स्वच्छता अभियान,सफाईकर्मी और भंगी-मुक्ति की राह
पंकज चतुर्वेदी
पीपुल्स समाचार म.प्र. |
देश में बीते एक साल में सफाई के प्रति जागरूकता भी बढ़ी
है और प्रयास भी। विचार यह भी करना चाहिए कि आखिर क्यों पूरे देश को झाड़ू हाथ में ले कर उतरने की नौबत आई,
जबकि हमारे यहां सफाई कर्मचारियों की बस्तियां
हर गांव-कस्बे में है। असल समस्या यह है कि सफाई का जिम्मा निभाने वाला समाज हर समय
उपेक्षित रहा और हमारी जातिवादी व्यवस्था ने सफाई का काम एक जाति विषेश का जिम्म मान
कर अपना काम कूड़ा फैलाना समझा। वास्तविकता यह है कि भारतीय समाजिक संरचना में भंगी
कभी जाति नहीं हुआ करती थी, यह कर्म था, लेकिन अब यह जाति बन गई वह भी पूरी तरह उपेक्षित ,
पिछड़ी व विकास की बंद गली में ठिठकी हुई ।
मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश
के कोई एक दर्जन जिलों में विस्तारित भूखंड बुंदेलखंड में सफाई के काम में लगे लोगों
की जाति ‘बसोर’
कहलाती है । बसोर यानि बांस का काम करने वाले
। और वास्तव में अभी भी उनके घरों में बांस की टोकरियां,
सूप आदि बनाने का काम होता है । अभी कुछ दशक
पीछे ही जाएं तो पता चलता है कि बसोर बांस का बेहतरीन कारीगर हुआ करता था । आधुनिकता
की आंधी में बांस की खपच्चियों की कला कहीं उड़ गई और उनके हाथ आ गए झाड़ू-पंजा । गुजरात
की गाथा इससे अलग नहीं है, वहां
भी बांस की टोकरी बनाने वालों को भंगी कहा जाता है । भंगी यानि जो बांस को भंग करे
। गुजरात और महाराष्ट्र व सीमावर्ती मध्यप्रदेश में सफाई कर्मचारियों के उपनाम ‘वणकर’ हुआ
करते हैं, यानि
बुनकर । गौरतलब है कि अंग्रेजों के आने के बाद भारत में बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलें लगीं
और इंग्लैंड से सस्ता कपड़ा आयात होने लगा । फलस्वरूप हथकरघे बंद होने लगे ।जब कारखाने
खुल रहे थे, तभी
शहरीकरण हो रहा था । इन्ही हालातों के चलते बुनकर को ‘वणकर’ बनने
पर मजबूर होना पड़ा । यदि अंग्रेज समाज-शास्त्री स्टीफन फ्यूकस के एक शोध को विश्वास
काबिल मानें तो जान कर आश्चर्य होगा कि मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में जाति-धर्म
परिवर्तन की तरह भंगी बनाने की बाकायदा प्रक्रिया होती है । ऐसे ही कई उदाहरण देश के
कोने-कोने में फैले हुए हैं, जो इंगित
करते हैं कि समाज के सर्वाधिक उपेक्षित इस वर्ग को ‘जाति’ कहना
न्यायोचित नहीं है । मुगलकाल में महलों के षौचालय साफ करने के गुलामों को महतर बनाने
व उन्हें किसी लाल बेगी नामक फकीर का चेला बताने के प्रमाण गवाह हैं कि सामंतों ने
सुनियोजित साजिश के तहत एक पूरी बिरादरी अमानवीयता
के धरातल पर खड़ी कर दी थी।
प्रागैतिहासिक काल या
उससे भी पहले की पौराणिक कथाओं की बात करें या अंगे्रजों के आगमन तक के इतिहास की,
कहीं भी सफाई कर्मचारी नामक समाज का उल्लेख
नहीं मिलता है ।विश्व की सर्वाधिक पुरानी सभ्यताओं में से एक मोहन-जोदड़ो में जब सीवर
प्रणाली के प्रमाण मिले हैं तो स्पष्ट है कि भारत में पहले साफ-सफाई समाज की साझा जिम्मेदारी
हुआ करती थी, नाकि
किसी समाज विशेश की । वैसे भी यह स्वीकार्य
तथ्य है कि सामंतवाद, जातिवाद
या शोश ण का सर्वाधिक असर उन इलाकों में होता है जहां अशिक्षा,
संचार व परिवहन साधनों का अभाव होता है । तभी
आज नीची जातियों पर अत्याचार के अधिकांश मामले दूरस्थ गांवों में ही सुनाई देते हैं । लेकिन आंकड़े गवाह
हैं कि सफाई कर्मचारियों की संख्या गांवों की तुलना में शहरों में कई्र गुना अधिक है
। जाहिर है कि इस पेशे को पारंपरिकता से जोड़ना बेमानी होगा ।
आजादी के बाद से भंगी
मुक्ति, सिर
पर मैला ढोने पर पाबंदी सरीखे कइ्र्र नारे सरकारी व गैरसरकारी संगठन लगाते रहे । लेकिन
खुद केंद्र सरकार का यह आंकड़ा इन नारों की इच्छा शक्ति का खुलासा करता है कि देश के
सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश को केंद्र से इस मद में 175 करोड़ रुपए मिल चुके हैं, इसके बावजूद वहां अभी भी 48 हजार ऐसे सफाईकर्मी हैं जो सिर पर मैला ढ़ोते हैं । इनमें से
अधिकांश राजधानी लखनऊ और शाहजहांपुर में हैं ।
सामाजिक न्याय के संर्घषों
के लिए चर्चित बिहार में ‘समाजवाद’
की तस्वीर और भी वीभत्स है । जनगणना में यह
बात उभर कर आई कि अभी भी राज्य में दोे लाख ‘कमाऊ’ शौचालय
हैं । इनका मल अपने सिर पर ढ़ोने वालों की
सरकारी संख्या तो महज आठ हजार है, लेकिन
हकीकत में यह ग्राफ साठ हजार से ऊपर जाकर टकराता है । केंद्र सरकार की एक ताजातरीन
रिपोर्ट में यह बात बड़ी निर्लज्जता से स्वीकारी गई है कि हरियाणा में अभी भी 11 कस्बे ऐसे हैं जहां सिर पर मैला ढोने की प्रथा बरकरार है ।
महाराष्ट्र में ऐसे कस्बे 116, राजस्थान
में 66, पंजाब में 40 और आंध्र्रप्रदेश में 157 है । ओडि़शा की राजधानी भुवनेश्वर,
वहां से मात्र 60 किमी दूर स्थित पर्यटन स्थल पुरी,
कटक आदि में आज भी नरक सफाई का काम ‘हरिजनों’ के हाथों
जारी है ।
यह बात दीगर है कि सिर
पर मैला ढुलाई का काम करवाना कानून की नजर में जुर्म है । यह कोई अकेला कानून नहीं
है, जिसके दम पर सरकार मल
साफ करने के अपमान, लाचारी
और गुलामी से उपजी कुंठा के निदान का दावा करती है । 1963 में मलकानी समिति ने सिफारिश की थी कि जो सफाई कामगार अन्य
कोई नौकरी करना चाहे तो उन्हें चैकीदार, चपरासी आदि पद दे दिए जाएं । लेकिन उन सिफारिशों को सरकारी सिस्टम
हजम कर चुका है । आज भी रोजगार कार्यालयों से महज जाति देख कर ग्रेजुएट बच्चों को सफाई
कर्मचारी की नौकरी का परवाना भेज दिया जाता है । योजना आयोग ने वर्श 1989 में एक कार्य दल का गठन किया था,
जिसने सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास पर कई सुझाव
दिए थे। पुनर्वास की राश्ट्रीय योजना की षुश्आत र्मान 1992 में हुई भी, लेकिन केवल कागजों पर । फिर 15 अगस्त 1994 को
तत्कालीन प्रधानमंत्री ने राश्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के गठन की घोशणा की। इसके पहले
अध्यक्ष मांगीलाल आर्य ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट 17 नवंबर 1995 को
तब के समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी को सौंपी भी। लेकिन उस रिपोर्ट पर षायद ही
कोई कार्यवाही हुई हो।इसके बाद आयोग के कई प्रधान बने और वे सफाई कर्मियों के प्रति
कम और अपने निजी हितों के प्रति ज्यादा जागरूक दिखे।
क्या यह एक सुनियोजित
साजिश सा नहीं दिखता है कि समाज की स्वास्थ्य रक्षा व सफाई के लिए अपना वर्तमान ही
नहीं भविष्य भी दांव पर लगाने वालों की खुद की बस्तियां गंदी,
बदबूदार और कुप्रबंध की शिकार होती हैं । राजधानी
दिल्ली से ले कर सुदूर कस्बे तक की वाल्मिकी बस्तियांे पर निगाह डालें,
वहां ना तो पक्की सड़क होगी ना ही बिजली व पानी
का माकूल इंतजाम । हां, बस्ती
के बीचों-बीच या इर्द-गिर्द देशी शराब की दुकान अवश्य मिल जाएगी ।
हरेक नगर पालिका स्तर
पर सफाई कर्मचारियों के लिए ‘‘ट्रांजिट
होम’’ बनाने का खर्चा केंद्र
सरकार देती है ,ताकि
सफाई कर्मचारी अपने पेशे से निवृत हो कर वहां हाथ-पैर धो कर स्वच्छ हो सकें । लेकिन
पूरे देश में ऐसे ट्रांजिट होम पर पालिका के वरिष्ठ अधिकारियों का कब्जा होता है ।
यहां तक कि सफाई कर्मचारियों को यह मालूम ही नहीं होता है कि सरकार ने उनके लिए ऐसी
कोई व्यवस्था भी की है ।
एक बात बहुत साफतौर पर
जान लेना चाहिए कि खुली अर्थ व्यवस्था के इस युग में भंगी मुक्ति और समाजवाद दोनो ही
सिक्कों की खनक से ही संभव है । जब तक भंगी महंगा नहीं होगा,
दशकों से पीडि़त इस वर्ग की मुक्ति नहीं होगी
। उदाहरण सामने है कि अच्छी कमाई होती देख कर उच्च वर्ग के लोग बेहिचक चमार की रोजी-रोटी
मार रहे हैं । वे ना केवल जूतों की दुकान खोल रहे हैं,
बल्कि इसके कारखाने भी लगा रहे हैं । इसी तरह
खटीक के मांस व्यापार या मछुआरों की मछलियां अब सभी तथाकथित ऊंची जात के रोजगार का
साधन बन गई हैं । ठीक इसी तर्ज पर यदि सफाई कर्मचारियों के वेतन और सुविधाएं बढ़ने
दें तो अन्य जाति-वर्ग के लोग भी इस ओर आकर्षित होंगे । वैसे भी ऐसा करना आज समय की
मांग है क्योंकि सफाई कर्मियों में इन दिनों एकाधिकार की भावना आ गई है । फलस्वरूप
वे काम को गंभीरता से नहीं ले रहे है व लापरवाह हो गए हैं ।
आज समय के साथ बदलते
सफाई के परिदृष्य में भले ही भंगी को सिर पर मैला ढ़ोने से मुक्ति मिल रही हो,
लेकिन गंदगी, मल से उसका पीछा नही छूटा है। गंदगी भरा ट्रक चलाना हो या गहरे
जानलेवा सीवर की सफाई का काम, सभी
में उन्हीं लोगों को खपाया जा रहा है। इससे ना तो उनकी तकदीर बदल रही है और ना ीह सामाजिक-आर्थिक
हालात। अभी भी आम सफाईकर्मी? दिन
ढलते ही श राब के नयो में दुर्गंध को मिटाता और समय से पहले गंभीर बीमारियों की चपेट
में आ कर मरता दिखता है।
वैसे यह कटु सत्य है
कि भंगी मुक्ति ना तो सरकार के हाथों संभव है और ना ही सवयंसेवी संस्थाओं के बदौलत
। इसके लिए पहल स्वयं सफाई कर्मियों को ही करनी होगी । और इसका प्रारंभिक कदम होगा
आत्म सम्मान को पहचानना । अपने कर्तव्य की महत्ता को समझना । जागरुकता की कुंजी साक्षरता
है । अतएव समाज के शिक्षित वर्ग को शिक्षा ऋण उतारने के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए । आज
हर व्यवसाय के अत्याधुनिक तरीकों को विदेश से आयात किया जा रहा है । सफाई के क्षेत्र
में ऐसे अनुसंधानों को खोजने का काम खुद समाज के जागरुक लोगों को करना होगा । एक बार
फिर याद रखें, यह अर्थ-प्रधान
युग है और अर्थ का मूल कर्म होता है ।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद,
गाजियाबाद 201005
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