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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

water needs to be proper managed

जरूरत है जल प्रबंधन की 

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राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के कुछ इलाके इस बात पर गर्व करते नहीं अघाते हैं कि उनके घर पर ‘गंगा वाटर’ आता है। वह गंगा जल जिसकी एक छोटी  शीशी पूजा के करीब रखने में करोड़ो लेागों को पवित्रता का अहसास होता है। तनिक गौर करें पवित्र मन कर आचमन करने वाले गंगा जल का हमारे घरों में शौच  से लेकर पोछा लगाने व कार साफ करने तक में इस्तेमाल हेाता है। भले ही कम बरसात होने पर सूखे, पलायन, खेत सूखने जैसे मसलों पर हमारे यहां सालों साल सियासत होती रही है, लेकिन कभी कोई सवाल नहीं उठाता कि हम पेयजल का इस्तेमाल शौच  या खेत में और गंदे पानी को इस्तेमाल नदी-तालाब आदि को दूषित  करने में कर रहे है। और यही जल संकट का बड़ा कारण है। अभी जाड़े के दिन चल रहे हैं और बस्तर, बुंदेलखंड , तेलंगाना मराठवाड़ा आदि अंचलों में पानी की कमी की खबरे आने लगी हैं। गांव के पटवारी, सरपंच और सयाने लोग उपलब्ध जल, आने वाले दिनों की मांग, भयंकर गरमी  का सटीक आकलन रखते हैं, लेकिन सरकारी अमला इंतजार करता है कि जब प्यास व पलायन से हालात भयावह हों,तब कागजी घोड़े दौड़ाए जाएं। हमने अपने पारंपरिक जल संसाधनों की जो दुर्गति की है, जिस तरह नदियों के साथ खिलवाड़ किया है, खेतों में रासायनिक खाद व दवा के प्रयोग से सिंचाई की जरूरत में इजाफा किया है, इसके साथ ही धरती का बढ़ता तापमान, भौतिक सुखों के लिए पानी की बढ़ती मांग और भी कई कारक हैं जिनसे पानी की कमी तो होना ही है। ऐसे में सारे साल, पूरे देश में, कम पानी से बेहतर जीवन और जल-प्रबंधन, ग्रामीण अंचल में पलायन थामने और वैकल्पिक रोजगार मुहैया करवाने की योजनाएं बनाना अनिवार्य हो गया है।
आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादो में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गरमी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब.... ? अब क्या होगा.... ?  यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि  करती है। खतरा यह है कि ऐसे जिलों की संख्या अब बढ़ती जा रही है। जलवायु परिवर्तन की मार हमारे देश पर पड़ना षुरू हो गई है और इस तरह अचानक अल्प बरसात या भी असमय भारी बारिश को झेलना ही होगा। दोनो हालात में हमारे यहां पीने और उसके बाद खेती के लिए पानी का संकट रहता है।
असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ बारिश भी हो और प्रबधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है। एक तो यह जान लें कि पानी उलीचने की मशीनों ने पानी की सबसे ज्यादा बर्बादी की हे। जब आंगन में एक कुंआ होता था तो इंसान अपनी जरूरत की एक बाल्टी खींचता था और उसी से काम चलाता था। आज एक गिलास पानी के लिए भी हैंड पंप या बिजली संचालित मोटर का बटन दबा कर एक बाल्टी से ज्यादा पानी बेकार कर देता है। दूसरा शहरी नालियों की प्रणाली, और उनका स्थानीय नदियों में मिलना व उस पानी का सीधा समुद्र के खारे पान में घुल जाने के बीच जमीन में पानी की नमी को सहेज कर रखने के साधन कम हो गए हे।ं कुएं तो लगभग खतम हो गए, बावड़ी जैसी संरचनांए उपेक्षा की खंडहर बन गईं व तालाब गंदा पानी निस्तारण के नाबदान । जरा इस व्यवस्था को भी सुधारना होगा या यों कहं कि इसके लिए अपने अतीन व परंपरा की
ओर लौटना होगा।
जरा सरकारी घोशणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाध्नों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केश क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थेाड़ा भी कम पान बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी  का अस्सी फीसदी जूमन से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में  यह आंकडा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि षेश आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं ।

कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी कमी इंसान के जीवन के रंगो को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढ़ियों से बेहद कम बारिश्श होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियांॅ हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं। सबसे बड़ी बात अब यह विचार करना होगा कि किन इलाकों में किस तरह की फसल हो या कौन सी परियोजनाए हों। अब मराठवाड़ा के लेाग महसूस कर रहे हैं कि जिस पैसे के लालच में उन्होंने गन्ने की अंधाधंुध फसल उगाई वही उन्हें प्यासा कर गया है। गन्ने में पानी की खपत ज्यादा होती है, लेकिन इलाके के ताकतवर नेताओं की चीनी मिलों के लिए वहां गन्ना उगवाया गया था।

चीन की राजधानी पेईचिंग के बहुमंजिला मकानों में तीन किस्म के पानी की सप्लाई होती है- एक पीने लायक पानी, यह सबसे महंगा होता है और सारे दिन में बामुश्किल एक घंटे आता है।दूसरा पानी रसोई व स्नान के मतलब का होता है, यह कुछ कम दाम पर और दिन में बारह घंटे तक सप्लाई होता है। तीसरे किस्म का पानी घरें से निकले जल को ही परिशोधित कर सप्लाई होता है, यह षौचालय, पौधे आदि के काम आता है।एक बेहतर प्रबंधन से एक तो वहां पीने के पानी का दुरूपयोग रूका हुआ है, दूसरा नालियों में गंदे पानी की मात्रा कम होती है क्योंकि प्रत्येक परिशोधित कर ही पानी को सीवर लाईन में डालता है।यह एक बानगी है जिसका पालन कर हमारो देश भी पानी संरक्षित कर सकता है। नदी या तालाब  या भूजल का षुद्ध जल हम भी पेयजल के लिए प्रयोग में लाएं व घरों से निकली नानी का पानी खेतों तक ले जाएं। इससे खेतों में खाद की खपत भी कम होगी।
आज यह आवश्यक हो गया है कि किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोशित करने, वहां राहत के लिए पैसा भेजने जैसी पारंपरिक व छिद्रयुक्त योजनाओं को रोका जाए, इसके स्थान पर पूरे देश के संभावित अल्प वर्शा वाले क्षेत्रों में जल संचयन, खेती, रोजगार, पशुपालन  की नई परियोजनाएं स्थाई रूप से लागू की जाएं जाकि इस आपदा को आतंक के रूप में नहीं, प्रकृतिजन्य अनियमितता मान कर सहजता से जूझा जा सके। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्शा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

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