My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 26 नवंबर 2020

Cow live stock can save the environment

 गौवंश बचा सकता है पर्यावरण


 मध्य प्रदेश में बाकायदा विधान सभा का गौ सत्र बुलाया गया तो छत्तीसगढ़ ने गाय का गोबर खरीदना शुरू कर दिया है, उत्तर प्रदेश सरकार ने गाय को जिबह करने पर विशेष कानून बना दिया है।  हकीकत में इस समय गौ वंश को बचाने की जरूरत व्यापक स्तर पर कई कारणों से जरूरी है। एक तो बढ़ती आबादी, घटते रकबे, कोरोना को बाद उपजी मंदी-बेरोजगारी के बीच कुपोषण के बढ़ते आंकड़े और उससे भी आगे हमारे देश की वह अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता जिसमें हमें अपना कार्बन उत्सर्जन तीस से पैंतीस फीसदी कम करना है। विभिन्न सरकारों द्वारा चलाई जा रही योजनाओं से गौवंश के संरक्षण  के लिए गौशालाएं तो खुल सकती हैं, लेकिन जब तक गौ वंश आज से चार दशक पहले की तरह हमारी सामाजिक-आर्थिक  धुरी नहीं बनेगा, उसके संरक्षण की बता नारों सेआगे नहीं बढ़ पाएगी। यदि गंभीरता से देखें तो खेती को लाभकारी बनाने, कम कार्बन उत्सर्जन से जूझने और सभी को पौष्टिक भोजन मुहैया करवाने की मुहिम गौवंश पालन के बगैर संभव नहीं है। बस जरूरत है कि गाय को धर्म के नाम पर पालने के बनिस्पत उसकी अनिवार्यता को बढ़ावा देने की।



मानव सभ्यता के आरंभ से ही गौ वंश इंसान की विकास पथ का सहयात्री रहा है। मोईन जोदडों व हड़प्पा से मिले अवशेष साक्षी हैं कि पांच हजार साल पहले भी हमारे यहां गाय-बैल पूजनीय थे। आज भी भारत की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का मूल आधार गौ-वंश है। हालांकि भैंस के बढ़ते प्रचलन तथा कतिपय कारखाना मालिकों व पेट्रो- उद्योग के दबाव में गांवों में अब टैÑक्टर व अन्य मशीनों की प्रयोग बढ़ा है, लेकिन यह बात अब धीरे-धीरे समझ आने लगी है कि हल खींचने, पटेला फेरने, अनाज से दानों व भूसे को अलग करने फसल काटने, पानी खींचने और अनाज के परिवहन में छोटे किसानों के लिए बैल ना केवल किफायती हैं, बल्कि धरती व पर्यावरण का संरक्षक भी है। आज भी अनुमान है कि बैल हर साल एक अरब 20 करोड़ घंटे हल चलाते हैं। गौ रक्षा के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को यह बात जान लेना चाहिए कि अब केवल धर्म, आस्था या देवी-देवता के नाम पर गाय को बचाने की बात करना न तो व्याहवारिक है और न तार्किक। जरूरी है कि लोगों को यह संदेश दिया कि गाय केवल अर्थ व्यवस्था ही नहीं पर्यावरण की भी संरक्षक है और इसी लिए इसे बचाना जरूरी है।


एक सरकारी अनुमान है कि आने वाले आठ सालों में भारत की सड़कों पर कोई 27 करोड़ आवारा मवेशी होंगे। यदि उन्हें सलीके से रखना हो तो उसका व्यय पांच लाख 40 हजार करोड़ होगा। जबकि इतना ही पशु धन तैयार करने का व्यय कई हजार करोड़ होगा। हमारे पास यह धन पहले से उपलब्ध है, बस हम इसका सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। भारत की गाय का दुग्ध उत्पादन दुनिया में सबसे कम है। डेनमार्क में दूध देने वाली प्रत्येक गाय का वार्षिक उत्पादन औसत 4101 लीटर है, स्विटजरलैंड में 4156 लीटर, अमेरिका में 5386 और इंग्लैंड में 4773 लीटर है। वहीं भारत की गाय सालाना 500 लीटर से भी कम दूध देती है। उधर, यदि बरेली के आईवीआरआई यानि इंडियन वेटेनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट में जा कर देखें तो वहां केवल चार किस्म की भारतीय गौ नस्लों पर काम हो रहा है और ब्रंदावनी व थारपार जैसी किस्म की गायें एक दिन में 22 लीटर तक दूध देती हैं। हां, ये गायें कुछ महंगी जरूर हैं सो इनका प्रचलन बहुत कम है। जाहिर है कि भारत में गाय पालना बेहद घाटे का सौदा है। तभी जब गाय दूध देती है तब तो पालक उसे घर रखता है और जब वह सूख जाती है तो सड़क पर छोड़ देता है।


ऐसा नहीं है कि पहले बूढ़ी गायों हुआ नहीं करती थीं, लेकिन चारे के लिए सन 1968 तक देश के हर गांव-मजरे में तीन करोड़ 32 लाख 50 हजार एकड़ गौचर की जमीन हुआ करती थी। सनद रहे कि चरागाह की जमीन बेचने या उसका अन्य काम में इस्तेमाल पर हर तरह की रोक है। शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां पशुओं को चरने की जमीन के साथ कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाब भी पी गए। जाहिर है कि ऐसे मे  निराश्रित पशु आपके खेत के ही सहारे रहेगा।

गौ वंश पालन से दूध व उसके उत्पाद को बढ़ा कर कम कीमत पर स्थानीय पौष्टिक आहार को उपजाया जा सकता है। गाय व बैल का ग्रामीण विकास व खेती में इस्तेमाल हमारे देश को डीजल खरीदने में व्यय होने वाली विदेशी मुद्रा के भार से भी बचाता है, साथ ही डीजल से संचालित ट्रैक्टर, पंप व अन्य उपकरणों से होने वाले घातक प्रदूशण से भी निजात दिलवाता है। वहीं छोटे रकबे के किसान के लिए बैल का इस्तेमाल ट्रैक्टर के बनिस्पत सस्ता व पर्यावरण मित्र होता है ।




गोबर और गौमूत्र का खेती-किसानी में इस्तेमाल ना केवल लागत कम करता है, बल्कि गोबर का खेत में इस्तेमाल भी कार्बन मात्रा को नियंत्रित करने का बड़ा जरिया है। फसल अवशेष जिन्हें जलाना इस समय बड़ी समस्या है, गौवंश के  इस्तेमाल बढ़ने पर उनके आहार में प्रयुक्त हो जाएगा। दुर्भाग्य है कि हमारा रजनीतिक नेतृत्व वैज्ञानिकता से परे भावनात्मक बातों से गाय पालना चाहता है। अभी मध्य प्रदेश में ही घोषणा कर दी गई कि मिड डे का भोजन लकड़ी की जगह गाय के गोबर के उपलों पर बनेगा। असल में उपलों को जलाने से उष्मा कम मिलती है और कार्बन व अन्य वायु-प्रदूषक तत्व अधिक। इसकी जगह गोबर का कंपोस्ट के रूप में इस्तेमाल ज्यादा परिणामदायी होता है। कहा जाता था कि भारत सोने की चिड़िया था। 


हम गलत अनुमान लगाते हैं कि हमारे देश में पीले रंग की धातु सोने का अंबार था। वास्तव में हमारे खेत और हमारे मवेशी हमारे लिए सोने से अधिक कीमती थे। कौन कहता है कि अब भारत सोने की चिड़िया नहीं रहा। सोना अभी भी यहां के चप्पे-चप्पे में बिखरा हुआ है। दुर्भाग्य है कि उसे चूल्हों में जलाया जा रहा है। यह तथ्य सरकार में बैठे लोाग जानते हैं कि भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है। इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है। इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है। ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता है। चीन में डेढ करोड परिवारों को घरेलू उर्जा के लिए गोबर गैस की सप्लाई होती है। यदि गोबर का सही इस्तेमाल हो तो हर साल छह करोड़ टन के लगभग लकड़ी को बचाया जा सकता है। साढे तीन करोड़ टन कोयला बच सकता है। इसे कई करोड़ लोगों को रोजगार  मिल सकता है।

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

Chhath celebration should be commitment for conserve water bodies

 छट पर हो जल निधियों के संरक्षण का संकल्प 

पंकज चतुर्वेदी 


 

छट की दस्तक होते ही देशभर में बसे पूर्वाचल के लोग अपने पास-पड़ोस के तालाब, पोखर,  नदी घाट को सहेजने मंे ंलग गए हैं। दीपावली के ठीक बाद में बिहार व पूर्वी राज्यों में मनाया जाने वाला छट पर्व अब प्रवासी बिहारियों के साथ-साथ सारे देश में फैल गया है। गोवा से लेकर मुंबई और भोपाल से ले कर बंगलूरू तक, जहां भी पूर्वांचल के लोग बसे हैं, कठिन तप के पर्व छट को हरसंभव उपलब्ध जल-निधि के तट पर मनाना नहीं भूलते है। वास्तविकता यह भी है कि छट को भले ही प्रकृति पूजा और पर्यावरण का पर्व बताया जा रहा हो, लेकिन इसकी हकीकत से दो चार होना तब पड़ता है जब उगते सूर्य को अर्ध्य दे कर पर्व का समापन होता है और श्रद्धालु घर लौट जाते हैं। पटना की गंगा हो या दिल्ली की यमुना या भोपाल का षाहपुरा तालाब या दूरस्थ अंचल की कोई भी जल-निधि, सभी जगह एक जैसा दृश्य होता है- पूरे तट पर गंदगी, बिखरी पॉलीथीन , उपेक्षित-गंदला रह जाता है वह तट जिसका एक किनारा पाने के लिए अभी कुछ देर पहले तक मारा-मार मची थी।  हमारे पुरखों ने जब  छट जैसे पर्व की कल्पना की थी तब निश्चित ही उन्हांेने  हमारी जल निधियों को एक उपभोग की वस्तु के बनिस्पत साल भर श्रद्धा व आस्था से सहेजने  केजतन के रूप में स्थापित किया होगा।

देश के सबसे आधुनिक नगर का दावा करने वाले दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा की तरफ सरपट दौड़ती चौड़ी सडक के किनारे बसे कुलेसरा व लखरावनी गांव पूरी तरह हिंडन नदी के तट पर हैं। हिंडन यमूुना की सहायक नदी है लेकिन अपने उद्गम के तत्काल बाद ही सहारनपुर जिले से इसका जल जहरीला होना जो षुरू होता है तो अपने यमुना में मिलन स्थल, ग्रेटर नोएडा तक हर कदम पर दूशित होता जाता है। ऐसी ही मटमैली हिंडन के किनारे बसे इन दो गांवों की आबादी दो लाख पहुंच गई है। अधिकांश वाशिंदे सुदूर इलाकों से आए मेहनत-मजदूरी करने वाले हैं। उनको हिंडन घाट की याद केवल दीपावली के बाद छट पूजा के समय आती है। वैसे तो घाट  के आसपास का इलाका एक तरह से सार्वजनिक षौचालय बना रहता है, लेकिन दीपावली के बाद अचानक ही गांव वाले घाटों की सफाई, रंगाई-पुताई करने लगते हैं। राजनीतिक वजन लगाया जाता है तो इस नाबदान बनी नदी का गंदा बहाव रोक कर इसमें गंगा जल भर दिया जाता है। छट के छत्तीस घंटे बड़ी रौनक होती है यहां और उसके बाद षेश 361 दिन वहीं गंदगी, बीड़ी-शराब पीने वालों का जमावड़ा । पर्व समाप्ति के अगले ही दिन उसी घाट पर लोग षौच जाते हैं जहां अभी भी प्रसाद के अंश पड़े होते हैं। जिस नदी में भक्त खड़े थे, वह देखते ही देखते काला-बदबूदार नाला बन जाती है, पूरे गांव का गंदा पानी का निस्तार भी इसी में होता है।

छट पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न दिया, जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भाव। असल में यह दो ऋतुओं के संक्रमण-काल में षरीर को पित्त-कफ और वात की व्याधियों से निरापद रखने के लिए गढ़ा गया अवसर था। 

सनातन धर्म में छट एक ऐसा पर्व है जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानि सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है।  धरती पर जीवन के लिए, पृथ्वीवासियों के स्वास्थ्य की कामना और भास्कर के प्रताप से धरतीवासियों की समृद्धि के लिए भक्तगण सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण को जलाशय से टकरा कर अपने षरीर पर लेना, वास्तव में एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वृत करने वाली महिलाओं के भेाजन में कैल्श्यिम की प्रचुर मात्रा होती है, जोकि महिलाओं की हड्डियों की सुदृढता के लिए अनिवाय भी है। वहीं सूर्य की किरणों से महिलओं को साल भर के लिए जरूरी विटामिन डी मिल जाता है। यह विटामिन डी कैल्श्यिम को पचाने में भी मदद करता है। तप-वृत से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मस्तिश्क से दूर रहते हैं। 

वास्तव में यह बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जल निधियों के तटों ंपर बह कर आए कूड़े को साफ करने, अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी हो सकें, दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोशित करने और विटामिन के स्त्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है।  इसकी जगह ले ली- आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंसकृति वाले गीतों ने , आतिशबाजी,घाटों की दिखावटी सफाई, नेातागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने। अस्थाई जल-कुंड या सोसायटी के स्वीमिग पुल में छट पूजा की औपचारिकता पूरा करना असल में इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें , संकल्प करें कि पूरे साल इस स्थान को देव-तुल्य सहेजेंगे और फिर पूजा करें । इसकी जगह अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसके गंदा, बदबूदार छोड़ देना तो इसकी आत्मा को मारना ही है। यही नहीं जिस जल में वृत करने वाली महिलाएं खड़ी रहती हैं, वह भी इतना दूशित होता है कि उनके पैरों और यहां तक कि गुप्तांगों में संक्रमण की संभावना बनी रहती है। पर्व समाप्त होते ही चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेशी और उसमें से कुछ अपने लिए कीमती तलाशते गरीब बच्चे, आस्था की औपचारिकता को उजागर करते हैं।

काश, छट पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जल-निधियों की पवित्रता, सव्च्छता के संदेश को आस्था के साथ व्याहवारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ो की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है। हर साल छट पर्व पर यदि देश भर की जल निधियों को हर महीने  मिल-जुल कर स्वच्छ बनाने का, देशभर में हजार तालाब खोदने और उन्हें संरक्षित करने का संकल्प हो, दस हजार पुराने तालाबों में गंदगी जाने से रोकने का उपक्रम हो , नदियों के घाट पर साबुन, प्लास्टिक  और अन्य गंदगी ना ले जाने की षपथ हो तो छट के असली प्रताप और प्रभाव को देखा जा सकेगा। 


सोमवार, 16 नवंबर 2020

Delhi May have acid rain due to air pollution and crackers

 तो तेजाब बरसता आसमान से 

                                                                                                                                           पंकज चतुर्वेदी



लाख डर, आदेश और अपील को दरकिनार कर दिल्ली व उसके आसपास की गगनचुबी इमारतों में रहने वाले लोगों ने दीपावली पर इतनी आतिशबाजी चलाई कि हवा के जहरीले होने का बीते चार साल का रिकार्ड टूट गया। दीपावली की रात दिल्ली में कई जगह वायु की गुणवत्ता अर्थात एयर क्वालिटि इंडेक्स, एक्यूआई 900 के पार था, अर्थात  लगभग एक गैस चैंबर के मानिंद जिसमें नवजात बच्चों का जीना मुष्किल है, संास या दिल के रोगियों के जीवन पर इतना गहरा संकट कि स्तरीय चिकित्या तंत्र भी उससे उबरने की गारंटी नहीं दे सकता। बीते एक महीने से एनजीटी से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक में जहरीली हवा के जूझने के तरीकों पर सख्ती से आदेष हो रहे थे। आतिषबाजी न जलाने की अपील वाले लाखों रूपए के विज्ञापन पर चैहरे चमकाए जा रहे थे, दावे तो यह भी थे कि आतिषबाजी बिकने ही नहीं दी जा रही, उप्र में कई जगह छापे व करोड़ों के बम-पटाखे जब्त करने की वाहवाही के इष्तेहार दिखे। जैसे ही धन धन्य, ज्ञान और सबल स्वास्थ्य की आकांक्षा के  लिए अर्चना के दीप जले, क्या दिल्ली या गाजियाबद, लखनंऊ से ले कर भोपाल तक धमाकां व धुएं के साथ कानून की धज्जियां उड़ते सभी ने देख लिया। अकेले गाजियाबाद के जिला अस्पताल में उस रात सांस उखड़ने के साढे पांच सौ रोगी पहुंचे।

यह बात मौसम विभाग बता चुका था कि पश्चिमी विक्षोप के कारण बन रहे कम दवाब के चलते दीवाली के अगले दिन बरसात होगी। हुआ भी ऐसा ही। हालांकि दिल्ली एनसीआर में थोड़ाा ही पानी बरसा और उतनी ही देर में दिल्ली के दमकल विभाग को 57 ऐसे फोन आए जिसमें बताया गया कि आसमान से कुछ तेलीय पदार्थ गिर रहा है जिससे सउ़कों पर फिसलन हो रही है। असल में यह वायुमंडल में ऊंचाई तक छाए ऐसे छूल कण का कीचड़ था जो लोगों की सांस घांटे रहा था। यदि दिल्ली इलाके में बरसात ज्यादा हो जाती तो मुमकिन है कि अम्ल-वर्षा के हालात बन जाते। सनद रहे अधिकांश पटाखे सल्फरडाय आक्साईड और मेग्नेशियम क्लोरेट के रसायनों से बनते हैं जिनका धुआं इन दिनों दिल्ली के वायुमंडल में टिका हुआ है। इनमें पानी का मिश्रण होते ही सल्फूरिक एसिड व क्लोरिक एसिड बनने की संभावना होती है। यदि ऐसा होता तो हालात बेहद भयावह हाते और उसका असर हरियाली, पशु-पक्षी पर भी होता। जिस जह ऐसी बसात का पानी जमा होता, वह बंजर हो जाती। 

य िबात अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए चिंता का विषय बन गई है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की  हवा बेहद विषाक्त है। इसके कारण राजनयिकों , निेवेश आदि के इस क्षेत्र में आने की संभावना कम हो जाती है। एक्यूआई 500 होने का अर्थ होता है कि अब यह हवा इंसान के सांस लेने लायक बची नहीं, जो समाज किसान की पराली को हवा गंदा करने के लिए कोस रहा था , उसने दो-तीन घंटे में ही कोरोना से उपजी बेराजगारी व मंदी, प्रकृति के संरक्षण के दावो, कानू के सम्मान सभी को कुचल कर रख दिया और हवा के जहर को  दुनिया के सबसे दूशित षहर के स्तर के भी पार कर दिया।  कानून का भय, सामाजिक अपील सबकुछ नाकाम रहे लेकिन भारी-भरकम मेडिकल बिल देने को राजी समाज ने सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेष के बाद भी समय, आवाज की कोई भी सीमा नहीं मानी । दिल्ली से सटे गाजियाबाद के स्थानीय निकाय का कहना है कि केवल एक रात में पटाखों के कारण दो सौ टन अतिरिक्त कचरा निकला। जब हवा में कतई गति नहीं है और आतिषबादी के रासायनिक धुएं से निर्मित स्मॉग के जहरीले कण भारी होने के कारण उपर उठ नहीं पाते व इंसान की पहुंच वाले वायुमंडल में ही रह जाते हैं। जब इंसान सांस लेता है तो ये फैंफड़े में पहुंच जाते हैं। जब फंफड़ों का दुष्मन कोरोना का वायरस हमारे आसपास मंडरा रहा हो ऐसे में आतिषबादी ने उत्प्रेरक का काम किया है और हो सकता है कि आने वाले दिन में कोविड-19 और भयावह तरीके से उभरे। किस तरह दमे और सांस की बीमारी के मरीज बेहाल रहे, कई हजार लोग ब्लड प्रेषर व हार्ट अटैक की चपेट में आए- इसके किस्से हर कस्बे, षहर में हैं। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि केवल एक रात में पूरे देष में हवा इतनी जहर हो गई कि 68 करोड़ लेागों की जिंदगी तीन साल कम हो गई। 


दीपावली की अतिषबाजी ने राजधानी दिल्ली की आवोहवा को इतना जहरीला कर दिया गया कि बाकायदा एक सरकारी सलाह जारी की गई थी कि यदि जरूरी ना हो तो घर से ना निकलें। फैंफडों को जहर से भर कर अस्थमा व कैंसर जैसी बीमारी देने वाले पीएम यानि पार्टिक्यूलर मैटर अर्थात हवा में मौजूद छोटे कणों की निर्धारित सीमा 60 से 100 माईक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि दीपावली के बादयह सीमा कई जगह एक हजार  के पार तक हो गई। ठीक यही हाल ना केवल देष के अन्य महानगरों के बल्कि प्रदेषेां की राजधानी व मंझोले षहरों के भी थे । सनद रहे कि पटाखें जलाने से निकले धुंए में सल्फर डाय आक्साईड, नाईट्रोजन डाय आक्साईड, कार्बन मोनो आक्साईड, षीषा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर सांसों के जरिये षरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेष में मौजूद पषु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाए तो भयानक वायु प्रदूशण होता है। यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाईकल किया जाए तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डंपिंग में यूं ही पड़ा रहने दिया जाए तो इसके विशैले  कण जमीन में जज्ब हो कर भूजल व जमीन को स्थाई व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिषबाजी से उपजे षोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े व बीमार लोग भुगतते ही हैं। 



यह जान लें कि दीपावली पर परंपराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाईयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है। हालांकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि आतिषबाजी चलाना सनातन धर्म की किसी परंपरा का हिस्सा है, यह तो कुछ दषक पहले विस्तारित हुई सामाजिक त्रासदी है। आतिषबाजी पर नियंत्रित करने के लिए अगले साल दीपावली का इंतजार करने से बेहतर होगा कि अभी से ही आतिषबाजियों में प्रयुक्त सामग्री व आवाज पर नियंत्रण, दीपावली के दौरान हुए अग्निकांड, बीमार लोग , बेहाल जानवरों की सच्ची कहानियां सतत प्रचार माध्यमों व पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से आम लेागों तक पहुंचाने का कार्य षुरू किया जाए। यह जानना जरूरी है कि दीपावली असल में प्रकृति पूजा का पर्व है, यह समृद्धि के आगमन और पषु धन के सम्मान का प्रतीक है । इसका राश्ट्रवाद और धार्मिकता से भी कोई ताल्लुक नहीं है। यह गैरकानूनी व मानव-द्रोही कदम है। 

इस बार समाज ने कोरोना, मदी, पहले से ही हवा के जहर होने के बावजूद दीपावली पर जिस तरह मनमानी दिखाई उससे स्पश्ट है कि अब आतिषबाजी पर पूर्ण पाबंदी के लिए अगले साल दीपावली का इंतजार करने के बनिस्पत, सभ्य समाज और जागरूक सरकार को अभी से काम करना होगा। सारे साल पटाखें के दुश्प्रभाव के सच्चे-किस्से, उससे हैरान-परेषान जानवरों के वीडियो, उससे फैली गंदगी से कुरूप हुई धरती के चित्र आदि व्यापक रूप से प्रसारित-प्रचारित करना चाहिए , विद्यालयों और आरडब्लूए में इस पर सारे साल कार्यक्रम करना चाहिए। ताकि अपने परिवेष की हवा को स्वच्छ रखने का संकल्प महज रस्मअदायगी ना बन जाये । 


गुरुवार, 12 नवंबर 2020

Land erosion on the beaches

 किनारों को खाते समुद्र

पंकज चतुर्वेदी



देश के दक्षिणी राज्यों कर्नाटक, केरल, और तमिलनाडु में समुद्र तट पर हजारों गांवों पर इन दिनों सागर की अथाह लहरों का आतंक मंडरा रहा है । समुद्र की तेज लहरें तट को काट देती हैं और देखते ही देखते आबादी के स्थान पर नीले समुद्र का कब्जा हो जाता है । किनारे की बस्तियों में रहने वाले मछुआरे अपनी झोपड़ियां और पीछे  कर लेते हैं। कुछ ही महीनों में वे कई किलोमीटर पीछे खिसक आए हैं । अब आगे समुद्र है और पीछे जाने को जगह नहीं बची है । कई जगह पर तो समुद्र में मिलने वाली छोटी-बड़ी नदियों को सागर का खारा पानी हड़प कर गया है, सो इलाके में पीने, खेती और अन्य उपयोग के लिए पानी का टोटा हो गया है ।

कर्नाटक में उल्लाल के पास स्थित मछुआरों का गांव काटेपुरा गत तीन-चार सालों में कोई एक किमी पीछे खिसक चुका है। वहां बहने वाली नेत्रवती नदी से सागर की दूरी बामुश्किल सौ मीटर बची है । मरावंथे गांव किसी भी दिन समुद्र के उदरस्थ हो जाएगा । यहां उमड़ते समुद्र और नदी के बीच की महज एक पतली सी सड़क बची है । 

्र

समुद्र की जल सीमा में हो रहे फैलाव का अभी तक कोई ठोस कारण नहीं खोजा जा सका है । कर्नाटक के सिंचाई विभाग द्वारा तैयार की गई ‘राष्ट्रीय समुद्र तट संरक्षण रिर्पोट’ में कहा गया है कि सागर-लहरों की दिशा बदलना कई बातों पर निर्भर करता है । लेकिन इसका सबसे बडा कारण समुद्र के किनारों पर बढ़ते औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से तटों पर हरियाली का गायब होना है । इसके अलावा हवा का रुख, ज्वार-भाटे और नदियों के बहाव में आ रहे बदलाव भी समुद्र को प्रभावित कर रहे हैं । कई भौगोलिक परिस्थतियां जैसे- बहुत सारी नदियों के समुद्र में मिलन स्थल पर बनीं अलग-अलग कई खाड़ियों की मौजूदगी और नदी-मुख की स्थिति में लगातार बदलाव भी समुद्र के अस्थिर व्यवहार के लिए जिम्मेदार है । ओजोन पट्टी के नष्ट होने और वायुमंडल में कार्बन मोनो आक्साईड की मात्रा बढ़ने से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है । इससे समुद्री जल का स्तर बढ़ना भी इस तबाही का एक कारक हो सकता है ।


राष्ट्रीय समुद्र तट संरक्षण रिर्पोट में भी चिंता जताई गई है कि समस्या को एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर  मोड़ देने से दीर्घजीवी निदान की उम्मीद नहीं की जा सकती है । समुद्र के विस्तार की समस्या केवल कर्नाटक या दक्षिणी राज्यों तक सीमित नहीं है, इसका असर मुंबई, कलकत्ता, पुरी और द्वीप समूहों में भी देखा जा रहा है । वैसे ही बढ़ती आबादी के चलते जमीन की कमी विस्फोटक हालात पैदा कर रही है । ऐसे में बेशकीमती जमीन को समुद्र का शिकार होने से बचाने के लिए केंद्र सरकार को ही त्वरित सोचना होगा ।

पुरी के  समुद्र तट को देश के सबसे खूबसूरत समुद्र तटों में गिना जाता था। आज वहां की हरियाली गायब है, सारे कायदे-कानून तोड़ कर तट से सट कर बने होटलों व शहर की बढ़ती आबादी की नालियां सीधे समुद्र में गिर रही हैं। अंधाधुंध पर्यटन और समुद्र तट संरक्षण के कानूनों के प्रति उदासीनता के चलते देश के समुद्र तटों पर गंभीर पर्यावरण खतरा मंडरा रहा है। गोवा तो पूरी तरह समुद्र के तट पर ही बसा है और यहां कई जगह समुद्र की लहरें जमीन के काट कर बस्ती में घुसती दिखती हैं। 

वैसे सन 1991 में एक समुद्र तट बंदोबस्त क्षेत्र (कोस्टल रेगुलेशन जोन यानि सीआरजेड) कानून लागू किया गया था । इसके तहत  समुद्र तट के 500 मीटर के भीतर किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगा दी गई थी । साथ ही समुद्र में शहरी या औद्योगिक कचरे को फैंकने पर पाबंदी का भी इसमें प्रावधान था । दुर्भाग्य है कि शायद ही कहीं इसका पालन हो रहा है। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 में तहत बनाए गए सीआरजेड में समुद्र में आए ज्वार की अधिकतम सीमा से 500 मीटर और भाटे के बीच के क्षेत्र को संरक्षित घोषित किया गया है। इसमें समुद्र, खाड़ी, उसमें मिलने आ रहे नदी के प्रवाह को भी शामिल किया गया है।  ज्वार यानि समुद्र की लहरों की अधिकतम सीमा के 500 मीटर क्षेत्र को पर्यावरणीय संवेदनशील घोषित कर इसे एनडीजेड यानि नो डेवलपमेंट जोन(किसी भी निर्माण के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र) घोषित किया गया ।

सीआरजेड कानून लागू होने के इतने सालों बाद भी समुद्र तटों के गांवों में नए मकान बनना और जमीन की खरीद-बिक्री जारी है । कनार्टक और केरल में कुछ जगहों पर गांव वालों व प्राधिकरण के अधिकारियों के टकराव भी हुए । कई बार ग्रामीण पंचायत से मिली अनुमति व उस पर चुकाए जाने वाले टैक्स की रसीदें दिखा कर सिद्ध कर देते हैं कि निर्माण कार्य नया नहीं है,वह तो पुराने मकानों की मरम्मत है। अधिकारियों के पास सैटेलाईट से तैयार नक्शे हैं । इस पर लोगों का कहना है कि सैटैलाईट से नारियल के पेड़ तो आ जाते हैं , लेकिन उसके बीच बने छोटे झोपड़ों की फोटो बनाना संभव नहीं होता है।

यह सरकारी रिकार्ड में दर्ज है कि कनार्टक के  दक्षिण कन्नड़ा जिले में 10 स्थानों पर, उडिपी में 24 और उत्तरी कन्नड़ा में 11 मामलों में सरकार के निर्माण कार्य ही सीआरजेड के प्रावधानों का उल्लंघन थे । कई स्थानों पर सड़कें, होटल, मकानों को बनवाते समय सरकार ने ही कानून की परवाह नहीं की । हां, एक बात और जानना जरूरी है कि सीआरजेड कानून में पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर इतनी गुंजाईश जरूर छोड़ी गई है, जिसका दुरूपयोग रूतबेदार लोगों के लिए किया जा सके ।यदि शहरी क्षेत्रों में सीआरजेड कानून को कड़ाई से लागू नहीं किया गया तो स्वच्छ निर्मल समुद्रों के तट भी कानपुर में गंगा या दिल्ली में यमुना की ही तरह हो जाएंगे ।


पंकज चतुर्वेदी


शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

Say no to crackers to enjoy traditions of Deewali

 दीवाली की मूल भावना को भी समझो




एक तो जहरीली हवा और फिर कोरोना का खतरा, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने 07 से 30 नवंबर तक  आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबंदी की सलाह दी है। राजस्थान सरकार ने तो इस पर अमल के आदेश भी दे दिए है। विडंबना यह है कि कुछ लोग इसे दीपावली मनाने की परंपरा पर अदालती दखल या दीपावली-विरोधी या हिंदू-विरोधी आदेश  बता रहे है। सनद रहे कि दीपावली से पहले शहर की हवा विषैली होनो के लिए दिल्ली का उदाहरण तो बानगी है, ठीक यही हालात देश के सभी महानगरों, से ले कर कस्बों तक के हैं। 



सनातन धर्म का प्रत्येक पर्व-त्योहार एक वैज्ञानिक, तर्कसंगत और समय व काल के अनुरूप होता है। उत्तर वैदिक काल में शुरू हुई आकाश दीप की परंपरा को कलयुग में दीवाली के रूप में मनाया जाता है।  श्राद्ध पक्ष में भारत में अपने पुरखों को याद करने के बाद जब वे वापस अपने लोकों को लौटते थे तो उनके मार्ग को आलोकित करने के लिए लंबे-लंबे बाँसों पर कंदील जलाने की परंपरा बेहद प्रचीन रही है। फिर द्वापर युग में राजा राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने अपने-अपने घर के दरवाजों पर दीप जला कर उनका स्वागत किया। 

हो सकता है कि किसी सैनिक परिवार ने कुछ आग्नेय अस्त्र-शस्त्र चलाए हों, लेकिन दीपावली पर आतिशबाजी चलाने की परंपरा के बहुत पुराना होने के कोई प्रमाण मिलते नहीं हैं। कहा जाता है कि पटाखे चलाने का कार्य देश  में मुस्लिमों के आने के बाद शुरू  हुआ था। हालांकि अब तो देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कह दिया कि दिल्ली एनसीआर में आतिश बाजी खरीदी-बेची नहीं जाएगी। लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि समाज व संस्कृति का संचालन कानून या अदालतों से नहीं बल्कि लोक कल्याण की व्यापक भावना से होता रहा है और यही इसके सतत पालन व अक्षुण्ण रहे का कारक भी है। 



दीपावली की असल भावना को ले कर कई मान्यताएं हैं और कई धार्मिक आख्यान भी। यदि सभी का अध्ययन करें तो उनकी मूल भावना भारतीय समाज का पर्व-प्रेम, उल्लास और सहअस्तित्व की अनिवार्यता है। विडंबना है कि आज की दीपावली दिखावे, परपीड़न, परंपराओं की मूल भावनाओं के हनन और भविष्य के लिए खतरा खड़ा करने की संवेदनशील औजार बन गई हे। अभी दीपावली से दो हफ्ते पहले ही देश की राजधानी दिल्ली की आवोहवा इतनी जहरीली हो गई है कि हजारों ऐसे लेाग जो सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं, उन्हें मजबूरी में शहर छोड़कर जाना पड़ रहा है, हालांकि अभी आतिशबाजी शुरू नहीं हुई है। अभी तो बदलते मौसम में भारी होती हवा, वाहनों के प्रदूषण, धूल व कचरे को जलाने से उत्पन्न धुंए के घातक परिणाम ही सामने आए हैं।  

भारत का लोक गर्मियों में खुले में छत पर सोता था,। किसान की फसल तैयार होती थी तो वह खेत में होता था। दीपावली ठंड के दिनों की शुरूआत होता है। यानि लोक को अब अपने घर के भीतर सोना शुरू करना होता था। पहले बिजली-रोशनी तो थी नहीं। घरों में सांप-बिच्छू या अन्य कीट-मकोड़े होना आम बात थी। सो दीपावली के  पहले घरें की सफई की जाती थी व घर के कूड़े को दूर ले जा कर जलाया जाता था। उस काल में घर के कूड़े में काष्ठ, कपड़ा या पुराना अनाज ही हेाता था। जबकि आज के घर कागज, प्लास्टिक, धातु व और ना जाने कितने किस्म के जहरीले पदार्थों के कबाड़े से भरे होते हैं। दुखद है कि हम साल में एक दिन बिजली बंद कर ‘पृथ्वी दिवस’ मानते हैं व उस दौरान धरती में घुलने से बचाए गए कार्बन की मात्रा का कई सौ गुणा महज दीपावली के चंद घंटों में प्रकृति में जोड़ देते हैं। हम जितनी बिजली बेवजह फूंकते हैं, उसके उत्पादन र्में इंधन, तथा उसे इस्तेमाल से निकली उर्जा उतना ही कार्बन प्रकृति में उड़ेल देता हे। कार्बन की बढती मात्रा के कारण जलवायु चक्र परिवर्तन,  धरती का तापमान बढना जैसी कई बड़ी दिक्कतें समाने आ रही हैं। काश हम दीपावली पर बिजली के बनिस्पत दीयों को ही प्राथमिकता दे। इससे कई लोगों को रोजगार मिलता है, प्रदूषण कम होता है और पर्व की मूल भावना जीवंत रहती है। 

दीपावली में सबसे ज्यादा जानलेवा भूमिका होती है आतिशबाजी या पटाखों की। खासतौर पर चीनी पटाखों में तो बेहद खतरनाक रसायन होते हैं जो सांस लेने की दिक्कत के साथ-साथ फैंफडों के रोग दीर्घकालिक हो सकते हैं।  दीवाली पर आतिशबाजी के कारण होने वाले वायु प्रदूषण को लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टरों का यह खुलासा चैंकाने वाला है कि इससे न केवल सांस की बीमारी बढ़ती है, बल्कि गठिया व हड्डियों के दर्द में भी इजाफा हो जाता है। संस्थान द्वारा इस बार शोध किया जाएगा कि दीपावली पर आतिशबाजी जलाने के कारण हवा में प्रदूषण का जो जहर घुलता है, उसका गठिया व हड्डी के मरीजों पर कितना असर पड़ता है। एम्स के विशेषज्ञों का कहना है कि अब तक हुए शोध में यह पाया गया है कि वातावरण में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का स्तर अधिक होने पर गठिया के मरीजों की हालत ज्यादा खराब हो जाती है। 

आतिशबाजी के धुंए, आग, आवाज के शिकार इंसान तो होते ही हैं, पशु-पक्षी, पेड़, जल स्त्रोत भी इसके कुप्रभाव से कई महीनों तक हताश-परेशान रहते हैं। विडंबना है कि आज पढा लिखा व आर्थिक रूप से संपन्न समाज महज दिखावे के लिए हजारों-हजार करोड़ की आतिशबाजी फूंक रहा हे। इससे पैसे की बर्बादी तो होती ही हैं, लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचता है पर्यावरण को। ध्वनि और वायु प्रदूषण दीपावली पर बेतहाशा बढ़ जाता है। जो कई बीमारियों का कारण है।

दीवाली के बाद अस्पतालों में अचानक 20 से 25 प्रतिशत ऐसे मरीजों की संख्या में वृद्धि हो जाती है जिसमें अधिकतर लोग सांस संबंधी व अस्थमा जैसी समस्या से पीड़ित होते हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार दिल्ली में पटाखों के कारण दीपावली के बाद वायु प्रदूषण छह से दस गुना और आवाज का स्तर 15 डेसिबल तक बढ़ जाता है। इससे सुनने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। तेज आवाज वाले पटाखों का सबसे ज्यादा असर बच्चों, गर्भवती महिलाओं तथा दिल और सांस के मरीजों पर पड़ता है। मनुष्य के लिए 60 डेसिबल की आवाज सामान्य होती है। इससे 10 डेसिबल अधिक आवाज की तीव्रता दोगुनी हो जाती है, जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए घातक होती है। जान लेंबगैर आवाज के पटाखों में भी कम से कम 21 तरह के रसायन मिलाए जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 20 मिनट की आतिशबाजी पर्यावरण को एक लाख कारों से ज्यादा नुकसान पहुंचाती है।

जाहिर है कि दीपावली का मौजूदा स्वरूप ना तो शास्त्र सम्मत है और ना ही लोक परंपराओं के अनूरूप और ना ही प्रकृति, इंसान व जीवजगत के लिए कल्याणाकरी, तो  फिर क्यों ना दीपावली पर लक्ष्मी को घर बुलाएं, सरस्वती का स्थाई वास कराएं ओर एकदंत देव की रिद्धी-सिद्धी का आव्हान करें- दीपावली दीयों के साथ, अपनों के साथ, मुसकान के साथ आतिशबाजी रहित ही मनाएं। 


How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...