संकट अल्पवर्षा नहीं कुछ और है
पंकज चतुर्वेदी
भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है, जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। हम बारिश के कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं।
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amar ujala 5-7-15 |
जो आशंका इस साल अप्रैल में जताई जा रही थी, उसके विपरीत जून में तो जमकर बरसे बादल। सामान्य से 14 फीसदी ज्यादा बारिश दर्ज की गई है। यही नहीं, भारत के खेती-प्रधान इलाकों में अधिकांश जगह ताल-तलैया, नदी-नाले क्षमता से ज्यादा भर गए हैं। बहुत से इलाकों में बाढ़ के हालात हैं। अब कहा जा रहा है कि अाषाढ़ में जो बरस गया वह ठीक है, सावन-भादो रीते जाएंगे। सवाल उठता है कि क्या अब कम बादल बरसे तो देश के सामने सूखे या पानी के संकट का खतरा खड़ा होगा?
यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ′औसत से कम′ पानी बरसा तब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। इस साल भी मौसम विभाग ने चेता दिया है कि बारिश कम हो सकती है। जो किसान अभी ज्यादा और असमय बारिश की मार से उबर नहीं पाया था, उसके लिए एक नई चिंता! उधर अभी अच्छी बारिश हुई है, लेकिन दाल, सब्जी, व अन्य उत्पादों के दाम बाजार में आसमानी हो गए। केंद्र से लेकर राज्य और जिले से लेकर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनाने में लग गए हैं कि यदि कम बारिश हुई, तो राहत कार्य के लिए कितना बजट चाहिए और यह कहां से मिलेगा। असल में इस बात को सब नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो, तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।
जरा मौसम महकमे की घोषणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 फीसदी क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन किलोमीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य नकदी फसलों ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान मायूस दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी का जुगाड़ न तो बारिश से होता है और न ही नदियों से।
कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी की कमी इंसान के जीवन के रंगों को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढ़ियों से बेहद कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियां हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं।
पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलबा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बचकर, पारंपरिक जलस्रोतों-तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ साल भर के पानी की कमी से जूझना कतई कठिन नहीं है। सूखे के कारण जमीन के कड़े होने, या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है, जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करनी होगी कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा।
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