दुनिया में बढ़ रहे मरुस्थल
= पंकज चतुर्वेदी
पर्यावरणीय
संकट का कुप्रभाव लगातार जलवायु परिवर्तन के रूप में तो सामने आ ही रहा
है, जंगलों की कटाई व कुछ अन्य कारकों के चलते दुनिया में तेजी से पांव
फैला रहे रेगिस्तान का खतरा धरती पर जीवन की उपस्थिति को दिनोंदिन कमजोर
करता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की रपट कहती है कि
दुनिया के कोई 100 देशों में उपजाऊ या हरियाली वाली जमीन रेत के ढेर से ढक
रही है और इसका असर एक अरब लोगों पर पड़ रहा है...

एक तरफ परिवेश में कार्बन की मात्रा बढ़ रही है तो दूरी ओर ओजोन परत में हुए छेद में दिनोंदिन विस्तार हो रहा है। इससे उपजे पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव लगातार जलवायु परिवर्तन के रूप में तो सामने आ ही रहा है, जंगलों की कटाई व कुछ अन्य कारकों के चलते दुनिया में तेजी से पांव फैला रहे रेगिस्तान का खतरा धरती पर जीवन की उपस्थिति को दिनोंदिन कमजोर करता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूनेप की रपट कहती है कि दुनिया के कोई 100 देशों में उपजाऊ या हरियाली वाली जमीन रेत के ढेर से ढक रही है और इसका असर एक अरब लोगों पर पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि यह खतरा पहले से रेगिस्तान वाले इलाकों से इतर है। मरुस्थलीयकरण दुनिया के सामने बेहद चुपचाप, लेकिन खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। इसकी चपेट में आए इलाकों में लगभग आधे अफ्रीका व एक-तिहाई एशिया के देश हैं। यहां बढ़ती आबादी के लिए भोजन, आवास, विकास आदि के लिए बेतहाशा जंगल उजाड़े गए। फिर यहां नवधनाढ्य वर्ग ने वातानुकूलन जैसी ऐसी सुविधओं का बेपरवाही से इस्तेमाल किया, जिससे ओजोन परत का छेद और बढ़ गया। याद करें कि 70 के दशक में अफ्रीका के साहेल इलाके में भयानक अकाल पड़ा था, तब भी संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने चेताया था कि लगातार सूखी या बंजर हो रही जमीन के प्रति बेपरवाही रेत के अंबार को न्यौता दे रही है। उसी समय कुछ ऐसी सिंचाई प्रणालियां शुरू हुइंर्, जिससे एकबारगी तो हरियाली आती लगी, लेकिन तीन दशक बाद वे परियोजनाएं बंजर, दलदली जमीन उपजाने लगीं। ऐसी ही जमीन, जिसकी टॉप सॉईल मर जाती है, देखते ही देखते मरुस्थल का बसेरा होती है।

जाहिर है कि रेगिस्तान बनने का खतरा उन जगहों पर ज्यादा है, जहां पहले उपजाऊ जमीन थी और अंधाधुंध खेती या भूजल दोहन या सिंचाई के कारण उसकी उपजाऊ क्षमता खत्म हो गई। ऐसी जमीन पहले उपेक्षित होती है और फिर वहां लाइलाज रेगिस्तान का कब्जा हो जाता है। यहां जानना जरूरी है कि धरती के महज सात फीसदी इलाके में ही मरुस्थल है, लेकिन खेती में काम आने वाली लगभग 35 प्रतिशत जमीन ऐसी भी है, जो शुष्क कहलाती है और यही खतरे का केंद्र है। बेहद हौले से और तत्काल न दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राज्यों में जड़ जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से महज 24 फीसदी ही थार के ईद-गिर्द के हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर था, जोकि आज दो लाख आठ हजार 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है। भारत की कुल 328.73 मिलियन जमीन में से 105.19 मिलियन जमीन पर बंजर ने अपना डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हेक्टेयर जमीन रेगिस्तान में बदल रही है। यह हमारे लिए चिंता की बात है कि देश के एक-चौथाई हिस्से पर आने वाले सौ साल में मरुस्थल बनने का खतरा आसन्न है। हमारे यहां सबसे ज्यादा रेगिस्तान राजस्थान में है, कोई 23 मिलियन हेक्टेयर। गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की 13 मिलियन भूमि पर रेगिस्तान है तो अब उड़ीसा व आंध्र प्रदेश में रेतीली जमीन का विस्तार देखा जा रहा है। अंधाधुंध सिंचाई व जमकर फसल लेने के दुष्परिणाम की बानगी पंजाब है, जहां दो लाख हेक्टेयर जमीन देखते ही देखते बंजर हो गई। भटिंडा, मानसा, मोगा, फिरोजपुर, मुक्तसर, फरीदकोट आदि में जमीन में रेडियो एक्टिव तत्व की मात्रा सीमा तोड़ चुकी है और यही रेगिस्तान की आमद का संकेत है। भारत के संदर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचाई की दोषपूर्ण परियोजनाएं हैं।

बारीकी से देखें तो इन कारकों का मूल बढ़ती आबादी है। हमारा देश आबादी नियंत्रण में तो सतत सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिए हमारे खेत व मवेशी कम पड़ रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी हैं। सिंचाई के लिए भी छोटी, स्थानीय तालाब, कुओं पर आधारित रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। यह स्पष्ट है कि बड़े बांध जितने महंगे व अधिक समय में बनते हैं, उनसे उतना पानी तो मिलता नहीं है, वे नई-नई दिक्कतों को उपजाते हैं, सो छोटे तटबंध, कम लंबाई की नहरों के साथ-साथ रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिस्तान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है। भोजन व दूध के लिए मवेशी पालन तो बढ़ा, लेकिन उनकी चराई की जगह कम हो गई। परिणामत: मवेशी अब बहुत छोटी-छोटी घास को भी चर जाते हैं और इससे जमीन नंगी हो जाती है। जमीन खुद की तेज हवा और पानी से रक्षा नहीं कर पाती है, मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार हो जाती है। मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई वनस्पति और पशु प्रजातियों की विलुप्ति हो सकती है, वहीं गरीबी, भुखमरी और पानी की कमी इससे जुड़ी अन्य समस्याएं हैं।रियो डी जेनेरियो में हुए धरती बचाओ सम्मेलन में भी इस बात पर सहमति बनी थी कि रेगिस्तान रोकने के लिए नई तकनीक के बनिस्पत पारंपरिक तरीके ज्यादा कारगर हैं, जिसमें जमीन की नमी बरकरार रखने, चारागाह-जंगल बचाने व उसके प्रबंधन के सामाजिक तरीकों, फसल में विविधता लाने जैसी हमारी बिसराई गई अतीत की तकनीकें प्रमुख हैं। बढ़ता रेगिस्तान गरीबी को जन्म देता है और गरीबी, असंतोष का कारण बनती है और इसका अंतिम पड़ाव अशांति, युद्ध, टकराव ही होता है और ऐसे हालात मंे किसी भी समाज का जीना संभव नहीं होगा।
श्चष्७००१०१०ञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें