My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

rape can not be controlled without changing mentality of society

दरिंदगी का तलाशें अंतिम समाधान


पंकज चतुर्वेदी
बीते एक सप्ताह में आगरा और उत्तराखंड में दो लड़कियों को सरेराह आग लगाकर जिंदा जलाया गया। दिल्ली में निर्भया कांड के बाद उभरा जनाक्रोश अब वोट व सत्ता की सियासत का दाना बन चुका है। जाहिर है कि उसके बाद बने कानून, जनाक्रोश या स्वयं की अनैतिकता पर न तो अपराधियों को डर रह गया है, न ही आम समाज में संवेदना और न ही पुलिस की मुस्तैदी।
इन दिनों दो कांड संवेदनशील लोगों के बीच विमर्श में हैं। कुछ जगह विरोध प्रदर्शन भी हो रहे हैं। आगरा से कोई बीस किलोमीटर दूर नौमील गांव की 15 साल की बच्ची को 18 दिसंबर को स्कूल से घर लौटते समय दो लड़कों ने पेट्रोल डाल कर माचिस दिखा दी। लड़कों ने पहचान छुपाने के लिए हेलमेट पहन रखा था। बच्ची के पिता एक कारखाने में काम करते हैं। उन्होंने बताया कि जलाने के बाद उसे हाईवे के किनारे खाई में फेंक दिया गया। दिल्ली के एक अस्पताल में बच्ची की मौत हो गई।
ठीक उसी दौरान उत्तराखंड के पौड़ी जिले के कफोलस्यूं पट्टी के एक गांव की 18 वर्षीय लड़की परीक्षा देकर स्कूटी से घर लौट रही थी। रास्ते में गहड़ गांव के मनोज सिंह उर्फ बंटी ने एक सुनसान जगह में कच्चे रास्ते पर लड़की को रोक लिया और जबरदस्ती करने की कोशिश करने लगा। छात्रा के विरोध से गुस्साए युवक ने छात्रा पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी और वहां से फरार हो गया। कुछ देर बाद जब वहां से गुजर रहे एक ग्रामीण ने जली हुई छात्रा को देखा तो इसकी सूचना पुलिस को दी। इससे पहले अपराधी लड़की की मां को फोन पर बता देता है कि उसने लड़की को आग लगा दी है, दम हो तो बचा लो। विडंबना है कि रौंगटे खड़े करने वाली इन घटनाओं पर दिल्ली मौन है।

देश में भूचाल ला देने वाले दिसंबर-2012 के दामिनी कांड में एक आरोपी ने तो जेल में आत्महत्या कर ली और बाकी मुजरिम अभी भी अदालतों की प्रक्रिया में अपनी फांसी से दूर हैं। उस कांड के बाद बने पास्को कानून में जम कर मुकदमे दायर हो रहे हैं। दामिनी कांड के दौरान हुए आंदोलन की ऊष्मा में सरकारें बदल गईं। उस कांड के बाद भी इस तरह की घटनाएं होना यह इंगित करता है कि बगैर सोच बदले केवल कानून से कुछ होने से रहा। तभी देश के कई हिस्सों में ऐसा कुछ घटित होता रहा जो इंगित करता है कि महिलाओं के साथ अत्याचार के विरोध में यदा-कदा प्रज्वलित होने वाली मोमबत्तियां केवल उन्हीं लोगों का झकझोर पा रही हैं जो पहले से काफी कुछ संवदेनशील हैं। समाज का वह वर्ग, जिसे इस समस्या को समझना चाहिए, अपने पुराने रंग में ही है। इसमें आम लोग हैं, पुलिस भी है और समूचा तंत्र भी।


दिल्ली में दामिनी की घटना के बाद हुए देशभर के धरना-प्रदर्शनों में शायद करोड़ों मोमबत्तियां जलकर धुआं हो गई हों लेकिन समाज के बड़े वर्ग के दिलोदिमाग पर औरत के साथ हुए दुर्व्यवहार को लेकर जमी भ्रांतियों की कालिख दूर नहीं हो पा रही है। ग्रामीण समाज में आज भी औरत पर काबू रखना, उसे अपने इशारे पर नचाना, बदला लेने और अपना आतंक बरकरार रखने के तरीके आदि में औरत के शरीर को रोंदना एक अपराध नहीं बल्कि मर्दानगी से जोड़ कर ही देखा जाता है। यह भाव अभी भी हम लोगों में पैदा नहीं कर पा रहे हैं कि बलात्कार करने वाला मर्द भी अपनी इज्जत ही गंवा रहा है।
जानकर आश्चर्य होगा कि चाहे दिल्ली की 45 हजार कैदियों वाली तिहाड़ जेल हो या फिर दूरस्थ अंचल की 200 बंदियों वाली जेल; बलात्कार के आरोप में आए कैदी को, पहले से बंद कैदियों द्वारा दोयम दर्जे का माना जाता है और उसकी पिटाई या टॉयलेट सफाई या जमीन पर सोने को विवश करने जैसे स्वघोषित नियम लागू हैं। जब जेल में बलात्कारी को दोयम दर्जे का माना जाता है तो बिरादरी, पंचायतें, पुलिस इस तरह की धारणा क्यों विकसित नहीं कर पा रही हैं।
ऐसा कुछ तो है ही जिसके चलते लोग इन आंदालनो, विमर्शों, तात्कालिक सरकारी सक्रिताओं को भुला कर गुनाह करने में हिचकिचाते नहीं हैं। आंकडे गवाह हैं कि आजादी के बाद से बलात्कार के दर्ज मामलों में से छह फीसदी में भी सजा नहीं हुई। जो मामले दर्ज नहीं नहीं हुए वे ना जाने कितने होंगे। 

खाप, जाति बिरादरियां, पंचायतें जिनका गठन कभी समाज के सुचारू संचालन के इरादे से किया गया था अब समानांतर सत्ता या न्याय का अड्डा बन रही है तो इसके पीछे वोट बैंक की सियासत होना सर्वमान्य तथ्य है। षायद हम भूल गए होंगे कि हरियाणा में जिन बच्चियों को उनके साहस के लिए (बस में छेड़छाउ़ करने वालों की बैल्ट से पिटाई करने वाली बहनें)सम्मानित करने की घोशणा स्वयं मुख्यमंत्री कर चुके थे, बाद में खाप के दवाब में उन्ही लडकियों के खिलाफ जांच के आदेश दे दिए गए। 
ऐसा नहीं है कि समय-समय पर बलात्कार या शोषण के मामले चर्चा में नहीं आते और समाजसेवी संस्थाएं इस पर काम नहीं करतीं। तीन दशक पहले भटेरी गांव की साथिन भंवरी देवी को बाल विवाह के खिलाफ माहौल बनाने की सजा सवर्णों द्वारा बलात्कार के रूप में दी गई थी। उस मामले को कई जन संगठन सुप्रीमकोर्ट तक ले गए थे और उसे न्याय दिलवाया था। लेकिन जानकर आश्चर्य होगा कि वह न्याय अभी भी अधूरा है। हाईकोर्ट से उस पर अंतिम फैसला नहीं आ पाया है। इस बीच भंवरी देवी भी साठ साल की हो रही हैं व दो मुजरिमों की मौत हो चुकी है।
आंकड़े गवाह हैं कि आजादी के बाद से बलात्कार के दर्ज मामलों में से छह फीसदी में भी सजा नहीं हुई। जो मामले दर्ज नहीं हुए, वे न जाने कितने होंगे। फांसी की मांग, नपुंसक बनाने का षोर, सरकार को झुकाने का जोर ; सबकुछ अपने- अपने जगह लाजिमी हैं लेकिन जब तक बलात्कार को केवल औरतों की समस्या समझ कर उसपर विचार किया जाएगा, जब तक औररत को समाज की समूची ईकाई ना मान कर उसके विमर्श पर नीतियां बनाई जाएंगी; परिणा अधूरे ही रहें्रे। फिर जब तक सार्वजनिक रूप से मां-बहन की गाली बकना , धूम्रपान की ही तरह प्रतिबंधित करने जैसे आघारभूत कदम नहीं उठाए जाते  , अपने अहमं की तुश्टि के लिए औरत के षरीर का विमर्श सहज मानने की मानवीय वत्त्ृिा पर अंकुश नहीं लगाया जा सकेगा। भले ही जस्टिस वर्मा कमेटी सुझाव दे दे, महिला हेल्प लाईन षुरू हो जाए- एक तरफ से कानून और दूसरी ओर से समाज के नजरिये में बदलाव की कोशिश एकसाथ किए बगैर असामनता, कुंठा, असंतुश्टि वाले समाज से ‘‘रंगा-बिल्ला’’ या ‘‘राम सिंह-मुकेश’’ या शिवकुमार यादव की पैदाईश को रोका नहीं जा सकेगा।  मोमबत्तियों की ऊष्मा असल में उन लोगों के जमीर को पिघलाने के लिए होनी चाहिए, जिनके लिए औरत उपभोग की वस्तु है, ना कि सियासी उठापटक के लिए।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

empty stomach packed godown

जरूरी है अन्न की बर्बादी रोकना
पंकज चतुर्वेदी


हम जितना खेतों में उगाते हैं उसका 40 फीसदी उचित रखरखाव के अभाव में नश्ट हो जाता है। यह आकलन स्वयं सरकार का है। यह व्यर्थ गया अनाज बिहार जैसे राज्य का पेट भरने के लिए काफी है। हर साल 92600 करोड़ कीमत का 6.7 करोड़ टन खाद्य उत्पात की बर्बादी, वह भी उस देश में जहां बड़ी आबादी भूखे पेट सोती हो, बेहद गंभीर मामाला है। विडंबना है कि विकसित कहे जाने वाले ब्रिटेन जैसे देश सालभर में जितना भोजन पैदा नहीं करते, उतनाह मारी लापरवाही से बेकार हो जाता है। कुछ महीने पहले, अस्सी साल बाद जारी किए गए सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना के आंकड़े भारत की चमचमाती तस्वीर के पीछे का विद्रूप चेहरा उजागर करने के लिए काफी हैं। देश के 51.14 प्रतिशत परिवार की आय का जरिया महज अस्थाई मजदूरी है। 4.08 लाख परिवार कूड़ा बीन कर तो 6.68 लाख परिवार भीख मांग कर अपना गुजारा करते हैं। गांव  में रहने वाले 39.39 प्रतिशत परिवारों की औसत मासिक आय दस हजार रूपए से भी कम है।  सुना जा रहा है कि संसद में इस बात पर कानून लाने पर विचार हो रहा है जिसमें विवाह समारोह में मेहमानों की संख्या सीमित करने का प्रावधन हो। असल में हमारे देश में पारिवारिक आयोजनाकंे की भव्यता और दिखावे के फेर में हर दिन हजारों टन बेहतरीन भोजन कूड़ेदान में जा रहा है। वैसे कई जगह ऐसे प्रयोग चल रहे हैं जिनमें आयोजनों या बड़े होटलों के बचे हुए खाने को जरूरतमंदों तक पहुंचाया जा रहा है लेकिन इसे कानूनन अनिवार्य बनाने की जरूरत आन पड़ी है।
आय और व्यय में असमानता की हर दिन गहरी होती खाई का ही परिणाम है कि कुछ दिनों पहले ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन द्वारा जारी की गई रपट में बताया गया है कि भारत में 19.4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं , हालांकि सरकार के प्रयासों से पहले से ऐसे लोगों की संख्या कम हुई है।
हमारे यहां बीपीएल यानि बिलो पावर्टी लाईन यानि गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या को ले कर भी गफलत है, हालांकि यह आंकड़ा 29 फीसदी के आसपास सर्वमान्यस है। भूख, गरीबी, कुपोषण व उससे उपजने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधन प्रबंधन की दिक्क्तें देश के विकास में सबसे बड़ी बाधक हैं। हमारे यहां ना तो अन्न की कमी है और ना ही रोजगार के लिए श्रम की। कागजों पर योजनाएं भी हैं, नहीं हैं तो उन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जिम्म्ेदार स्थानीय स्तर की मशीनरी में जिम्मेदारी व संवेदना की।
भारत में सालाना 10 लाख टन प्याज और 22 लाख टन टमाटर खेत से बाजार पहुंचने से पहले ही सड़ जाते हैं। वहीं 50 लाख अंडे उचित भंडारण के अभाव में टूट जाते हैं। हमारे कुल उत्पाद में चावल का 5.8 प्रतिशत, गेहूं का 4.6 प्रतिशत केले का 2.1 प्रतिशत खराब हो जाता है। वहीं गन्ने का 26.5 प्रतिशत हर साल बेकार होता है। जिस देश  में नए खरीदे गए अनाज को रख्,ाने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते है। बंगाल के बंद हो गए चाय बागानों में आए रोज मजूदरों के भूख के कारण दम तोड़ने की बात हो या फिर महाराश्ट्र में अरबपति शिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोशण से मौत की खबर या फिर राजस्थान के बारां जिला हो या मध्यप्रदेश का शिवपुरी जिला, सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चें के अस्सी फीसदी के उचित खुराक ना मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकिये इस देश में हर रोज हो रहे हैं, लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चैहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं। देशभर के कस्बे-शहरों से आए रोज गरीबी, कर्ज व भुखमरी के कारण आत्महत्या की खबरें आती है, लेकिन वे किसी अखबार की छोटी सी खबर बन कर समाप्त हो जाती है। इन दिनों बुंदेलखंड की आधी ग्रामीण आबादी सूख्ेा से हताश हो कर पेट पालने के लिए अपने घर-गांव से पलायन कर चुकी है।

भूख से मौत या पलायन, वह भी उस देश में जहां खाद्य और पोशण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रूपए की सबसिडी पर चल रही हैं, जहां मध्यान्य भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चें को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो, जहां हर हाथ को काम व हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो; दर्शाता है कि योजनाओं व हितग्राहियों के बीच अभी भी पर्याप्त दूरी है। वैसे भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोशण से मरने के आंकड़े संयुक्त राश्ट्र संगठन ने जारी किए हैं। ऐसे में नवरात्रि पर गुजरात के गांधीनगर जिले के एक गांव में माता की पूजा के नाम पर 16 करोड़ रूपए दाम के साढ़े पांच लाख किलो षुद्ध घी को सड़क पर बहाने, मध्यप्रदेश में एक राजनीतिक दल के महासम्मेलन के बाद नगर निगम के सात ट्रकों में भर कर पूड़ी व सब्जी कूड़ेदान में फैंकने की घटनाएं बेहद दुभाग्यपूर्ण व षर्मनाक प्रतीत होती हैं।
हर दिन कई लाख लोगों के भूखे पेट सोने के गैर सरकारी आंकड़ो वाले भारत देश के ये आंकड़े भी विचारणीय हैं। देश में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नश्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इस लिए बेकाम हो जात है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। देश के कुल उत्पादित सब्जी, फल, का 40 फीसदी प्रशीतक व समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है।  जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सके। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छुपा नहीं है, बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक कुंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण व उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन हो तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा। बुंदेलखंड के पिछड़े जिले महोबा के कुछ लेागों ने ‘‘रोटी बैंक’’ बनाया है।  बैंक से जुड़े लेाग भेाजन के समय घरों से ताजा बनी रोटिया एकत्र करते हैं और उन्हें अच्छे तरीके से पैक कर भूखें तक पहुंचाते हैं। बगैर किसी सरकारी सहायता के चल रहे इस अनुकरणीयप्रयास से हर दिन 400 लेागों को भोजन मिल रहा है। बैंक वाले बासी या ठंडी रोटी लेते  नहीं है ताकि खाने वाले का आत्मसम्मान भी जिंदा रहे। यह बानगी है कि यदि इच्छा शक्ति हो तो छोटे से प्रयास भी भूख पर भाारी पड़ सकते हैं।
विकास,विज्ञान, संचार व तकनीक में हर दिन कामयाबी की नई छूने वाले मुल्क में इस तरह बेरोजगारी व खाना ना मिलने से होने वाली मौतें मानवता व हमारे ज्ञान के लिए भी कलंक हैं। हर जरूरतमंद को अन्न पहुंचे इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोडा़ चुस्त-दुरूस्त होना होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनशील बनना होगा। हो सकता है कि हम इसके लिए पाकिस्तन से कुछ सीख लें जहां षादी व सार्वजनिक समारोह में पकवान की संख्या, मेहमानों की संख्या तथा खाने की बर्बादी पर सीधे गिरफ्तारी का कानून है। जबकि हमारे यहां होने वाले षादी समारोह में आमतौर पर 30 प्रतिशत खाना बेकार जाता है। गांव स्तर पर अन्न बैंक, प्रत्येक गरीब, बेरोजगार के आंकड़े रखना जैसे कार्य में सरकार से ज्यादा समाज को अग्रणी भूमिका निभानी होगी।

cash crop needs to control by demand and supply basis

खेती हो ऐसी जो लाए खुशहाली


उत्तर प्रदेश के आलू उत्पादक जिलों के कोल्ड स्टोरेज में पिछले साल का माल भरा है और नई फसल आने के बाद मंडी में इतने दाम गिर गए कि एक साल से सहेज कर रखे गए आलू को सड़क पर फेकना पड़ा है। मध्य प्रदेश के नीमच में यही हाल प्याज का हो रहा है। मंडी में कई ढेरी की तो नीलामी तक नहीं हो पा रही है। मंडी में माल खरीदी के इंतजार के लिए शहर में ठहरना किसान को महंगा पड़ रहा है, लिहाजा वह अपनी उपज को छोड़ कर चले जाते हैं। रतलाम जिले की सैलाना मंडी में प्याज, लहसुन और मटर की इतनी आवक हुई कि न तो खरीदार मिल रहे और न ही मंडी में माल रखने की जगह। राजस्थान के झालावाड़ में लहसुन का उत्पादन कोई 27 हजार एकड़ में होता है। वहां फसल तो बहुत बढ़िया हुई, लेकिन माल को इतने कम दाम पर खरीदा जा रहा है कि लहसुन की झार से ज्यादा आंसू उसके दाम सुन कर आ रहे हैं। मुल्ताई में कोई 6,400 एकड़ में किसानों ने पत्ता गोभी लगाई और उसकी शानदार फसल भी हुई, लेकिन बाजार में उसका खरीदार 40 से 50 पैसे प्रति किलो से अधिक देने को राजी नहीं।
यह हाल इन दिनों पूरे देश में है, कहीं टमाटर तो कहीं मिर्ची की शानदार फसल लागत भी नहीं निकल पा रही है। वहीं दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों की तो बात ही छोड़िए, भोपाल, जबलपुर, कानपुर जैसे शहरों में ये सब्जियां मंडी की खरीदी के दाम से दस-बीस गुना ज्यादा दाम में उपभोक्ता को मिल रही हैं। इस तरह फसल की बर्बादी केवल किसान का नुकसान नहीं है, यह उस देश में खाद्य पदार्थ की बर्बादी है जहां हर दिन करोड़ों लोग भरपेट या पौष्टिक भोजन के लिए तरसते हैं। यह देश की मिट्टी, जल, पूंजी सहित कई अन्य ऐसी चीजों का नुकसान है जिसका विपरीत असर देश, समाज की प्रगति पर पड़ता है। सनद रहे यदि ग्रामीण अंचल की अर्थव्यवस्था ठीक होगी तो देश के धन-दौलत के हालात भी सशक्त होंगे। यदि हर साल किसानों का कर्ज माफ करने की जरूरत नहीं होगी तो उस धन को विकास के अन्य कार्यो में लगाया जा सकता है। दूसरी ओर कर प्रणाली की मार भी आम लोगों पर कम पड़ेगी।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसद लोगों के पसीने से पैदा होता है। दुखद यह कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है। पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों। किसान जब ‘कैश क्रॉप’ यानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचैलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है।
दुर्भाग्य है कि संकर बीज, खाद, दवा बेचने वाली कंपनियां शानदार फसल का लोभ दिखा कर अपने उत्पाद किसान को बेच देती हैं। चूंकि किसान को प्रबंधन की सलाह देने वाला कोई होता नहीं, सो वे प्रचार के फेर में फंस कर एक सरीखी फसल उगा लेते हैं। वे न तो अपने गोदाम में रखे माल को बेचना जानते हैं और न ही मंडियां उनके हितों की संरक्षक होती हैं। किसी भी इलाके में स्थानीय उत्पाद के अनुरूप प्रसंस्करण उद्योग हैं नहीं। जाहिर है कि लहलहाती फसल किसान के चेहरे पर मुस्कान नहीं ला पाती।
समय की मांग है कि प्रत्येक जिले में फल-सब्जी उगाने वाले किसानों को उत्पाद को सीमित कोटा दिया जाए। मध्य प्रदेश के मालवा अंचल के जिन इलाकों में लोग लहसुन व अन्य उत्पाद के माकूल दाम न मिलने से हताश हैं वहीं रतलाम जिले में किसान विदेशी अमरूद की ऐसी फसल उगा रहे हैं जो कम समय में पैदा होती है, एक महीने तक पका अमरूद खराब नहीं होता और फल का आकार भी बड़ा होता है। यहां कुछ किसान अंगूर उगा रहे हैं। जाहिर है स्थानीय बाजार के अनुरूप सीमित उत्पाद उगाने से किसान को पर्याप्त मुनाफा मिल रहा है। उत्तर प्रदेश में ही कुल उपलब्ध कोल्ड स्टोरेज की क्षमता, उसमें पहले से रखे माल, नए आलू के खराब होने की अवधि और बाजार की मांग का आकलन यदि सटीक तौर पर किया जाए तो आलू की फसल को ही लाभ में बदला जा सकता है। जो किसान आलू से वंचित किया जाए उसे मटर, धनिया, गोभी, विदेशी गाजर, शलजम, चुकंदर जैसी अन्य ‘नगदी फसल’ के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
देश के जिन इलाकों में टमाटर या ऐसी फसल की अफरात के कारण किसान हताश है जो कि जल्द इस्तेमाल न होने पर खराब हो सकती है, उसके रकबे को मांग- सप्लाई के अनुसार सीमित किया जाना चाहिए। यदि हर जिले में मंडी में शीत-गृह वाले ट्रक हों तो ऐसे माल को कुछ ज्यादा दिन सुरक्षित कर बाहर भेजा जा सकता है। सबसे बड़ी बात, इन सभी सब्जियों के न्यूनतम खरीदी मूल्य घोषित किए जाएं और इससे कम की खरीद को दंडनीय अपराध बनाया जाए। साथ ही किसान के मंडी पहुंचने के 24 घंटे के भीतर माल खरीदना सुनिश्चित करना भी उनके लिए लाभदायक होगा। चूंकि अब मोबाइल पर इंटरनेट की पहुंच गांव तक है, सो सब्जी-फल उगाने वाले का रिकार्ड रखना, उन्हें मंडी के ताजा दाम बताना और ऑनलाइन खरीद का दाम व समय तय करना कठिन काम नहीं है।
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे गौण दिखते हैं। कई नकदी फसलों को बगैर सोचे-समङो प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल और तेलहन समेत अन्य खाद्य पदार्थो के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे, इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। इसके अलावा कोल्ड स्टोरेज और खाद्य प्रसंस्करण से जुड़ी किसानी हितैषी नीतियों को भी समग्रता से लागू करना होगा।

शनिवार, 8 दिसंबर 2018

book review SAMAY KE SAWAL


पुस्तक समीक्षा

भविष्य में समय मांगेगा इन सवालों के जवाब


 
मैं शहर के एक नामी अस्पताल के पास से निकल रहा था . परिसर में बनी
दूकानो में एक भव्य शो रूम दिखा , " फर्स्ट क्राई " .मैने देखा कि वहां
नवजात शिशु के उपयोग की हर ब्रांडेड वस्तु सुलभ थी . मैं उन दिनो पंकज
चतुर्वेदी की पुस्तक " समय के सवाल " पढ़ रहा था , तो मेरे मन में सहज ही प्रश्न आया कि क्या सचमुच इस मंहगे ब्रांडेड शो रूम में हमारी भावी
पीढ़ीयों के उपयोग के सारे सरंजाम उपलब्ध हैं ? क्या वातावरण की प्रदूषित
हवा , प्रदूषित जल के जबाब हम अपनी भावी नस्लों को आक्सीजन कैन या बिसलरी
की बोटलो में बंद करके ही देना चाहते हैं ? नव दम्पति और बच्चे के नाना
नानी , दादा दादी जिस प्रसन्नता से नवजात के लिये मंहगे ब्रांडेड सामान
खरीदते और प्रसन्न होते हैं , क्या समय रहते जन चेतना से  उनमें प्रकृति
संरक्षण के भाव पैदा करना जरूरी नही है . जिससे आने वाला बच्चा
नैसर्गिकता का कम से कम  उसी रूप में आनंद उठा सके , जिस रूप में हमें
हमारे बुजुर्गो ने प्रकृति को हमें सौंपा था .  इन अनुत्तरित यक्ष
प्रश्नो के जबाब ढ़ूंढ़ने और प्रकृति से की जा रही हमारी छेड़ छाड़ के
विरुद्ध हमें चेताने की एक कोशिश ही है पंकज चतुर्वेदी की किताब "समय के
सवाल" .

       
पंकज चतुर्वेदी , जल , जंगल , जमीन से जुड़े मुद्दो पर खोजी पत्रकारिता
का सुस्थापित नाम है . वे स्वयं विज्ञान के छात्र रहे हैं , शिक्षा
अभियान से जुड़े हुये हैं , बुंदेलखण्ड की मिट्टी से जुड़े हुये हैं अतः
प्रकृति से जुड़े  समसामयिक ज्वलंत विषयों पर उनकी गहरी समझ है . हमने जब
तब उन्हें यहां वहां पढ़ा ही है. वे सतही लेखन नही करते बल्कि उनके लेख
ऐसे शोध कार्य होते हैं जो आम आदमी के समझ में आ सकें , तथा जन सामान्य
के लिये उपयोगी हों . वे प्रकृति से जुड़े हर उस विषय पर जहां उनकी नजर
में कुछ गलत होता दिखता है  समाज को , सरकार को , नीति निर्माताओ को ,
क्रियांन्वयन करने वालो को और हर पाठक को समय रहते  चेताते दिखते हैं .
       
प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित कुल ५३ आलेख अलग अलग समय पर सम सामयिक
मुद्दो पर लिखे गये हैं . जिन्हें पर्यावरण , धरती , शहरीकरण , खेती ,
जंगल , जल है तो कल है इन ६ उप शीर्षको के अंतर्गत संकलित किया गया है .
सभी लेख प्रामाणिकता के साथ लिखे गये हैं  .  लेख पढ़कर समझा जा सकता है
कि लेखन के लिये उन्होने स्वयं न केवल अध्ययन किया है वरन मौके पर जाकर
देखा समझा और लोगो से बातें की हैं. 
पहला ही आलेख है " कई फुकुशिमा पनप
रहे हैं भारत में " यह लेख जापान में आई सुनामी के उपरान्त फुकुशिमा
परमाणु विद्युत संयंत्र से हुये नाभिकीय विकरण रिसाव के बाद भारतीय
संदर्भो में लिखा गया है . लेख में आंकड़े देकर उर्जा के लिये परमाणु
बिजलीघरो पर हमारी निर्भरता की समीक्षा के साथ वे चेतावनी देते हैं "
परमाणु शक्ति को बिजली में बदलना शेर पर सवारी की तरह है . "यूरेनियम
कारपोरेशन आफ इंडिया " के झारखण्ड से यूरेनियम के अयस्क खनन तथा उसके
परिशोधन के बाद बचे आणविक कचरे का निस्तारण जादूगोड़ा में आदिवासी गांवो
के बीच किया जाता है , लेखक की खोजी पत्रकारिता है कि वे आंकड़ो सहित
उल्लेख करते हैं कि इस प्रक्रिया में लगे  कितने लोग कैंसर आदि बीमारियो
से मरे . उन्होने १९७४ के पोखरण विस्फोट के बाद उस क्षेत्र के गांवो में
कैंसर के रोगियो की बढ़ी संख्या का उल्लेख भी किया है . लेख के अंत में वे
चेतावनी देते हैं कि यदि हमारे देश के बाशिंदे बीमार , कुपोषित और कमजोर
होंगे तो लाख एटमी बिजलीघर भी हमें सर्वशक्तिमान नही बना सकते .
       
आखिर कहां जाता है परमाणु बिजली घरो का कचरा ?, लेख में बुंदेल खण्ड में
किये जा रहे आणविक कचरे के निस्तारण पर चिंता जताई गई है . पेड़ पौधे भी
हैं तस्करो के निशाने पर , जरूरत है पर्यावरण के प्रति संवेदन शीलता की ,
गर्म होती धरती ,कहीं घर में ही तो नही घुटता है दम , पत्तियो को नही
तकदीर को जलाता है समाज , खोदते खोदते  खो रहे हैं पहाड़ , पालिथिन पर
पाबंदी के लिये चाहिये वैकल्पिक व्यवस्था जैसे भाग एक के लेख उनके शीर्षक
से ही अपने भीतर के विषय की जानकारी देते हैं और पाठक को आकर्षित करते
हैं .   पत्तियो को नही तकदीर को जलाता है समाज लेख में पंकज जी ने
दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का संदर्भ देकर प्रभावी तरीके से खेत के
अवशेष के प्रबंधन पर कलम चलाई है .
       
दूसरे भाग "धरती" के अंतर्गत कुल चार लेख हैं . दुनियां में बढ़ते
मरुस्थल , ग्लेशियर प्राधिकरण की आवश्यकता , बंजर जमीन की समस्या को
रेखांकित करती उनकी कलम आव्हान करते हुये कहती है कि जमीन के संरक्षण की
जबाबदारी केवल सरकारो पर है जबकि समाज का हर तबका जमीन का हर संभव दोहन
करने में व्यस्त है , यह चिंता का विषय है .
       
हमारा देश गांवो का कहा जरुर जाता है पर गांवो से शहरो की ओर अंधाधुंध
पलायन हो रहा है , इसके चलते शहरो का अनियंत्रित विस्तार होता जा रहा है
.
शहरीकरण की अपनी अलग समस्यायें हैं . इन विषयो पर लेखक ने मौलिक
चिंताये तथा अपनी समझ के अनुसार बेहतरी के सुझाव देते हुये लेख लिखे हैं
.
प्रधानमंत्री जी का स्वच्छता कार्यक्रम सहज ही सबका ध्यानाकर्षण कर रहा
है , किन्तु विडम्बना है कि हमारी मशीनरी  पाश्चात्य माडल का सदैव
अंधानुकरण कर लेती है . हास्यास्पद है कि हम डालर में मंहगा डीजल खरीदते
हैंफिर हर गांव कस्बे शहर में कचरा वाहन प्रदूषण फैलाते हुये घर घर से
कचरा इकट्ठा करते हैं  ,और वह सारा कचरा किसी खुले मैदान पर डम्प कर दिया
जाता है .  इस तरह सफाई अभियान के नाम पर विदेशी मुद्रा का अपव्यय , वायु
प्रदूषण को बढ़ावा  , जमीन का दुरुपयोग हो रहा है . बेहतर होता कि हम
साईकिल रिक्शा वाले कचरा वाहन उपयोग करते जिससे कुछ रोजगार बढ़ते , डीजल
अपव्यय न होता , प्रदूषण भी रुकता . मैने अपने एक लेख में लिखा है कि जब
बिजली की भट्टी पल भर में शव को चुटकी भर राख में बदल सकती है तो क्या
ऐसी छोटी ओवन नही बनाई जानी चाहिये जिससे हर घर में लोग अपना कचरा स्वयं
राख में तब्दील कर दें . पर हमारे मन की बात कौन सुनेगा ? हम बस लिख ही
सकते हैं .
       
पंकज जी ने ऐसे सभी विषयो पर समय पर लेख लिखकर उनके हिस्से की जबाबदारी
पूरी गंभीरता से पूरी की है . महानगरीय संस्कृति से पनपते अपराधो पर उनका
लेख सामाजिक मनोविज्ञान की उनकी गहरी समझ प्रदर्शित करता है . इस लेख में
उन्होने देह व्यापार से जेबकतरी तक की समस्याओ पर कलम चलाई है . जाने
कितने करोड़ रुपये  नदियो की साफ सफाई के नाम पर व्यय किये जाते हैं , पर
एक ही बाढ़ में सारे किये कराये  पर पानी फिर जाता है . मुम्बई , चेन्नई ,
बेंगलोर और इस साल केरल की बाढ़ प्रकृति की चेतावनी है . जिसे समझाने का
तार्किक यत्न पंकज जी ने किया है .जल मार्गो पर कूड़ा भरना उन्होने समस्या
की जड़ निरूपित किया है . उनकी पैनी नजर सड़को पर जाम की समस्या से लेकर
फ्लाईओवर तक गई है .


       
खेती और किसानी पर इस देश की राजनीती की फसलें हर चुनाव में पक रही हैं
.
कर्ज माफी के चुनावी वादे वोटो में तब्दील किये जाना आम राजनैतिक शगल
बन गया है , पंकज जी ने १२ लेख फसल बीमा , रासायनिक खादो के जहर के
प्रभाव , किसानो के लिये कोल्ड स्टोरेज की जरूरतसूखे से मुकाबले की
तैयारीबी टी बीजो की समस्या आदि पर लिखे हैं . "जब खेत नही होंगे" लेख
पढ़कर पाठक चौंकता है  . पंकज जी से मैं सहमत हूं कि " किसान भारत का
स्वाभिमान हैं . " वे लेख के अंत में वाजिब सवाल खड़ा करते हैं " हमें
जमीन क्यो चाहिये अन्न उगाने को या खेत उजाड़कर कारखाने या शहर उगाने को ?
"
       
आये दिन अखबारो में शहरो में आ जाते जंगली जानवरो की खबरे सुर्खी से
छपती हैं . बस्ती में क्यो घुस रहा है गजराज ? , शुतुरमुर्ग भी मर रहे
हैं और उनके पालक भी , घुस पैठियो का शिकार हो रहे हैं गैंडे , बगैर
चिड़िया का अभयारण्य जैसे लेख उनकी व्यापक दृष्टि  , भारत भ्रमण , और अलग
अलग विषयो पर उनकी समान पकड़ का परिचायक है . वे प्रकृति के प्रहरी कलमकार
के रूप में निखर कर सामने आते हैं .
       
कहा जाता है अगला विश्वयुद्ध पानी के लिये होगा . जल जीवन है , जल में
जीवन है और जल से ही जीवन है . जल ने जीवन सृजित किया है . वहीं जल में
विनाश की असाधारण क्षमता भी है . पानी समस्त मानवता को जोडता है  .
विभिन्न धर्मो में पानी  का प्रतीकात्मक वर्णन है .  ब्रम्हाण्ड की
संरचना और जीवन का आधार भूत तत्व पानी ही है .  जल भविष्य की वैश्विक
चुनौती है . पिछली शताब्दि में विश्व की जनसंख्या तीन गुनी हो गई है ,
जबकि पानी की खपत सात गुना बढ़ चुकी है . जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या
वृद्धि के कारण जल स्त्रोतो पर जल दोहन का असाधारण दबाव  है . विश्व की
बड़ी आबादी के लिये पेय जल की कमी  है .  जल आपदा से बचने , जल उपयोग में
हमें मितव्ययता बरतने की आवश्यकता है. "जल है तो कल है" खण्ड में लेखक ने
१० आलेख प्रस्तुत किये हैं . किंबहुना सभी लेखो  में पानी को लेकर
वैश्विक चिंता में वे बराबरी से भागीदार ही नही वरन वे अपनी ओर से
तालाबो के महत्व प्रतिपादित करते हुये समस्या का समाधान भी बताते हैं .
कूड़ा ढ़ोने का मार्ग बन गई हैं नदियां , लेख में जल संसाधन मंत्रालय के
संदर्भ उढ़ृत करते हुये वे विभिन्न नदियो में विभिन्न शहरो में प्रदूषण के
कारण बताते हैं . दिल्ली में यमुना का प्रदूषित काला पानी जन चिंता का
मुद्दा है , हिंडन जो कभी नदी थी , लेख में पंकज जी ने हिंडन को हिडन
होने से बचाने की चेतावनी दी है .
         
लेखक अपने समय का गवाह तो होता ही है , उसकी वैचारिक क्षमतायें उसे
भविष्य का पूर्वानुमान लगाने में सक्षम बना देती हैं, हमें समय के सवाल
में उठाये गये मुद्दो पर गहन चिंतन मनन और हमसे जो भी प्रकृति संरक्षण के
लिये हो सके करने को प्रेरित करती हैं .  लेखकीय में पंकज जी ने लिखा है
सुख के लोभ में कहीं हम अपनी आने वाली पीढ़ीयो के लिये विकल्प शून्य
समाज न बना दें " .
"
समय के सवाल" एक निरापद दुनियां बनाने के विमर्श का उनका खुला आमंत्रण
हैं . पुस्तक पठनीय ही नही , चिंतन मनन और क्रियांवयन का आव्हान करती सम
सामयिक कृति है

समय के सवाल
पंकज चतुर्वेदी
प्रकाशक -मध्य प्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी, रविन्द्रनाथ टैगोर मार्ग,बाण गंगा , भोपाल
पृष्ठ 322
मूल्य 200.00
 .



समीक्षात्मक टिप्पणी .. विवेक रंजन श्रीवास्तव ,बंगला नम्बर ए १ , शिला
कुन्ज , नयागांव
जबलपुर  ४८२००८

मो ७०००३७५७९८
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