आतंकवाद और चैराहे पर खड़े युवाओं के सवाल
...पंकज
चतुर्वेदी
vision muslim today, april-15 |
जब कहीं कोई बम धमाका होता है तो कोई सुरक्षा
व्यवस्था को लचर कहता है, तो कोई कैमरे लगाने की मांग ; एक
वर्ग पाकिस्तान पर हमला करने का उन्माद फैलाने लगता है ; कोई चाहता है कि
पोटा फिर से ले आओ तो कोई भारत में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी की कारस्तानी को
युवाओं से जोड़ कर जाहिरा बयान देता है। । लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि
उनके सुझावों को मान लिया जाए या फिर उन सभी बातों को भी मान लिया जाए तो भी देश-दुनिया को दहशतगर्दी से पूरी मुक्ति
मिल जाएगी। असल सवाल कहीं गौण है कि आखिर
हमारी युवा नीति (वैसे तो ऐसी कोई नीति है ही नहीं ) में क्या ऐसी कमी है कि हमारा युवा अपने ही लोगों
के खिलाफ हथियार उठा रहा है। बीते कुछ सालों में यह देखा गया है कि हमारे देश में
घटित अधिकांष आतंकवादी घटनाओं में हमारे देश के ही युवा शामिल रहे हैं। यही नहीं
इनमें से कई खासे पढ़े-लिखे भी हैं। यह और तकलीफदेह है कि ऐसे युवा या तो आंचलिक
ग्रामीण इलाके के हैं या फिर छोटे कस्बों के। हां, इस हकीकत को
स्वीकारने के लिए दिल्ली-पटना के धमाकों के साथ-साथ छत्तीसगढ़-झाारखंड की नक्सली
हिंसा, उत्तर-पूर्व के संघर्शों को भी एक साथ आंकना-परखना होगा।
यह शक के दायरे में है कि हमारा राजनीतिक
नेतृृत्व देश के युवा का असली मर्म समझ पा रहा है। महंगाई की मार के बीच उच्च शिक्षा
प्राप्त युवाओं का रोजगार, घाटे का सौदा होती खेती और विकास के
नाम पर हस्तांतरित होते खेत, पेट भरने व सुविधाओं के लिए षहरों की
ओर पलायन। ग्रामीण युवाओं की ये दिक्कतें क्या हमारे नीति निर्धारकों की समझ में
है? क्या भारत के युवा को केवल रोजगार चाहिए ? उसके सपने का
भारत कैसा है ? वह सरकार और समाज में कैसी भागीदारी चाहता है?
ऐसे
ही कई सवाल तरूणाई के ईर्दगिर्द टहल रहे हैं, लगभग अनुत्तरित
से। तीन दषक पहले तक कालेज सियासत के
ट्रेनिंग सेंटर होते थे, फिर छात्र राजनीति में बाहरी दखल इतना
बढा कि एक औसत परिवार के युवा के लिए छात्र संघ का चुनाव लड़ना असंभव ही हो गया।
युवा मन की वैचारिक प्रतिबद्धता जाति,धर्म, क्षेत्र जैसे
खांचों में बंट गई है और इसका असर देा की राजनीति पर भी दिख रहा है। कल तक एक
पार्टी को कोसने वाला अगले ही दिन दल बदल लेता है, बगैर किसी
संकोच-षर्म के।
सरकारी मीडिया हो या स्वयंसेवी संस्थाएं,
जिस
ने भी युवा वर्ग का जिक्र किया तो, अक्सर इसका ताल्लुक शहर में पलने वाले
कुछ सुविधा-संपन्न लड़के-लड़कियों से ही रहा । जींस और रंग बिंरगी टोपियां लगाए,
लबों
पर फर्राटेदार हिंगरेजी और पश्चिमी सभ्यता का अधकचरा मुलम्मा चढ़े युवा । यह बात
भूला ही दी जाती है कि इनसे कहीं पांच गुनी बड़ी और इनसे बिलकुल भिन्न युवा वर्ग
की ऐसी भी दुनिया है, जो देश पांच लाख गांवों में हैं । तंगी,
सुविधाहीनता
व तमाम उपेक्षाओं की गिरफ्त में फंसी एक पूरी कुंठित पीढ़ी । गांव की माटी से
उदासीन और शहर की चकाचैंध छू लेने की ललक साधे युवा शक्ति । भारतीय संस्कार,
संस्कृति
और सभ्यता की महक अभी कहीं शेष है तो वह है ग्रामीण युवा पीढ़ी । यथार्थता,
जिंदादिली
और अनुशासन सरीखे गुणों को शहरी सभ्यता लील चुकी है । एक तरफ ग्रामीण युवक तत्पर,
मेहनती,
संलग्नशील
व विश्वसनीय है तो दूसरी ओर नारों, हड़तालों और कृत्रिम सपनों में पले-पघे
शहरी युवा । वस्तुतया कुशल जन-बल के निर्माण के लिए ग्रामीण युवक वास्तव में ‘कच्चे
माल’ की तरह है , जिसका मूल्यांकन कभी ठीक से किया ही
नहीं जाता और लाजिमी है कि उनके विद्रोह हो कोई सा भी रंग दे दिया जाता है।
गांवों में आज ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट
डिग्रीधारी युवकों के बजाए मध्यम स्तर तक पढ़े-लिखे और कृषि-तकनीक में पारंगत
श्रमशील युवाओं की भारी जरूरत है । अतः आंचलिक क्षेत्रों में डिग्री कालेज खोलने
के बनिस्पत वहां खेती-पशुपालन-ग्रामीण प्रबंधन के प्रायोगिक प्रशिक्षण संस्थान
खोलना ही उपयोगी होगा । ऐसे संस्थानों में माध्यमिक स्तर की शिक्षा के बाद एक साल
के कोर्स रखे जा सकते हैं, साथ ही वहां आए युवकों को रोजगार की गारंटी देना होगा । इस तरह
प्रशिक्षित युवकों का गांव में रहने व ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ओर रुझान खुद-ब-खुद
आएगा । इससे एक तो गांवों में आधुनिकता की परिभाषा खुद की तय होगी साथ ही ग्रामीण युवाओं
को शहर भागने या अज्ञात भविष्य के लिए शून्य में भटकने की नौबत नहीं आएगी ।
सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश को ओलंपिक या
अन्य अंतरराष्ट्ररीय खेलों में कम पदक मिलने पर सड़क से संसद तक चर्चा होती रहीं
है । लेकिन क्या कभी किसी ने खयाल किया कि खेलनीति के सरकारी बजट का कितना हिस्सा
जन्मजात खिलाड़ी यानि ग्रामीण युवकों पर खर्च होता है । ग्रामीण खेलों की सरकारी
उपेक्षा का दर्दनाक पहलू हरियाणा, झारखंड या उत्तर-पूर्वी राज्यों में
देखा जा सकता है वहां गांव-गांव में खेल की परंपरा रही है । इनमें बेहतरीन खिलाड़ी
छोटी उम्र में तैयार किए जाते थे । उन्हें कभी सरकारी प्रश्रय मिला नहीं । सो
धीरे-धीरे से अखाड़े अपराधियों के अड्डे बन गए। अब ठेका हथियाने, जमीन
कब्जाने या चुनावों में वोट लूटने सरीखे कार्यों में इन अखाड़ों व खिलाडि़यों का
उपयोग आम बात है । जरूरत है तो बस उन्हें थोड़े से प्रशिक्षण और प्रतियोगिताओं के कानून-कायदें
सिखाने की । काष गांवों में खेल-कूद प्रषिक्षण का सही जरिया बन पाए।
एक बात और, इस समय देश का
लेाकतंत्र गांवों की ओर जा रहा है, लाखों पंच, सरपंच, पार्शद
नेतृत्व की नई कतार तैयार कर रहे हैं। इन लोगों को सही प्रषिक्षण मिले- योजना
बनाने, क्रियान्वयन और वित्तीय प्रबंधन का, इन लोगों को
अवसर मिलें, नए भारत के निर्माण में, इन लोगों को
प्रसिद्धी मिले दूरस्थ गांवों, मजरों में पसीना बहाने पर ; क्या
कोई ऐसी योजना सरकार तैयार कर पाएगी ?
गांवों में बसने वाले तीन चैथाई नवयुवकों की
उपेक्षा से कई राष्ट्रीय स्तर पर कई समस्याएं भी खड़ी हो रही हैं । कश्मीर हो या
उत्तर-पूर्व, जहां भी सशस्त्र अलगाववाद की हवा बह रही है,
वहां
हथियार थामने वाले हाथों में ग्रामीण युवाओं की संख्या ही अधिक हैं । हमारी शिक्षा
में कुछ बात तो ऐसी है कि वह ऐसे युवाओं को देश, राश्ट्रवाद,
जैसी
भावनाओं से परिपूर्ण नहीं कर पाया। क्रिकेट के मैदान पर तिरंगे ले कर उधम मचाने
वाले युवाओं का भी देश-प्रेम के प्रति दृश्टिकोण महज नेताओं को गाली देने या
पाकिस्तान को मिटा देने तक ही सीमित है। यह हमारी पाठ्य पुस्तकों और उससे उपज रही शिक्षा का खोखला दर्षन नहीं तो
और क्या है ? बातें युवाओं की लेकिन नीति में दिषाहीन,
अनकहे
सवालों से जझते युवा ।
पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेषनल बुक ट्रस्ट इंडिया
नेहरू
भवन, वसंत कुंज इंस्टीट्यूषनल एरिया फेज-2
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