सारे देश में इस बात को ले कर हर्ष है कि इस बार मानसून बहुत अच्छा होगा। यहां तक कि सदी के सबसे बेहतरीन मानसून में से एक की भविष्यवाणी है, माौसम विभाग की। बारिश अकेले पानी की बूंदे नहीं ले कर आती, यह समृद्धि, संपन्नता की दस्तक होती है। लेकिन यदि बरसात वास्तव में औसत से छह फीसदी ज्यादा हो गई तो हमारी नदियों में इतनी जगह नहीं है कि वह उफान को सहेज पाएं, नतीजतन बाढ़ और तबाही के मंजर उतने ही भयावह हो सकते हैं, जितने कि पानी के लिए तरसते बुंदेलखंड या मराठवाड़ा के। पिछले साल चेन्नई की बाढ़ बानगी है कि किस तरह शहर के बीच से बहने वाली नदियों को जब समाज ने उथला बनाया तो पानी उनके घरों में घुस गया था। बहुत-बहुत पुरानी बात है, हमारे देश में एक नदी थी, सिंधु नदी। इस नदी की घाटी में खुदाई हुई तो मोहनजोदड़ो नाम का पूरा शहर मिला, ऐसा शहर जो बताता था कि हमारे पूर्वजों के पूर्वजों के पूर्वज बेहद सभ्य व सुसंस्कृत थे और नदियों से उनका शरीर-श्वास का रिश्ता था।
नदियों किनारे समाज विकसित हुआ, बस्ती, खेती, मिट्टी व अनाज का प्रयोग, अग्नि के इस्तेमाल के अन्वेषण हुए। मंदिर व तीर्थ नदी के किनारे बसे, ज्ञान व अध्यात्म का पाठ इन्हीं नदियों की लहरों के साथ दुनियाभर में फैला। कह सकते हैं कि भारत की सांस्कृतिक व भावनात्मक एकता का समवेत स्वर इन नदियों से ही उभरता है। इंसान मशीनों की खोज करता रहा, अपने सुख-सुविधाओं व कम समय में ज्यादा काम की जुगत तलाशता रहा और इसी आपाधापी में सरस्वती जैसी नदी गुम हो गई। गंगा व यमुना पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया। बीते चार दशकों के दौरान समाज व सरकार ने कई परिभाषाएं, मापदंड, योजनाएं गढ़ीं कि नदियों को बचाया जाए, लेकिन विडंबना है कि उतनी ही तेजी से पावनता और पानी नदियों से लुप्त होता रहा। हमारे देश में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बह कर नदियों में आता है। इसमें हिमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि यरामिल होते हैं। जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है , उन्हें बड़ा नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किलोमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदंड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्रह्मणी, महानदी, और साबरमति बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं।
इनमें से तीन नदियां- गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। शेष दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलत: वर्षा पर निर्भर होती हैं। यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों का सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है, जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। आंकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं- पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूषण।धरती के तापमान में हो रही बढ़ोतरी के चलते मौसम में बदलाव हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम। मानसून के तीन महीनों में बामुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अंधाधंुध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियां नदियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं।
बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4.7 नख घनमीटर प्रति वर्ग किलोमीटर होता है। वहीं कृष्णा, सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम वर्षा वाला है, सो इसमें जल बहाव 2.6 लख घनमीटर प्रति वर्ग किमी ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति में तो बहाव 0.6 लाख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कायोंर् के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ हुई व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है। नदियां अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टुकड़े व बहुत सा खनिज बहा कर लाती हैं। पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अंधाधंुध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों के इस्तेमाल आदि के चलते थोड़ी सी बारिश में ही बहुत सा मलबा बह कर नदियों में गिर जाता है। परिणामस्वरूप नदियां उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं। यह भी खतरनाक है कि सरकार व समाज इंतजार करता है कि नदी सूखे व हम उसकी छोड़ी हुई जमीन पर कब्जा कर लें। इससे नदियों के पाट संकरे हो रहे हैं, उसके करीब बसावट बढ़ने से प्रदूषण की मात्रा बढ़ रही है। आधुनिक युग में नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदूषण से है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रायायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव और भी कई ऐसे कारक हैं, जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिशत की ही खपत होती है, शेष 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपशिष्ट या माल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुश्मन है। भले ही हम कारखानों को दोषी बताएं, लेकिन नदियों की गंदगी का तीन चौथाई हिस्सा घरेलू मल-जल ही है। आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, मध्य प्रदेश की खान, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं।
हालत यह है कि देश की 27 नदियां नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। वैसे गंगा हो या यमुना, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चिनाव, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरुणा हो या बेतवा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवर्णरेखा, सरयू हो या रामगंगा, गौला हो या सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी गंडक हो या गंडक, कमला हो या फिर सोन हो या भगीरथी या फिर इनकी सहायक, कमोेबेश सभी प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। दरअसल, पिछले 50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चंूकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया।राष्ट्रीय पर्यावरण संस्थान, नागपुर की एक रपट बताती है कि गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी सहित देश की 14 प्रमुख नदियों में देश का 85 प्रतिशत पानी प्रवाहित होता है। ये नदियां इतनी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं कि देश की 66 फीसदी बीमारियों का कारण इनका जहरीला जल है। इस कारण से हर साल 600 करोड़ रुपए के बराबर सात करोड़ तीस लाख मानव दिवसों की हानि होती है। अभी तो देश में नदियों की सफाई नारों के शोर और आंकड़ों के बोझ में दम तोड़ती रही हैं। बड़ी नदियों में जा कर मिलने वाली हिंडन व केन जैसी नदियों का तो अस्तित्व ही संकट में है तो यमुना कहीं लुप्त हो जाती है व किसी गंदे नाले के मिलने से जीवित दिखने लगती है। सोन, जोहिला , नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से ही नदियों के दमन की शुरुआत हो जाती है तो कहीं नदियों को जोड़ने व नहर से उन्हें जिंदा करने के प्रयास हो रहे हैं। नदी में जहर केवल पानी को ही नहीं मार रहा है, उस पर आश्रित जैव संसार पर भी खतरा होता है। नदी में मिलने वाली मछली केवल राजस्व या आय का जरिया मात्र नहीं है, यह जल प्रदूषण दूर करने में भी सहायक होती हैं। जल ही जीवन का आधार है, लेकिन भारत की अधिकांश नदियां शहरों के करोड़ों लीटर जल-मल व कारखानों से निकले जहर को ढोने वाले नाले का रूप ले चुकी हैं। नदियों में शव बहा देने, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को रोकने या उसकी दिशा बदलने से हमारे देश की असली ताकत, हमारे समृद्ध जल-संसाधन नदियों का अस्तित्व खतरे में आ गया है।
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