My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 3 जनवरी 2016

Conutry has to pay high for negligency towards peasents

JAGRAN ,NATIONAL EDITION 4-1-2016

महंगी पड़ सकती है खेती-किसानी से बेपरवाही


इन दिनों देश में बाहर की कम्पनियों को कारखाने लगाने के लिये न्योतने का दौर चल रहा है। जबकि देश की बहुसंख्यक आबादी के जीवकोपार्जन के जरिए पर सभी मौन हैं। तेजी से विस्तार पर रहे शहरी मध्य वर्ग, कारपोरेट और आम लोगों के जनमानस को प्रभावित करने वाले मीडिया खेती-किसानी के मसले में लगभग अनभिज्ञ है।

यही कारण है कि खेती के बढ़ते खर्चे, फसल का माकूल दाम ना मिलने, किसान-उपभोक्ता के बीच कई-कई बिचौलियों की मौजूदगी, फसल को सुरक्षित रखने के लिये गोडाउन व कोल्ड स्टोरेज और प्रस्तावित कारखाने लगाने और उसमें काम करने वालों के आवास के लिये ज़मीन की जरूरत पूरा करने के वास्ते अन्न उगाने वाले खेतों को उजाड़ने जैसे विषय अभी तक गौण हैं।

सरकारी आँकड़े भी बताते हैं कि खेती पर निर्भर जीवकोपार्जन करने वालों की संख्या भले ही घटे, लेकिन उनकी आय का दायरा सिमटता जा रहा है। इस साल देश के 11 राज्यों में अल्प वर्षा के कारण भयंकर सूखा पड़ा है जो लगभग देश की खेती जोत का आधे से अधिक हिस्सा है। सनद रहे एक बार सूखे का मार खाया किसान दशकों तक उधार में दबा रहता है और तभी वह खेती छोड़ देता है।

भारत में कारें बढ़ रही हैं, मोटर साइकिल की बिक्री किसी भी विकासशील देश में सबसे अधिक है, मोबाइल क्रान्ति हो गई है, शापिंग मॉल कस्बों-गाँवों की ओर जा रहे हैं। कुल मिलाकर लगता है कि देश प्रगति कर रहा है। सरकार मकान, सड़कें बनाकर आधारभूत सुविधाएँ विकसित करने का दावा कर रही है।

देश प्रगति कर रहा है तो जाहिर है कि आम आदमी की न्यूनतम ज़रूरतों का पूर्ति सहजता से हो रही है। तस्वीर का दूसरा पहलू भारत के बारे में चला आ रहा पारम्परिक वक्तव्य है- भारत एक कृषि-प्रधान देश है। देश की अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि है। आँकड़े भी यही कुछ कहते हैं।

आज़ादी के तत्काल बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिशत थी जबकि आज यह घटकर 13.7 प्रतिशत हो गई है। यहाँ गौर करने लायक बात है कि तब भी और आज भी खेती पर आश्रित लोगों की आबादी 60 फीसदी के आसपास ही थी। जाहिर है कि खेती-किसानी करने वालों का मुनाफ़ा, आर्थिक स्थिति सभी कुछ दिनों-दिन जर्जर होती जा रही है।

पूरे देश के खेत इस समय देर से या अल्प मानसून की आशंका से जूझ रहे हैं। अन्तरराष्ट्रीय मंदी से जूझने का सबसे ताकतवर जरिया बढ़िया खेती ही है और सरकार व समाज में बैठे लोग ‘गे-लेस्बियन’ या कार-मोबाइल के बदौलत देश की आर्थिक हालत सुधारने का दिवा-स्वप्न देख रहे हैं।

पहले और दूसरे पहलू के बीच कहीं संवादहीनता है। इसका प्रमाण है कि गत् सात सालों के दौरान देश के विभिन्न इलाकों के लगभग 45 हजार से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अपनी जान देने वालों की कुंठा का कारण कार या मोटर साइकिल न खरीद पाना या मॉल में पिज्जा न खा पाना कतई नहीं था।

अधिकांश मरने वालों पर खेती के खर्चों की पूर्ति के लिये उठाए गए कर्जे का बोझ था। किसान का खेत केवल अपना पेट भरने के लिये नहीं होता है, वह आधुनिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों से पूरे देश तकदीर लिखता है।

हमारे भाग्यविधाता अपने अनुभवों से सीख नहीं ले रहे हैं कि किसान को कर्ज नहीं बेहतर बाजार चाहिए। उसे अच्छे बीज, खाद और दवाएँ चाहिए। कृषि में सुधार के लिये पूँजी से कहीं ज्यादा जरूरत गाँव-खेत तक संवेदनशील नीति की है।

देश के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेश का यह आँकड़ा अणु बम से ज्यादा खतरनाक है कि राज्य में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हेक्टेयर खेती की ज़मीन को उजाड़ा जा रहा है। मकान, कारखानों, सड़कों के लिये जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांश अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअन्दाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आँकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इज़ाफा करते हैं।
कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश में किसान ही कम हो रहे हैं। सन् 2001 से 2011 के बीच के दस सालों में किसानों की संख्या 85 लाख कम हो गई। वर्ष-2001 की जनगणना के अनुसार देश में किसानों की कुल संख्या 12 करोड़ 73 लाख थी जो 2011 में घटकर 11 करोड़ 88 लाख हो गई।

आज भले ही हम बढ़िया उपज या आयात के चलते खाद्यान्न संकट से चिन्तित नहीं हैं, लेकिन आने वाले सालों में यही स्थिति जारी रही तो हम सुजलाम-सुफलाम नहीं कह पाएँगे। कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो देशभर में जुताई का क्षेत्र घट रहा है। सबसे बुरी हालत उत्तर प्रदेश की है, जहाँ किसानों की संख्या में 31 लाख की कमी आई है।

बिहार में भी करीब 10 लाख लोग किसानी छोड़ चुके हैं। सबसे चिन्ताजनक बात यह है कि किसानों ने खेती छोड़कर कोई दूसरा काम-धंधा नहीं किया है बल्कि उनमें से ज्यादातर खाली बैठे हैं। इन्होंने ज़मीन बेचकर कोई नया काम-धंधा शुरू नहीं किया है बल्कि आज वे किसान से खेतिहर मज़दूर बन गए हैं। वे अब मनरेगा जैसी योजनाओं में मजदूरी कर रहे हैं।

सन् 2001 में देश की कुल आबादी का 31.7 फीसदी किसान थे, जो सन् 2011 में महज 24.6 प्रतिशत रह गए। आखिर ऐसा होना लाज़िमी भी है। बीते साल ही संसद में सरकार ने कहा था कि महज किसानी कर घर का गुजारा चलाना सम्भव नहीं है।

भारत सरकार के दस्तावेज़ कहते हैं कि 1.16 हेक्टेयर ज़मीन पर गेहूँ उगाने पर एक फसल, एक मौसम में किसान को केवल रु. 2527 और धान उगाने पर रु. 2223 ही बचते हैं। यह आँकड़े उस हालात में है जब मान लिया जाये कि राष्ट्रीय कृषि लागत औसतन रु. 716 प्रति हेक्टेयर है।

हालांकि किसान कहते हैं कि लागत इससे कम-से-कम बीस फीसदी ज्यादा आ रही है। तिस पर प्राकृतिक विपदा, बाढ़-सुखाड़, ओले, जंगली जानवर का खतरा अलग। सनद रहे मुल्क में किसान के पास औसत जमीन 1.16 हेक्टेयर ही है।

उधर, इन्हीं 10 वर्षों के दौरान देश में कारपोरेट घरानों ने 22.7 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण करके उस पर खेती शुरू की है। कारपोरेट घरानों का तर्क है कि छोटे-छोटे रकबों की अपेक्षा बड़े स्तर पर मशीनों और दूसरे साधनों से खेती करना ज्यादा फायदेमन्द है। हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में कारपोरेट घरानों ने बड़े-बड़े कृषि फार्म खोलकर खेती शुरू कर दी है।

नकली खाद, पारम्परिक बीजों की जगह बीटी बीजों की ख़रीद की मजबूरी, फसल आने पर बाजार में उचित दाम नहीं मिलना, बिचौलियों की भूमिका, किसान के रिस्क-फैक्टर के प्रति प्रशासन की बेरुखी- कुछ ऐसे कारण हैं जिसके चलते आज देश के किसान खेती से विमुख हो रहे हैं।

देश के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेश का यह आँकड़ा अणु बम से ज्यादा खतरनाक है कि राज्य में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हेक्टेयर खेती की ज़मीन को उजाड़ा जा रहा है। मकान, कारखानों, सड़कों के लिये जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांश अन्नपूर्णा रही हैं।

इस बात को भी नजरअन्दाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आँकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इज़ाफा करते हैं। पूरे देश में एक हेक्टेयर से भी कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है।

किसान भारत का स्वाभिमान है और देश के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका शोषण किस स्तर पर है, इसकी बानगी यही है कि देश के किसान को आलू उगाने पर माकूल दाम ना मिलने पर सड़कों पर फेंकना पड़ता है तो दूसरी ओर उसके दाम बढ़ने से रोकने के लिये विदेश से भी मँगवाना पड़ता है। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भण्डारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूँजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध -जैसे कदम देश का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं।
देश में 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 53.1 फीसदी हुआ करता था। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिये खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास जीवनयापन का कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।

किसानों के प्रति अपनी चिन्ता को दर्शाने के लिये सरकार के प्रयास अधिकांशतः उसकी चिन्ताओं में इज़ाफा ही कर रहे हैं। बीज को ही लें, गत् पाँच साल के मामले सामने हैं कि बीटी जैसे विदेशी बीज महंगे होने के बावजूद किसान को घाटा ही दे रहे हैं।

ऐसे बीजों के अधिक पैदावार व कीड़े न लगने के दावे झूठे साबित हुए हैं। इसके बावजूद सरकारी अफ़सर विदेशी जेनेटिक बीजों के इस्तेमाल के लिये किसानों पर दबाव बना रहे हैं। हमारे यहाँ मानव संसाधन प्रचुर है, ऐसे में हमें मशीनों की जरूरत नहीं है, इस तथ्य को जानते-बूझते हुए सरकार कृषि क्षेत्र में आधुनिकता के नाम पर लोगों के रोज़गार के अवसर कम कर रही है।

रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल के दुष्परिणाम किसान व उसके खेत झेल रहे हैं। इसके बावजूद सरकार चाहती है कि किसान पारम्परिक खेती के तरीके को छोड़ नए तकनीक अपनाए। इससे खेती की लागत बढ़ रही है और इसकी तुलना में लाभ घट रहा है।

गम्भीरता से देखें तो इस साज़िश के पीछे कतिपय वित्त संस्थाएँ हैं जो कि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाश रही हैं। खेती की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिये कर्जे का बाजार खोल दिया गया है और सरकार इसे किसानों के प्रति कल्याणकारी कदम के रूप में प्रचारित कर रही है। हकीक़त में किसान कर्ज से बेहाल है।

नेशनल सैम्पल सर्वे के आँकड़े बताते हैं कि आन्ध्र प्रदेश के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं। पंजाब और महाराष्ट्र जैसे कृषि प्रधान राज्यों में यह आँकड़ा औसतन 65 प्रतिशत है। यह भी तथ्य है कि इन राज्यों में ही किसानों की ख़ुदकुशी की सबसे अधिक घटनाएँ प्रकाश में आई हैं।

यह आँकड़े जाहिर करते हैं कि कर्ज किसान की चिन्ता का निराकरण नहीं हैं। किसान को सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देश के चहुँमुखी विकास में वह महत्त्वपूर्ण अंग है।

किसान भारत का स्वाभिमान है और देश के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका शोषण किस स्तर पर है, इसकी बानगी यही है कि देश के किसान को आलू उगाने पर माकूल दाम ना मिलने पर सड़कों पर फेंकना पड़ता है तो दूसरी ओर उसके दाम बढ़ने से रोकने के लिये विदेश से भी मँगवाना पड़ता है।

किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भण्डारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूँजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध -जैसे कदम देश का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How National Book Trust Become Narendra Book Trust

  नेशनल बुक ट्रस्ट , नेहरू और नफरत पंकज चतुर्वेदी नवजीवन 23 मार्च  देश की आजादी को दस साल ही हुए थे और उस समय देश के नीति निर्माताओं को ...