अब सूफी-सौहार्द है कट्टरपंथियों के निशाने पर
पंकज चतुर्वेदीमुंबई की हाजी अली दरगाह में भीतर तक महिलाओं के जाने केो उनका मौलिक अधिकार बताने वाले अदालती के आदेश के बावजूद कुछ कठमुल्ले बड़े ही षातिराना अंदाज में ऐसी मजारों पर षरीयत के नाम पर फरमान जारी कर इसे धार्मिक मामलों पर बेवजह दखल बता रहे हैं। जब देश में पर्सनल लॉ के अलावा कहीं षरीयत का पालन नहीं होता है तो लोक-मान्यता, आस्था के केंद्रों पर शरीयत के नाम पर औरतों पर पाबंदी लगाना कहां तक लाजिमी है। हालांकि शिया समुदाय के गुरू कल्बे जब्बाद ने कई साल पहले औरतों को दरगाह पर जाने से मना करने को गैरइस्लामी बताया था। जबकि औरतों को वहां जाने से रोकने की हिमायत करने वाले हदीस के उस कानून का हवाला दे रहे हैं जिसमें औरतों के कब्रिस्तान पर जाने को रोका गया है और वे मजार-दरगाह को कब्रिस्तान कह रहे हैं। पाबंदी की हिमायत करने वाले अब कह रहे हैं कि रोक दरगाह को छूने पर है, दूर से दुआ करने पर कहीं पाबंदी नहीं है। वास्तव में यह महज मुसलमनों का आंतरिक मामला नहीं है, यह वाकिया एक चेतावनी है देश की साझा-संस्कृति से भयभीत लोगों की साजिशों के प्रति।
यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि भारत में इस्लाम सहिष्णुता, सौहार्द और सूफीवाद के जरिए आया था। दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया हो या फिर अजमेर या लखनउ के पास देवा शरीफ या किसी सुदूर कस्बे की छोटी सी मजार ; हारमोनियम, बैंजो पर गीत-कव्वाली, हिंदू पूजा पद्धति की तरह हाथ जोड कर प्रसाद चढाते सभी धर्म के लोग भारत में इस्लाम की पहचान रहे हैं। मुहर्रम के ताजयिो में मीठा जल चढन और ताबिज बंधवाने को लेाग अपने पूरे साल की सुरक्षा की गारंटी माननते रहे हैं। मुंबई की हाजी अली व माहिम दरगाह में जिस तरह औरतों के दर्शन करने पर रोक लगाने की हिमायत अदालती आदेश के बावजूद भी हो रही है, उससे साफ है कि अब कठमुल्लों ने उन स्थानों पर धर्म के नाम पर तालीबानी फरमान जारी करना चाहते हैं जो भारत के सांप्रदायिक -सदभाव की मिसाल रहे हैं। यह भी जान लें कि यह मसला अकेले भारत का नहीं है, पाकिस्तान में भी इसी तरह दो किस्म के इस्लाम की टकराव है। सिंध, कश्मीर जैसे इलाकों में सूफीवाद का जोर है तो षेश में कट्टरपंथियों का। वहां सिंधी खुद को शोषित महसूस करते हैं क्योंकि सत्ता में बड़ी संख्या में बहावी किस्म के लोग हैं।
मुंबई हमले के समय भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह दावा करता रहा था कि भारत का कोई भी मुसलमान आतंकवादी गतिविधियों में षामिल नहीं है और हमारे यहां होने वाल सभी हरकतों में पाकिस्तानी शामिल होते हैं । ठीक उसके बाद आईएसआई ने भारत के युवाओं को गुमराह कर आतंकवाद के रास्ते पर मोड दिया। रियाज भटकल व आईएम उसका प्रमाण है। यह भी सही है कि लश्कर अब भारत के स्थानीय लोगों को मोहरा बना कर ही अपना खेल खेल रहा है। इस बात को भी गौर करना होगा कि आतंक के खेल में शामिल युवा न तो दाढ़ी, पजामा वाले कट्टर मुसलमान हैं और ना ही उनकी पाकिस्तान के प्रति कोई श्रद्धा है। वे क्लीन शेव, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग से आए हैं। ऐसे गुमराहों को धर्म के बनिस्पत गुजरात या ऐसे ही वीभत्स दंगों के नाम पर बरगलाया जाता है। जान कर आश्चर्य होगा कि गुजरात के कच्छ इलाके तक में तबलीगी जमात और आहले हदीस तंजीमों के मदरसे है। और इनमें कश्मीर से युवा पढ़ने आते हैं। इन्हीं में से कुछ असामाजिक तत्वों के हाथों की कठपुतली बन कर देश-विरोधी हरकतें करते हैं। सफदर नागौरी का संगठन ‘सिमी’ भी पढ़े-लिखे लोगों का मजमा था। एक बात बड़ी चौंकाने वाली है कि हमारे देश में आतंकवादी गतिविधियों में पकड़े गए मौलवी, धर्म प्रचारक या युवा अधिकांश बहावी विचारधारा में पूरी तरह पगे-बढ़े हैं। ये लोग इस्लाम के हिंदुस्तानी स्वरूप यानी सूफी, मजार, ताजिये आदि के घोर विरोधी होते हैं। इन लोगों का मानना है कि पैगंबर देवदूत तो है। लेकिन उनकी पूजा नहीं की जा सकती। देवबंदी जमात के तबलीगी अनुयायी लंबी दाढ़ी, सिर पर पगड़ी और सफेद चोले से पहचाने जाते हैं। जिस इंदौर में दंगे होते रहते हैं वहां कई साल पहले तक मुहर्रम के ताजियों के समय यह भंापना मुश्किल होता था कि यह पर्व हिंदुओं का है या मुसलमानों का। असल में हिंदुस्तान में इस्लाम के स्थापित होने और उसके देश की आजादी के आंदोलन से ले कर शिक्षा, विकास में षामिल रहने का मूल कारण उसकी मिली-जुली परंपरा ही थी। जान कर आश्चर्य होगा कि भारत के केरल में इस्लाम हजरत मुहम्मद साहब के जीवनकाल में ही आ गया था और आज भी दुनिया की सबसे पुरानी दूसरे नंबर की मस्जिद भारत में ही है। उस मस्जिद का स्थापत्य केरल की स्थानीय संस्कृति के अनुरूप ही है। भारत का मुसलमान गीत-संगीत, अभिनय में शीर्ष पर है, लेकिन कट्टरपंथी इससे नाखुश हैं।
भारत में 19 करोड़ मुसलमानों में से कोई दो तिहाई बरेलवी हैं। इस मत के लोग स्थानीय संस्कृति व विचारधारा से प्रभावित हो कर इस्लाम की पद्धति का पालन करते हैं। इन लोगों के लिए पैगंबर पूजनीय है और मजार, कव्वाली, सूफी, रहस्यवाद, संगीत में उनकी आस्था है। 19वीं सदी में उत्तर प्रदेश के दो शहरों- देवबंद और बरेली से इस्लाम की दो विचारधाराओं का जन्म हुआ। दोनों ने इस्लाम की व्याख्या अपने-अपने तरीके से करना प्रारंभ किया। बात टकराव तक पहुंच गई और आज भी यदा-कदा दोनों मतों को मानने वाले लड़ते-भिड़ते रहते हैं। बरेलवी यह सवाल खड़ा करते हैं कि भारत में हो रहे आतंवादी हमलों को इस्लामिक आतंकवाद क्यों कहा जाता है? उसे बहावी-आतंकवाद कहना चाहिए। कहने को देश में बरेलवियों की बहुतायत है, लेकिन पैसे के नाम देवबंदी मजबूत हैं और इसी ताकत से वे देश में मस्जिदों पर कब्जे की मुहिम चलाए हुए हैं।’
देश में ज्यादातर बरेलवी मस्जिदें जर्जर हालत में हैं। कट्टरपंथी इनकी हालत सुधारने के नाम पर इमदाद देते हैं, फिर धीरे से अपना मौलवी वहां बैठा देते हैं। इस प्रकार सूफीवाद के समर्थकों की जगह कट्टरपंथी जम जाते हैं। हालांकि अब देवबंदी जुलूस-जलसे व फतवे निकाल कर खुद को खून-खराबे और आतंकवादी घटनाओं का विरोधी सिद्ध करने में जुट गए हैं। लेकिन इस बात को मानना ही होगा कि सन 1941 में लाहौर में मौलाना मौदूदी द्वारा स्थापित जमात-ए-इस्लामी और उससे प्रभावित तबलीगी, अहले हदीस आदि द्वारा इस्लाम की कट्टरपंथी व्याख्या से युवाओं को गुमराह होने का उत्प्रेरक मिलता रहता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बहावियों व देवबंदियों ने अंग्रेजों के खिलाफ खासा मोर्चा लिया था। प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘ गाड्स टेरेरिस्ट: दि बहावी कल्ट एंड दि हिडेन रूट्स आफ मार्डन जेहाद’’ के लेखक चार्ल्स एलन का कहना है कि तालीबान का लगभग प्रत्येक प्रमुख सदस्य देवबंदी मदरसे में पढ़ा है। पुस्तक में सिद्ध किया गया है कि देवबंदी नजरिया मूलतः अलगाववादी है और समाज को दो तरह से तोड़ता है - एक तो मुसलमानों में फूट पैदा करता है और दूसरे गैर-मुसलमानों के बीच दरार पदा करता है।
यह देश के मुस्लिम नेतृत्व की त्रासदी है कि वह युवा पीढ़ी को सहिष्णु, सूफी इस्लाम की ओर मोड़ने में बहुत हद तक असफल रहा है। बहावी और देवबंदियों का असली संकट पहचान को ले कर खतरा है, जिसका सामाजिक हल संभव है। काश, ऐसा हो पाता तो एक बड़े वर्ग की उर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल हो पाता। मुंबई की हाजी अली दरगाह का फैसला महज औरतों या इस्लाम के लिए नहीं बल्कि भारत की साझा संस्कृति की नीव को मजबूत करने का एक सकारात्मक प्रयास है।
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