मौत-घर बन रहे हैं मुजफ्फरनगर के राहत शिविर
पंकज चतुर्वेदी
दैनिक प्रभात, मेरठ 27.9.15 |
सितंबर-2013 में पष्चिमी
उत्तर प्रदेश में प्रायोजित हुए दंगों के
जख्म से एकबार फिर दर्द का रक्त उभर आया है। हालांकि अभी तक जस्टिस विश्णु सहाय की
रपट की आधिकारिक या प्रामाणिक जानकारी तो सामने नहीं आई है, लेकिन इस बात का
अंदाजा सभी को हो गया है कि जस्टिस सहाय का भी वही आकलन है जो आम लोगों का- कतिपय
सियासती दलों ने वोटों की फसल काटने को दंगों के बीज बोये थे। मौत, पलायन,
भुखमरी
और दर्द के दरिया को सामने देख कर भी किस तरह नकारा जा सकता है, इसका
उदाहरण उत्तर प्रदेश में देखा जा सकता है। पष्चिमी उत्तर प्रदेश का जो इलाका अभी
कुछ महीनों पहले तक चीनी की चााशनी के लिए मशहूर था, आज नफरत,
हिंसा,
अमानावीयता
की मंद-मंद आग से तप रहा है। भले ही दंगों की लपटें समाप्त दिख रही है लेकिन उसके
दूरगामी दुश्परिणाम समाज शिद्दत से महसूस कर रहा है, विडंबना है कि
अविष्वास, गुरबत और सामाजिकता के छिन्न-भिन्न होने का जो सिलसिला सितंबर-2013
में षुरू हुआ था वह दिनों-दिन गहराता जा रहा है।
सरकार व समाज दोनों की राहत की कोशिषें कहीं पर
घाव को गहरा कर रहे हैं। मुजफ्फरनगर और उसके करीबी पांच जिलों में आंचलिक गांव तक
फैली दंगे के दावानल को आजादी के बाद उ.्रप्र. का सबसे बड़ा दंगा कहा गया जिसमें
कोई एक लाख लोग घर-गांव से पलायन करने को मजबूर हुए। अब सामने दिख रहा है कि ना तो
इसे अपराध के तौर पर और ना ही सामाजिक समस्या के रूप में आकलिन व निवारण के प्रयास
करने में सरकारी मषीनरी विफल रही हे। आज भी दंगा पीडि़त लोग तिल-दर-तिल मर रहे हैं
और उनके सामने भविश्य के नाम पर एक ष्याह अंतहीन गली दिख रही है। अपने घ्रों से
दूर किसी वीराने में राहत के कुछ पैसों से ईंटों का ढ़ांचा खड़ा कर अपनी जिंदगी को
नए सिरे से जोड़ते लोगों की बस्तियों से हर रोज कोई लाश उठ रही है - असल में यह
जनाजा मौसम की मार, सरकार की बेरूखी, लाचारी, गुरबत
और खौफ के कंधों पर कब्रिस्तान तक जाता है।
यह विडंबना ह कि कतिपय राजनीतिक दल दंगों को महज सुरक्षा या कानून का मसला
बता कर पूरी जिम्म्ेदारी सरकार में बैठे लेागों पर डाल देते है।, जबकि
हर राजनीतिक दल का यह फर्ज होता है कि जब समाज में तनाव हो तो वह लोगों के बीच जा
कर उनमें समन्वय की बात करे।
याद
करें दंगों के तत्काल बाद कड़कड़ती ठंड में राज्य के मुख्य सचिव कहते रहे थे कि ठंड से कोई मरता नहीं है, जबकि
डाक्टरों की रपट गवाह है कि मारे गए अधिकांश बच्चे निमोनिया से ही अकाल-मृत्यू के शिकार
हुए है। उसके बाद षामली और मुजफ्फरनगर के प्रषासन ने राहत शिविरों को ही बुलडोजर
चला कर उजाड़ दिया था। जब हल्ला हुआ तो कलेक्टर, मुजफ्फरनगर
द्वारा राज्य षासन को भेजी गई आख्या में
कहा गया था कि शिविरों में अधिकांश लोग वे हैं, जिनके गांव में
दंगा भड़का ही नहीं था, या फिर उन्हें मुआवजा मिल चुका है। कलेक्टर
साहब ने यह भी फरमाया था कि प्रषासन ने
लोगों को पक्के भवनों में रहने के लिए जगह दी है, लेकिन वे लोग
जानबूझ कर खुले में रह रहे हैं।
इस बीच दंगों के कारण हुए समाज को नुकसान सामने
आने लगे हैं। यह सभी जानते हैं कि देश की कुल गन्ने की फसल व चीनी उत्पादन का बड़ा
हिस्सा पष्चिमी उ.प्र.के सात जिलों से आता है। इस बार किसान अपना गन्ना लेकर तैयार
था तो चीनी मिल दाम को लेकर मनमानी पर उतारूं थी। भारतीय किसान यूनियन ने जब इसका
विरोध करने के मोर्चे निकाले तो उस पर दंगों का साया साफ दिखा- प्रदर्षन बेहद फीके
रहे क्योंकि ऐसे धरने-जुलूसों में तरन्नुम में नारे लगाने वाले, नए-नए
जुमले गढ़ने वाले मुसलमान उसमें षामिल ही नहीं थे। कुंद धार आंदोलन होने का ही
परिणाम रहा कि किसान को मन मसोस कर मिल मालिक की मर्जी के मुताबिक गन्ना देना पड़ा। दंगे के दौरान जिस तरह कई जगह खड़ी फसलों को आग
के हवाले किया गया, जिस तरह दूसरे समुदाय के लोगों के खेतों पर
कतिपय लोगों ने अपने खूंटे गाड़ दिए, इसके दुश्पणिाम अगले साल देखने को
मिलेंगे- यह बात किसान भी समझ गए हैं। गांव-गांव में जाटों के खेतों पर मजदूरी
करने वाले मुसलमान भूमिहीनों ने कभी यह समझाा ही नही था कि वह किसी गैर के यहां
मजदूरी कर रहा है, लेकिन अब ना तो वह भरोसा रहा और ना ही वह
मेहनतकश हाथ वहां बचे हैं।
षामली जिले के मलकपुर, सुनेती गांवों
के बाहर खुले मैदान हों या फिर मुजफ्फरनगर के लोई, जोउला या कबाड़
के बाहर खेत- दूर से तो वहां रंगबिरंगी पन्नी व चादरों के कैंप किसी मेला-मिलाद की
तरह दिखते हैं, लेकिन वहां हर रंगीन चादर के चीने हजारों दर्द
पल रहे हैं किसी का गांव में दो मंजिला मकान व लकड़ी का कारखाना था, आज
वह कैंप के बाहर कचरे की तरह पड़े पुराने कपड़ों में से अपने नाप की कमीज तलाश रहा
है। बीते दो सालों में कई सौ से ज्यादा बच्चियों का निकाह जायज उम्र से पहले करने
के पीछे भी उन बच्चियों की रक्षा कैंप में ना होने की त्रासदी है।
सबसे बुरी हालत देश का भविश्य कहे जाने वाले
बच्चों की है। इन दंगों की पुनर्वास बस्तियों के बाहर कई सौ ऐसे किषोर मिल जाएंगे
जो कभी कालेज या हायर सैकेंडरी स्कूलों में जाते थे। दंगे में उनकी किताबों-
कापियों, पुराने सनद-दस्तावेजों सभी को राख में बदल दिया है। उन्होंने इतनी
कटुता देख ली कि व अब दूसरे कौम के लोगों के साथ एक भवन में पढ़ना नहीं चाहते ।
वहीं नफरस व आषंका का माहौल दूसरे फिरके में भी है। अपने घर-गांव से विस्थापित ना
तो किसी नई जगह दाखिला ले सकते हैं और ना ही अपने पुराने स्कूल-कालेजों में जा
सकते हैं, कारण उनके पास निवास के प्रमाण पत्र जैसे कागजात भी नहीं बचे है।। ये
लड़के या तो छोटे-मोटे काम कर रहे हैं या फिर आवारागिर्दी। जब मां-बाप एक-एक
निवाले की जुगाड़ में सारा दिन बिताते हैं तो उन तीन हजार से ज्यादा स्कूली बच्चों
की परवाह कैसे की जा सकती है जिनके लिए कैंपों में शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं
है। जरा सोचंे कि अभी भी खौ।फ के साये में जी रहे इन चालीस हजार से ज्यादा लोगों
के कई हजार बच्चे बगैर माकूल शिक्षा या प्रशिक्षण के, इस तरह के
षोशत-भयावह और अन्याय के महौल से बड़े हो कर किस तरह मुल्क के विकास में योगदान दे
पाएंगे।
कहने को राज्य सरकार ने राहत शिविारों से घर ना
लौट रहे लोगों को पांच-पांच लाख रूपए दे कर बसाने की योजना बनाई थी और इसके तहत
पदो हजार से ज्यादा लोगों को मुआवजा भी दिया गया । इसके एवज में उनसे हलफनामे लिए
गए कि वे कभी भी अपने घर-गांव नहीं लौटेंगे। जरा गौर करें कि यह कितनी असहनीय व
सरकार की असहाय होने की योजना है। सरकार में बैठे लोग गांव-गंाव में देानेां
फिरकों के बीच विष्वास बहाली नहीं कर पा रहे हैं या फिर एक साजिश के तहत उन
विस्थापित लोगों के घर-खेतों पर कतिपय लोगों को कब्जा करने की छूट दी जा रही है।
संयुक्त परिवार में रह रहे लोगों को मुआवजे के लिए आपस में झगड़ा होना, इतने
कम पैसे में नए सिरे से जीवन षुरू कठिन होना लाजिमी है। सनद रहे कि इलाके के
गांवों में मुसलमानेां की घर वापिसी पर मुकदमें वापिस लेने, साथ में हुक्के
के लिए नहीं बैठने, मनमर्जी दर पर मजदूरी करने जैसी शर्तें थोपी
गईं, इसकी जानकारी पुलिस को भी है, लेकिन विग्रह की
व्यापकता और उनका प्रशिक्षण इस तरह का ना होने से हालात जस के तस बने हुए हैं।
जिन दंगों ने डेढ सौ से ज्यादा जान लीं,
जिसमें
कई करोड़ की संपत्ति नश्ट हुई, जिसके कारण एक लाख से ज्यादा लोग पलायन
करने पर मजबूर हुए, सबसे बड़ी बात जिस दंगे ने आपसी विष्वास और
भाईचारे के भव्य महल को नेस्तनाबूद कर दिया- ऐसे गंभीर अपराध पर प्रषासन की
कार्यवाही इतनी लचर थी कि इसके सभी आरोपी सहजता से जेल से बाहर आ गए और मुजरिम
नहीं, हीरो के रूप में बाहर आए।
जस्टिस सहाय की रपट से किसी को भी न्याय की
उम्मीद नहीं है, हकीकत में जनता हताश है अपने राजनीतिक
नुमाईंदों से क्योंकि दंगों के दौरान सभी दल के नेता महज पदो फिरकों में बंट गए
थे। दंगे के बाद जबरिया गवाही बदलवाने, मुकदमों सें नाम हटवाने का दवाब बनाने,
राहत
या जरूरी कागजासत बनवाने में दलाली लेने
जैसे कार्यों में हर दल के रूतबेदार लोग दंगा पीडि़तों का षोशण करते रहे।
कई बुर्जुग कहते हैं कि इतना अविष्वास तो सन 47 में भी नहीं था,
तब
गांव-गांव में कांगेस का कार्यकर्ता लेागों को पाकिस्तान जाने से रोकने को आगे
खड़ाा था, वहीं दंगों से निबटने को जाट मुसलमानों की ढाल बने थे। पष्चिमी उ.प्र
के हालातों को सामान्य बनाने के लिए किसी सरकारी दस्तावेज या कानून से कहीं ज्यादा
मानवीय और दूरगामी योजना की जरूरत है। इलाके के पुनर्वास शिविरों में कई मुस्लिम
तंजीमें इमदाद के काम कर रही है। जाहिर है कि लोग उनसे ही प्रभावित होंगे और इसके
असर कहीं ना कही दुखदाई भी हो सकते हैं।