कम से कम यह तालाब तो नहीं कहलाता
पंकज चतुर्वेदीजनसंदेश टाईम्स, उप्र 9 जुलाई 16 |
केंद्र सरकार के पिछले महीने आए बजट में यह बात सुखद है कि सरकार ने स्वीकार कर लिया कि देश की तरक्की के लिए गांव व खेत जरूरी हैं, दूसरा खेत के लिए पानी चाहिए व पानी के लिए बारिश की हर बूंद को सहेजने के पारंपरिक उपाय ज्यादा कारगर हैं। तभी खेतों में पांच लाख तालाब खोदने व उसे मनरेगा के कार्य में षामिल करने का उल्लेख बजट में किया गया । सबसे बड़े सवाल खड़े हुए खेत-तालाब योजना पर। इस योजना में उत्तर प्रदेश सरकार कुल एक लाख पांच हजार का व्यय मान रही है और इसका आधा सरकार जमा करती है, जबकि आधा किसान वहन करता है। असल में इस येाजना को जब राज्य सरकार के अफसरों ने कुछ एनजीओं के साथ मिल कर तैयार किया था तो उसमें मशीनों से काम करवाने का प्रावधान नहीं था। यह खुदाई इंसान द्वारा की जानी थी, सो इसका अनुमानित व्यय एक लाख रखा गया था। बाद में पलायन के कारण यहां मजूदर मिले नहीं, लक्ष्य को पूरा करना था, सो आधे से भी कम व्यय में मशीने लगा कर कुंड खोदे गए। यही नहीं इसके लिए किसान को पंजीकरण उप्र सरकार के कृशि विभाग के पोर्टल पर आनलाईन करना होता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह किसान के लिए संभव नहीं है। और यहीं से बिचौलियों की भूमिका षुरू हो जाती है। जिसमें पंजीकरण करने, खाते में पैसा डलवने, मशीन की व्यवस्था, फोटो ख्ंिाचवा कर काम का सत्यापन का पूरा पैकेज होता है।
कृशि विज्ञान केंद बांदा के निदेशक प्रो. एनके बाजपेयी अपने राजस्थान के अनुभवों को साझा कर कहते हैं कि बीस गुणा बीस फुट आमाप व 10 फुट गहराई का तालाब ठीक से बनाया जाए तो उससे एक एकड़ में सिंचाई हो जाती है।, लेकिन ऐसे तालाब बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है स्थान का चयन। ऐसे तालाब जल ग्रहण क्षेत्र, ऊंचाई वाले स्थान और ऐसी जगह होना चाहिए जहां से पानी बह कर जाता हो, तभी ये सफल होते हैं। वे ऐसे कुंड की सफलता के लिए प्लास्टिक की तली लगाने का सुझाव देते हैं। विडंबना है कि महोबा, बांदा में खेतो ंमें रोपे गए अधिकांश तालाबों में वहां की भूवैज्ञानिक संरचना को गंभीरता से लिया नहीं गया। वहां तो लक्ष्य पूर्ति, मशीन का एक दिन में ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल और वाह-वाही लूटने की होड़ मची है।
महोबा से कानपुर जाने वाले मुख्य मार्ग पर रिवई पंचायत में तीन गंाव आते हैं। यहां खेतो में अभी तक 25 तालाब बने। इनमें से अधिकांश तालाब गांव के रसूखदार बड़े लेागेां के खेत में हैं। हकीकत तो यह है कि तैयार की गई संरचना को तालाब तो नहीं कहा जा सकता। यह कुंड हैं जोकि चार मीटर गहरा है और उसकी लंबाई चौड़ाई 30 गुणा 25 मीटर लगभग हैं। यह पूरा काम पानी की आवक या निकासी के गणित को सोच बगैर पोकलैंड मशीनों से करवाया जाता है और इसका असल खर्च सरकारी अनुदान से भी कम होता हैं। कहने की जरूरत नहीं कि अर्जी को सरकारी मेज पर खिसकाने, पोकलैंड मशीन लाने व ऐसे ही कई कामों में मध्यस्थ के बगैर बात नहीं बनती और इसके लिए कुछ एनजीओबाज लेाग सक्रिय भी हैं। यह भी जानना जरूरी है कि तालाब महज एक गड्ढा नहीं है, जिसमें बारिश का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें। तालाब कहां खुदेगा, इसको परखने के लिए वहां की मिट्टी, जमीन पर जल आगमन व निगमन की व्यवस्था, स्थानीय पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है। तालाब की सीधी चार मीटर की गहराई में कोई मवेशी तो नीचे उतर कर पानी पी नहीं सकता, , इंसान का भी वहां तक पुहंचना खतरे से खाली नहीं हैं। लापेारिया, राजस्थान में कई तालाब बनाने वाले लक्ष्मण सिंह का कहना है कि इस संरचना को तालाब तो कहते नहीं है और इस तरह की आकृति भले ही तात्कालिक रूप से जमीन की नमी बनाए रखने या सिंचाई में काम आए, लेकिन इसकी आयु ज्यादा नहीं होती।
गत दो दशकों से पानी और तालाब जैसे मुद्दो के प्रति संवेदनशील बेलाताल के पत्रकार कैलाश सोनी मुख्यमंत्री व सांसद उमा भारती द्वरा बनाई गई जल सलाहकार समिति के सदस्य भी हैं। श्री सोनी के अनुसार यह योजना मायावती के समय मुख्य सचिव रहे एक अफसर ने बनाई थी, जिसे अभी कुछ एनजीओ ने फिर से प्रस्तुत किया। इसके तहत बनी संरचना तालाब तो है नहीं, हां, इससे मवेशी, रात-बिरात खेत से गुजर रहे लोगों के गिरने का खतरा जरूर खड़ा हो गया है।
यह भी देखा गया है ग्रेनाईट संरचना वाले इलाकों में कुएं या तालाब खुदे, रात में पानी भी आया और कुछ ही घंटों में किसी भूगर्भ की झिर से कहीं बह गया। दूसरा , यदि बगैर सोचे -समझे पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोद तो धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, फिर दल-दल बनाएगा और फिर उससे ना केवल जमीन नश्ट होगी, बल्कि आसपास की जमीन के प्राकृतिक लवण भी पानी के साथ बह जाएंगे। षुरूआत में भले ही अच्छे परिणाम आएं, लेकिन यदि नमी, दलदल, लवण बहने का सिलसिला महज पंद्रह साल भी जारी रहा तो उस तालाब के आसपास लाइलाज बंजर बनना वैज्ञानिक तथ्य है।
दिल्ली व भोपाल से गए पत्रकारों को एक खेत-कंुड या तालाब दिखाया गया और बताया गया कि यह पहली बारिश में इतना भर गया। असल में हुआ यूं कि इस तालाब या कुंड से सटा खेत निचाई पर है और उसमें एक दिन बरसा जबरदस्त पानी भर गया। इस खेत में एक चौडा सीमंेट पाईप लगा कर उस कुंड को भरा गया। असल में धनंजय ंिसंह के उस खेत में बने तालाब में पानी आने का रास्ता ही नहीं है।इस तालबा के पानी की असलियत खोल दी उसी पंचायत में डेढ किलोमीटर दूर स्थित मालगुजारी तालबाभगवंत सागर ने। यह तालाब रिवई पंचायत के ही सुनेचा गांव की हद से लगा हैं और 22 बीघे का है। यहां पर नोएडा की एक कारपोरेट फर्म ने समाज सेवा कर कर बचाने की योजना के तहत तालाब के गहरीकरण का प्रकल्प किया था। वहां पत्रकारों के आने की खबर के पांच दिन पहले बड़ी-बड़ी मशीने लगाकर बेतरतीब खुदाई कर दी गई । जिस तरफ तालाब का पहले से उंचा हिस्सा था, उसके पाल पर मिअ्टी डाल दी और निचले हिस्से को खुला छोड़ दिया। ख्ुादाई भी ऐसी ककि हीं एक फुट तो कही पांच फुट। इस तालाब की छह इंच गहराई तक मिट्टी में नमी नहीं थी। जरा सोचें कि क्या यह संभव है कि एक बारिश में एक जगह दो फुट पानी भर जा और उससे दो किलोमीटर से भी कम स्थान पर मिट्टी मंें नमी भी ना हो। सनद रहे हैं कि अकेले इसी पंचात के तहत पुराने चर तालाब हैं जो देखभाल या कब्जों के चलते समाप्त हो गए हैं। तालाबबाज एनजीओ ऐसे तालाबों के संरक्षण से बचते हैं और उसमें कारपोरेट को घुसेडते हैं, उनकी असली रूचि सरकार से सबसिडी ले कर तालाब के नाम पर मशीनों से गढडे खोदने में हैं।
इसमें कोई षक नहीं कि नए तालाब जरूर बनें, लेकिन आखिर पुराने तालाबों का जिंदा करने से क्यांे बचा जा रहा है? लेकिन तालाब के नमा पर महज गढडे खेादना इसका विकल्प नहीं है। तालाब गांव की लेाक भावना का प्रतीक हैयानि सामूहिक, सामुदायिक, जबकि खेतों में खुदे कुंड निजी। उसमें भी पैसे वाले कसिान जोकि 52 हजार जेब में रखता हो, उन्हीं के लिए। ऐसे खेत तालाब तात्कालिक रूप् से तो उपयेागी हो सकते हैं, लेकिन दूरगामी सोच तो यही होगी कि मद्रास रेसीडेंसी के ‘ऐरी तालाब प्रणाली’’ के अनुरूप् सार्वजनिक तालाबों को संरक्षित किया जा व उसका प्रबंधन समाज को सौंपा जाए।
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