गौवंश बचा सकता है पर्यावरण
मध्य प्रदेश में बाकायदा विधान सभा का गौ सत्र बुलाया गया तो छत्तीसगढ़ ने गाय का गोबर खरीदना शुरू कर दिया है, उत्तर प्रदेश सरकार ने गाय को जिबह करने पर विशेष कानून बना दिया है। हकीकत में इस समय गौ वंश को बचाने की जरूरत व्यापक स्तर पर कई कारणों से जरूरी है। एक तो बढ़ती आबादी, घटते रकबे, कोरोना को बाद उपजी मंदी-बेरोजगारी के बीच कुपोषण के बढ़ते आंकड़े और उससे भी आगे हमारे देश की वह अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता जिसमें हमें अपना कार्बन उत्सर्जन तीस से पैंतीस फीसदी कम करना है। विभिन्न सरकारों द्वारा चलाई जा रही योजनाओं से गौवंश के संरक्षण के लिए गौशालाएं तो खुल सकती हैं, लेकिन जब तक गौ वंश आज से चार दशक पहले की तरह हमारी सामाजिक-आर्थिक धुरी नहीं बनेगा, उसके संरक्षण की बता नारों सेआगे नहीं बढ़ पाएगी। यदि गंभीरता से देखें तो खेती को लाभकारी बनाने, कम कार्बन उत्सर्जन से जूझने और सभी को पौष्टिक भोजन मुहैया करवाने की मुहिम गौवंश पालन के बगैर संभव नहीं है। बस जरूरत है कि गाय को धर्म के नाम पर पालने के बनिस्पत उसकी अनिवार्यता को बढ़ावा देने की।
मानव सभ्यता के आरंभ से ही गौ वंश इंसान की विकास पथ का सहयात्री रहा है। मोईन जोदडों व हड़प्पा से मिले अवशेष साक्षी हैं कि पांच हजार साल पहले भी हमारे यहां गाय-बैल पूजनीय थे। आज भी भारत की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का मूल आधार गौ-वंश है। हालांकि भैंस के बढ़ते प्रचलन तथा कतिपय कारखाना मालिकों व पेट्रो- उद्योग के दबाव में गांवों में अब टैÑक्टर व अन्य मशीनों की प्रयोग बढ़ा है, लेकिन यह बात अब धीरे-धीरे समझ आने लगी है कि हल खींचने, पटेला फेरने, अनाज से दानों व भूसे को अलग करने फसल काटने, पानी खींचने और अनाज के परिवहन में छोटे किसानों के लिए बैल ना केवल किफायती हैं, बल्कि धरती व पर्यावरण का संरक्षक भी है। आज भी अनुमान है कि बैल हर साल एक अरब 20 करोड़ घंटे हल चलाते हैं। गौ रक्षा के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को यह बात जान लेना चाहिए कि अब केवल धर्म, आस्था या देवी-देवता के नाम पर गाय को बचाने की बात करना न तो व्याहवारिक है और न तार्किक। जरूरी है कि लोगों को यह संदेश दिया कि गाय केवल अर्थ व्यवस्था ही नहीं पर्यावरण की भी संरक्षक है और इसी लिए इसे बचाना जरूरी है।
एक सरकारी अनुमान है कि आने वाले आठ सालों में भारत की सड़कों पर कोई 27 करोड़ आवारा मवेशी होंगे। यदि उन्हें सलीके से रखना हो तो उसका व्यय पांच लाख 40 हजार करोड़ होगा। जबकि इतना ही पशु धन तैयार करने का व्यय कई हजार करोड़ होगा। हमारे पास यह धन पहले से उपलब्ध है, बस हम इसका सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। भारत की गाय का दुग्ध उत्पादन दुनिया में सबसे कम है। डेनमार्क में दूध देने वाली प्रत्येक गाय का वार्षिक उत्पादन औसत 4101 लीटर है, स्विटजरलैंड में 4156 लीटर, अमेरिका में 5386 और इंग्लैंड में 4773 लीटर है। वहीं भारत की गाय सालाना 500 लीटर से भी कम दूध देती है। उधर, यदि बरेली के आईवीआरआई यानि इंडियन वेटेनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट में जा कर देखें तो वहां केवल चार किस्म की भारतीय गौ नस्लों पर काम हो रहा है और ब्रंदावनी व थारपार जैसी किस्म की गायें एक दिन में 22 लीटर तक दूध देती हैं। हां, ये गायें कुछ महंगी जरूर हैं सो इनका प्रचलन बहुत कम है। जाहिर है कि भारत में गाय पालना बेहद घाटे का सौदा है। तभी जब गाय दूध देती है तब तो पालक उसे घर रखता है और जब वह सूख जाती है तो सड़क पर छोड़ देता है।
ऐसा नहीं है कि पहले बूढ़ी गायों हुआ नहीं करती थीं, लेकिन चारे के लिए सन 1968 तक देश के हर गांव-मजरे में तीन करोड़ 32 लाख 50 हजार एकड़ गौचर की जमीन हुआ करती थी। सनद रहे कि चरागाह की जमीन बेचने या उसका अन्य काम में इस्तेमाल पर हर तरह की रोक है। शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां पशुओं को चरने की जमीन के साथ कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाब भी पी गए। जाहिर है कि ऐसे मे निराश्रित पशु आपके खेत के ही सहारे रहेगा।
गौ वंश पालन से दूध व उसके उत्पाद को बढ़ा कर कम कीमत पर स्थानीय पौष्टिक आहार को उपजाया जा सकता है। गाय व बैल का ग्रामीण विकास व खेती में इस्तेमाल हमारे देश को डीजल खरीदने में व्यय होने वाली विदेशी मुद्रा के भार से भी बचाता है, साथ ही डीजल से संचालित ट्रैक्टर, पंप व अन्य उपकरणों से होने वाले घातक प्रदूशण से भी निजात दिलवाता है। वहीं छोटे रकबे के किसान के लिए बैल का इस्तेमाल ट्रैक्टर के बनिस्पत सस्ता व पर्यावरण मित्र होता है ।
गोबर और गौमूत्र का खेती-किसानी में इस्तेमाल ना केवल लागत कम करता है, बल्कि गोबर का खेत में इस्तेमाल भी कार्बन मात्रा को नियंत्रित करने का बड़ा जरिया है। फसल अवशेष जिन्हें जलाना इस समय बड़ी समस्या है, गौवंश के इस्तेमाल बढ़ने पर उनके आहार में प्रयुक्त हो जाएगा। दुर्भाग्य है कि हमारा रजनीतिक नेतृत्व वैज्ञानिकता से परे भावनात्मक बातों से गाय पालना चाहता है। अभी मध्य प्रदेश में ही घोषणा कर दी गई कि मिड डे का भोजन लकड़ी की जगह गाय के गोबर के उपलों पर बनेगा। असल में उपलों को जलाने से उष्मा कम मिलती है और कार्बन व अन्य वायु-प्रदूषक तत्व अधिक। इसकी जगह गोबर का कंपोस्ट के रूप में इस्तेमाल ज्यादा परिणामदायी होता है। कहा जाता था कि भारत सोने की चिड़िया था।
हम गलत अनुमान लगाते हैं कि हमारे देश में पीले रंग की धातु सोने का अंबार था। वास्तव में हमारे खेत और हमारे मवेशी हमारे लिए सोने से अधिक कीमती थे। कौन कहता है कि अब भारत सोने की चिड़िया नहीं रहा। सोना अभी भी यहां के चप्पे-चप्पे में बिखरा हुआ है। दुर्भाग्य है कि उसे चूल्हों में जलाया जा रहा है। यह तथ्य सरकार में बैठे लोाग जानते हैं कि भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है। इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है। इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है। ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता है। चीन में डेढ करोड परिवारों को घरेलू उर्जा के लिए गोबर गैस की सप्लाई होती है। यदि गोबर का सही इस्तेमाल हो तो हर साल छह करोड़ टन के लगभग लकड़ी को बचाया जा सकता है। साढे तीन करोड़ टन कोयला बच सकता है। इसे कई करोड़ लोगों को रोजगार मिल सकता है।