स्वच्छता
का पर्व है होली
पंकज
चतुर्वेदी
होली भारत में किसी एक जाति, धर्म
या क्षेत्र विशेष
का पर्व नहीं है, इसकी
पहचान देश की संस्कृति के रूप में होती है । वसंत ऋतु जनजीवन में नई चेतना का
संचार कर रही होती है, फागुन की सुरमई हवाएं वातावरण को मस्त
बनाती हैं, तभी
होली के रंग लोकजीवन में घुल जाते हैं । इन्हीं दिनों नई फसल भी तैयार होती है और
किसानों के लिए यह उल्लास का समय होता है । तभी होली के बहाने नए अन्न की पूजा
पूरे देश में की जाती है । यही नहीं पूरी दुनिया में होली की ही तरह अलग-अलग समय में त्योहार मनाये जाते हैं जिनका
असल मकसद तनावों से दुर कुछ पल मौज-मस्ती के बिताना और अपने परिवेश के गैरजरूरी सामान से मुक्ति पाना होता है।
विडंबना है कि अब होली का स्वरूप भयावह हो गया है। वास्तव में होली का अर्थ है -
हो ली, यानि
जो बीत गई सो बीत गई , अब आगे की सुध है। गिले-शिकवे मिटाओ, गलतियों
को माफ करो और एक दूसरे का रंगों में सराबोर कर दो- रंग प्रेम के, अपनत्व
के, प्रकृति
के। विडंबना है कि भारतीय संस्कृति की पहचान कहलाने वाला यह पर्व पर्यावरण
का दुश्मन . नशाखोरी, रंग
की जगह त्वचा को नुकसान पहुंचाने, आनंद की जगह भोंडे उधम के लिए कुख्यात हो
गया है। पानी की बर्बादी और पेड़ों के नुकसान ने असल में हमारी आस्था और परंपरा की मूल आत्मा को ही नष्ट कर दिया है।
कहानियां, किवदंतियां कुछ भी कहें, लेकिन
इस पर्व का वास्तविक संदेश तो - स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण ही है। यह दुखद है
कि अब इस त्योहार ने अपना पारंपरिक रूप और उद्देश्य खो दिया है और इसकी छबि पेड़ व हानिकारण पदाथों
को जला कर पर्यावरण को हानि पहुंचाने और रंगों के माध्यम से जहर बांटने की बनती जा
रही है। हालांकि देश के कई शहरों और मुहल्लों में बीते एक दशक के दौरान होली को
प्रकृति-मित्र के रूप में मनाने के अभिनव प्रयोग भी हो रहे हैं। हमारा कोई भी संस्कार या उत्सव उल्लास की आड़
में पर्यावरण को क्षति की अनुमति नहीं देता। होलिका दहन के साथ सबसे बड़ी कुरीति
हरे पेड़ों को काट कर जलाने की है। वास्तव में होली भी दीपावली की ही तरह खलिहान से घर के कोठार में
फसल आने की ख़ुशी व्यक्त करने का पर्व है। कुछ सदियों पहले तक ठंड के दिनों में भोज्य
पदार्थ,
मवेषियों
के लिए चारा, जैसी कई चीजें भंडार कर रखने की परंपरा
थी। इसके अलावा ठंड के दिनों में कम रौशनी के कारण कई तरह का कूड़ा भी घर में ही रहा जाता
था। याद करें कि होली में गोबर के बने उपले की माला अवश्य डाली जाती है। असल में ठंड के दिनों में जंगल जा
कर जलावन लाने में डर रहता था, सो ऐसे समय के लिए घरों में उपलों को भी
एकत्र कर रखते थे। चूंकि अब घर में नया अनाज आने वाला है सो, कंडे-उपले
की जरूरत नहीं , तभी
उसे होलिका दहन में इस्तेमाल किया जाता है। उपले की आंच धीमी होती है, लपटें
ऊंची नहीं जातीं, इसमें
नए अन्न - गेंहूं की बाली या चने के छोड़ को भूना भी जा सकता है, सो
हमारे पूर्वजों ने होली में उपले के प्रयोग किए। दुर्भाग्य है कि अब लोग होली की
लपेटें आसमान से ऊंची दिखाने के लिए लकड़ी और कई बार प्लास्टिक जैसा विशैला कूड़ा
इस्तेमाल करते हैं। एक बात और आदिवासी
समाज में प्रत्येक कृषि उत्पाद के लिए “नवा
खाई’
पर्व
होता है - जो भी नई फसल आई , उसके लिए प्रकृति का धन्यवाद। होली भी
किसानों के लिए कुछ ऐसा ही पर्व है।
होलिका पर्व का वास्तविक समापन शीतला अष्टमी को होता है।
पूर्णिमा की होली और उसके आठ दिन बाद अष्टमी का यह अवसर! शक संवत का पहला महीना चैत्र और
इसके कृष्ण पक्ष पर बासी खाना खाने का बसौड़ा। इस दिन घर में चूल्हा
नहीं जलता और एक दिन पहले ही पक्क्ी रसोई यानि पूड़ी कचोडी , चने
, दही
बड़े आदि बन जाते हैं। सुबह सूरज उगने से पहले होलिका के दहन स्थल पर शीतला मैया को
भोग लगाया जाता है।
स्कंद पुराण शीतलाष्टक स्त्रोत
के अनुसार “वन्देहं
शीतलां देवींरासभस्थां दिगम्बराम। मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालड्कृतमस्तकाम।।“ ,अर्थात
गर्दभ पर विराजमान दिगम्बरा, हाथ में झाड़ू तथा कलश धारण करने वाली, सूप
से अलंकृत मस्तकवाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं।“
शीतला माता के इस वंदना
मंत्र से स्पष्ट है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी
(झाड़ू) होने का अर्थ है कि समाज को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से
तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है। मान्यता के
अनुसार,
इस
व्रत को रखने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं और व्रती के कुल में चेचक, खसरा, दाह, ज्वर, पीतज्वर, दुर्गधयुक्त
फोड़े और नेत्रों के रोग आदि दूर हो जाते हैं।
हकीकत में संदेश यही है कि यदि स्वच्छता रखेगे तो ये रोग नहीं हो सकते।
तनिक गौर करें, होली का प्रारंभ हुआ, घर-खलिहान
से कूड़ा-कचरा बुहार कर होली में जलाने से, पर्व
में शरीर पर विभिन्न रंग लगाए और फिर उन्हें छुड़ाने के लिए रगड़-रगड़ कर स्नान
किया। पुराने कपड़े फटे व नए वस्त्र धारण किए और समापन पर स्वच्छता की देवी की पूजा-अर्चना
की। लोगों को अपने परिवेश व व्यक्तिगत
सफाई का संदेश दिया। गली-मुहल्ले के चौराहे पर होली दहन स्थल पर बसौड़ा का चढ़ावा चढ़ाया जिसे
समाज के गरीब और ऐसे वर्ग के लेागों ने उठा कर भक्षण किया जिनकी आर्थिक स्थिति
उन्हें पौष्टिक आहार से वंचित रखती है।
चूंकि भोजन ऐसा है जो कि दो-तीन दिन खराब नहीं होना , सो
वे घर में संग्रह कर भी खा सकते है।। और फिर यही लोग नई उमंग-उत्साह के साथ फसल की
कटाई से ले कर अगली फसल के लिए खेत को तैयार करने का कार्य तपती धूप में भी लगन से
करेंगे। इस तरह होली का उद्देश्य समाज में समरसता बनाए रखना, अपने
परिवेश की रक्षा करना और जीवन में
मनोविनोद बनाए रखना है, यही
इसका मूल दर्शन है।