसंदीदा जगह है। राज्य की अदालतों में अवैध निवासियों की पहचान और उन्हें वापिस भेजने के कोई 40 हजार मामले लंबित हैं। अवैध रूप से घुसने व रहने वाले स्थानीय लोगों में शादी करके यहां अपना समाज बना-बढ़ा रहे हैं।

दिनों -दिन गंभीर हो रही इस समस्या से निबटने के लिए सरकार तत्काल ही कोई अलग से महकमा बना ले तो बेहतर होगा, जिसमें प्रशासन, पुलिस के अलावा मानवाधिकार व स्वयंसेवी संस्थाओं के लोग  भी हों । साथ ही सीमा को चोरी -छिपे पार करने के रैकेट  को तोड़ना होगा । हाल ही में एन आई ए ने देशभर में छापामारी की तो लोगों को अवैध रूप से देश में घुसाने की बड़ी साजिश सामने आई ।  वैसे तो हमारी सीमाएं बहुत बड़ी हैं, लेकिन यह अब किसी से छिपा नहीं हैं कि बांग्लादेश व पाकिस्तान सीमा पर मानव तस्करी का बाकायदा धंधा चल रहा है, जो कि सरकारी कारिंदों की मिलीभगत के बगैर संभव ही नहीं हैं ।

यहां बसे विदेशियों की पहचान और फिर उन्हें वापिस भेजना एक जटिल प्रक्रिया है । बांग्ला देश अपने लोगों की वापिसी सहजता से नहीं करेगा । इस मामले में सियासती पार्टियों का संयम भी महति है । यदि सरकार में बैठे लोग ईमानदारी से इस दिशा में पहल करते है तो एक झटके में देश की आबादी को कम कर यहां के संसाधनों, श्रम और संस्कारों पर अपने देश के लोगों का हिस्सा बढाया जा सकता है।

 

 

 

 

 

गुरुवार, 7 नवंबर 2024

Why do paramilitary forces commit suicide in Bastar?

 

आखिर बस्तर में क्यों खुदकुशी करते हैं अर्ध सैनिक बल

पंकज चतुर्वेदी



गत् 26 अक्टूबर 24 को बस्तर के बीजापुर जिले के पातरपारा , भैरमगढ़ में तैनात हरियाणा निवासी सीआरपीएफ जवान पवन कुमार ने  दिन में ही खुद को गोली मार कर मौत को गले लगा लिया । बीते दो महीने में यह अकेले बस्तर में अर्ध सैनिक बाल के जवानों द्वारा आत्म हत्या की छठी और इस साल की 14 वीं घटना है । जब केंद्र सरकार  लगातार छापामारी कर बड़े नक्सल ऑपरेशन कर रही है और अबूझमाद के उन इलाकों तक सुरक्षा बल पहुँच  रहे हैं जिन्हें अभी तक “अबूझ” कहा जाता था , जवानों में आत्म हत्या की प्रवृति  चिंता की बात है । दुर्भाग्य है कि जब-तब ऐसी घटनाएं होती हैं , जांच आदि के दल गठित होते हैं लेकिन हफ्ता बीतते ही जवानों को उन्हीं परिस्थितियों  का सामना करना पड़ता हि जिससे हताश उनका साथी खुदकुशी कर चुका था 


गत एक दशक के दौरान बस्तर में डेढ़ सौ  से अधिक जवान आत्म हत्या या फिर अपने ही साथी के क्रोध में मारे गए। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कोई भी जवान ऐसे कदम बेहद तनाव या असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो कर उठाता है। आखिर वे दवाब में क्यों ना हों ? ना तो उन्हें साफ पानी मिल रहा है और ना ही माकूल स्वास्थ्य सेवाएं। जान कर दुख होगा कि नक्सली इलाके में सेवा दे रहे जवनों की मलेरिया जैसी बीमारी का आंकड़ा उनके लड़ते हुए शहीद होने से कहीं ज्यादा होता है।



ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने कोई दो दशक पहले एक जांच दल बनाया था जिसकी रिपोर्ट जून -2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं जैसे मसलों पर कई सिफारिशें की गई थीं । इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिशें, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप , शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देश में उपद्रव ग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है अर्ध सैनिक बलों व फौज के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है।

यह एक कड़ा सच है कि हर साल दंगा, नक्सलवाद, अलगाववादियों, बाढ़ और ऐसी ही विकट परिस्थ्तियों में संशर्घ करने वाले इस बल के लोग मैदान में लड़ते हुए मरने से कहीं ज्यादा गंभीर बीमारियों से मर जाते हैं। यह बानगी है कि जिन लेगें पर हम मरने के बाद नारे लुटाने का काम करते हैं, उनकी नौकरी की षर्ते किस तरह असहनीय, नाकाफी और जोखिमभरी हैं।

अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुश्मन से नहीं,  खुद से ही जूझ रही है।  सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान ना तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं , ना ही उन्हें स्थानीय बोली-भाषा - संस्कार की जानकारी होती है और ना ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया है। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशा-निर्देश पर ही काम करते हैं। बस्तर में बहुत सी जगह बबनी हुई सड़क की नगरणी के लिए सीआरपीएफ की दैनिक ड्यूटी लगाई जा रही है । असल में केंद्रीय फोर्स का काम दुश्मन को नष्ट करने का होता है नाकि चौकसी करने का।

दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से है बस्तर, हरियाली, झरने, पशु-पक्षी और इंसान भी सभी नैसर्गिक वातावरण में उन्मुक्त । भले ही अखबार की सुर्खिया डराएं कि बस्तर में बारूद की गंध आती है लेकिन हकीकत तो यह है कि किसी भी बाहरी पर्यटक के लिए कभी भी कोई खतरा नहीं है। पूरी रात जगदलपुर से रायपुर तक आने वाली सड़क वाहनों से आबाद रहती है। यहां टकराव है तो बंदूकों का, नक्सलवाद ने यहां गहरी जड़ें जमा ली है। जब स्थानीय पुलिस उनके सामने असहाय दिखी तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को यहां झोंक दिया गया।  विडंबना है कि उनके लिए ना तो माकूल भोजन-पानी है और ना ही स्वास्थ्य सेवाएं, ना ही सड़कें और ना ही संचार। परिणाम सामने हैं कि बीते पांच सालों के दौरान यहां सीने पर गोली खा कर शहीद होने वालों से कहीं बड़ी संख्या सीने की धड़कनें रूकने या मच्छरों के काटने से मरने वालों की है।

यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व शोषण  की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा करते नहीं हैं। अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है।  बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनावभरा है, यहाँ  दुश्मन अदृश्य  है, हर दूसरे इंसान पर शक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश। इस पर भी हाथ बंधे हुए, जिसकी डोर सियासती आकाओं के हाथों मैं। लगातार इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है।

सड़कें ना होना, महज सुरक्षा के इरादे से ही जवानों को दिक्कत नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी निजी जिंदगी पर भी होता है। उनकी पसंद का भोजन , कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूषित  है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गरमी शुरू  होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का शिकार होते हैं। यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से शोधित  हो कर नहीं आता है। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूट  के साथ डायरिया, पीलिया व टाईफाईड के जीवाणू पीता है।बेहद उमस, तेज गरमी वाला यहां का  मौसम कई बार असहनीय होता है और इसमें उपजते हैं बड़े वाले मच्छर जोकि हर साल कई जवानों की असामयिक मौत का कारण बनते हैं। हालांकि जवानों को कडा निर्देश है कि वे मच्छरदानी लगा कर सोऐं, लेकिन रात की गरमी और घने जंगलों में चौकसी के चलते यह संभव नहीं हो पाता। यहां तक कि बस्तर का मलेरिया अब पारंपरिक कुनैन से ठीक नहीं होता है।

घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देश की तरह मौसम बदलते हैं, उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाशिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। इसके बावजूद केंद्रीय बलों के जवानों के लिए स्वास्थ्य सेवाए बेहद लचर है।। जवान यहां-वहां जा नहीं सकते, जगदलपुर का मेडिकल कालेज बेहद अव्यवस्थित सा है।

मोबाईल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर की क्षेत्रफल केरल राज्य से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाईल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक ना मिलने से टावर कमजोर रहते हैं। बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसला  होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों ने  उनका शिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ ‘इयर फोन‘ लगा कर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट में यह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असुरक्षा  व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख ना जान पाने की दर्द भी उनको भीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और ना ही जवान के पास उसके लिए समय है।

यह भी चिंता का विषय  है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ौतरी हुई है। अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है; ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाश, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेशानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी , चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं जो जवानों में अनुशासन व कार्य प्रतिबद्धता, देनो को बनाए रख सकते हैं। यही नहीं, जब तक सीआरपीएफ के जवान को दुश्मन से लड़ते हुए मारे जाने पर सेना की तरह षहीद का दर्जा व सम्मान नहीं मिलता, उनका मनोबल बनाए रखना कठिन होगा। यह कैसी विडंबना है कि पूरा देश अपने जवानें को याद करने के लिए उनकी षहादत का इंतजार करता है। महज साफ पानी, मच्छर से निबटने के उपाय, जवानों का नियमित स्वास्थ्य परीक्षण कुछ ऐसे उपाय हैं जो कि सरकार नहीं  तो समाज अपने स्तर पर अपने जवानों के लिए मुहैया करवा सकता है ताकि जवान एकाग्र चित्त से देश के दुश्मनों से जूझ सकें ।

 

 

 

 

How National Book Trust Become Narendra Book Trust

  नेशनल बुक ट्रस्ट , नेहरू और नफरत पंकज चतुर्वेदी नवजीवन 23 मार्च  देश की आजादी को दस साल ही हुए थे और उस समय देश के नीति निर्माताओं को ...