गोष्ठियों से नहीं होती है हिंदी साहित्य की सेवा !
पंकज चतुर्वेदी
बात कुछ साल पहले की है। एक छोटे से प्रकाशक ने नई दिल्ली के आईटीओ के करीब हिंदी भवन में पूरे दिन का साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित किया - कुछ पुस्तकों का लोकार्पण, कुछ चर्चाएं, कविता पाठ और कुछ राजनेताओं का अभिनंदन भी। नारायण दत्त तिवारी से ले कर डा. गिरजा व्यास तक अलग- अलग सत्रों में अतिथि थे। हर बार मालाएं पहनाई जातीं, नेताओं की ठकुर सुहाती और फिर चमकीले कागज में लिपटी किताबों को खोला जाता। इतने बड़े हाल में श्रोता जुटाना प्रत्येक सत्र की समस्या था। कुछ नेताओं के चमचे- कलछी, लोकार्पित पुस्तकों के लेखकों के नाते-रिश्तेदार, प्रकाशक के दूर-करीब के सभी नातेदार(जिनका साहित्य या पठन से दूर-दूर तक वास्ता नहीं था); ऐसे कर कर 100 लोग बामुश्किल जुटते थे। चूंकि प्रत्येक सत्र के बाद स्वल्पाहार की व्यवस्था थी, अतः सत्र समाप्त होते-होते हाल भरने लगता। आखिरी सत्र था- हिंदी पर संकट। सत्र में बामुश्किल 20 लोग थे। दिसंबर की सर्दी थी और ढलती शाम में खुले आंगन में गरम-गरम मिक्स पकौड़ों का दौर चलने लगा। भीड़ इतनी कि एक-एक पकौड़े के लिए मारा-मार मची थी। तभी अपनी प्लेट और दूसरे की प्लेट से अपने कपड़े संभालते हुए हिंदी के वरिश्ठ आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी के ठहाका लिया, ‘‘जब तक हमारे देश में पकौड़े हैं, हिंदी को कोई संकट नहीं है।’’ कई लोगो की हंसी हवा में गूंजी। लेकिन डा. त्रिपाठी की बात वैसे ही आई-गई हो गई, जैसे कि पूरे देश में हर साल होने वाली हजारों साहित्यिक गोष्ठियाें में लिए गए संकल्प और नारे कुछ ही घंटों में सुप्त हो जाते हैं।आमतौर पर हिंदी के अधिकांश लेखक, प्रकाशक यहां तक कि पाठक भी हिंदी-जगत की दयनीयता का रोना रोते देखे जाते हैं। प्रकाशक कहता है कि हिंदी में किताबें बिकती नहीं हैं, लेकिन वह बड़े-बड़े लोकार्पण समारोहों में खूब पैसा बहाता है। लेखक अपनी गरीबी का रोना रोता दिखता है, लेकिन अपनी गांठ के पैसे से किताब छपवा कर यार-दोस्तों में वितरित करने के लोभ-संभरण से बच नहीं पाता है। पाठक अच्छी किताबों की कमी का रोना रोता है, लेकिन सौ रूपए से अधिक की कितबा खरीदने पर घर का बजट बिगड़ने की दुहाई देने लगता है। हां ! साहित्य से जुड़े तीनों वर्ग यह कहते नहीं अघाते हैं कि वे तो साहित्य-सेवा के लिए प्रतिबद्ध हैं, सो घर फूंक तमाशा देख रहे हैं। लेकिन इस ‘‘दरिद्रता’’ की हकीकत ये आंकड़े उजागर करते हैं- हमारे देश में हर साल लगभग 85 हजार पुस्तकें छप रही हैं, इनमें 25 प्रतिशत हिंदी, 20 प्रतिशत अंग्रेजी और शेष 55 प्रतिशत अन्य भारतीय भाशाओं में हैं। लगभग 16 हजार प्रकाशक सक्रिय रूप से इस कार्य में लगे हैं। प्रकाशक के साथ, टाईप सेटर , संपादक , प्रूफ रीडर, बाईंडिग, कटिंग, विपणन जैसे कई अन्य कार्य भी जुडे़ हैं। जाहिर है कि यह समाज के बड़े वर्ग के रोजगार का भी साधन है। विश्व बाजार में भारतीय पुस्तकों का बेहद अहम स्थान है। एक तो हमारी पुस्तकों की गुणवत्ता बेहतरीन है, दूसरा इसकी कीमतें कम हैं। भारतीय पुस्तकें विश्व के 130 से अधिक देशों को निर्यात की जाती हैं।
हाल ही में नई दिल्ली में संपन्न पुस्तक मेला में हिंदी के प्रकाशकों को एक साथ एक हॉल में रखा गया था। गिनती के 10 प्रकाशकों के यहां जम कर भीड़ होती थी। वहां नामचीन लेखक सारा-सारा दिन बिताते थे। हर षाम चमकीली पन्नी में लिपटी किताबों के लोकार्पण की औपचारिकता होती थी। ना किताब पर विमर्श, ना ही उसकी विशय-वस्तु पर चर्चा, और ना ही उसकी तुलना। बस लेखक की महानता पर कुछ जुमले और उसकेे बाद आसपास के सोशलाईट क्लब या होटलों की ओर जाता एक काफिला। षराब, खाना, निंदा-रस का पान और उसी के बीच किताबों की थोक सप्लाई की जुगत। कई बार किसी पाठ्य पुस्तक में अपनी किताब फंसाने की जोड़-तोड़ । ऐसे तो हो गया भाशा व साहित्य का विकास।
मेला हो या फिर गोश्ठियां, वातानुकूलित परिवेश में भी पसीने से तर-बतर लोकार्पण करते और पुस्तकें बिकने के लिए सरकार, समाज और टीवी को कोसते इन बुजुर्गवार से जब पूछो कि आप इतनी मेहनत क्यों कर रहे हैं ? तत्काल संत बन जाते हैं - ‘‘ हम तो हिंदी की, साहित्य की सेवा कर रहे हैं।’’ तो क्या साहित्य इतना दयनीय हो गया है कि उसे सेवा की जरूरत पड़ रही है ? साहित्य तो पहले समाज को दिशा और दशा देने का साधन था। अब क्या साहित्य ही दीन-हीन हो गया है ? बीते दो दशकों के दौरान सूचना और ज्ञान का विस्फोट हुआ। इंटरनेट पर करोडा़ें-अरबों पेज सूचनाएं भरी हुई हैं- इसमें कई करोड़ साहित्य से संबंधित हैं, विश्व साहित्य से संबंधित। युग आ गया तुलना का और उसमें श्रेश्ठ के आगे बढ़ने का। कुछ दशकों पहले तक शिक्षा समाज के एक सीमित वर्ग का हक हुआ करता था । ऐसे मनुवादियों के बोले-लिखे गए षब्द ब्रह्म वाक्य होते थे। वे क्या कह या लिख रहे हैं उसका आकलन करने वाले सामित थे, वैश्विक स्तर पर उसकी तुलना करने वाले तो विरले ही थे। विज्ञान और तकनीकी ने उस ‘ज्ञान के एकाधिकार’’ को समाप्त कर दिया है। ऐसे में खुद को बाजार में दिखाने, अपनी श्रेश्ठता सिद्ध करने और अपेन लेखन को विशिश्ठ बताने के लिए कुछ लेखकों ने गोश्ठियों का सहारा ले रखा है। यदि देशभर की सरकारी गोश्ठियों का आकलन करें तो पांएगे कि वही 100-50 चैहरे कभी मंचासीन होते हैं तो कहीं सामने कुर्सियों पर और उन्हीं में से कुछ षाल ओढ़ कर नारियल व चैक पकड़ते दिख जाएंगे।
कुछ बड़े प्रकाशक बड़े ही शातिर अंदाज में अपनी पुस्तकों के लोकार्पण समारोहों का आयोजन करते हैं। उसमें आमंत्रित एक-एक व्यक्ति उनकी पुस्तकों की थोक बिक्री के माध्यम होते हैं। हाल ही में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हिंदी की एक लेखिका के कैलाश मानसरोवर यात्रा के संस्मरणों की पुस्तक का लोकार्पण हुआ। आमंत्रण कार्ड पर बड़े ही सुगठित षब्दों में कार्यक्रम के पश्चात रसरंजन के लिए आमंत्रण का उल्लेख था। कितना निरीह है हिंदी का प्रकाशन जगत और कितनी साहित्य सेवा हो रही है ?
हिंदी प्रकाशन जगत के साथ सबसे बड़ी समस्या है, प्रकाशक बनने के लिए किसी प्रकार का कोई बंधन या कानून ना होना। कोई भी व्यक्ति कभी भी अपने नाम से घर के पते से या गुमनाम पते से प्रकाशक बन सकता है। एक ही प्रकाशक कई-कई अलग-अलग नामों से पुस्तकें छाप सकता हैं। ना तो किसी पंजीयन की जरूरत है और ना ही किसी निरीक्षण या नियंत्रण का डर। जिस किसी को भ्रम हो गया कि वह लेखक बन सकता है, अपने माता-पिता, गुरू या प्रेयसी को समर्पित कर एक पुस्तक छाप डालता है। इनमें कवियों की संख्या बहुत बड़ी है। और ऐसे लेखकों की आत्म-संतुश्टि साहित्यिक आयोजन के नाम पर कुछ लोगों को जुटाने व उन्हें खिलाने-पिलाने का जरिया होती है। गोश्ठी में लेखक की तारीफ होती है, रचना का उल्लेख तक नहीं होता। यदि रसरंजन की व्यवस्था हो तो लेखक की तुलना प्रेमचंद या निराला से करने की हिमाकत करने से भी नहीं चूकते हैं।
इस तरह के आयोजनों और पुस्तकों के प्रकाशन के कई दूरगामी खतरे हैं:
1 अच्छी पठन सामग्री ऐसी अधकचरा पुस्तकों के बीच कहीं छिप जाती हैं। लगातार स्तरहीन पुस्तकें देखने के बाद आम पाठक का ध्यान पठन से भटक जाता है।
2. गोश्ठियों में उठाए गए मुद्दों पर जब अमल होता नहीं देखते हैं तो नए लेखकों, पाठकों और आम लोगों के मन में पुस्तकें व लेखकों के प्रति अविश्वास का भाव उस ही तरह जाग जाता है, जैसा वे राजनेताओं के बारे में सोचते हैं।
3. फिजूलिया प्रकाशनों से कागज का अपव्यय होता है, जोकि सीधे-सीधे पर्यावरणीय संकट को बढ़ावा देता है। इसका विपरीत असर बाजार में कागज के मूल्यो ंमे वृद्धि के रूप में छात्रों व अन्य प्रकाशकों को भी झेलना पड़ता है।
4 स्तरहीन आयोजन समय, श्रम और संसाधन की फिजूलखर्ची होते हैं। कई बार अच्छे पाठक व लेखक ऐसे आयोजनों से केवल इस लिए दूर हो जाते हैं कि ऐसे आयोजनों की कुख्याति होती है।
5. सरकारी संस्थानों द्वारा आयोजित गोश्ठियां तो कतिपय लोगों को उपकृत करने या उपलब्ध बजट को फूंकने तक सीमित रहती हैं। बातें बड़ी-बड़ी होती है, सेमिनार रिपोर्ट भी छपती है, मीडिया कवरेज भरपूर होता है ; नहीं होता है तो बस वहां व्यक्त उदगारों पर अमल। सरकारी सेमिनारों के आयोजन पर लगभग रोक लगनी चाहिए।
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