My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 27 मार्च 2021

HOLI THE FESTIVAL OF ECOLOGY AND CLEANNESS


 

स्वच्छता का पर्व है होली

पंकज चतुर्वेदी

 

होली भारत में किसी एक जाति, धर्म या क्षेत्र विशेष का पर्व नहीं है, इसकी पहचान देश की संस्कृति के रूप में होती है । वसंत ऋतु जनजीवन में नई चेतना का संचार कर रही होती है, फागुन की सुरमई हवाएं वातावरण को मस्त बनाती हैं, तभी होली के रंग लोकजीवन में घुल जाते हैं । इन्हीं दिनों नई फसल भी तैयार होती है और किसानों के लिए यह उल्लास का समय होता है । तभी होली के बहाने नए अन्न की पूजा पूरे देश में की जाती है । यही नहीं पूरी दुनिया में होली की ही तरह अलग-अलग समय में त्योहार मनाये जाते हैं जिनका असल मकसद तनावों से दुर कुछ पल मौज-मस्ती के बिताना और अपने परिवेश  के गैरजरूरी सामान से मुक्ति पाना होता है। विडंबना है कि अब होली का स्वरूप भयावह हो गया है। वास्तव में होली का अर्थ है - हो ली, यानि जो बीत गई सो बीत गई , अब आगे की सुध है। गिले-शिकवे  मिटाओ, गलतियों को माफ करो और एक दूसरे का रंगों में सराबोर कर दो- रंग प्रेम के, अपनत्व के, प्रकृति के। विडंबना है कि भारतीय संस्कृति की पहचान कहलाने वाला यह पर्व पर्यावरण का दुश्मन . नशाखोरी, रंग की जगह त्वचा को नुकसान पहुंचाने, आनंद की जगह भोंडे उधम के लिए कुख्यात हो गया है। पानी की बर्बादी और पेड़ों के नुकसान ने असल में हमारी आस्था और  परंपरा की मूल आत्मा को ही नष्ट  कर दिया है।

कहानियां, किवदंतियां कुछ भी कहें, लेकिन इस पर्व का वास्तविक संदेश तो - स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण ही है। यह दुखद है कि अब इस त्योहार ने अपना पारंपरिक रूप और उद्देश्य  खो दिया है और इसकी छबि पेड़ व हानिकारण पदाथों को जला कर पर्यावरण को हानि पहुंचाने और रंगों के माध्यम से जहर बांटने की बनती जा रही है। हालांकि देश के कई शहरों और मुहल्लों में बीते एक दशक के दौरान होली को प्रकृति-मित्र के रूप में मनाने के अभिनव प्रयोग भी हो रहे हैं।  हमारा कोई भी संस्कार या उत्सव उल्लास की आड़ में पर्यावरण को क्षति की अनुमति नहीं देता। होलिका दहन के साथ सबसे बड़ी कुरीति हरे पेड़ों को काट कर जलाने की है। वास्तव में होली भी  दीपावली की ही तरह खलिहान से घर के कोठार में फसल आने की ख़ुशी   व्यक्त करने का पर्व है।  कुछ सदियों पहले तक ठंड के दिनों में भोज्य पदार्थ, मवेषियों के लिए चारा, जैसी कई चीजें भंडार कर रखने की परंपरा थी। इसके अलावा ठंड के दिनों में कम रौशनी  के कारण कई तरह का कूड़ा भी घर में ही रहा जाता था। याद करें कि होली में गोबर के बने उपले की  माला अवश्य  डाली जाती है। असल में ठंड के दिनों में जंगल जा कर जलावन लाने में डर रहता था, सो ऐसे समय के लिए घरों में उपलों को भी एकत्र कर रखते थे। चूंकि अब घर में नया अनाज आने वाला है सो, कंडे-उपले की जरूरत नहीं , तभी उसे होलिका दहन में इस्तेमाल किया जाता है। उपले की आंच धीमी होती है, लपटें ऊंची नहीं जातीं, इसमें नए अन्न - गेंहूं की बाली या चने के छोड़ को भूना भी जा सकता है, सो हमारे पूर्वजों ने होली में उपले के प्रयोग किए। दुर्भाग्य है कि अब लोग होली की लपेटें आसमान से ऊंची दिखाने के लिए लकड़ी और कई बार प्लास्टिक जैसा विशैला कूड़ा इस्तेमाल करते हैं।  एक बात और आदिवासी समाज में प्रत्येक कृषि  उत्पाद के लिए नवा खाईपर्व होता है - जो भी नई फसल आई , उसके लिए प्रकृति का धन्यवाद। होली भी किसानों के लिए कुछ ऐसा ही पर्व है।

होलिका पर्व का वास्तविक समापन शीतला अष्टमी को होता है। पूर्णिमा की होली और उसके आठ दिन बाद अष्टमी  का यह अवसर! शक संवत का पहला महीना चैत्र और इसके कृष्ण  पक्ष पर  बासी खाना खाने का बसौड़ा। इस दिन घर में चूल्हा नहीं जलता और एक दिन पहले ही पक्क्ी रसोई यानि पूड़ी कचोडी , चने , दही बड़े आदि बन जाते हैं। सुबह सूरज उगने से पहले होलिका के दहन स्थल पर शीतला मैया को भोग लगाया जाता है।

स्कंद पुराण शीतलाष्टक  स्त्रोत  के अनुसार वन्देहं शीतलां देवींरासभस्थां दिगम्बराम। मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालड्कृतमस्तकाम।। ,अर्थात गर्दभ पर विराजमान दिगम्बरा, हाथ में झाड़ू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तकवाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं।“

 शीतला माता के इस वंदना मंत्र से स्पष्ट है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी (झाड़ू) होने का अर्थ है कि समाज को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है। मान्यता के अनुसार, इस व्रत को रखने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं और व्रती के कुल में चेचक, खसरा, दाह, ज्वर, पीतज्वर, दुर्गधयुक्त फोड़े और नेत्रों के रोग आदि दूर हो जाते हैं।  हकीकत में संदेश यही है कि यदि स्वच्छता रखेगे तो ये रोग नहीं हो सकते।

तनिक गौर करें, होली का प्रारंभ हुआ, घर-खलिहान से कूड़ा-कचरा बुहार कर होली में जलाने से, पर्व में शरीर  पर विभिन्न रंग लगाए और  फिर उन्हें छुड़ाने के लिए रगड़-रगड़ कर स्नान किया। पुराने कपड़े फटे व नए वस्त्र धारण किए और समापन पर स्वच्छता की देवी की पूजा-अर्चना की। लोगों को अपने परिवेश  व व्यक्तिगत सफाई का संदेश दिया। गली-मुहल्ले के चौराहे  पर होली दहन स्थल पर बसौड़ा का चढ़ावा चढ़ाया जिसे समाज के गरीब और ऐसे वर्ग के लेागों ने उठा कर भक्षण किया जिनकी आर्थिक स्थिति उन्हें पौष्टिक  आहार से वंचित रखती है। चूंकि भोजन ऐसा है जो कि दो-तीन दिन खराब नहीं होना , सो वे घर में संग्रह कर भी खा सकते है।। और फिर यही लोग नई उमंग-उत्साह के साथ फसल की कटाई से ले कर अगली फसल के लिए खेत को तैयार करने का कार्य तपती धूप में भी लगन से करेंगे।  इस तरह होली का उद्देश्य  समाज में समरसता बनाए रखना, अपने परिवेश  की रक्षा करना और जीवन में मनोविनोद बनाए रखना है,  यही इसका मूल दर्शन  है।

 

 

शुक्रवार, 26 मार्च 2021

How Al nino effects Indian weather

 

अल नीनो तय करता है भारत का मौसम !

पंकज चतुर्वेदी



अभी फरवरी खत्म हुआ नहीं था कि तेज गर्मी हो गई। बकौल मौसम विभाग अधिकतम तापमान सामान्य से पांच डिगरी तक ज्यादा हो गया। कहा गया कि पांच फरवरी के बाद कोई पश्चिमी  विक्षोभ का असर हमारे यहां पड़ा नहीं  सो बीते  कई दिनों से किसी भी मैदानी इलाके में बादल नहीं बरसे, इसी से गर्मी सही समय आ गई। मार्च का दूसर हफ्ता आया तो देष के कई हिस्सों में ओले गिर गए व खड़ी फसल को चाट गए। यह सच है कि यदि कोई बाहरी प्रभाव नहीं पड़ा तो जल्दी गर्मी का असर जल्दी मानसून आने पर भी होगा।  मौसम में बदलाव की पहेली अभी भी अबुझ है और हमारे यहां कैसा मौसम होगा उसका निर्णय सात समुंदर पार , ‘अल नीनो’ अथवा ‘ला नीना’ प्रभाव पर निर्भर होता है।

प्रकृति रहस्यों से भरी है और इसके कई ऐसे पहलु हैं जो समूची सृश्टि को प्रभावित तो करते हैं लेकिन उनके पीछे के कारकोे की खोज अभी अधूरी ही है और वे अभी भी किवदंतियों और तथ्यों के बीच त्रिशंकु  हैं। ऐसी ही एक घटना सन 1600  में पश्चिमी  पेरू के समुद्र तट पर मछुआरों ने दर्ज की ,जब क्रिसमस के आसपास सागर का जल स्तर असामान्य रूप से बढ़ता दिखा । इसी मौसमी बदलाव को स्पेनिश  शब्द ‘अल नीनो’ परिभाषित  किया गया, जिसका अर्थ होता है- छोटा बच्चा या ‘बाल-यीषु’। अल नीनो असल में मध्य और  पूर्व-मध्य भूमध्यरेखीय समुद्री सतह के तापमान में नियमित अंतराल के बाद होने वाली वृद्धि है जबकि  ला नीनाइसके विपरीत अर्थात तापमान कम होने की मौसमी घटना को कहा जाता है।  अल नीना भी स्पेनिश  भाषा  का शब्द है जिसका अर्थ होता है छोटी बच्ची।



दक्षिणी अमेरिका से भारत तक के मौसम में बदलाव के सबसे बड़े कारण अल नीनो और अल नीना प्रभाव ही होते हैं। अलनीनो का  संबंध भारत व आस्ट्रेलिया में गरमी और सूखे से है, वहीं अल नीना के कारण अच्छे मानसून का वाहक है और इसे भारत के लिए वरदान कहा जा सकता है। भले ही भारत में इसका असर हो लेकिन अल नीनो और अल नीना घटनाएं पेरू के तट (पूर्वी प्रशांत ) और आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट(पश्चिमी  प्रशांत ) पर घटित होती हैं। हवा की गति इन प्रभावों को दूर तक ले जाती हे। यहां जानना जरूरी है कि भूमध्य रेखा पर समुद्र की सीढ़ी  किरणें पड़ती हैं। इस इलाके में पूरे 12 घंटे निर्बाध  सूर्य के दर्षन होते हैं और इस तरह से सूर्य की उश्मा अधिक समय तक धरती की सतह पर रहती है। तभी भूमध्य क्षेत्र या मध्य प्रशांत  इलाके में अधिक गर्मी पड़ती है व इससे समुद्र की सतह का तापमान प्रभावित रहता है। आम तौर पर सामान्य परिस्थिति में भूमध्यीय हवाएं पूर्व से पष्चिम (पछुआ) की ओर बहती हैं और गर्म हो चुके समुद्री जल को आस्ट्रेलिया के पूर्वी समुद्री तट की ओर बहा ले जाती हैं। गर्म पानी से भाप बनती है और उससे बादल बनते हैं व परिणामस्वरूप पूर्वी तट के आसपास अच्छी बरसात होती है।  नमी से लछी गर्म हवांए जब उपर उठती हैं तो उनकी नमी निकल जाती है और वे ठंडी हो जाती हैं। तब क्षोभ मडल की पश्चिम से पूर्व की ओर चलने वाली ठंडी हवाएं पेरू के समुद्री तट व उसके आसपास नीचे की ओर आती हैं । तभी आस्ट्रेलिया के समु्रद से उपर उठती गर्म हवाएं इससे टकराती हैं। इससे निर्मित चक्रवात को 'वाॅकर चक्रवात' कहते हैं। असल में इसकी खेाज  सर गिल्बर्ट वाॅकर ने की थी।



अल नीनो परिस्थिति में पछुआ हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं व समुद्र का गर्म पानी लौट कर पेरू के तटो पर एकत्र हो जाता है। इस तरह समुद्र का जल स्तर 90 सेंटीमीटर तक ऊंचा हो जाता है व इसके परिणामस्वरूप वाष्पीकरण  होता है व इससे बरसात वाले बादल निर्मित होते हैं। इससे पेरू में तो भारी बरसात होती है लेकिन मानसूनी हवाओं पर इसके विपरीत प्रभाव के चलते आस्ट्रेलिया से भारत तक सूखा हो जाता है।

ला नीनो प्रभाव  के दौरान भूमध्य क्षेत्र में सामान्यतया पूर्व से पष्चिम की तरफ चलने वाली अंधड़ हवाएं पेरू के समुद्री तट के गर्म पानी को आस्ट्रेलिया की तरफ ढकेलती है। इससे पेरू के समुद्री तट पर पानी का स्तर बहुत नीचे आ जाता है, जिससे समुद्र की गहराई का ठंडा पानी थोड़े से गर्म पानी को प्रतिस्थापित कर देता है। यह वह काल होता है जब पेरू के मछुआरे खूब कमाते हैं। भारतीय मौसम विभाग के यह वह काल होता है जब पेरू के मछुआरे खूब कमाते हैं। भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक कोविड काल भारत के मौसम के लिहाज से बहुत अच्छा रहा और यह ‘ला नीना’ का दौर था। लेकिन अभी तक यह रहस्य नहीं सुलझाया जा सका है कि आने वाले दिन हमारे लिए ‘बाल-यीषु’ वाले हैं या ‘छोटी बच्ची’ वाले। भारत जैसे कृशि प्रधान देश  के बेहतर जीडीपी वाला भविष्य असल में पेरू के समुद्र  तट पर तय होता है। जाहिर है कि हमें इस दिशा  में शोध को बढ़ावा देना ही होगा।


सोमवार, 22 मार्च 2021

Parliament least think of ecology or health issue of mass

 

वायु प्रदूषण  से बेपरवाह संसद

पंकज चतुर्वेदी



जिस समय वायु गुणवत्ता का आकलन करने वाली स्वीस संस्था आइक्यूएयर अपनी रिपोर्ट "वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट-2020"  जारी कर बता रही थी कि दुनिया के 30 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में दिल्ली सर्वाधिक प्रदूषित राजधानी शहर होने के साथ टॉप 10 में भी शुमार रही है। ठीक उसी समय राष्ट्रीय  राजधानी क्षेत्र दिल्ली व उसके करीबी जिलों में वायु गुणवत्ता पर निगाह रखने व उसे दूषित  करने वालों पर सख्त कार्यवाही के इरादे से राष्ट्रपति  के हस्ताक्षर के जारी अध्यादेश्  बगैर कोई काम किए ही निष्प्रभावी  हो गया। पर्यावरण के प्रति हमारे जन प्रतिनिधियों की यह उदासीनता ही कहलाएगी कि संविधान के अनुसार किसी अध्यादेष को कानून बनाने के लिए छह महीने के भीतर उस पर संसद में बिल लाने की अनिवार्यता की किसी को परवाह ही नहीं थी।

यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक  में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे । एक अंतरराश्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ोंं के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। यह भयावह तथ्य हमारी संसद को डराता नहीं है, यह बात आम लोगों के लिए डर का कारण है। बीते कुछ दिनों से दिल्ली एनसीआर में वायु गुणवत्ता लगातार गंभीरश्रेणी में बनी हुई है। दिल्ली षहर हो या फिर यहां से 100 किलोमीटर दूर बुलंदशहर  या सटा हुआ गाजियाबाद , गत नवंबर महीने से किसी बरसात के दिन को छोड़ दें तो वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 400 से अधिक ही है। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि गाड़ियों से निकलने वाला काला धुआं, निर्माण कार्यों से उड़ने वाले पीएम कण, सड़कों पर फैली धूल ,उद्योगों से होने वाले उत्सर्जन आदि इसके कुछ मुख्य कारक हैं।

यह कड़वा सच है कि यदि सुप्रीम कोर्ट सक्रिय नहीं होती तो दिल्ली के प्रदूषण  से सरकारें तो बेपरवाह ही रही हैं। एमसी मेहता बनाम केंद्र सरकार, 1988 के फैसले के बाद दिल्ली में इपीसीए गठित की गई थी जिसका काम दिल्ली राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण  के नियंत्रण के लिए काम करना था। चूंकि दिल्ली का प्रदूषण  आसपास के जिलों के कारण भी प्रभावित होता है सो आदित्य दुबे की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद केंद्र सरकार ने वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम)  का गठन किया। चूंकि इस आयोग के पास प्रदूषण कारियों को पांच साल की जेल की सजा सुनाने का भी अधिकार था सो केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर 28 अक्टूबर 2020 को इसके गठन की औपचारिकता की। पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के पूर्व सचिव एमएम कुट्टी को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था। इसके सदस्य विभिन्न राज्यों के आला अफसर भी थे।

इस आयोग की एक बैठक नौ नवंबर 2020 को हुई जिसमें वर्तमान नियमों, कानूनों और दिशा निर्देशों का कड़ाई से अनुपालन करने की तत्काल आवश्यकता पर जोर देते हुए निजी वाहनों के उपयोग को कम करने , घर से काम करने को प्रोत्साहित करने, कूडा जलाने पर कड़ाई, धूलग्रस्त इलाकों में पानी छिड़काव जैसे निर्देश  भी जारी किए गए। सुझावों पर कुछ क्रियान्वयन होता तब तक इसकी अकाल मृत्यू हो गई। जान लें अध्यादेश को कानून का रूप देने के लिए इसे संसद का सत्र शुरू होने के छह हफ्ते के भीतर सदन में पेश नहीं किया जा सका, जिसकी वजह से इसकी वैधता समाप्त हो गई और आयोग स्वतः भंग हो गया।

जिस संसद के सदस्य अपने भत्ते-वेतन बढ़ाने के बिल को पास करने की तैयारी सालभर पहले कर लेते हैं वहां आम लोगों के जीवन से खिलवाड़ कर रहे वायु प्रदूषण  के निदान के लिए गठित संस्था के बारे में याद ना रहना वास्तव में आज की राजनीति के जन सरोकार से दूरी की बानगी है। एक शक्ति संपन्न आयोग को ठिकाने से कार्यालय की जगह नहीं मिली, उसके कार्य को व्यापक रूप देने की मूलभूत सुविधाएं तक नहीं मुहैया करवाई गई। जाहिर है कि इस कमीशन को भी केंद्र सरकार ने गम्भीरता से नहीं लिया।

दिल्ली में ओाजने का स्तर सारे साल 190 रहता है जबकि यह 100 से ज्यादा होना नहीं चाहिए। धुंएं में बड़ी मात्रा में मौजूद हाईड्रो कार्बन तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोज इंसान के षरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है । वाहनों से  उत्सर्जीत २.५  माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड वायु प्रदूषण से मौतों के आंकड़े में इजाफा करती है। जान लें वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। इस खतरे पर काबू पा लेने से हर साल करीब 10 लाख लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकती हैं और इसके लिए आकलन, नियंत्रण और प्रबंधन ही एकमात्र इलाज है और यह सब एक षक्तिसंपन्न केंद्रीय संस्था के बगैर संभव नहीं।

 

सोमवार, 15 मार्च 2021

Books over come from corona terror

 कोरोना से नहीं डरतीं किताबें।

पंकज चतुर्वेदी 




दिल्ली में ठंड के दिनों में घने कोहरे के बीच प्रगति मैदान का नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला व्यापक रूप से बहुप्रतिक्षित रहता है। कोरोना की आपदा के चलते भले ही वह पुस्तक-कुंभ ना लग पाया हो, लेकिन पुस्तकों को जन-जन तक पहँचाने के लिए कृतसंकल्पित राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने  देश-दुनिया के पुस्तक प्रेमियों के घर तक विश्व पुस्तक मेले को पहुँ कर दुनिया के सबसे बड़े वर्चुअल पुस्तक मेले का आयोजन कर दिया। गत 05 -09मार्च 2021 तक चले नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले के पहले वर्चुअल संस्करण ने आगंतुकों, खरीदारों और साहित्यिक आयेजनों का विश्व-कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि कोई भी आपदा देश की सृजनातमकता, विचार-श्रंखला और ज्ञान-प्रसार में आडे़ नहीं आ सकती। 

अपने घर बैठे स्क्रीन पर पुस्तक मेले के त्रिआयामी  दर्शन का पहला अनुभव होने के बावजूद आगंतुकों का उत्साह कम हुआ और न ही प्रकाशकों का। इस बार पुस्तक मेले में 135 से अधिक भारतीय और 15 से अधिक विदेशी प्रकाशकों ने सहभागिता दर्ज कराई। 

एक अंजान, अद्श्य जीवाणु ने जब सारी दुनिया की चहलकदमी रोक दी, इंसान को घर में बंद रहने पर मजबूर कर दिया, फिर भी कोई भी भय इंसान की सृजनात्मकता, विचारशीलता और उसे शब्दो ंमें पिरो कर प्रस्तुत करने की क्ष्मता पर अंकुश नहीं लगा पाया। यों भी कहें तो अतिश्यिक्ति ना होगा कि इस अजीब परिवेश ने ना केवल लिखने के नए विषय दिए, बल्कि लेखक की पाठकों से दूरियां कम हुईं, नई तकनीकी के माध्यम से मुहल्ले, कस्बों के विमर्श अंतरराष्ट्रीय हो गए। शुरूआत मे कुछ दिनों में जब मुद्रण संस्थान ठप्प रहे, जब समझ आ गया कि पुस्तक मेलों-प्रदर्शनियों के दिन जल्दी आने वाले नही हैं, तब सारी दुनिया की तरह पुस्तकों की दुनिया में भी कुछ निराशा-अंदेशा व्याप्त था। लेकिन घर में बंद समाज को त्रासदी के पहले हफ्ते में ही भान हो गया कि पुस्तकें ऐसा माध्यम हैं जो सामाजिक दूरी को ध्यान में रखते हुए घरों में स्वाध्ययन अवसाद से मुक्ति दिलाने में महती भूमिका निभाती हैं।  अपितु आपके ज्ञान का प्रसार भी करती हैं। महामारी के इस भय भरे माहौल में लॉकडाउन में सकारात्मक सोच के साथ पठन-पाठन से लोगों को जोड़ने के लिए कई अभिनव प्रयोग किए गए। 


जनवरी की ठंड में  प्रगति मैदान में लगने वाले पुस्तक मेले में प्रकाशन जगत, लेखक, छात्र और समाज के लगभग सभी वर्ग की उम्मीदें रहती हैं।  कोई तीन दशक से चल रही इस अनवरत श्रंखला के टूटने पर एक निराशा होना लाजिमी थी, लेकिन वर्चुअल पुस्तक मेले ने इस कमी को काफी कुछ पूरा किया। दुनियाभर के लेखकों के विमर्श हुए। कुछ नहीं से कुछ भला है परंतु छोटे प्रकाशक, दूरस्थ अंचल के लेखक व पाठकों के लिए तो प्रगति मैदान की कंधे छीलती भीड़ में किताबांं के  कुंभ में गोते लगाना ही पुस्तक मेला कहलाता है । कंप्यूटर संचालित इस आधुनिक व्यवस्था को भले ही नाम मेला का दिया गया हो, लेकिन आम लोगों के लिए तो सीमित तंत्र है। पुस्तकों की संख्या कम होती है, भुगतान को ले कर भी दिक्कतें हैं। असल में मैदान में लगने वाला मेला पुस्तकों के साथ जीने, उसे महसूस करने का उत्सव होता है। जिसमें गीत-संगीत , आलेचना, मनुहार, मिलन, असहमतियां ं और सही मायने में देश की विविधतापूर्ण भाषायी एकता की प्रदर्शनी भी होती है। 

बीते एक साल में लेखकां और प्रकाशकों ने यह भांप लिया कि कोरोना के चलते  आम इंसान की पठन अभिरूचि, जीवन शैली , अर्थतंत्र आदि में आमूल चूल बदलाव होंगे। नेशनल बुक ट्रस्ट ने अपनी कई सौ लोकप्रिय पुस्तकों को निशुल्क पढने के लिए वेबसाईट पर डाल दिया तो राजकमल प्रकाशन ने पाठक के घर तक पुस्तकें पहुंचाने की योजना शुरू कर दी। कई अन्य प्रकाशक  भी  डिजिटल प्लेटफार्म पर पुस्तकों को लाने व बेचने  को प्राथमिकता देने लगे। हालांकि अभी ईबुक्स अधिक लोकप्रिय नहीं हुई लेकिन बच्चो ंमें ‘ऑडियो बुक्स’ का प्रचलन बढ़ा। 

बुद्धिजीवी वर्ग को समझने में ज्यादा देर नहीं लगी कि इस महामारी ने हमें अपनी जीवन शैली में बदलाव के लिए मजबूर किया है और इससे पठन अभिरूचि भी अछूती नहीं हैं। आनन फानन में लोगों ने पहले फेसबुक जैसे निशुल्क प्लेटफार्म पर रचना पाठ, गोष्ठी, लेखक से मुलाकात और  रचनओं की ऑडियो-वीडियो प्रस्तुति प्रारंभ की और फिर जूम, गूगल, जैसे कई नए  मंच सामने आ गए जिनमें देश-दुनिया के सैंकड़ो ंलोग एक साथ जुड़ कर साहित्य विमर्श कर रहे हैं। ना वक्ता के आवागमन या अन्य व्यय की चिंता ना ही मंच, आमंत्रण का तनाव , साहित्यिक विमर्श के इस डिजिटल स्वरूप को घर-घर तक पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगा।  अपने घर  के मोबाईल या कंप्यूटर पर लेखक को सुनने या सवाल करने का मोह घर के वे सदस्य भी नहीं छोड़ पाए जो अभी तक पठन-पाठन से दूरी बनाए रखते थे। 

नवंबर में दिल्ली में फेडरेशन आफ इंडियान पब्लिशर्स ने तीन दिन का एक वर्चुअल पुस्तक मेला किया जिसमें 100 से अधिक प्रकाशकें की नौ हजार पुस्तकें उपलब्ध थीं। इस पुस्तक मेले को देखने का दो लाख लोगों ने ंपजीयन करवाया और उसे विश्व का सबसे बड़ा वर्चुअल बुक फेयर कहा गया। दिसंबर-2020 में इंडिया इंटरनेशनल साईंस कांग्रेस में भी पुस्तक मेला के लिए एक स्थान था। इस तरह की कोशिशों के बीच 30 दिसंबर से 10 जनवरी तक असम में गुवाहाटी पुस्तक मेला हुआ और जहां हर दिन पचास हजार पुस्तक प्रेमियों ने पहुंच कर जता दिया कि अपनी पठन-पिपासा के लिए वे कोरोना वायरस से डर नहीं रहे। लखनउ में भी पुस्तक मेला हुआ और कई जगह प्रदर्शनी भी लग रही हैं।


ऐसा नहीं है कि कोरोना संकट के साथ आए बदलावों से प्रकाशन व लेखन में सभी कुछ अच्छा ही हुआ। नई टेकनालाजी ने भले ही ज्ञान के क्षेत्र में क्रांति ला दी है, लेकिन मुद्रित पुस्तकें आज भी विचारों के आदान-प्रदान का सबसे सशक्त माध्यम हैं । साथ ही  आम आदमी के विकास हेतु जरूरी शिक्षा और साक्षरता का एकमात्र साधन किताबें ही हैं ।  हमारी बड़ी आबादी  अभी भी डिजिटल माध्ममों से इतनी गंभीरता से परिचित नहीं हैं।  हमारे प्रकाशन उद्योग की विकास दर पिछले साल तक बीस प्रतिशत सालाना रही जो अब थम गई हैं। इसमें महंगाई, पुस्तकों के मुद्रण के बनिस्पत सीमित डिजिटल या ई बुक्स संस्करण निकलने, कागज की बढ़ती कीमत, बाजार में पूंजी का अभाव आदि घटक शामिल हैं। लेकिन इन विषम हालात में भी बोधि प्रकाशन, जयपुर जैसे संस्थान उम्मीद की जोति जलाएं हैं व सौ रूपए में दस पुस्तकों के सेट की सफलता  बानगी हैं कि किताबें हर विषम हालात का मुकाबला करने में सक्षम हैं, वे नई परिस्थितियों में ढल कर, किसी भी  तकनीकी में लिप्त हो कर ज्ञान-ज्योति प्रज्जवलित रखने में हिचकिचाती नहीं हैं।


गुरुवार, 4 मार्च 2021

Catch them young as an author

 

क्यों न बचपन से ही तैयार  हों लेखक

पंकज चतुर्वेदी



 दुनिया में भारत संभवतया एक मात्र ऐसा देश हैं जहां इतनी सारी बोली-भाषाएँ जीवंत हैं और सौ से अधिक भाषा – बोलियों में जहां प्रकाशन होता है .भारत दुनिया में पुस्तकों का तीसरा सबसे बड़ा प्रकाशक है,  इसके बावजूद हमारे देश में लेखन को एक व्यवसाय के रूप में अपनाने वालों की संख्या बहुत कम है. बमुश्किल ऐसे युवा या बच्चे मिलते हैं जो यह कहें कि वे बड़े हो कर लेखक बनना चाहते हैं . पत्रकार बनने  की  अभिलाषा तो बहुत मिलती है लेकिन एक लेखक के रूप में देश की सेवा करने या  देश के “ज्ञान-भागीदार” होने की उत्कंठा कहीं उभरती दिखती नहीं .  शायद तभी हमारा प्रकाशन उद्योग भले ही तेजी से बढ़ता दिखे लेकिन हमें सन  1913  में रविंद्रनाथ टैगोर को गीतांजली पर नोबल सम्मान मिला , उसके बाद हमारा कोई लेखक वहां तक पहुँच  नहीं पाया . जान लें “गीतांजली” मूल बांग्ला में लिखा गया था लेकिन उसे सम्मान अंग्रेजी संस्करण पर मिला . आज हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के चर्चित लेखकों की लिस्ट देखते हैं तो वह केवल अंग्रेजी के ही हैं . जाहिर है कि हमारी मूल भाषाओँ में लिखे गए साहित्य, पुस्तकों को सही मंच या पहचान मिलना अभी शेष है . यह तभी संभव है कि लेखक को बचपन से तैयार किया जाए .

 किसी देश के सशक्तिकरण में रक्षा, स्वास्थ्य , परिवहन या संचार का सशक्त होना तभी सार्थक  होता है जब उस देश में उपलब्धियों, जन की आकांक्षाओं , भविष्य के सपनों और उम्मीदों को शब्दों में पिरो कर अपने परिवेश के अनुरूप भाषा व् अभिव्यक्ति के साथ व्यक्त करने वालों की भी पर्याप्त संख्या हो . एक पुस्तक या पढ़ी गयी कोई एक घटना किस तरह किसी इंसान के जीवन में आमूलचूल  परिवर्तन ला देती है? इसके कई उदाहरण  देश और विश्व की इतिहास में मिलते हैं, ऐसे बदलाव लाने  वाले शब्दों को उकेरने के लिए भारत अब आठ से 18 वर्ष आयु के बच्चों को उनकी प्रारंभिक अवस्था से ही इस तरह तराशेगा कि वे इक्कीसवीं सदी के भारत के लिए  भारतीय साहित्य के राजदूत के रूप में काम कर सकें . प्रत्येक भारतीय “विश्व नागरिक” हो , इसके लिए अनिवार्य है कि देश की आवाज़ उनकी अपनी भाषा में सुगठित तरीके से वैश्विक मंच पर उभर कर आये .

विदित हो 31 दिसम्बर के “मन की बात” में प्रधान मंत्रीनरेंद्र मोदी  ने कहा था कि भारत भूमि के हर कोने में ऐसे महान सपूतों और वीरांगनाओं ने जन्म लिया, जिन्होंने, राष्ट्र के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया, ऐसे में, यह, बहुत महत्वपूर्ण है कि हमारे लिए किए गए उनके संघर्षों और उनसे जुड़ी यादों को हम संजोकर रखें और इसके लिए उनके बारे में लिख कर हम अपनी भावी पीढ़ियों के लिए उनकी स्मृतियों को जीवित रख सकते हैं। उन्होंने अपने उद्बोधन में युवा लेखकों से आह्वान किया था वे देश के स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में, आजादी से जुड़ी घटनाओं के बारे में लिखें। अपने इलाके में स्वतंत्रता संग्राम के दौर की वीरता की गाथाओं के बारे में किताबें लिखें. भारत अपनी आजादी के 75 वर्ष मनायेगा, तो युवाओं का  लेखन आजादी के नायकों के प्रति उत्तम श्रद्दांजलि होगी। इस दिशा में अब युवा लेखकों के लिए एक पहल की जा रही है जिससे देश के सभी राज्यों और भाषाओं के युवा लेखकों को प्रोत्साहन मिलेगा। देश में बड़ी संख्या में ऐसे विषयों पर लिखने वाले लेखक तैयार होंगे, जिनका भारतीय विरासत और संस्कृति पर गहन अध्ययन होगा। यह सच है कि हमारे देश का हर कस्बा-गाँव अपने भीतर इतिहास, विरासत, शौर्य, लोक , स्वंत्रता संग्राम के किस्से , आधुनिक भारत में अनूठे कार्य आदि के खजाने हैं लेकिन दुर्भाग्य है कि हरजगह उन्हें शोध के साथ प्रमाणिक रूप से अभिव्यक्ति करने वाले लेखक नहीं हैं .जाहिर है कि यह ज्ञान संपदा अगली पीढ़ी तक या सारे देश तक पहुँचने से पहले लुप्त हो सकती हैं .

भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने इस महत्वाकांक्षी योजना के क्रियान्वयन का जिम्मा राष्ट्रीय  पुस्तक न्यास को सौपा है जो कि गत 64 सालों से देश में हर नागरिक को कम लागत की स्तरीय पुस्तकें उनकी अपनी भाषा में पहुँचाने के लिए कार्यरत है .  राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के निदेशक कर्नल युवराज मालिक के अनुसार युवाओं को लेखन का बाकायदा प्रशिक्षण प्रदान करेगा . प्रशिक्षण के लिए आये बाल-लेखकों को विभिन्न प्रकाशन संस्थानों, राष्ट्रीय  व् अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक उत्सवों में भागीदारी का अवसर भी मिलेगा, यही नहीं जब उनकी लेखनी निखर आएगी तो उनकी पुस्तकें प्रकाशित  करने का भी प्रावधान है . प्रशिक्षण अवधि में युवाओं को छात्रवृति भी मिलेगी और उनकी भाषा के विख्यात और स्थापित लेखों का मार्गदर्शन भी . श्री मलिक कहते हैं कि यदि गंभीरता से देखें तो यह योजना राष्ट्रीय  शिक्षा नीति-2020 के उद्देश्यों में निहित एक ज्ञान-आधारित समाज सुगठित करने की दिशा में एक सामाजिक निवेश होगी, जिससे रचनात्मक युवाओं के बीच साहित्य और भाषा की प्रोन्नति के विचार को बढ़ावा मिलेगा । उन्हें भविष्य के लेखकों और रचनात्मक नेताओं के रूप में तैयार करते हुए, यह योजना संचित प्राचीन भारतीय ज्ञान की समृद्ध विरासत को केंद्र में लाना सुनिश्चित करेगी।

यदि बच्चा बचपन से एक से अधिक भाषाओँ को जानता है  तो वह बड़े हो कर खुद के मातृभाषा मेंलिखे गए  कार्य को अन्य भारतीय या विदेशी भाषा में अनूदित कर प्रसारित करने में सक्षम होगा.  यदि यह योजना सफल रहती है तो इससे  उन लेखकों की एक श्रंखला विकसित करने में मदद करेगी जो भारतीय विरासत, संस्कृति और ज्ञान प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए विषयों के एक व्यापक परिदृश्य पर शोध और लेखन कर सकेंगे . सबसे बड़ी बात युवा अपनी मातृभाषा में खुद को व्यक्त कर सकेंगे और उनके लेखन को दुनियाभर में प्रचारित किये जाने का अवसर भी  मिलेगा . करने और वैश्विक / अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए सुअवसर प्रदान करेगी।


 देश की सभी 22  अनुसूचित भाषाओँ में  प्रारंभिक आयु से ही लेखन को एक वृत्ति के रूप में विकसित करने से यह अन्य नौकरी के विकल्प के साथ पठन और लेखन को एक पसंदीदा पेशे के रूप में प्रोत्साहित करने से ना केवल लेखन एक प्रोफेशन के रूप में स्थापित होगा , बल्कि छोटे गाँव - कस्बे के आवाजों को वैश्विक बनने का अवसर भी मिलेगा  . साथ ही कई भाषाओँ को नए लेखक और पाठक भी मिलेंगे, उन भाषाओँ पर मंडरा रहे लुप्त होने के संकट का निदान भी होगा . यदि बाल्यावस्था में ही किसी घटना, स्थान को बारीकी से अवलोकन करने और फिर उसे सुघड़ता से अपने शब्दों में प्रस्तुत करने का गुण विकसित हो जाता है तो ऐसे लोग देश की समस्या, शक्ति , निदान , योजनाओं और क्रियान्वयन पर बेहतर तरीके से कार्य करने लायक होते हैं क्योंकि उनके पास विचार का स्पष्ट चित्र होता है.

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...