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मंगलवार, 3 मई 2016

Leaf burning :threat to ecology

पर्यावरण : भविष्य को जलाता समाज



पंकज चतुर्वेदी
लेखक




पर्यावरण : भविष्य को जलाता समाज
शिशिर ऋतु में माघ और फाल्गुन असल में पतझड़ के दिन होते हैं. दिन में जब धूप तेज लगती है तो पेड़ की छांव में जाने का जी करता है, लेकिन ऊपर से सूख-सूख कर पत्ते गिरते हैं.
कुछ लोगों के लिए यह झड़ते पत्ते महज कचरा हैं और वे इसे समेट कर जलाने को परंपरा, मजबूरी, मच्छर मारने का तरीका व ऐसे ही नाम देते हैं. असल में यह न केवल गैरकानूनी है, बल्कि अपनी प्रकृति के साथ अत्याचार भी है. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने तो बड़े सख्त लहजे में कहा है कि पेड़ों से गिरने वाली पत्तियों को जलाना दंडनीय अपराध है व प्रशासनिक अमले यह सुनिश्चित करें कि आगे से ऐसा ना हो.
पिछले साल लुटियन दिल्ली में एक सांसद की सरकारी कोठी में ही पत्ती जलाने पर मुकदमा कायम हुआ है. कई जगह तो नगर को साफ रखने का जिम्मा निभाने वाले स्थानीय निकाय खुद ही कूड़ें के रूप में पेड़ से गिरी पत्तियों को जला देते हैं. असल में पत्तियों को जलाने से उत्पन्न प्रदूषण तो खतरनाक है ही, सूखी पत्तियां कई मानों में बेश्कीमती हैं व प्रकृति के विभिन्न तत्वों का संतुलन बनाए रखने में उनकी महती भूमिका है.
दिल्ली हाईकोर्ट ने दिसम्बर 1997 में ही आदेश पारित कर चुकी थी कि चूंकि पत्तियों को जलाने से गंभीर पर्यावरणीय संकट पैदा हो रहा है अत: इस पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जाए. सन 2012 में दिल्ली सरकार ने  पत्ते जलाने पर एक लाख रुपये जुर्माने व पांच साल तक की कैद का प्रावधान किया था. प्रदूषण कम करने के विभिन्न कदमों में हरित न्यायाधिकरण ने पाया कि महानगर में बढ़ रहे पीएम यानी पार्टीकुलेट मैटर का 29.4 फीसद कूड़ा व उसके साथ पत्तियों को जलाने से उत्पन्न हो रहा है.पेड़ की हरी पत्तियों में मौजूद क्लोरोफिल यानी हरा पदार्थ, वातावरण में मौजूद जल-कणों या आद्र्रता हाईड्रोजन व आक्सीजन में विभाजित कर देता है. हाईड्रोजन वातावरण में मौजूद जहरीली गैस कार्बन डायआक्साईड के साथ मिल कर पत्तियों के लिए शर्करायुक्त भोजन उपजाता है जबकि ऑक्सीजन तो प्राण वायु है ही. जब पत्तियों का क्लोरोफिल चुक जाता है तो उसका हरापन समाप्त हो जाता है व वह पीली या भूरी पड़ जाती हैं. हालांकि यह पत्ती पेड़ के लिए भोजन  बनाने के लायक नहीं रह जाती है, लेकिन उसमें नाईट्रोजन, प्रोटिन, विटामिन, स्टार्च व शर्करा आदि का खजाना होता है.


ऐसी पत्तियों को जब जलाया जाता है तो कार्बन, हाईड्रोजन, नाईट्रोजन व कई बार सल्फर से बने रसायन उत्सर्जित होते हैं. इसके कारण वायुमंडल की नमी और ऑक्सीजन तो नष्ट होती ही हैं. कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाईट्रोजन ऑक्साइड, हाईड्रोजन सायनाइड, अमोनिया, सल्फर डायआक्साइड जैसी दम घोटने वाली गैस वातावरण को जहरीला बना देती हैं. इन दिनों अजरुन, नीम, पीपल, इमली, जामुन, ढाक, अमलतास, गुलमोहर, शीशम जैसे पेड़ से पत्ते गिर रहे हैं और यह मई तक चलेगा. अनुमान है कि दिल्ली एनसीआर में दो हजार हैक्टेयर से ज्यादा इलाके में हरियाली है व इससे हर रोज 200 से 250 टन पत्ते गिरते हैं और इसका बड़ा हिस्सा जलाया जाता है.
एक बात और पत्तों के तेज जलाने की तुलना में उनके धीरे-धीरे सुलगने पर ज्यादा प्रदूषण फैलता है. एक अनुमान है कि शरद के तीन महीनों के दौरान दिल्ली एनसीआर इलाके में जलने वाले पत्तों से पचास हजार वाहनों से निकलने वाले जहरीले धुएं के बराबर जहर फैलता है. यानी चाहे जितना सम-विषम वाहन फामरूला लागू कर लो, पतझड़ के दो महीने में सालभर की जहर हवा में घुल जाता है. सनद रहे पत्ते जलने से निकलने वाली सल्फर डाई आक्साइड, कार्बन मोनो डाय आक्साइड आदि गैसे दमघोटूं होती हैं.  शेष बची राख भी वातावरण में कार्बन की मात्रा तो बढ़ती ही है, जमीन की उर्वरा क्षमता भी प्रभावित होती है.
यदि केवल एनसीआर की हरियाली से गिरे पत्तों को धरती पर यों ही पड़ा रहने दें तो जमीन की गर्मी कम होगी, मिट्टी की नमी घनघोर गर्मी में भी बरकरार रहेगी. यदि इन पत्तियों को महज खंती में दबा कर कंपोस्ट खाद में बदल लें तों लगभग 100 टन रासायनिक खाद का इस्तेमाल कम किया जा सकता है. इस बात का इंतजार करना बेमानी है कि पत्ती जलाने वालों को कानून पकड़े व सजा दे. इससे बेहतर होगा कि समाज  तक यह संदेश भली भांति पहुंचाया जाए कि सूखी पत्तियां पर्यावरण-मित्र हैं और उनके महत्त्व को समझना, संरक्षित करना हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है. हम इसे ही निभाने में कोताही कर रहे हैं. पर्यावरण विनाश का यही मूल कारण है.

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