My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 26 सितंबर 2021

Stories behind real photographs of Bhagat Singh

 

 27  सितम्बर  शहीदे


आज़म भगत सिंह के जन्मदिन पर ख़ास

 

 भगत सिंह की असली तीन तस्वीर

पंकज चतुर्वेदी

 

शहीदे आज़म भगत सिंह के कई फोटो पोस्टर, टीशर्ट आदि पर दीखते हैं लेकिन असल में उनके असली फोटो चार ही हैं . यह जान लें कि आठ अप्रेल वह तारीख थी जिसने एक विप्लववादी सरदार भगत सिंह को एक विचारक, स्वप्नद्रष्टा और लेखक के तौर पर स्थापित कर दिया था। इसी तारीख से जुड़ी है उनकी सबसे  लोक प्रिय हैट वाली तस्वीर भी। शहीदे आजम भगत सिंह के 23 साल पांच महीने और 23 दिन के छोटे से जीवन का हर दिन अपने में रोमांच, साहस, विचार और देश के प्रति समर्पण की अद्वितीय कहानी है। उनके महज चार असली चित्र उपलब्ध हैं और हर चित्र के पीछे अपने कारण हैं। सरदार भगत सिह का पूरा परिवार क्रांतिकारी था, उनके दादा अर्जुन सिंह, पिता किशन सिंह , चाचा सरदार अजीत सिंह हों या चाचा स्वर्ण सिंह , सभी आजादी के आंदोलन में विप्लवी गतिविधियों के कारण मशहूर और सरकार की नजरों में खटके हुए थे। जब वह पैदा हुए थे तो उनके चाचा सरदार स्वर्ण सिंह जेल में थे। ब्रितानी हुकुमत की खिलाफत के कारण उन्हें सजा हुई थी। जेल में उन्हें ना तो खाना मिल रहा था, ना ही बीमारी का इलाज। वे महज 23 साल की उम्र में जेल में ही शहीद हो गए थे। 


 

दूसरे चाचा सरदार अजीत सिंह तो आजादी के आंदोलन के बडे क्रांतिकारी थे। अंग्रेजों से बचते-बचाते वे विदेष चले गए थे। अब घर में एक चाची विधवा तो दूसरी विधवा जैसी। भगत जब किसी चाची को रेता देखता तो उनके आंसू पोंछता । ‘‘‘चाची रोना नहीं, मैं अंग्रेजों को मार भगाउंगा फिर चाचाजी लौट आएंगे।’’ कभी कहता, ‘चाची , देखना मैं अपने चाचा का बदला जरूर लूंगा।’’ भगत सिंह का पहला उपलब्ध फोटो उनकी ग्यारह साल की अवस्था का हैं। जबकि दूसरा चित्र एक खटिया पर बैठे हाथ में हथकड़ी लगा हुआ। तीसरा चित्र उनके कालेज के दिनों का है जिसमें वे पगड़ी पहने है और सबसे ज्यादा चर्चित और प्रिय चित्र उनका हैट वाला है।

भगत सिंह का हथकड़ी वाला चित्र असल में उनकी पहली गिरफ्तारी के वक्त का है। वे एक बांस की ढीली सी खटिया पर बैठे हैं, उनके सामने कोई आदमी है, हाथ में हथकड़ी लगी है। उनके नंगे सिर पर पर सिखों वाली जूड़ी है। पैरे नंगे हैं, कुरता या शर्ट भी अव्यवस्थित सी है। बात अक्तूबर- 1926 की है। अभी तक भगत सिंह की पहचान क्रांतिकारी के तौर पर नहीं थी, लेकिन अंग्रेज सीआईडी को शक था कि क्रांतिकारियों के घर का यह नौजवान कुछ संदिग्ध लोगों के संपर्क में है। लाहौर में दशहरे के मेले में रामलीला के समय एक बम फटा। पंजाब पुलिस ने मान लिया कि यह धमाका विप्लववादियों ने किया हे। आनन-फानन में भगत सिंह को पकड़ कर लाहौर रेलवे स्टेशन के बगल वाले हवालात में रखा गया। ना अदालत ले गए, ना कोई कानूनी लिखा-पढ़ी हुई और भगत सिंह को कोई तीन सप्ताह हिरासत में रखा गया। बब्बर अकाली आंदोलन के कार्यकर्ता मिलखा सिंह निर्झर ने गुरबचन सिंह भुल्लर को दिए एक साक्षात्कार में बताया था कि असल में यह फोटो उस समय का हे। ठंड के दिन थे। सीआईडी वाले पूछताछ के लिए पेड़ के नीचे खुले में भगत सिंह को ले कर बैठते और पूछताछ करते थे। बाद में साठ हजार रूपए के मुचलके पर उन्हें छोड़ दिया गया था क्योंकि कोई भी प्रमाण उनके विरूद्ध नहीं मिले थे। यह फोटो पुलिस वालों ने ही अपने रिकार्ड के लिए खींचा था। यह तस्वीर भगत सिंह के भाई कुलबीर सिंह को सन 1950 में मिली थी। इस चित्र के पुलिस के रिकार्ड से बब्बर अकाली मूवमेंट के एक वकील तक पहुंचने फिर उसे बितानी सरकार के भय से छुपा कर रखने और आजादी के बाद उसके सामने आने की कहानी  भी बेहद घुमावदार है, बिल्कुल भगत सिंह के जीवन की तरह।

इससे पहले नेशनल कालेज , लाहौर में उनका एक फोटो सन 1924 में खींचा  था जो कि पूरी कक्षा का समूह फोटो था। बाद में उससे निकाल कर उनकी यह तस्वीर लोगों के सामने लाई गई, जिसमें उनके सिर पर पगड़ी है और दाढ़ी-मूंछ भी। यह फोटो भी उनकी शहादत के बाद कालेज के रिकार्ड से निकल कर लोगों तक पहुंचा।

“इन्कलाब जिंदाबाद” और “साम्राज्वाद का नाश हो” के नारों के बीच उभरी भगतसिंह की क्रांतिकारी  विचारक की छबि का प्रतीक बन गया उनका हेट वाला फोटो भी बेहद क्रांतिकारी ढंग से जनता के सामने आ पाया था। इस चित्र में सरदार भगत सिंह के चैहरे रौब, दृढ संकल्प और आंखों की चमक आज भी लोगों को सम्मोहित करती हे। यह कहानी तो सभी को पता हैकि लाहौर गोली कांड के बाद पुलिस से बचने के लिए भगत सिंह ने अपने केश कटवा लिए थे और अंग्रेजी हेट लगा कर वे पुलिस को चकमा दे कर ट्रैन से उनकी नाक के सामने से फरार हो गए थे। उसके बाद भगत सिंह को हैट से प्यार सा हो गया था। जब एच एस आर ए(हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएसन) ने तय कर लिया कि असेंबली में बम फैक कर खुद को गिरफ्तार करवाया जाएगा और फिर अदालत में देश की आजादी की आवश्यकता पर देश को संबोधित किया जाएगा, उसके बाद भगत के सभी साथी उसे असीम प्यार करने लगे थे। वे सभी जानते थे कि यह कारनामा उनके जीवन का अंत का मार्ग प्रशस्त करेगा, लेकिन भगत सिंह का जबरदस्त आत्म विश्वास और मौत के प्रति निर्भरता के भाव से उने चैहरे का नूर बढ़ गया था। आठ अप्र्रैल को दिल्ली का असेंबली में बम फैंका गया था, लेकिन उससे पहले कई दिनों तक भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त असेंबली की कार्यवाही और हालात देखने वहां जाते रहे थे। शायद चार अप्रैल की बात है यानि कांड के चार दिन पहले, साथी जयदेव कपूर ने दिल्ली के ही कश्मीरी गेट के रामनाथ फोटोग्राफर स्टूडियो में इस फोटो को खींचने का इंतजाम किया था। उन्होंने फोटोग्राफर को कहा कि ‘‘मेरे यार की शानदार तस्वीर खींचना, यह हमसे बहुत दूर जा रहा है। ’’

तय तो यह था कि तीन दिन में तस्वीर मिल जाएगी। सनद रहे उस दौर में फोटो खींचना और उसे बनाने की तकनीक बहुद धीमी थी और तीन-चार दिन से पहले फोटो मिलती नहीं थी। काम की अधिकता के चलते रामनाथ आठ तारीख तक फोटो तैयार नहीं कर पाए और असेंबली में हुए धमाके की चर्चा से पूरी दुनिया हिल गई। जयदेव कपूर भागते हुए गए और रामनाथ से फोटो ले कर आए। उसके बाद इसी फोटो ग्राफर को पुलिस ने पुरानी दिल्ली के थाने में बुलाया ताकि अभियुक्तों के फोटो खींचे जा सके। वह देखते से ही पहचान गए, लेकिन मौन रहे।

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भगतसिंह की असली तस्वीर  केवल ऊपर  वाली चार  है - हेट  वाली, पहली गिरफ्तारी वाली , बचपन वाली और चौथी उनके  कालेज के ग्रुप फोटो से ली गयी 

 

उसके बाद जब भगत सिंह को लाहोर गोली कांड में फांसी की सजा हुई तो उनका एक नोट जेल से आया जिसमें उन्होंने कहा कि मेरा नाम हिंदुस्तानी इंक्लाब का प्रतीक बन गया है। अगर में मुस्कुराता हुआ फांसी पर चढता हूं तो हिंदुस्तानी मांओं को प्रेरणा मिलेगी और वे अपने बच्चों को भी भगत सिंह बनने के लिए प्रेरित करेंगी। इस तरह अपनी जिंदगी कुर्बान कर देने वालों की तादाद में भारी बढ़ेतरी होगी। फिर साम्राज्यवाद के लिए इंकलाब के सैलाब का समना कर पाना मुश्किल होगा।’’

एचएसआरए ने यह फोटो और नोट को पोस्टर की शक्ल में तैयार किया और कई अखबारों को भेजा। सभी राजद्रोह  की लटकती तलवार से भयभीत थे लेकिन फांसी के बाद 12 अप्रेल को लाहौर के उर्दू अखबार वंदे मातरम ने इस तस्वीर को छापा। यह अखबार के पन्ने  की जगह पोस्टर के रूप में ही अखबार के बीच रख कर वितरित की गई। हालांकि बाद में अखबार के मालिक लाला फिरोजचंद को भी पुलिस ने पकड़ा।

भगत सिंह की खटिया वाली और हेट वाली तस्वीर उस समय ब्रितानी सरकार की नींद हराम किए थी तो आज भी जब जोर जुल्म की टक्कर का नारा उभरता है तो प्रेरणा और ताकत का स्त्रोत यही दो तस्वीरे बनती हैं।

 

बुधवार, 22 सितंबर 2021

stray animals making trouble

 आफत बनते आवारा पशु 

पंकज चतुर्वेदी


पूरे देश में भले ही गौवंश को बचाने के लिए इंसान की जान लेने में लोग नहीं हिचक रहे हैं उत्तर प्रदेश में लाखों गायें सड़कों पर छुट्टा घूम रही हैं, या तो वे स्वयं किसी वाहन की चपेट में आती हैं या फिर उनके कारण लोग दुर्घटना के शिकार होते हैं। हजारों आवारा गायों का रेवड़ जहां से भी निकलता है, तबाही मचा देता है, बुंदेलखंड में इन्हें ‘अन्ना गाय’ कहा जाता है। विडंबना यह है कि जो ‘पशु संसाधन’ खेती की सेहत सुधारने के साथ-साथ उर्जा की बचत, लोकजीवन की समृद्धि का कारक बन सकता है वह बेसहारा जंगल-खेत -सड़कों पर डोलते हुए लेागों की जान का दुश्मन बन रहा है। 

वैसे तो बुंदेलखंड सदियों से तीन साल में एक बार अल्प वर्शा का शिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। ‘‘ अन्ना प्रथा’’ यानि दूध ना देने वाले मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनेां पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान है। जिनके पास अपने जल सांधन हैं लेकिन वे अन्ना पशुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है तो अचानक ही हजारों अन्ना गायों का रेवड़ आता है व फसल चट कर जाता है। यदि गाय को मारो तो धर्म-रक्षक खड़े हो जाते हैं और खदेड़ों तो बगल के खेत वाला बंदूक निकाल लेता है। गाय को बेच दो तो उसके व्यापारी को रास्ते मं कहीं भी बजरंगियों द्वारा पिटाई का डर। दोनों ही हालात में खून बहता है और कुछ पैसे के लिए खेत बोने वाले किसान को पुलिस-कोतवाली के चक्क्र लगाने पड़ते हैं। यह बानगी है कि बुंदेलखंड में एक करोड़ से ज्यादा चौपाये किस तरह मुसीबत बन रहे हैं और साथ ही उनका पेट भरना भी मुसीबत बन गया है। 



प्रदेश की तुलना में उप्र के हिस्से वाले बुंदेलखंड में मात्र 12 फीसदी ही गोवंश हैं। पिछली पशु गणना के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में गोवंशीय पशुओं की संख्या 1,95,57,067 है, जबकि बुंदेलखंड के सातों जिलों- बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, महोबा, जालौन, झांसी और ललितपुर में यह संख्या 23,50,882  है। इनमें कोई आधे सड़क पर छुट्टा हैं जिन्हें अन्ना पशु कहते हैं।  सरकारी कागजों पर ये पशु किसी गौशाला में बंद है। लेकिन थाना-पुलिस में दर्ज शिकायतें बताती हैं कि अब ये पशु आपसी दुश्मनी भी उपजा रहे हैं। पशुपालन विभाग की मानें तो बुंदेलखड के चित्रकूट मंडल के  चार जिलो में बीते 28 महीने के दौरान 1,29,385 पशु गोशालाओं में 58 करोड़ 92 लाख 37 हजार रुपये का चारा खा गए। 



पिछली सरकार के दौरान  जारी किए गए विशेश बंुदेलखंड पैकेज में दो करोड़ रूपए का प्रावधान महज ‘‘अन्ना प्रथा’’ रोकने के लिए आम लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए था। अल्प वर्शा के कारण खेती ना होने से हताश किसानों को दुधारू मवेशी पालने के लिए प्रोत्साहत करने के लिए भी सौ करोड़ का  प्रावधान था। दो करोड़ में कभी कुछ पर्चे जरूर बंटे थे, लेकिन सौ करोड़ में जिन लोगों ने मवेशी पालने का विकल्प चुना वे भयंकर सूखे में जानवर के लिए चारा-पानी ना होने से परेशान हैं। यहां जानना जरूरी है कि अभी चार दशक पहले तक बुंदेलखंड के हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी। षायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व ख्षतम कर दिया। हैंड पंप या ट्यूबवेल की मृगमरिचिका में कुओं को बिसरा दिया।  जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी नहीं बची है व वन विभाग के डिपो ती सौ किलोमीटर दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे हैं वहां मवेशी के चरने पर रोक है। कुल मिला कर देखें तो बंुदेलखंड के बाशिंदों ने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी और अब इसका खामियाजा इंसान ही नहीं, मवेशी भी भुगत रहे हैं।


यह तथ्य सरकार में बैठे लेाग जानते हैं कि भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है। इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है।  इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है। ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता हे। चीन में डेढ करोड परिवारों को घरेलू उर्जा के लिए गोबर गैस की सप्लाई होती है। यदि गोबर का सही इस्तेमाल हो तो हर साल छह करोड़ टन के लगभग लकड़ी को बचाया जा सकता है। साढे तीन करोड़ टन कोयला बच सकता है। इसे कई करोड़ लेागों को रेाजगार  मिल सकता है। यदि बुंदेलखंड के पचास ला के करीब अन्ना पशुओं से कार्य प्रारंभ किया जाए तो खेती के व्यय को कम करने के लिए कंपोस्ट, बिजली-डीजल व्यय घटाने के लिए गोबर गैस तथा जमीन की सेहत को बरकरार रखने के लिए खेती कर्म में बैल के इस्तेमाल की षुरूआत की जा सकती है। यहां की जमीन कड़ी है और छोटे नटवा यानि बैल से दो बार हल-बखर कर जमीन को खेती के काबिल बनाया जा सकता है। अधिकांश किसान छोटी जोत के हैं सो, उन्हें जब ट्रैक्टर की जगह बैल के इस्तेमाल को प्रेरित किया जाएगा तो उनका खेती का व्यय आधा हो जाएगा। सबसे बड़ी बात अन्ना पशुओं की संख्या घटने से उनकी मेहनत पर संभावित डाका तो नहीं पडेगा। 


वैसे कुछ स्थानों पर समाज ने गौशालाएं भी खोली हैं लेकिन एक जिले में दो हजार से ज्यादा गाय पालने की क्षमता इन गौशालाओं में नहीं है। लेकिन यहां गोबर गैस जैसे अन्य प्रयोग हो नहीं रहे हैं। गौशालओं का खर्चा चल नहीं रहा है। तभी इन दिनों बंुदेलखंड के किसी भी हाईवे पर चले जाएं हजारों गायें सड़क पर बैठी मिलेंगी। यदि किसी वाहन की इन गायों से टक्क्र हो जाए तो हर गांव में कुछ धर्म के ठेकेदार भी मिलेंगे जो तोड़-फोड़ व वसूली करते  हैं , लेकिन इन गाय के मालिकों को इन्हें अपने ही घर में रखने के लिए प्रेरित करने वाले एक भी नहीं मिलेंगे। यह समझना जरूरी है कि गौशाला खोलना सामाजिक विग्रह का कारक बने बेसहारा पशुओं का इलाज नहीं है। वहां केवल बूढ़े या अपाहिज जानवरों को ही रखा जाना चाहिए।  गाय या बैल से उनकी क्षमता के अनुरूप् कार्य लेना अनिवार्य है। इससे एक तो उर्जा की बचत होती है, दूसरा खेती-किसानी की लागत भी कम होती है। जान लें कि छोटी जोत में ट्रैक्टर या बिजली के पंप का खर्चा बेमानी है। इसके अलावा गोबर और गौमूत्र खेती में रासायनिक खाद व दवा की लागत कम करने में सहायक  हैं। यह काम थोड़े से चारे और देखभाल से चार बैलों से लिया जा सकता है।  आज आवार घूम कर आफत बने मवेशियों की अस्सी फीसदी संख्या काम में लाए जाने वाले मवेषियों की है।


बुंदेलखंड में जीवकोपार्जन का एकमात्र जरिया खेती ही है और मवेशी पालन इसका सहायक व्यवसाय। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पशु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगें। हो सकता है कि इस पर भी कुछ कागजी घोड़े दौड़े लेकिन जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनशील लोग नहीं होंगे, मवेशी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।


गुरुवार, 16 सितंबर 2021

Concrete forest eats greenery

 जंगल पर भारी कंक्रीट साम्राज्य

पंकज चतुर्वेदी 


मध्य प्रदेश  में वर्ष  2014-15 से 2019-20 तक 1638 करेाड़ रूपए खर्च कर 20 करोड़ 92 लाख 99 हजार 843 पेड़ लगाने का दावा सरकारी रिकार्ड करता है, अर्थात प्रत्येक पेड़ पर औसतन 75 रूपए का खर्च। इसके विपरीत  भारतीय वन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट कहती है कि प्रदेश  में  बीते छह सालों में कोई 100 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र कम हो गया।  प्रदेष में जनवरी-2015 से फरवरी 2019 के बीच  12 हजार 785 हैक्टेयर वन भूमि दूसरे कामों के लिए आवंटित कर दी गई। मप्र के छतरपुर जिले के बक्सवाहा में हीरा खदान के लिए ढाई लाख पेड़ काटने के नाम पर बड़ा आंदोलन संघ परिवार से जुड़े लोगों ने ही खड़ा करवा दिया वहीं इसी जिले में केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना के चलते घने जंगलों के काटे जाने पर चुप्पी है। इस परियोजना के लिए गुपचुप 6017 सघन वन को 25 मई 2017 को गैर वन कार्य के लिए नामित कर दिया गया, जिसमें 23 लाख पेड़ कटना दर्ज है। वास्तव में यह तभी संभव है जब सरकार वैसे ही सघन वन लगाने लायक उतनी ही जमीन मुहैया करवा सके। आज की तारीख तक महज चार हजार हैक्टर जमीन की उपलब्धता की बात सरकार कह रही है वह भी अभी अस्पष्ट  कि जमीन अपेक्षित वन क्षेत्र के लिए है या नहीं। चूंकि इसकी चपेट में आ रहे इलाके में पन्ना नेशनल पार्क का बाध आवास का 105 वर्ग किलोमीटर इलाका आ रहा है और यह प्रश्न  निरूतरित है कि इसका क्या विकल्प है। नदी जोड़ के घातक पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी ने अपनी रिपोर्ट कोर्ट को 30 अगस्तर 2019 को दी थी जिसमें वन्य जीव नियमों के उल्लघंन, जंगल कटने पर जानवरों व जैव विविधता पर प्रभाव आदि पर गहन शोध  था। आज सरकारी कर्मचारी इन सभी को नजरअंदाज कर परियोजना को शुरू  करवाने पर जोर दे रहे हैं।


 

हरियाली, जनजाति और वन्य जीव के लिए सुरम्य कहे जाने वाले उड़ीसा में  हरियाली पर काली सड़के भारी हो रही हैं। यहां बीते एक दषक में  एक रेाड़ 85 लाख पेड़ सउ़कों के लिए होम कर दिए गए। इसके एवज में महज 29.83 लाख पेड़ ही लगाए जा सके। इनमें से कितने जीवित बचे ? इसका कोई रिकार्ड नहीं।  कानून तो कहता है कि गैर वानिकी क्षेत्र के एक पेड़ काटने पर दो पेड़ लगाए जाने चाहिए जबकि वन क्षेत्र में कटाई पर  एक के बदले दस पेड़ का आदेष है। यहां तो कुल काटे गए पेड़ों का बामुष्किल 16 फीसदी ही बोया गया। 

विश्व संसाधन संस्थान की शाखा ग्लोबल फ़ॉरेस्ट वॉच के अनुसार, 2014 और 2018 के बीच 122,748 हेक्टेयर जंगल विकास की आंधी  में नेस्तनाबूद हो गए। अमेरिका के इस गैर सरकारी संस्था के लिए मैरीलैंड विश्वविद्यालय ने आंकड़े एकत्र किए थे। ये पूरी दुनिया में जंगल के नुकसान के कारणों  को जानने के लिए नासा के सेटेलाईट से मिले चित्रों का आकलन करते हैं। रिपोर्ट बताती है कि केाविड लहर आने के पहले के चार सालों में जगल का लुप्त होना 2009 और 2013 के बीच वन और वृक्ष आवरण के नुकसान की तुलना में लगभग 36 फीसदी अधिक था। 2016 (30,936 हेक्टेयर) और 2017 (29,563 हेक्टेयर) में अधिकतम नुकसान दर्ज किया गया था। 2014 में भारतीय वन और वृक्ष आवरण का नुकसान 21,942 हेक्टेयर था, इसके बाद 2018 में गिरावट आई जब वन हानि के आंकड़े 19,310 हेक्टेयर थे।

दुखद यह है कि 2001 से 2018  के बीच काटे गए 18 लाख हैक्टेयर जगलों में सर्वाधिक नुकसान अपनी प्राकृतिक छटा के लिए मशहूर पूर्वोत्तर राज्यों -  नगालेंड, त्रिपुरा मेघालय और मणिपुर में हुआ , उसके बाद मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में जम कर वन खोए। 



कुछ योजनाएं -सागरमाला परियोजना, मुंबई तटीय सड़क, मुंबई मेट्रो, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी, चार धाम रोड, अहमदाबाद-मुंबई बुलेट ट्रेन, मुंबई-गोवा राजमार्ग का विस्तार आदि जो जंगल उजाड कर उभारी गईं। चार धाम ऑल वेदर रोड के लिए लगभग 40,000 पेड़, मुंबई-गोवा राजमार्ग के विस्तार के लिए 44,000 पेड़, अन्य 8,300 पेड़ काटे जाएंगे। इसके अलावा, बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए महाराष्ट्र में 77 हेक्टेयर वन भूमि को उजाड़ा जा रहा है।  

असम में तिनसुकिया, डिब्रुगढ़ और सिवसागर जिले के बीच स्थित देहिंग पतकली हाथी संरक्षित वन क्षेत्र के घने जंगलों को ‘पूरब का अमेजन’ कहा जाता है।  कोई 575 वर्ग किलोमीटर का यह वन 30 किस्म की विलक्षण तितलियों, 100 किस्म के आर्किड सहित सैंकड़ों प्रजाित के वन्य जीवों व वृक्षों का अनूठा जैव विविधता संरक्षण स्थल है। कई सौ साल पुराने पेड़ों की घटाघोप को अब कोयले की कालिख  प्रतिस्थापित कर देगी  क्योंकि  सरकार ने इस जंगल के 98.59 हैक्टर में कोल इंडिया लिमिटेड को कोयला उत्खनन की मंजूरी दे दी है। यहां करीबी सलेकी इलाके में कोई 120 साल से कोयला निकाला जा रहा है। हालांकि कंपनी की लीज सन 2003 में समाप्त हो गई और उसी साल से वन संरक्षण अधिनियम भी लागू हो गया, लेकिन कानून के विपरत वहां खनन चलता रहा और अब जंगल के बीच बारूद लगाने, खनन करने, परिवहन की अनुमति मिलने से तय हो गया है कि पूर्वोत्तर का यह  जंगल अब अपना जैव विविधता भंडार खो देगा। यह दुखद है कि भारत में अब जैव विविधता नश्ट होने, जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के दुश्परिणाम तेजी से सामने आ रहे हैं फिर भी पिछले एक दषक के दौरान विभिन्न विकास परियोजना, खनन या उद्योगों के लिए लगभग 38.22 करोड़ पेड़ काट डाले गए। विष्व के पर्यावरण निश्पालन सूचकांक(एनवायरमेंट परफार्मेंस इंडेक्स) में 180 देषों की सूची में 177वें स्थान पर हैं। 


पिछले साल मार्च महीने के तीसरे सप्ताह से भारत में कोरोना संकट के चलते लागू की गई बंदी में भले ही दफ्तर-बाजार आदि पूरी तरह बंद हों लेकिन 31 विकास परियोजनाओं के लिए 185 एकड़ घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति देने का काम जरूर होता रहा। सात अप्रैल 2020 को राश्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनबीडब्लूएल ) की स्थाई समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेस पर आयोजित की गई ढेर सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति दे दी गई। समिति ने पर्यावरणीय दृश्टि से संवेदनषील ं 2933 एकड़ के भू-उपयोग परिवर्तन के साथ-साथ 10 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र की जमीन को भी कथित विकास के लिए सौंपने पर सहमति दी। इस श्रेणी में प्रमुख प्रस्ताव उत्तराखंड के देहरादून और टिहरीगढवाल जिलों में लखवार बहुउद्देशीय परियोजना (300 मेगावाट) का निर्माण और चालू है। यह परियोजना बिनोग वन्यजीव अभयारण्य की सीमा से 3.10 किमी दूर स्थित है और अभयारण्य के डिफ़ॉल्ट ईएसजेड में गिरती है। परियोजना के लिए 768.155 हेक्टेयर वन भूमि और 105.422 हेक्टेयर निजी भूमि की आवश्यकता होगी। परियोजनाओं को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी को पिछले साल नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने निलंबित कर दिया था। 


कोविड ने बता दिया है कि यदि धरती पर इंसान को सुख से जीना है तो जंगल और वन्य जीव को उनके नैसर्गिक परिवेष में जीने का अवसर देना ही होगा। इसके अलावा ग्लोबल वार्मिग का खतरा अब सिर पर ही खड़ा है और इसका निदान कार्बन उत्सर्जन रोकना व हरियाली बढ़ाना है। समूची मानवता पर आसन्न् संकट के बावजूद पिछले पांच वर्षों में हमारे देष में ऐसी कई योजनाएं षुरू की गई जिनसे व्यापक स्तर पर हरियाली  नहीं, बल्कि जंगल का नुकसान हुआ। जान लें ंिक जंगल एक प्राकृतिक जैविक चक्र से निर्मित क्ष्ेात्र होता है और उसकी पूर्ति इक्का दुक्का, षहर-बस्ती में लगाए पेड़ नहीं कर सकते।


बुधवार, 15 सितंबर 2021

mosquito, medicine and global worming

 

धरती के गरम होने व निष्प्रभावी  दवाओं से फैल रहा है मलेरिया

पंकज चतुर्वेदी


इस साल भादो की बरसात शुरू हुई और उत्तर प्रदेश और बिहार के कई जिलों में बच्चों के बुखार और उसके बाद असामयिक मौत की खबर आने लगी, अकेले फिरोजाबाद जिले में  ही कोई पचास बच्चे मरे | यस साफ़ हो चुका है कि बच्चों के बड़े स्तर पर बीमार होने का साल कारण मच्छर जनित रोग हैं . दुखद है कि हमारे देश में कई दशक से मलेरिया उन्मूलन चल रहा हैं लेकिन दूरगामी योजना के अभाव में न मच्छर कम हो रहे न ही मलेरिया, उलटे मच्छर  अधिक ताकतवर बन कर अलग-अलग किस्म के रोग के संचारक बन रहे हैं और मलेरिया डेंगू , जापानी बुखार और चिकनगुनिया जैसे नए-नए संहारक शस्त्रों से लैसे हो कर जनता पर टूट रहा है|

यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि हमारे यहां मलेरिया निवारण के लिए इस्तेमाल हो रही दवाएं  असल में मच्छरों को ही ताकतवर बना रही हैं। विशेषरूप से राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों(जहां हाल के वर्षों में अप्रत्याशित रूप से घनघोर पानी बरसा है), बिहार के सदानीरा बाढ़ग्रस्त जिलों मध्यप्रदेश ,पूर्वोंत्तर राज्यें व नगरीय-स्लम में बदल रहे दिल्ली कोलकाता जैसे महानगरों में जिस तरह मलेरिया का आतंक बढ़ा है, वह आधुनिक चिकित्या विज्ञान के लिए चुनौती है । आज के मचछर मलेरिया की प्रचलित दवाओं को आसानी से हजम कर जाते हैं । दूसरी ओर घर-घर में इस्तेमाल हो रही मच्छर -मार दवाओं के बढ़ते प्रभाव के कारण मच्छर अब और जहरीला हो गया है । देश के पहाड़ी इलाकों में अभी कुछ साल पहले तक मच्छर देखने को नहीं मिलता था, अब वहां रात में खुले में सोने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।

एक वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि डेंगू का संक्रमण रोकने में हमारी दवाएं निष्प्रभावी हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ बंगाल, दार्जीलिंग ने बंगाल के मलेरिया ग्रस्त इलाकों में इससें निबटने के लिए इस्तेमाल हो रही दवाओं -डीडीटी, मैलाथिओन परमेथ्रिन और प्रोपोक्सर को ले कर प्रयाग किए और पाया कि मच्छरों में प्रतिरोध पैदा करने वाली जैव-रासायनिक प्रक्रिया के तहत मच्छरों में मौजूद एंजाइम काबरेक्सीलेस्टेरेसेस, ग्लूटाथिओन एस-ट्रांसफेरेसेस और साइटोक्रोम पी450 या संयुक्त रूप से काम करने वाले ऑक्सीडेसेस के माध्यम से उत्पन्न डिटॉक्सीफिकेशन द्वारा प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हुई है। इस अध्ययन से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. धीरज साहा ने बताया, ‘कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण मच्छरों ने अपने शरीर में कीटनाशकों के नियोजित कार्यों का प्रतिरोध करने के लिए रणनीतियों का विकास कर किया है। इसी प्रक्रिया को कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता के विकास रूप में जाना जाता है।गौरतलब है कि एडीस एजिप्टि और एडीस अल्बोपिक्टस डेंगू के रोगवाहक मच्छरों की प्रजातियां हैं, जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैली हैं।

 


शुरूआती दिनों में शहरों को मलेरिया के मामले में निरापद माना जाता था और तभी शहरों में मलेरिया उन्मूलन पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया । 90 के दशक में भारत में औद्योगिकीकरण के विकास के साथ नए कारखाने लगाने के लिए ऐसे इलाकों के जंगल काटे गए, जिन्हें मलेरिया-प्रभावित वन कहा जाता था । ऐसे जंगलों पर बसे शहरों में मच्छरों को बना-बनाया घर मिल गया । जर्जर जल निकास व्यवस्था, बारिश के पानी के जमा होने के आधिक्य और कम क्षेत्रफल में अधिक जनसंख्या के कारण नगरों में मलेरिया के जीवाणु तेजी से फल-फूल रहे हैं । भारत में मलेरिया से बचाव के लिए सन् 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था । गांव-गांव में डी.डी.टी. का छिड़काव और क्लोरोक्वीन की गोलियां बांटने के ढर्रे में सरकारी महकमे भूल गए कि समय के साथ कार्यक्रम में भी बदलाव जरूरी है । धीरे-धीरे इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता मच्छरों में आ गई । तभी यह छोटा सा जीव अब ताकतवर हो कर निरंकुश बन गया है । पिछले कुछ सालों से देश में कोहराम मचाने वाला मलेरिया सबटर्मियम या पर्निसियम मलेरिया कहलाता है । इसमें तेज बुखार के साथ-साथ लकवा, या बेहोशी छा जाती है । हैजानुमा दस्त, पैचिस की तरह शौच में खून आने लगता है । रक्त-प्रवाह रुक जाने से शरीर ठंडा पड़ जाता है । गांवों में फैले नीम-हकीम ही नहीं , बड़े-बड़े डिगरी से लैसे डाक्टर भी भ्रमित हो जाते हैं कि दवा किस मर्ज की दी जाए।  डाक्टर लेबोरेट्री- जांच व दवाएं बदलने में तल्लीन रहते हैं और मरीज की तड़प-तड़प कर मौत हो जाती है ।
हालांकि ब्रिटिश गवर्नमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस(पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपोर्ट में बीस साल पहले ही चेता दिया गया था कि दुनिया के गर्म होने के कारण मलेरिया प्रचंड रूप ले सकता है । गर्मी और उमस में हो रहा इजाफा खतरनाक बीमारियों को फैलाने वाले कीटाण्ुाओं व विषाणुओं के लिए संवाहक के माकूल हालात बना रहा है । रिपोर्ट में कहा गया था कि एशिया में तापमान की अधिकता और ठहरे हुए पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलने-फूलने का अनुकूल अवसर मिल रहा है । कहा तो यह भी जाता है कि घरों के भीतर अंधाधुंध शौचालयों के निर्माण व शैाचालयों के लिए घर के नीचे ही टेंक खोदने के कारण मच्छरों की आबादी उन इलाकों में भी ताबड़तोड़ हो गई है, जहां अभी एक दशक पहले तक मच्छर होते ही नहीं थे । सनद रहे कि हमारे यहां स्वच्छता अभियान के नाम पर गांवों में जम कर शौचालय  बनाए जा रहे हैं, जिनमें ना तो पानी है, ना ही वहां से निकलने वाले गंदे पानी की निकासी की मुकम्मल व्यवस्था।
हरित क्रांति के लिए सिंचाई के साधन बढ़ाने और फसल को कीटों से निरापद रखने के लिए कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल ने भी मलेरिया को पाला-पोसा है । बड़ी संख्या में बने बांध और नहरों के करीब विकसित हुए दलदलों ने मच्छरों की संख्या बढ़ाई है । रही बची कसर फसलों में डीडीटी ऐसे ही कीटनाशकों के बेतहाशा दुरूपयोग ने पूरी कर दी । खाने के पदार्थों में डीडीटी का मात्रा जहर के स्तर तक बढ़ने लगी, वहीं दूसरी ओर मच्छर ने डीडीटी को डकार लेने की क्षमता विकसित कर ली । बढ़ती आबादी के लिए मकान, खेत और कारखाने मुहैया करवाने के नाम पर गत् पांच दशकों के दौरान देश के जंगलों की निर्ममता से कटाई की जाती रही है । कहीं अयस्कों की खुदाई तो जलावन या फर्नीचर के लिए भी पेड़ों को साफ किया गया ।  हालांकि घने जंगल मच्छर व मलेरिया के माकूल आवास होते हैं और जंगलों में रहने वाले  आदिवासी मलेरिया के बड़े शिकार होते रहे हैं । जंगलों के कटने से इंसान के पर्यावास में आए बदलाव और मच्छरों के बदलते ठिकाने ने शहरी क्षेत्रों में मलेरिया को आक्रामक बना दिया ।
विडंबना है कि हमारे देश में मलेरिया से निबटने की नीति ही गलत है - पहले मरीज बनो, फिर इलाज होगा । जबकि होना यह चाहिए कि मलेरिया फैल ना सके, इसकी कोशिश हों । मलेरिया प्रभावित राज्यों में पेयजल या सिंचाई की योजनाएं बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि ठहरा हुआ पानी कहीं ‘‘ मच्छर-प्रजनन केंद्र’’ तो नहीं बन रहा है । धरती का गरम होता मिजाज जहां मलेंरिया के माकूल है, पहीं एंटीबायोटिक दवाओं के मनमाने इस्तेमाल से लोगों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता घट रही है । नीम व ऐसी ही वनोषधियों से मलेरिया व मच्छर उन्मूलन की दवाओं को तैयार करना हमारी प्राथमिकता होना चाहिए ।

सोमवार, 13 सितंबर 2021

Hindi language of mass and folk

 हिंदी: लोकभाषा को राजभाशा क्यों बनाया जा रहा है

पंकज चतुर्वेदी 

सितंबर का पूरा महीना हिंदी का है - बस हिंदी राजकाज की भाषा  बन जाए। भाषा  बहते पानी  के मानिंद है , वह ,वह खुद ही स्वच्छ होती है, अपना रास्ता बनाती है और आगे बढ़ती है। खासकर हिंदी तो देश की कई सौ लोक भाषाओँ  का गुच्छा है, जिसमें नए श ब्द मुहावरों लोकाक्ति का आना जाना लगा रहता है, कुछ किलोमीटर में भौगोलिक या संास्कृतिक क्षेत्र बदला और भाशा में स्थानीय बोली का असर आ गया। ऐसी सैंकड़ेां बहनों की भाषा  को राजभाषा  बनाने के लिए आखिर इतना प्रयास क्यों करना पड़ रहा है ? 

जब हम हिंदी में सम्प्रेषण  के किसी माध्यम की चर्चा करते हैं, उस पर प्रस्तुत सामग्री पर विमर्श करते हैं तो सबसे पहले गौर करना होता है कि समीचित माध्यम को पढ़ने- देखने वाले कौन हैं , उनकी पठन क्षमता कैसी है और वे किस उद््ेश्य से इस माध्यम का सहारा ले रहे हैं। जैसे कि अखबार का पाठक अलग होता है जबकि खेती किसानी की पुस्तकों के ख


रीदार का नजरिया भिन्न। वहीं आफिस की नोटिंग, पत्र का पाठक, लेखक और उसका उद्देश्य अलग होता है। विडंबना है कि हिंदी को राजकाज की भाषा बनाने के सरकारी प्रयासों ने हिंदी को अनुवाद की, और वह भी भाव-विहीन शाब्दीक-संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ऊबाउ भाषा बना कर रख दिया है। 

सन 1857 के आसपास हमारी जनगणना में महज एक प्रतिशत लोग साक्षर पाए गए थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उससे पहले भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आयुर्वेद ज्योतिष अंतरिक्ष का ज्ञान हमारे पास नहीं था। वह था- देश की बोलियों में, संस्कृत , उससे पहले प्राकृत या पालि में जिसे सीमित लोग समझते थे, सीमित उसका इस्तेमाल करते थे । फिर अमीर खुसरो के समय आई हिंदी, हिंद यानि भारत के गोबर पट्टी के संस्कृति, साहित्य व ज्ञान की भाषा, उनकी बोलियों का एक समुच्चय। इधर भक्ति काल का दौर था । । हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 ई. से 1700 ई. तक माना जाता है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।

देश के भक्ति काल को याद करें, इनमें से कई तथाकथित छोटी जातियों के थे,बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे -सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु।इसके अलावा कई मुस्लिम लेखक भी सूफी या साझा संस्कृति की बात कर रहे थे । इस तरह से हिंदी और उसकी बोलियों के उदय ने ज्ञान को आम लोगों तक ले जाने का रास्ता खोला और इसी लिए हिंदी को प्रतिरोध या पंरपराएं तोडने वाली भाषा कहा जाता हैं।  भाषा का अपना स्वभाव होता है और हिंदी के इस विद्रोही स्वभाव के विपरीत जब इसे लोक से परे हट कर राजकाज की या राजभाषा बनाने का प्रयास होता है तो उसमें सहज संप्रेषणीय शब्दों का टोटा प्रतीत होता है। 

आज जिस हिंदी की स्थापना के लिए पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा  मनाया जाता है उसकी सबसे बडी दुविधा है मानक हिंदी यानि संस्कृतनिष्ठ हिंदी। सनद रहे संस्कृत की स्वभाव शास्त्रीय है और दरबारी, जबकि हिंदी का स्वभाव लोक है और विद्रोही । ऐसा नहीं कि आम लेागांे की हिंदी में संस्कृत से कोई परहेज है। उसमें संस्कृत से यथावत लिए गए तत्सम शब्द भी हैं तो संस्कृत से परिशोधित हो कर आए तत्दव शब्द जैसे अग्नि से आग, उष्ट से ऊंट आदि । इसमें देशज शब्द भी थे, यानि बोलियों से आए स्थानीय शब्द और विदेशज भी जो अंग्रेजी, फारसी व अन्य भाषाओं से आए। 

अब राजभाषा में सिखाया जाता है अमुक पंजी के आलेाक में प्रस्तुत आख्या में निर्दिष्ट है  इसे ना तो लिखने वाला और ना ही पढने वाला और ना ही जिसके लिए है, वह समझ रहा है, यदि कोई ऐसी नोटिंग सूचना के अधिकार के तहत मांग भी ले तो उसके पल्ले इसका अर्थ नहीं पड़ेगा। यदि आंकड़ो पर भरोसा करें तो हिंदी में अखबार  व अन्य पठन सामग्री के पाठक हर साल बढ़ रहे हैं, लेकिन जब हिंदी में शिक्षा की बात आती है तो वह पिछड़ता दिखता हैं। यह जानना और समझना अनिवार्य है कि हिंदी की मूल आत्मा उसकी बोलियां हैं और विभिन्न बोलियों को संविधान सम्मत भाषाओं में शािमल करवाने , बोलियों के लुप्त होने पर बेपरवाह रहने से हिंदी में विदेशी और अग्रहणीय शब्दों का अंबार लग रहा है। भारतीय भाषाओं और बोलियों को संपन्न, समृद्ध करे बगैर हिंदी में काम करने को प्रेरित करना मुश्किल है। 

संचार माध्यमों की हिंदी आज कई भाषाओं से प्रभावित है। विशुद्ध हिंदी बहुत ही कम माध्यमों में है। दृश्य और श्रव्य माध्यमों में हिंदी की विकास-यात्रा बड़ी लंबी है। हिंदी के इस देश में जहां की जनता गांव में बसती है, हिंदी ही अधिकांश लोग बोलते-समझते हैं, इन माध्यमों में हिंदी विकसित एवं प्रचारित हुई है। इसके लिए मानक हिंदी कुछ बनी हैं। ध्वनि-संरचना, शब्द संरचना में उपसर्ग-प्रत्यय, संधि, समास, पद संरचना, वाक्य संरचना आदि में कुछ मानक प्रयोग, कुछ पारंपरिक प्रयोग इन दृश्य-श्रव्य माध्यमों में हुए है, किंतु कुछ हिंदीतर शब्दों के मिलने से यहाँ विशुद्ध खड़ी बोली हिंदी नहीं है, मिश्रित शब्द, वाक्य प्रसारित, प्रचारित हो रहे हैं।

यह चिंता का विश्य है कि समाचार पत्रों ने अपने स्थानीय संस्करण निकालने तो षुरू किए लेकिन उनसे स्थानीय भाशा गायब हो गई। जैसे कुछ दशक पहले कानपुर के अखबारों में गुम्मा व चुटैल जैसे षब्द होते थे, बिहार में ट्रेन-बस से ले कर जहाज तक के प्रारंभ होने के समय को ‘‘खुलने’ का सम कहा जाता था। महाराश्ट्र के अखबारों में जाहिरा, माहेती जैसे षब्द होते थे। अब सभी जगह एक जैसे षब्द आ रहे हैं। लगता है कि हिंदी के भाशा-समृद्धि के आगम में व्यवधान सा हो गया है।  तिस पर सरकारी महकमे हिंदी के मानक रूप को तैयार करने में संस्कृतिनिश्ठ हिंदी ला रहे हैं। असल में वे जो मानक हिंदी कहते हैं असल में वह सीसे के लेटर पेस की हिंदी थी जिसमें कई मात्राओं, आधे षब्दों के फाँट नहीं होते थे। आज कंप्यूटर की प्रकाशन-दुनिया में लेड-प्रेस के फाँट की बात करने वाले असल में हिंदी को थाम रहे हैं।

असल में कोई भी भाषा ‘बहता पानी निर्मला’ होती है, उसमें समय के साथ शब्दों का आना-जाना, लेन-देन, नए प्रयोग आदि लगे रहते है।  यदि हिंदी को वास्तव में एक जीवंत भाषा बना कर रखना है तो शब्दों का यह लेन-देन पहले अपनी बोलियों व फिर भाषाओं से हो, वरना हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी। जान लें कि हिंदी का आज का मानक रूप से बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि बोलियों से ही उभरा है और इसकी श्री-वृद्धि के लिए इन बोलियों को ही हिंदी की पालकी संभालनी होगी। ऐसे में सरकारी आफिसों के कर्मचारी खुद ब खुद हिंदी को अपनाएंगे बस उसे राजभाशा के षब्द कोश से निकाल कर लोकभाशा में ढाल दें। 



मंगलवार, 7 सितंबर 2021

Demand for Independent Enquiry of Delhi riot investigation

 फिर क्यों ना हो दिल्ली दंगों के जांच की जांच

पंकज चतुर्वेदी 


 02 सितंबर 2021 ‘‘बंटवारे के बाद के सबसे बुरे दंगे की जैसी जांच दिल्ली पुलिस ने की है, यह दुखदाई है। जब इतिहास पलटकर इसे देखेगा तो यह लोकतंत्र के प्रहरियों को दुख पहुंचाएगा।’’ यह आदेश  देते हुए दिल्ली की अदालत के एडिशनल सेशन जज  विनोद यादव ने शाह आलम (पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन के भाई), राशिद सैफी और शादाब को मामले से बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि यह जांच संवेदनहीन और निष्क्रिय साबित हुई है। कोर्ट ने कहा कि ऐसा लगता है जैसे कॉन्सटेबल को गवाह के तौर पर प्लांट किया गया था। जज विनोद यादव ने कहा कि यह केस करदाताओं की मेहतन की कमाई की बर्बादी है। कोर्ट ने यह भी कहा कि ये और कुछ नहीं बल्कि, पुलिस ने हमारी आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की है।जज ने कहा- मैं खुद को यह कहने से रोक नहीं पा रहा हूं कि जब लोग बंटवारे के बाद के सबसे बुरे इस दंगे को पलटकर देखेंगे तो, आधुनिक तकनीकों के बाद भी सही जांच करने में पुलिस की नाकामी देखकर लोकतंत्र के प्रहरियों को दुख पहुंचेगा।



 कोर्ट के आदेश  में लिखा है -‘‘ ऐसा लगता है जैसे पुलिस ने सिर्फ चार्ज शीट दाखिल कर के गवाहों को, तकनीकी सुबूत या असली आरोपी को ढूंढने की कोशिश किए बिना केस को हल कर दिया।’’ विदित हो गत वर्ष 24 फरवरी को दंगाइयों ने भजनपुरा गली नंबर-15 में रहने वाले ओम सिंह के खजूरी खास करावल नगर रोड ई-पांच स्थित पान के खोखे को जला दिया था। इस घटना के अगले दिन दंगाइयों ने चांद बाग क्षेत्र में मुख्य वजीराबाद रोड पर हरप्रीत सिंह की दुकान आनंद टिंबर फर्नीचर में लूटपाट के बाद आग लगा दी थी। दयालपुर थाने में दर्ज अलग-अलग मुकदमों में पुलिस ने दिल्ली दंगे के मुख्य आरोपित एवं आप के पार्षद रहे ताहिर हुसैन के भाई शाह आलम , राशिद सैफी और शादाब को आरोपित बनाया था। दोनों ही मामलों में एक-एक कांस्टेबल की गवाही दिलवाई गई। कोर्ट में जब केस चला तो पता चला कि मामले में पुलिसवालों के अलावा कोई गवाह ही नहीं है। आरोपियों से कोई हथियार नहीं मिला है, न ही उनकी उपस्थिति को दर्शाता वीडियो फुटेज अब तक पेश किया गया। कोर्ट में सिद्ध हुआ कि पुलिस कांस्टेबलों ने झूठी गवाही दी है, वह घटनास्थल पर नहीं थे। वह मौके पर होते तो पुलिस कंट्रोल रूम को काल कर सूचना देते, लेकिन इसका कोई रिकार्ड पुलिस के पास नहीं है।


02 सितंबर 2021 : दिल्ली हाई कोर्ट : एक ही मामले में पांच एफआईआर। घटना एक  रिपोर्टकर्ता पांच। गवाह भी समान और मुजरिम भी समान। कोर्ट ने पुलिस को खरी-खरी सुनाई व चार एफआईआर रद्द कर दीं। 

03 सितंबर 2021 : दिल्ली हाईकोर्ट ने फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली हिंसा के दौरान हेड कॉन्स्टेबल रतन लाल की हत्या के मामले के साथ-साथ एक डीसीपी को घायल करने के मामले में 5 आरोपियों को शुक्रवार को जमानत दे दी। जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद ने आदेश पारित करते हुए कहा कि अदालत की राय है कि याचिकाकर्ताओं को लंबे समय तक सलाखों के पीछे नहीं रखा जा सकता है और उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों की सत्यता का परीक्षण ट्रायल के दौरान भी किया जा सकता है। पुलिस ने फुरकान, आरिफ, अहमद, सुवलीन और तबस्सुम को पिछले साल गिरफ्तार किया था। हाईकोर्ट ने महिला सहित पांच आरोपियों को जमानत देते हुए शुक्रवार को कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोध और असहमति जताने का अधिकार मौलिक है। कोर्ट ने कहा कि इस विरोध करने अधिकार का इस्तेमाल करने वालों को कैद करने के लिए इस कृत्य का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि यह सुनिश्चित करना अदालत का संवैधानिक कर्तव्य है कि राज्य की अतिरिक्त शक्ति की स्थिति में लोगों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से मनमाने ढंग से वंचित नहीं किया जाए।



04 सितंबर 2021 : दिल्ली की विषेश जज की आदलत में पता चला कि दंगे के दौरान षेरपुर में जीषान की दुकान जलाने के मामले में पुलिस ने दयालपुर थाने में ही दो एफआईआर दर्ज कर ली थी - एक 109/2020 और दूसरी 117/2020। 

दिनांक 20 जून, 2020 : दिल्ली की एक अदालत में फ़ैसल को जमानत देने वाले जज विनोद यादव ने कहा कि इस मामले के गवाहों के बयानों में अंतर है और मामले में नियुक्त जांच अधिकारी ने ख़ामियों को पूरा करने के लिए पूरक बयान दर्ज कर दिया है। अदालत ने अपने आदेश में कहा, ‘जांच अधिकारी ने इन लोगों में से किसी से भी बात नहीं की और सिर्फ़ आरोपों के अलावा कोई भी ठोस सबूत नहीं है, जिसके दम पर यह साबित किया जा सके कि फ़ैसल ने इन लोगों से दिल्ली दंगों के बारे में बात की थी।’

29 मई 2020 : दिल्ली हाई कोर्ट ने एक अभियुक्त फिरोज खान को जमानत देते हुए पुलिस से पूछा कि आपकी प्रथम सूचना रिपोर्ट में तो 250 से 300 की गैरकानूनी भीड का उल्लेख है। आपने उसमें से केवल फिरोज व एक अन्य अभियुक्त को ही कैसे पहचाना? पुलिस के पास इसका जवाब नहीं था और फिरोज को जमानत दे दी गई।

27 मई 2020 : दिल्ली पुलिस की स्पेषल ब्रांच ने साकेत कोर्ट में जज धर्मेन्द्र राणा के सामने जामिया के छात्र आसिफ इकबाल तनहा पेश किया गया था। इस ममले में भी आसिफ को न्यायिक हिरासत में भेजते हुए जज ने कहा कि दिल्ली दंगों की जांच दिशाहीन है । मामले की विवेचन एकतरफा है । कोर्ट ने पुलिस उपायुक्त को भी निर्देश दिया कि वे इस जांच का अवलोकन करें ।

25 मई 2020 :  पिंजड़ा तोड़ संगठन की नताशा और देवांगना को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के सामने प्रदर्शन करने के आरोप में गिरफ्तार किया। अदालत ने कहा कि उन्होंने प्रदर्शन करने का कोई गुनाह नहीं किया इसलिए उन्हें जमानत दी जाती है । यही नहीं अदालत ने धारा धारा 353 लगाने को भी अनुचित माना। अदालत ने कहा कि अभियुक्त केवल प्रदर्शन कर रहे थे । उनका इरादा किसी सरकारी कर्मचारी को आपराधिक तरीके से उनका काम रोकने का नहीं था। इसलिए धारा 353 स्वीकार्य नहीं है ।


दिल्ली पुलिस की जांच तब और संदिग्घ हो गई जब केस नंबर 65/20 अंकित षर्मा हत्या और केस नंबर 101/20 खजूरी खास की चार्जषीट में कहा गया कि 8 जनवरी को षाहीन बाग में ताहिर हुसैन की मुलाकात खालिद सैफी ने उमर खालिद से करवाई और तय किया गया कि अमेरिका के राश्ट्रपति के आने पर दंगा करेंगे। हकीकत तो यह है कि 12 जनवरी 2020 तक किसी को पता ही नहीं था कि ट्रंप को भारत आना है और 12 जनवरी को भी एक संभावना व्यक्त की गई थी जिसमें तारीख या महीने का जिक्र था ही नहीं। यह यह तो कुछ ही मामले हैं । दिल्ली पुलिस ने दंगों से संबंधित जांच को एक उपन्यास बना दिया।  पुलिस स्थापित कर रही है कि दिल्ली में नागरिकता कानून के खिलाफ 100 दिन से चल रहे धरनों में ही दंगों की कहानी रची गई। 

दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाके में सीएए के खिलाफ़ शुरू हुए प्रदर्शनों का अंत षर्मनाक दंगों के रूप में हुआ. 23 फ़रवरी से 26 फ़रवरी 2020 के बीच हुए दंगों में 53 लोगों की मौत हो गई। इस दंगे में 40 मुसलमान और 13 हिंदू मारे गए थे। दिल्ली पुलिस ने दंगों से जुड़ी कुल 751 एफ़आईआर दर्ज की,जिनमें से 400 मामलों को सुलझाने का दावा पुलिस का है।.पुलिस कहती है कि 349 मामलों में चार्जशीट दाखिल की गई है. 102 सप्लीमेंट्री चार्जशीट भी दाखिल की गई हैं. 303 मामलों की चार्जशीट पर अदालत ने संज्ञान लिया है। दिल्ली दंगों में शामिल कुल 1825 लोग गिरफ्तार किए गए. जिनमें 869 हिन्दू समुदाय और 956 मुस्लिम थे। इस दंगे से जुड़े 18 लोगों पर यूएपीए लगाया गया और इनमें से 16 मुस्लिम हैं, । दे हिंदू - नताषा और देवांगना को भी मुस्लिम पक्ष की तरफ से ही फंसाया गया। 

सबसे भयानक तो वे दस से अधिक एफआईआर हैं जिनमें लोनी के विधायक नंदकिषोर गूजर, पूर्व विधायक जगदीष प्रधान, मोहन नर्सिंग होम के सुनील, कपिल मिश्रा आदि को सरे आम दंगा करते, लोगों की हत्या करते, माल-असबाब जलाने के आरोप हैं। यमुना विहार के मोहम्मद इलीयास और  मोहम्मद जामी रिजवी ,चांदबाग की रुबीना बानो बानो, प्रेम विहार निवासी सलीम सहित कई लोगों की रिपोर्ट पर पुलिस थाने की पावती के ठप्पे तो लगे हैं लेकिन उनकी जांच का कोई कदम उठाया नहीं गया। इसी तारतम्य में हाई कोर्ट के जज श्री मुरलीधरन द्वारा कुछ वीडियो देख कर दिए गए जांच के आदेष और फिर जज साहब का तबादला हो जाना और उसके बाद उनके द्वारा दिए गए जांच के आदेष पर कार्यवाही ना होना वास्तव में न्याय होने पर षक खड़ा करता है। 

दंगे मानवता के नाम पर कलंक हैं। धर्म, भाषा, मान्यताओं, रंग जैसी विषमताओं के साथ मत-विभाजन होना स्वाभाविक है। एकबारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुंचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देष के विकास, विष्वास और व्यवसाय को होता है। जरूरत इस बात की है कि दंगों के असली कारण, साजिष को सामने लाया जाए तथा मैदान में लड़ने वालों की जगह उन लोगों को कानून का कड़ा पाठ पढ़ाया जाए जो घर में बैठ कर अपने निजी स्वार्थ के चलते लोगों को भड़काते हैं व देष के विकास को पटरी से नीचे लुढकाते हैं। इसी लिए आज जरूरी हो गया है कि दिल्ली दंगों की जांच की जांच किसी निश्पक्ष  एजेंसी से करवाई जाए, यदि हाई कोर्ट के किसी वर्तमान जज इसकी अगुआई करें तो बहुत उम्मीदें बंधती हैं।


पंकज चतुर्वेदी 

स्वतंत्र पत्रकार

#Delhi riots # investigation #Delhi police #pankaj chaturvedi 


How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...