राजनीति के दामन पर अपराध के दाग
मध्य प्रदेश के छतरपुर, टीकमगढ़ आदि जिलों में बीते एक सप्ताह के दौरान अचानक ही अपराधों का ग्राफ नीचे आ गया है। ठीक यही हालत उत्तर प्रदेश को छूते बिहार के जिलों की है। असल में यह कड़कड़ाती ठंड नहीं, बल्कि विधानसभा चुनावों की घोषणा का असर है। जाहिर है कुछ जात-बिरादरी के वोट के बाद सबसे ज्यादा सहारा रहता है तो अपने वोटों को रिझाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की जुगतों का।
अभी पिछले साल ही उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हुए थे। नोएडा, गाजियाबाद और बागपत जिलों में अधिकांश सीटों पर स्थानीय बाहुबलियों की तूती बोली थी। बीते दो सालों में पूरे प्रदेश में अभी तक 40 ऐसे हत्याकांड हो चुके हैं, जिसे पंचायत चुनाव की रंजिश का परिणाम माना जाता है। दिल्ली से सटे बागपत जिले में तो एक उम्मीदवार ने सहानुभूति पाने के लिए अपने ही सगे भाई व उसके दोस्त की हत्या करवा दी। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में रुतबेदारी की क्या भूमिका है, इसकी बानगी यही है कि बीते साढ़े चार सालों में 21 मंत्री दागी छवि के कारण हटाए गए, एक दर्जन से ज्यादा सताधारी विधायक गंभीर अपराधों में जेल गए। प्रदेश की पुलिस का विभाजन ‘मुलायम पुलिस’ और ‘बहुजन पुलिस’ में हो गया है।
उ.प्र के मौजूदा 403 विधायकों में से 189 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इस बार भी हर दल द्वारा दिए जा रहे टिकटों में किसी को भी दाग की परवाह नहीं है। लखनऊ सेंट्रल से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार व मौजूदा विधायक रविदास मल्होत्रा पर 17 मुकदमे दर्ज हैं। हालांकि मशीनों द्वारा मतदान के कारण बूथ लूटने की घटनाओं में तो कमी आई है, लेकिन वोट लूटने के हथकंडों में ताकत का सहारा लेना पहले से भी अधिक हो गया है। सनद रहे पिछले दिनों आम चुनावों में उम्मीदवारों का आपराधिक रिकार्ड सार्वजनिक करने की मुहिम चलाई गई थी। खेद है कि उम्मीदवार का आपराधिक रिकार्ड आम मतदाता द्वारा उम्मीदवार के चुनाव में मापदंड नहीं बन पाया है और कई दागदार जनप्रतिनिधि विभिन्न सदनों में पहुंचते रहे हैं। देश की राजधानी से सटे उत्तर प्रदेश की कोई बारह सीटों में संपन्नता है। गांव संचार व सड़कों से ठीकठाक जुड़े हैं, इसके बावजूद यहां के चुनाव धनबल के माध्यम से बाहुबल की त्रासदी से जूझ रहे हैं। आलम यह है कि दिल्ली व हरियाणा के लगभग 3000 अखाड़े वीरान पड़े हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अपराध और नेता के गठजोड़ में सरकारी अफसर महत्वपूर्ण कड़ी हैं। यहां ताकतवर उम्मीदवारों को जबरिया बैठाना या फिर हत्या कर देना आम बात है। सन् 2004 में गोंडा से भाजपा प्रत्याशी घनश्याम शुक्ला की हत्या हो या फिर इंडियन जस्टिस पार्टी के बहादुर सोनकर की पेड़ से लटकी लाश- किसी का खुलासा नहीं हो पाया। प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के सात जिलों में कुख्यात डकैत ददुआ, सुंदर पटेल, ठोकिया बीते कई चुनावों में कभी हाथी तो कभी साइकिल पर सवार होते रहे हैं। भले ही जंगल में रहने वाले ये डकैत अब मार दिए गए हों, लेकिन उनका आसरा देने वाले सभी गिरोह सक्रिय हैं। मोदहा से बादशाह सिंह और उनके ही पड़ोसी नसीमुद्दीन सिद्धीकी की असली ताकत हाथ में असलाह ही है। राठ के रज्जू बुधांलिया और उन्हीं के पड़ोसी गंगाचरण राजपूत भी बाहुबल के कारण मशहूर हैं। बांदा और चित्रकूट जिले में तो बंदूक का ही बोलबाला रहता है।
राजाभैया तो आतंकवादी कानून पोटा तक में भीतर जा चुके हैं। वैसे तो वे साइकिल पर सवार हैं लेकिन इलाके में भाजपा पूरी तरह उनका समर्थन करती रही है। कांग्रेसी प्रमोद तिवारी भी कमजोर नहीं आंके जाते। मऊनाथ भंजन या पूर्वांचल में मुख्तार अंसारी एक निर्णायक बाहुबली हैं। बहुजन समाज पार्टी से निष्कासित सांसद धनंजय सिंह बाहुबल के दम पर ही माननीय बनते रहे हैं। पूर्वांचल के आठ जिलों की 22 सीटों पर इस गिरोह का आतंक है।
पुलिस रिपोर्ट कहती है कि मेरठ मंडल में 28 ऐसे गिरोह हैं जो उ.प्र. की सीमा के पार जाकर दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान में भी अपराध करते हैं। इस इलाके में कुछ सीटों पर मुस्लिम माफिया भी बेहद ताकतवर है। प्रत्येक राजनैतिक दल सत्ता संघर्ष में ताकत की दखल से वाकिफ है। सभी को राज्य सरकार या स्थानीय पुलिस पर भरोसा नहीं है। तभी हर तरफ से केंद्रीय बल की मांग आ रही है। विडंबना है कि हर दल के अपने बाहुबली हैं और उन्हें उसमें कोई खोट नजर नहीं आती। यही कारण है कि कभी राजनीति के अपराधीकरण को लेकर चिंतित रहने वाली सियासत अब अपराधों का राजनीतिकरण होने पर भी चुप्पी साधे रहती है।
वैसे चुनाव आयोग की आचार संहिता और इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल से हालात सुधरने की उम्मीद है लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे नेता प्रत्येक पाबंदी की काट भी तलाश लेते हैं। यदि मतदाता ही अपराधी-नेता के खिलाफ कड़ा रुख कर लें तो अगली विधानसभा का लेाकतंत्रात्मक रूप स्वच्छ और उज्ज्वल हो सकेगा।
अभी पिछले साल ही उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हुए थे। नोएडा, गाजियाबाद और बागपत जिलों में अधिकांश सीटों पर स्थानीय बाहुबलियों की तूती बोली थी। बीते दो सालों में पूरे प्रदेश में अभी तक 40 ऐसे हत्याकांड हो चुके हैं, जिसे पंचायत चुनाव की रंजिश का परिणाम माना जाता है। दिल्ली से सटे बागपत जिले में तो एक उम्मीदवार ने सहानुभूति पाने के लिए अपने ही सगे भाई व उसके दोस्त की हत्या करवा दी। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में रुतबेदारी की क्या भूमिका है, इसकी बानगी यही है कि बीते साढ़े चार सालों में 21 मंत्री दागी छवि के कारण हटाए गए, एक दर्जन से ज्यादा सताधारी विधायक गंभीर अपराधों में जेल गए। प्रदेश की पुलिस का विभाजन ‘मुलायम पुलिस’ और ‘बहुजन पुलिस’ में हो गया है।
उ.प्र के मौजूदा 403 विधायकों में से 189 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इस बार भी हर दल द्वारा दिए जा रहे टिकटों में किसी को भी दाग की परवाह नहीं है। लखनऊ सेंट्रल से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार व मौजूदा विधायक रविदास मल्होत्रा पर 17 मुकदमे दर्ज हैं। हालांकि मशीनों द्वारा मतदान के कारण बूथ लूटने की घटनाओं में तो कमी आई है, लेकिन वोट लूटने के हथकंडों में ताकत का सहारा लेना पहले से भी अधिक हो गया है। सनद रहे पिछले दिनों आम चुनावों में उम्मीदवारों का आपराधिक रिकार्ड सार्वजनिक करने की मुहिम चलाई गई थी। खेद है कि उम्मीदवार का आपराधिक रिकार्ड आम मतदाता द्वारा उम्मीदवार के चुनाव में मापदंड नहीं बन पाया है और कई दागदार जनप्रतिनिधि विभिन्न सदनों में पहुंचते रहे हैं। देश की राजधानी से सटे उत्तर प्रदेश की कोई बारह सीटों में संपन्नता है। गांव संचार व सड़कों से ठीकठाक जुड़े हैं, इसके बावजूद यहां के चुनाव धनबल के माध्यम से बाहुबल की त्रासदी से जूझ रहे हैं। आलम यह है कि दिल्ली व हरियाणा के लगभग 3000 अखाड़े वीरान पड़े हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अपराध और नेता के गठजोड़ में सरकारी अफसर महत्वपूर्ण कड़ी हैं। यहां ताकतवर उम्मीदवारों को जबरिया बैठाना या फिर हत्या कर देना आम बात है। सन् 2004 में गोंडा से भाजपा प्रत्याशी घनश्याम शुक्ला की हत्या हो या फिर इंडियन जस्टिस पार्टी के बहादुर सोनकर की पेड़ से लटकी लाश- किसी का खुलासा नहीं हो पाया। प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के सात जिलों में कुख्यात डकैत ददुआ, सुंदर पटेल, ठोकिया बीते कई चुनावों में कभी हाथी तो कभी साइकिल पर सवार होते रहे हैं। भले ही जंगल में रहने वाले ये डकैत अब मार दिए गए हों, लेकिन उनका आसरा देने वाले सभी गिरोह सक्रिय हैं। मोदहा से बादशाह सिंह और उनके ही पड़ोसी नसीमुद्दीन सिद्धीकी की असली ताकत हाथ में असलाह ही है। राठ के रज्जू बुधांलिया और उन्हीं के पड़ोसी गंगाचरण राजपूत भी बाहुबल के कारण मशहूर हैं। बांदा और चित्रकूट जिले में तो बंदूक का ही बोलबाला रहता है।
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पुलिस रिपोर्ट कहती है कि मेरठ मंडल में 28 ऐसे गिरोह हैं जो उ.प्र. की सीमा के पार जाकर दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान में भी अपराध करते हैं। इस इलाके में कुछ सीटों पर मुस्लिम माफिया भी बेहद ताकतवर है। प्रत्येक राजनैतिक दल सत्ता संघर्ष में ताकत की दखल से वाकिफ है। सभी को राज्य सरकार या स्थानीय पुलिस पर भरोसा नहीं है। तभी हर तरफ से केंद्रीय बल की मांग आ रही है। विडंबना है कि हर दल के अपने बाहुबली हैं और उन्हें उसमें कोई खोट नजर नहीं आती। यही कारण है कि कभी राजनीति के अपराधीकरण को लेकर चिंतित रहने वाली सियासत अब अपराधों का राजनीतिकरण होने पर भी चुप्पी साधे रहती है।
वैसे चुनाव आयोग की आचार संहिता और इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल से हालात सुधरने की उम्मीद है लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे नेता प्रत्येक पाबंदी की काट भी तलाश लेते हैं। यदि मतदाता ही अपराधी-नेता के खिलाफ कड़ा रुख कर लें तो अगली विधानसभा का लेाकतंत्रात्मक रूप स्वच्छ और उज्ज्वल हो सकेगा।
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