विकास से उपजे कचरे की विषैली कथा
कबाड़ी से लेकर उपयोगकर्ता तक हर कोई उस खतरे से अनजान है, जो ई-कचरा हमें दे रहा है।
एक दशक से ज्यादा हो गया, जब दिल्ली के सबसे बड़े कबाड़ी बाजार मायापुरी
में कोबाल्ट का विकिरण फैल गया था। उसमें एक शख्स की मौत हुई थी व पांच
जीवनभर के लिए बीमार हो गए थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के रसायन विभाग ने एक
बेकार पड़े उपकरण को कबाड़ में बेच दिया था और धातु निकालने के लिए कबाड़ी
ने उसे जलाने की कोशिश की थी। इस पर तब जितना हंगामा हुआ था, उतनी ही जल्दी
उसे भुला भी दिया गया। और आज देश के हर छोटे-बड़े शहरों में हर दिन ऐसे
हजारों उपकरण तोड़े-जलाए जा रहे हैं, जिनसे निकलने वाले अपशिष्ट का मानव
जीवन और प्रकृति पर दुष्प्रभाव विकिरण से कई गुना ज्यादा है।देश में
जैसे-जैसे मोबाइल फोन, लैपटॅाप, कंप्यूटर रंगीन टीवी, माइक्रोवेव ओवन,
मेडिकल उपकरण, फैक्स मशीन, टैबलेट, सीडी, एयर कंडीशनर बढ़ रहे हैं, समस्या
भी बढ़ रही है। हर दिन ऐसे उपकरणों में से कई हजार खराब होते हैं या पुराने
होने के कारण कबाड़ में पहुंच जाते हैं। ऐसे इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों का
मूल आधार वे रसायन होते हैं, जो जल, जमीन, वायु, इंसान और समूचे पर्यावरण
को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उससे उबरना लगभग नामुमकिन है। यही
ई-कचरा कहलाता है और अब यह वैश्विक समस्या बन गया है। इस कचरे में आमतौर पर
38 अलग-अलग प्रकार के खतरनाक रसायन होते हैं, जिनमें लेड, मरकरी, केडमियम
जैसे घातक तत्व भी हैं। ये सारे रसायन धूल और धुएं में मिलकर हमारे शरीर को
काफी नुकसान पहुंचाते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3़15 किलोग्राम होता
है। इसमें 1.90 किलो सीसा, 0.693 ग्राम पारा और 0.049 ग्राम आर्सेनिक होता
है। ये सब पर्यावरण के विनाश का कारण बनते हैं। बाकी हिस्सा प्लास्टिक होता
है, जो कई तरह से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है। भारत में यह समस्या
लगभग 25 साल पुरानी है, लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी के चढ़ते सूरज के सामने
इसे पहले गौण समझा गया। जब इस पर कानून आए, तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी।
आज अनुमान है कि हर साल हमारा देश 10 लाख टन ई-कचरा उगल रहा है, जिसमें से
बमुश्किल दो फीसदी का ही सही तरह से निस्तारण हो पाता है। शेष कचरे को
अवैज्ञानिक तरीके से जलाकर या तोड़कर कीमती धातु निकाली जाती है, और जो
बचता है, उसे यूं ही फेंक दिया जाता है। इस आधे-अधूरे निस्तारण से मिट्टी
में खतरनाक रसायन मिल जाते हैं, जो पेड़-पौधों तक के लिए खतरा साबित होते
हैं। वैसे तो केंद्र सरकार ने सन 2012 में ई-कचरा कानून, 2011 लागू किया
है, पर इसके दिशा-निर्देशों का पालन कहीं होता नहीं दिखता है। जमशेदपुर की
राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला ने ई-कचरे में छिपे सोने को खोजने की सस्ती
तकनीक भी खोजी है। मगर पूरे कचरे के वैज्ञानिक निपटान के लिए अभी बहुत कुछ
किया जाना शेष है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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