खेती-किसानी क्यों नहीं है चुनावी मुद्दा
पंकज चतुर्वेदी
डेली न्यूज , ३ नवंबर १४ http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/3753620?show=print |
इन दिनों देश में बाहर की कपंनियों को कारखाने लगाने के लिए न्योतने का दौर चल रहा है। जबकि देश की बहुसंख्यक आबादी के जीवकोपार्जन के जरिए पर सभी मौन हैं। तेजी से विस्तार पर रहे शहरी मध्य वर्ग, कारपोरेट और आम लोगों के जनमानस को प्रभावित करने वाले मीडिया खेती-किसानी के मसले में लगभग अनभिज्ञ है । यही कारण है कि खेती के बढते खर्चे, फसल का माकूल दाम ना मिलने, किसान-उपभोक्ता के बीच कई-कई बिचैलियों की मौजूदगी, फसल को सुरक्षित रखने के लिए गोडाउन व कोल्ड स्टोरेज और प्रस्तावित कारखाने लगाने और उसमें काम करने वालों के आवास के लिए जमीन की जरूरत पूरा करने के वास्ते अन्न उगाने वाले खेतों को उजाड़ने जैसे विशय अभी तक गौण हैं। सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि खेती पर निर्भर जीवकोपार्जन करने वालों की संख्या भले ही घटे, लेकिन उनकी आय का दायरा सिमटता जा रहा है।
देष के सबसे बड़े वर्ग किसानों के प्रति नीति निर्धारकों का निहायत संवेदनहीन रवैया रहा है। जहां कई सौ किसानों ने आत्महत्या की,, अतिविर्ष्टि व ओले या सूखे से हताष किसानों के लिए तात्कालिक राहत की तो सभी सोच रहे हैं, लेकिन इस पर कोई दूरगामी योजना किसी के पास नहीं है। किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है। पूंजीपति के लिए खेत अपने फायदे का सौदा दिख रहा है। कारपोरेट खेती जैसे जुमले उछाले जा रहे हैं । बड़ी चालाकी से खेती पर मंडरा रहे संकट को नजरअंदाज किया जा रहा है। किसान को कर्ज नहीं सही बीज, सही दाम, फसल सुरक्षा और सम्मान चाहिए, यह बात देष के नीति-निर्धारक जानबूझ कर नजरअंदाज कर रहे हैं। एक तरफ देश की आबादी बढ़ रही है, लोगों की आय बढ़ने से भोजन की मात्रा बढ़ रही है, दूसरी ओर ताजातरीन आंकड़ा बताता है कि बीते साल की तुलना में इस बार गेहुं की पैदावार ही 10 फीसदी कम हुई है। अकेले उत्त्र प्रदेष में हर साल लाखों हैक्टर लहलहाते खेतों के सड़क, कालोनी और माॅल में बदलने पर समाज अभी बेसुध है, लेकिन यह तय है कि पेट भरने वाला अन्न केवल खेत में ही उगाया जा सकता है, किसी कंक्रीट के जंगल में नहीं।
भारत में कारें बढ़ रही हैं, मोटर साईकिल की बिक्री किसी भी विकासशील देश में सबसे अधिक है, मोबाईल क्रांति हो गई है, शापिंग माॅल कस्बों-गांवों की ओर जा रहे हैं । कुल मिला कर लगता है कि देश प्रगति कर रहा है। सरकार मकान, सड़के बना कर आधारभूत सुविधाएं विकसित करने का दावा कर रही है। देश प्रगति कर रहा है तो जाहिर है कि आम आदमी की न्यूनतम जरूरतों का पूर्ति सहजता से हो रही है । तस्वीर का दूसरा पहलू भारत के बारे में चला आ रहा पारंपरिक वक्तव्य है - भारत एक कृषि -प्रधान देश है । देश की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृषि है । आंकड़े भी यही कुछ कहते हैं। आजादी के तत्काल बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिश त थी जबकि आज यह घट कर 13.7 प्रतिशत हो गई हे। यहां गौर करने लायक बात ह है कि तब भी और आज भी खेती पर आश्रित लोगों की आबादी 60 फीसदी के आसपास ही थी। जाहिर है कि खेती-किसानी करने वालों का मुनाफा, आर्थिक स्थिति सभी कुछ दिनों-दिन जर्जर होती जा रही है। पूरे देश के खेत इस समय देर से या अल्प मानसून की आषंका से जूझ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मंदी से जूझने का सबसे ताकतवर जरिया बढि़या खेती ही है और सरकार व समाज में बैठे लोग ‘गे-लेस्बियन’ या कार-मोबाईल के बदौलत देश की आर्थिक हालत सुधारने का दिवा-स्वप्न देख रहे हैं।
पहले और दूसरे पहलू के बीच कहीं संवादहीनता है । इसका प्रमाण है कि गत् सात सालों के दौरान देश के विभिन्न इलाकों के लगभग 35 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं । अपनी जान देने वालों की कुंठा का कारण कार या मोटर साईकिल न खरीद पाना या माॅल में पिज्जा न खा पाना कतई नहीं था । अधिकांश मरने वालों पर खेती के खर्चों की पूर्ति के लिए उठाए गए कर्जे का बोझ था । किसान का खेत केवल अपना पेट भरने के लिए नहीं होता है, वह आधुानिक अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से पूरे देश तकदीर लिखता है । हमारे भाग्यविधाता अपने अनुभवों से सीख नहीं ले रहे हैं कि किसान को कर्ज नहीं बेहतर बाजार चाहिए। उसे अच्छे बीज, खाद और दवाएं चाहिए। कृषि में सुधार के लिए पूंजी से कहीं ज्यादा जरूरत गांव-खेत तक संवेदनशील नीति की है।
नकली खाद, पारंपरिक बीजों की जगह बीटी बीजों की खरीद की मजबूरी, फसल आने पर बाजार में उचित दइाम नहीं मिलना, बिचैलियों की भूमिका, किसान के रिस्क-फैक्टर के प्रति प्रशा सन की बेरूखी- कुछ ऐसे कारण हैं जिसके चलते आज देश के किसान खेती से विमुख हो रहे हैं यदि हालात ऐसे ही रहे तो आने वाले कुछ ही सालों में हमें पेट भरने के लिए जरूरी अन्न जुटाने के लिए भी विदेशों पर आश्रित होना पड़ेगा । देश के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेश का यह आंकड़ा अणु बम से ज्यादा खतरनाक है कि राज्य में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हैक्टर खेती की जमीन को उजाड़ा जा रहा है। मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांष अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। यही नहीं इस बजट में नरेगा के मद में बजट राशि में भारी भरकम वृद्धि की गई है, यह भी खेत विरेाधी है। नरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे है और मजदूर ना मिलने से हैरान-परेषान किसान खेत को तिलांजली दे रहे हैं।
कहने को तो वर्श 2006-07 को कृशि नवीकरण वर्ष घोषित किया गया था लेकिन गहराई से देखें तो इसमें खेती या किसान को प्रोत्साहन की कोई योजना बनी ही नहीं । सारा खेल कतिपय वित्तीय संस्थाओं का रहा जोकि किसान को कर्जें के लिए प्रेरित करने या कुछ बीजों व खादों का विपणन करने में जुटी थीं ।
किसानेां के प्रति अपनी चिंता को दर्शाने के लिए सरकार के प्रयास अधिकांश तः उसकी चिंताओं में इजाफा ही कर रहे हैं । बीज को ही लें, गत् पांच साल के मामले सामने हैं कि बीटी जैसे विदेशी बीज महंगे होने के बावजूद किसान को घाटा ही दे रहे हैं । ऐसे बीजों के अधिक पैदावार व कीड़े न लगने के दावे झूठे साबित हुए हैं । इसके बावजूद सरकरी अफसर विदेषी जेनेटिक बीजों के इस्तेमाल के लिए किसानों पर दवाब बना रहे हैं । हमारे यहां मानव संसाधन प्रचुर है, ऐसे में हमें मषीनेां की जरूरत नहीं है, इस तथ्य को जानते-बूझते हुए सरकार कृशि क्षेत्र में आधुनिकता के नाम पर लोगों के रोजगार के अवसर कम कर रही है । रासायनिक खाद व कीटनाषकों के अंधाधुंध इस्तेमाल के दुश्परिणाम किसान व उसके खेत झेल रहे हैं । इसके बावजूद सरकार चाहती है कि किसान पारंपरिक खेती के तरीके को छोड़ नए तकनीक अपनाए । इससे खेती की लागत बढ़ रही है और इसकी तुलना में लाभ घट रहा है । पिछले साल मध्यप्रदेश के लाखों किसानों को सरकारी समितियों के माध्यम से नकली बीज और खाद बांटे गए, षिकायतें भी हुई, वायदे भ्ी हुए लेकिन ना तो धोखाधड़ी करने वालों को पकड़ने का मसल और ना ही किसानों को मुआवजा देने का मसला सियासत में आया। असल में किसान को लूटने में सभी शामिल हैं।
गंभीरता से देखें तो इस साजिश के पीछे कतिपय वित्त संस्थाएं हैं जोकि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाश रही हैं । खेती की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिए कर्जे का बाजार खोल दिया गया है और सरकार इसे किसानों के प्रति कल्याणकारी कदम के रूप में प्रचारित कर रही है । हकीकत में किसान कर्ज से बेहाल है । नेश नल सैंपल सर्वें के आंकड़े बताते हैं कि आंध्रप्रदेश के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं । पंजाब महाराष्ट्र ृजैसे िकृषि प्रधान राज्यों में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिश त है । यह भी तथ्य है कि इन राज्यों में ही किसानों की खुदकुीशी की सबसे अधिक घटनाएं प्रकाश में आई हैं । यह आंकड़े जाहिर करते हंै कि कर्ज किसान की चिंता का निराकरण नहीं हैं । किसान को सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देश के चहुंमुखी विकास में वह महत्वपूर्ण अंग है।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देश के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका शोषण किस स्तर पर है, इसकी बानगी यही है कि देश के किसान को आलू उगाने पर माकूल दाम ना मिलने पर सड़कों पर फैंकना पड़ता है तो दूसरी ओर उसके दाम बढ़ने से रोकने के लिए विदेश से भी मंगवाना पड़ता है। देश का आलू पंद्रह रूपए में पचास ग्राम चिप्स बेचने वाली कंपनी औने-पौने दाम में हड़प लेती है और जनता की जरूरत के लिए दूसरे देशसे बेश कीमती विदेशी मुद्रा खर्च कर आलू मंगवाना पड़ता है। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबंध -जैसे कदम देश का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं । चीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिश त है ,जबकि भारत में यह गत 20 सालों से दो को पार नहीं कर पाई है। अब तो विकास के नाम पर खेत उजाड़ने के खिलाफ पूरे देश में हिंसक आंदोलन भी हो रहे हैं। विडंबना है कि हमारे आर्थिक आधार की मजबूत कड़ी के प्रति ना ही समाज और ना ही सियासती दल संवेदनीशी ल दिख रहे हैं।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005
9891928376
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