My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 17 नवंबर 2018

Climate change challenge is on head of India

अब तो सिर पर खड़ा है जलवायु परिवर्तन का खतरा
पंकज चतुर्वेदी


भारत की समुद्री सीमा तय करने वाले केरल राज्य में बीते दिनों आया भयंकर जल-प्लावन का ज्वार भले ही धीरे-धरीे छंट रहा हो, लेकिन उसके बाद वहां जो कुछ हो रहा है, वह पूरे देश के लिए चेतावनी है। अपनी जैव विविधता के लिए जग जाहिर वायनाड जिले में अचानक ही केंचूए और कई प्रकृति’प्रेमी कीट गायब हो गए। अभी एक महीेन तक उफन रहीं पंपा, पेरियार, कबानी जैसी कई सदानीरा नदियों का जल-स्तर आश्चर्यजनक ढंग से बहुत कम हो गया। इदुकी, वायनाड जिलों में कई सौ मीटर लंबी दरारें जमीन में आ गईं। हम भूल गए कि पिछले साल चैन्ने और उससे पहले कश्मीर और उससे पहले केदारनाथ मची प्राकृतिक विपदा भी बेहद अस्वाभाविक मौसम और प्राकृतिक घटना की उपज था। यह बानगी है कि धरती के तापनाम में लगातार हो रही बढ़ौतरी और उसके गर्भ से उपजे जलवायु परिवर्तन का भीषण खतरा अब दुनिया के साथ-साथ भारत के सिर पर मंडरा रहा है। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इंसान के भाजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से ले कर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है जिसके चलते प्रकृति का अस्तित्व और मानव का जीवन  सांसत में है।
अमेरिका के आरेजोन राज्य की सालाना जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट 2017 में बताया गया है कि मौसम में बदलाव के कारण पानी को सुरक्षित रखने वाले जलाशयों में ऐसे शैवाल विकासित हो रहे हैं जो पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं।  पिछले दिनो अमेरिका के कोई 60 हजार जलाशयों के जल का परीक्षण  वहां की नेशनल लेक असेसमेंट विभाग ने किया और पाया कि जब जलाशयों में मात्रा से कम पानी होता है तो उसका तापमान ज्यादा होता है और साथ ही उसकी अम्लीयता भी बढ़ जाती हे। जब बांध या जलाशय सूखते हैं तो उनकी तलहटी में कई किस्म के खनिज और अवांछित रसायन भी एकत्र हो जात हैं और जैसे ही उसमें पानी आता है तो वह उसकी गुणवत्ता पर विपरीत असर डालते हैं। सनद रहे ये दोनों ही हालात जल में जीवन यानी- मछली, वनस्पति आदि के लिए घातक हैं। भारत में तो यह हालात हर साल उभर रहे हैंा कभी भयंकर सूख तो जलाशय रीते और कभी अचानक बरसात तो लबालब।
यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टी.एच. चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपेर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ौतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे।.दरअसल, 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौह तत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौंधों से होती है। जबकि 1.4 अरब लोग लौह तत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है। .
शोध में पाया गया कि जहां अधिक कार्बन डाईऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में तीन तत्वों जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में प्रयोग के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। .रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई आक्साइड पौंधों को बढ़ने में तो मदद करता है। लेकिन पौंधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देता है।.यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहा पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है।
एक तरफ परिवेश में कार्बन की मात्रा बढ़ रही है तो दूरी ओर ओजोन परत में हुए छेद में दिनों-दिन विस्तार हो रहा है। इससे उपजे पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव है कि मरूस्थलीयकरण दुनिया के सामने बेहद चुपचाप , लेकिन खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। इसकी चपेट में आए इलाकों में लगभग आधे अफ्रीका व एक-तिहाई एशिया के देश हैं। यहां बढ़ती आबादी के लिए भेाजन, आवास, विकास आदि के लिए बेतहाशा जंगल उजाड़े गए । फिर यहां नवधनाढ्य वर्ग ने वातानुकूलन जैसी ऐसी सुविधआों का बेपरवाही से इस्तेमाल किया, सिससे ओजोन परत का छेद और बढ़ गया। याद करें कि सत्तर के दशक में अफी्रका के साहेल इलाके में भयानक अकाल पड़ा था, तब भी संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने चेताया था कि लगातार सूखी या बंजर हो रही जमीन के प्रति बेपरवाही रेत के अंबार को न्यौता दे रही है। उसी समय कुछ ऐसी सिंचाई प्रणालियां शुरू हुई, जिससे एक बारगी तो हरियाली आती लगी, लेकिन तीन दशक बाद वे परियोजनाएं बंजर, दलदली जमीन उपजाने लगीं। ऐसी ही जमीन, जिसकी ‘‘टॉप सॉईल’’ मर जाती है, देखते ही देखते मरूस्थल का बसेरा होती है। जाहिर है कि रेगिसतान बनने का खतरा उन जगहों पर ज्यादा है, जहां पहले उपजाउ जमीन थी और अंधाधुंध खेती या भूजल दोहन या सिंचाई के कारण उसकी उपजाउ क्ष्मता खतम हो गई। ऐसी जमीन पहले उपेक्षित होती है और फिर वहां लाइलाज रेगिस्तान का कब्जा हो जाता है। यहरां जानना जरूरी है कि धरती के महज सात फीसदी इलाके में ही मरूसथल है, लेकिन खेती में काम आने वाली लगभग 35 प्रतिशत जमीन ऐसी भी है जो शुष्क कहलाती है और यही खतरे का केंद्र है।
बेहद हौले से और ना तत्काल दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राजयों में जड़ जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से महज 24 फीसदी ही थार के इर्द गिर्द के हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर था जो कि आज दो लाख आठ हजार 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है। भारत की कुल 328.73 मिलियन जमीन में से 105.19 मिलियन जमीन पर बंजर ने अपना डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हैक्टर जमीन रेगिसतान में बदल रही है। यह हमारे लिए चिंता की बात है कि देश के एक-चौथाई हिस्से पर आने वाले सौ साल में मरूस्थल बनने का खतरा आसन्न है। हमारे यहां सबसे ज्यादा रेगितान राजस्थान में है, कोई 23 मिलियन हैक्टर। गुजरात, महाराष्ट्र, मप्र, और जम्मू-कश्मीर की 13 मिलियन भूमि पर रेगिस्तान है तो अब उड़ीसा व आंध््राप्रदेश में रेतीली जमीन का विस्तार देखा जा रहा है। अंधाधुंध सिंचाई व जम कर फसल लेने के दुष्परिणाम की बानगी पंजाब है, जहां दो लाख हैक्टर जमीन देखते ही देखते बंजर हो गई। बंिटंडा, मानसा, मोगा, फिरोजपुर, मुक्तसर, फरीदकोट आदि में जमीन में रेडियो एक्टिव तत्व की मात्रा सीमा तोड़ चुकी है और यही रेगिस्तान की आमद का संकेत है।
भारत के संदर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचई की दोषपूर्ण परियोजनाएं हैं। बारिकी से देखेें तो इन कारकों का मूल बढ़ती आबादी है। हमारा देश आबादी नियंत्रण में तो सतत सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिए हमारे खेत व मवेशी कम पड़ रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी  वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी हैं। सिंचाई के लिए भी छोटी, स्थानीय तालाब , कुओं पर आधारित रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। यह स्पष्ट है कि बड़े बांध जितने महंगे व अधिक समय में बनते हैं, उनसे उतना पानी तो मिलता नहीं है, वे नई-नई दिक्कतों को उपजाते हैं, सो छोटे तटबंध, कम लंबाई की नहरों के साथ-साथ रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिसतान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है। भोजन व दूध के लिए मवेशी पालन तो बढ़ा लेकिन उनकी चराई की जगह कम हो गई। परिणामतः मवेशी अब बहुत छोटी-छोटी घास को भी चर जाते हैं और इससे जमीन नंगी हो जाती है। जमीन खुद की तेज हवा और पानी से रक्षा नहीं कर पाती है. मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार हो जाती है। मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई  वनस्पति और पशु प्रजातियों की विलुप्ति हो सकती है. गरीबी, भुखमरी और पानी की कमी इससे जुड़ी अन्य समस्याएं हैं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि पर मंडराते खतरों के प्रति सचेत करते हुए इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रोफारेस्ट्री के निदेशक डॉ. कुलूस टोपर ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आने वाले दिन जलवायु परिवर्तन के भीषणतम उदाहरण होंगे जो कृषि उत्पादकता पर चोट, जल दबाव, बाढ़, चक्रवात व सूखे जैसी गंभीर दशाओं को जन्म देंगें। हकीकत यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि व्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ने से पूरी दुनिया में ‘खाद्यान्न संकट’ की विकरालता बढ़ जायेगी जो कि चिन्ता का विषय है। यह सर्वविदित है कि भारत की अर्थ व्यवस्था का आधार आज भी खेती-किसानी ही है। साथ ही हमारे यहां की विशाल आबादी का पेट भरते के लिए उन्नत खेती अनिवार्य है।
जलवायु परिवर्तन की मार भारत में जल की उपलब्धता पर भी पड़ रही है। देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो नब्बे के दशक में कम होकर 119 सेंटीमीटर रह गई है। उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह रूप लेता जा रहा है। तीन साल में एक बार अल्प वर्षा यहां की नियति बन गया है। तिस पर देश की सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियों के उद!गम ग्लैशियर बए़ते तापमान से बैचेन हैं।
विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में 2 डिग्री सेटीग्रेड के लगभग वृद्धि होती है तो गेहूँ की उत्पादकता में कमी आयेगी। जिन क्षेत्रों में गेहूँ की उत्पादकता अधिक है, वहाँ पर यह प्रभाव कम परिलक्षित होगा तथा जहाँ उत्पादकता कम है उन क्षेत्रों में उत्पादकता में कमी अधिक होगी। ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है कि तापमान के 1 डिग्री सेटीग्रेड बढ़ने पर गेहूँ के उत्पादन में 4-5 करोड़ टन की कमी होगी। यही नहीं, वर्ष 2100 तक फसलों की उत्पादकता में 10 से 40 प्रतिशत तक कमी आने से देश की खाद्य-सुरक्षा के खतरे में पड़ जाने की प्रबल संभावना है। ऐसा अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से रबी की फसलों को अधिक नुकसान होगा। इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित फसलां को अधिक नुकसान होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्रा कम होगी जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पायेगा।
इसी प्रकार जलवायु पविर्तन का कुप्रभाव खेती की मिट्टी पर पड़ने के कारण उसकी उर्वरा क्षमता घटने, मवेशियो  की दुग्ध क्षमता कम होने  आदि पर भी दिख रहा है। एक अनुमान है कि जलवायु पविर्तन की मार के कारण वर्ष 2020 तक हमारे यहां की दूध की उपलब्धता 1.6 करोड़ टन तथा 2050 तक 15 करोड़ टन तक कम हो सकती है। खाद्य सुरक्षा रिपोर्ट पर गौर करें तो वर्ष 2030 तक देश में जलवायु में हो रहे परिवर्तन से कई तरह की फसलों को उगाना मुश्किल हो जाएगा। कृषि उत्पादन कम होगा और भूखे लोगों की संख्या बढ़ेगी।
भारत में जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव से खेती-किसानी का ध्वंस्त होने की बात भारत के 2018 आर्थिक सर्वेक्षण में भी दर्ज है। हमारी अधिकांश खेती असिंचित होने के कारण कृषि विकास दर पर मौसम का असर पड़ रहा है।  यदि तापमान एक डिग्री-सेल्सियस बढ़ता है तो खरीफ (सर्दियों) मौसम के दौरान किसानों की आय 6.2 फीसदी कम कर देता है और असिंचित जिलों में रबी मौसम के दौरान 6 फीसदी की कमी करता है। इसी तरह यदि बरसात में औसतन 100 मिमी की कमी होने पर किसानों की आय में 15 फीसदी और रबी के मौसम में 7 फीसदी की गिरावट होती है, जैसा कि सर्वेक्षण में कहा गया है।
यही नहीं ज्यादा बरसात होने पर उफनती नदियों की चपेट में आने वाली आबादी भी छह गुणा तक हो सकती है। अभी हर साल कोई 25 करोड़ लेाग बाढ़ से प्रभावित होते हैं। असल में किसी भी नदी के बीते सौ साल में टहलने वाले रास्ते को ‘‘रीवर बेड़’’ कहा जाता है। यानी इस पर लौट कर कभी भी नदी आ सकी है। हमोर जनसंख्श्या विस्फोट और पलायन के कारण उभरी आवासीय कमी ने ऐसे ही नदी के सूखे रास्तों पर बस्तियां बसा दीं और अब बरसात होने पर नदी जब अपने   किसी भूले बिसरे रास्ते पर लौट आती है तो तबाही होती है। ठीक इसी तरह तापमान बढ़ने से ध्रुवीय क्षेत्र में तेजी से बरफ गलने के कारण समुद्र के जल-स्तर में अचानक बए़ौतरी का असर भी हमारे देश मे तटीय इलाकों पर पउ़ रहा है।
क्या है ग्लोबल वॉर्मिंग ?
हमारी धरती को प्राकृतिक तौर पर सूर्य की किरणों से गरमी मिलती है। ये किरणें वायुमंडल से गुजरते हुए पृथ्वी की सतह से टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित होकर लौट जाती हैं। धरती का वायुमंडल कई गैसों से मिलकर बना है जिनमें कुछ ग्रीनहाउस गैसें भी शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर धरती के ऊपर एक प्राकृतिक आवरण बना लेती हैं। यह आवरण लौटती किरणों के एक हिस्से को रोक लेता है और इस तरह धरती को गरम बनाए रखता है। इंसानों, दूसरे प्राणियों और पौधों के जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी मोटा होता जाता है। ऐसे में यह आवरण सूर्य की ज्यादा किरणों को रोकने लगता है और फिर यहीं से शुरू होते हैं ग्लोबल वॉर्मिंग के दुष्प्रभाव मसलन समद्र स्तर ऊपर आना, मौसम में एकाएक बदलाव और गर्मी बढ़ना, फसलों की उपज पर असर पड़ना और ग्लेशियरों का पिघलना। यहां तक कि ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से प्राणियों की कई प्रजातियां भी लुप्त हो चुकी हैं।
यह वैज्ञानिक तथ्य है कि बीते सौ सालों के दौरान सन 1900 से 2000 तक पृथ्वी का औसत तापमान एक डिग्री फैरेनहाइट बढ़ गया है। सन 1970 के मुकाबले आज धरती का तापमान तीन गुणा तेजी से बढ़ रहा है। इस बढ़ती वैश्विक गर्मी का असल कारण इंसान व उसकी भौतिक सुविधाओं की जरूरतें ही हैं। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, गाड़ियों से निकलने वाला घुँआ और जंगलों में लगने वाली आग इसकी मुख्य वजह हैं। इसके अलावा घरों में लक्जरी वस्तुएँ मसलन एयरकंडीशनर, रेफ्रिजरेटर, ओवन आदि भी इस गर्मी को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
ग्रीन हाउस गैस पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश तो कर लेती हैं लेकिन यहाँ से वापस ‘अंतरिक्ष’ में नहीं जातीं और यहाँ का तापमान बढ़ाने में कारक बनती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 21वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 से 8 डिग्री तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक होंगे। विश्व के कई हिस्सों में बिछी बर्फ गल जाएगी, इससे जल का आगमन बढ़ेगा व समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर तक बढ़ जाएगा। समुद्र के इस बर्ताव से विश्व के कई हिस्से जलमग्न हो जाएँगे। भारी तबाही मचेगी।
धर्म ग्रंथों में पहले से ही है चेतावनी
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है और इस बदलाव के कारण धरती किस दिशा में जा रही है, इसके लिए जरा भारत के आदिग्रंथ महाभारत के एक हिस्से को बांचते हैं। करीब पांच हजार वर्ष पूर्व के ग्रंथ महाभारत में ‘‘वनपर्व’’ में महाराजा युधिष्ठिर का मार्कण्डेय ऋषि से मार्मिक संवाद दर्ज है। युधिष्ठिर मार्कण्डेय ऋषि से विनम्रता पूर्वक पूछते हैं- ‘‘महामुने, आपने युगों के अन्त में होने वाले अनेक महाप्रलय के दृश्य देखे हैं, मैं आपके श्रीमुख से प्रलयकाल का निरूपण करने वाली कथा सुनना चाहता हूं।’’ (महाभारत, गीता प्रेस-गोरखपुर, द्वितीय खंड-वनपर्व, मारकण्डेय-युधिष्ठिर संवाद, पृ. 1481-1494) इसमें ऋषि जवाब देते हैं- ‘‘हे राजन, प्रलय काल में सुगंधित पदार्थ नासिका को उतने गंधयुक्त प्रतीत नहीं होंगे। रसीले पदार्थ स्वादिष्ट नहीं रह जाएंगे। वृक्षों पर फल और फूल बहुत कम हो जाएंगे और उन पर बैठने वाले पक्षियों की विविधता भी कम हो जाएगी। वर्षाऋतु में जल की वर्षा नहीं होगी। ऋतुएं अपने-अपने समय का परिपालन त्याग देंगी। वन्य जीव, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक निवास की बजाए नागरिकों के बनाए बगीचों और विहारों में भ्रमण करने लगेंगे। संपूर्ण दिशाओं में हानिकारक जन्तुओं और सर्पों का बाहुल्य हो जाएगा। वन-बाग और वृक्षों को लोग निर्दयतापूर्वक काट देंगे।’’ कृषि और व्यापार पर टिप्पणी करते हुए मार्कण्डेय ऋषि कहते हैं- ‘‘भूमि में बोये हुए बीज ठीक प्रकार से नहीं उगेंगे। खेतों की उपजाऊ शक्ति समाप्त हो जाएगी। लोग तालाब-चारागाह, नदियों के तट की भूमि पर भी अतिक्रमण करेंगे। समाज खाद्यान्न के लिए दूसरों पर निर्भर हो जाएगा।’’
वे आगे कहते हैं -‘‘हे राजन, एक स्थिति ऐसी भी आएगी कि जनपद जन-शून्य होने लगेंगे। गरीब लोग और अधिकांश प्राणी भूख से बिलबिलाकर मरने लगेंगे। चारों ओर प्रचण्ड तापमान संपूर्ण तालाबों, सरिताओं और नदियों के जल को सुखा देगा। लंबे काल तक पृथ्वी पर वर्षा होनी बंद हो जाएगी। प्रचण्ड तेज वाले सात सूर्य उदित होंगे और जो कुछ भी धरती पर शेष रहेगा, उसे वे भस्मीभूत कर देंगे।’’ 
यह तो सभी जानते हैंकि  सनातन धर्म का प्रारंभ सतयुग से है, सतयुग जब सभी कुछ सत्य था। । फिर आया त्रेता युग। ‘त्रे’ अर्थात तीन - इस युग में तीन हिस्सा सच बचा और एक चैथाई असत्य। उसके बाद आया द्वापर युग। ‘‘द्वा’’ यानि दो आर्थात जहां दो हिस्से यानि आधा सच था और आधा झूठ। फिर कल युग में तो सच के अंश बचे ही नहीं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग में लोगों के बाल 16 घर की आयु में ही सफ़ेद हो जाएंगे और वह 20 वर्ष की आयु में ही बूढ़े हो जाएंगे। युवा अवस्था समाप्त हो जाएगी। आज यह बात सच होती दिख रही है। कम उम्र में बच्चे व युवा ऐसी बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं जिनसे उनकी षारीरिक क्षमता बूढ़ों से बदतर हो जाती है। इस दौर में बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध होने के बावजूद 100 साल की उम्र तक जीने वालों की संख्या लगभग नही ंके बराबर रह गई हे। इंसान की औसत उम्र कोई 67 साल है। जिस तरह पृथ्वी के नैसर्गिक स्वरूप को  विद्रूप किया जा रहा है, आम लेागों की दिनचर्या, खानपान बदल रहा है ; स्पश्ट है कि आने वाले दिनों में इंसान का षरीर कई तरह की व्याधियां झेलेगा।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग के 5000 साल बाद गंगा नदी सुख जाएगी। और देवी गंगा पुनः बैकुंठ धाम लौट जाएगी। गंगा नदी की आज क्या हालात है? किससे छुपी नहीं है, हजारों करोउ़ व्यय होने के बावजूद गंगा में प्रदूशण, जल के बहाव की मात्रा और गहराई में कमी आना जस का तस बना है। पुराण यह भी कहता है कि कलयुग में एक समय ऐसा भी आएगा जब जमीन से अन्न उपजना भी बंद हो जाएगा। पेड़ों पर फल नहीं लगेंगे।और धीरे धीरे यह सभी चीजें विलुप्त हो जाएगी। कहने की जरूरत नहीं जब नदियों नहीं होंगी, जब बरसात कम होगी, जब आबादी बढेगी तो हरियाली लुप्त होना लाजिमी है। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग के अंत समय में पृथ्वी पर बहुत मोटी धारा से लगातार वर्षा होगी। जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी पर चारों ओर पानी ही पानी हो जाएगा,और समस्त प्राणियों का अंत हो जाएगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Delhi riots and role of €Kejriwal government

  दिल्ली हिंसा के पाँच साल   और   इंसाफ की अंधी   गलियां पंकज चतुर्वेदी     दिल्ली विधान सभा के लिए मतदान   हेतु तैयार है   और पाँच ...