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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

Debt-burdened Agriculture

 कर्जे के बोझ में दबी खेती किसानी

पंकज चतुर्वेदी


महाराष्ट्र सरकार ने बीते तीन सालों  के दौरान किसानों के 39 हज़ार करोड़ के कर्जे माफ़ किये , बावजूद इसके वहां बीते साल जनवरी से नवम्बर के ग्यारह महीनों में 2498 किसानों ने आत्महत्या की. सं 2020 में यह आंकडा 2547 था. यह सरकारी आंकडा है कि औसतन हर दिन दो हज़ार किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं . देश के आधे से अधिक किसान परिवार कर्जे में दबे हैं और औसतन 74 ,121 रूपये प्रति परिवार कर्जा है . इसमें से 69.9 प्रतिशत  कर्ज बेंक या सहकारी समितियों से है जबकि 20.5 फीसदी साहूकारों से . हालांकि भारत की अर्थ  व्यवस्था में खेती अक योगदान 14 % है लेकिन इससे कुल रोजगार का 42 % सृजित होता है .  एक तरफ जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित और चरम मौसम ने देश में दस्तक दे दी है , दूसरी तरफ बढती आबादी का पेट भरने के लिए आत्म निर्भरता अनिवार्य है . जब देश में खेती का 55 फीसदी  बरसात पर निर्भर हो  तो जाहिर है कि खेती- किसानी से कोताही देश की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हो सकता है .

एक साल तक चले किसान आन्दोलन में सबसे बड़ी भूमिका निभाने वाले पंजाब में अभी दिसम्बर 21 में 1200 करोड़ के किसानी कर्जे माफ़ किये गये  लेकिन देखते ही देखते 14 हजार हेक्टेयर अर्थात कुल जमीन का 0.33 प्रतिशत पर खेती बंद हो गई। पश्चिम बंगाल में 62 हजार हेक्टेयर खेत सूने हो गए तो केरल में 42 हजार हेक्टेयर से किसानों का मन उचट गया। देश के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेश का यह आंकड़ा अणु बम से ज्यादा खतरनाक है कि राज्य में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन को उजाड़ा जा रहा है। मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांश अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। यह भी सच है कि मनरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे हैं और मजदूर ना मिलने से किसान खेती को तिलांजलि दे रहे हैं। नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि आंध्र प्रदेश के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं। पंजाब और महाराष्ट्र में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिशत है। इन राज्यों में ही किसानों की खुदकुशी की सबसे अधिक घटनाएं प्रकाश में आई हैं।

 राजस्थान में 61.8 फीसद किसान-परिवार कर्जदार हैं तो उत्तरप्रदेश में आधे से अधिक(50.8 प्रतिशत) किसान-परिवारों पर कर्जा है। मघ्यप्रदेश के 45.7 फीसद किसान-परिवारों पर कर्ज की रकम चढ़ी है तो उत्तराखंड में ऐसे किसान-परिवारों की संख्या 43.8 प्रतिशत हैं।

राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय की रिपोर्ट से यह भी झांकता है कि 2013 से 2019 के बीच कई राज्यों में किसान-परिवारों पर मौजूद कर्जे में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। मिसाल के लिए, असम के किसानों पर छह साल की अवधि में कर्जा 382 प्रतिशत बढ़ा है तो त्रिपुरा के किसानों पर कर्जे की रकम में 378 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। मिजोरम में तो किसान-परिवारों पर कर्जे की रकम में 709 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।

छह सालों में किसान-परिवारों पर कर्जे की रकम में शत-प्रतिशत से ज्यादा बढ़ोत्तरी वाले अन्य राज्यों में प्रमुख हैं छत्तीसगढ़ (110.2 प्रतिशत), हरियाणा (131.5 प्रतिशत), हिमाचल प्रदेश (206.5 प्रतिशत), मध्यप्रदेश (131.8 प्रतिशत), नगालैंड (191.7 प्रतिशत) और सिक्किम (225.1 प्रतिशत)।

 

अब हरियाण को ही लें , जिस राज्य की 81 फीसदी जमीन खेती लायक हो, जहां की दो तिहाई आबादी खेती पर निर्भर हो , जहां 65 प्रतिशत लोग गाँव में रहते हों और वहां की कृषि विकास साल दर साल  साल घटती जाए तो यह न केवल बड़े आरती संकट बल्कि सामजिक विग्रह की तरफ  भी इशारा है . हाल ही में समाप्त हुए कृषि कानून विरोधी आन्दोलन का असर हरियाणा के गाँवों में गहराई से देखा गया, उसके राजनितिक कारक भले ही अन्य कई हों लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देश में कृषि आय के मामले में तीसरे स्थान पर रहने की बावजूद यहा किसान साल भर में औसतन एक चपरासी के वेतन से भी कम मुनाफ़ा निकाल पाता है , एक तो विभिन्न विकास कार्य में जमीन का अधिग्रहण और फिर बढ़ते परिवार के साथ जोत का आकार बहुत कम होना, खेती में लागत बढ़ने , कर्ज के चस्के में फंसा किसान और गैर पारम्परिक फसलों के जरिये जल्दी पैसा कमाने की चाहत ने हरियाणा में खेती के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया है .

नेशनल सेम्पल सर्वे ओर्गेनाजेशन की ताजा सालाना रिपोर्ट बताती है कि हरियाणा के किसान की मासिक आय औसतन 22 , 841 रूपये है . यह तब है जब इस आय में परिवार द्वारा खेती के लिए  कए गए श्रम-मजदूरी की गणना की नहीं गई है – जाहिर है कि यह कमाई एक सबसे नीचे पायदान के सरकारी कर्मचारी से भी बहुत कम है . हरियाण में कोई 24.8 लाख किसान हैं और 15 .28 लाख खेतिहर मजदूर . किसानो के 49 .32  प्रतिसह्त के पास  जोत की जमीन एक हेक्टेयर से भी कम है  , जबकि एक से दो हेक्टेयर वाले किसान 19 .29 फीसदी हैं . 17 . 79 प्रतिशत किसानो के पास चार से दस हेक्टेयर जमीन का मालिकाना हक है  और महज 2 .52 फीसदी किसान ही 10 हेक्टेयर से अधिक के मालिक हैं. शायद तभी राज्य में खेती छोड़ने वालों की संख्या भी बढ़ रही है, जहां सन 1983 में राज्य में 71% पुरुष किसान थे , आज ये घट कर 35 % रह गए हैं इस अवधी में महिला किसानों की संख्या 90 से कम हो कर 61% रह गई .

यही कारण है कि हरियाणा का किसान हर दिन कर्ज के दल दल में धंसता जा रहा हैं , राज्य के 45 लाख 95 ,805 धरती पुत्रों पर इस समय 79,31 हज़ार करोड़ कर्ज की देनदारी है   एक बारगी लगता है कि कर्जदार की संख्या किसान स ज्यादा क्यों है ? असल में कई किसानों पर दो- तीन किस्म के कर्जे चढ़े हैं – बीज , खाद,  बागवानी, पशु या मछली पालन  या सिंचाई के लिए , इस दुश्चक्र में फंसे लगभग ढाई लाख किसान हर साल  बेंक में डिफाल्टर हो जाते हिन् . इसके अलावा आढती या स्थानीय सूद खोर का कर्जा अलग होता है .जान लें सन 2015 में महज 8.75 लाख किसानो पर  राष्ट्रीकृत , भूमि विका या सहकारी बेंक का 56 .336 करोड़ का कर्जा  था . किसानी को चट करते कर्जे की  भयानक तस्वीर यह है कि हरियाणा के 75 फीसदी किसानों की जमीनें सहकारी समिति के पास गिरवी रखी हैं . किसान कर्ज का मूल चूका नहीं पाता  और हर साल उस पर 14  फीसदी सालाना ब्याज बढ़ रहा है और साथ में कर्ज का भार भी . यह तब है कि  विभिन्न सरकारी योजना के तहत कोई 42 लाख हितग्राहियों को 11 हजार करोड़ का लाभ – किसान सम्मान निधि, आप्दमें खराब फसल का मुआवजा आदि के रूप में किसान को दिया जाता है . सरकार ब्याज माफ़ी योजना की भी घोषणा कर चुकी है लेकिन यह तभी संभव है जब किसान मूल की रकम जमा करा सके . राज्य के फतेहाबाद जैसे सबसे छोटे जिले में 95 प्रतिशत  किसान सहकारी समिति और  बेंक दोनों के कर्जे से दबे हैं  कोई 97 हज़ार कर्जाधारी किसानों  में से 70 प्रतिशत डिफाल्टर घोषित हैं  और उनकी जमीन जब्त होने की स्थिति में हैं .

हरियाणा में किसान का संकट खाद –बीज से ले कर सिंचाई और मंडी तक अनंत है , बीज  घटिया मिलते हैं तो कहीं यूरिया के लिए लम्बी कतारें, उस पर भी महंगाई की मार .किसानों के ट्रेक्टर  पर दस साल में कबाड़ा हो जाने के एन जी टी के आदेश की मार ने भी असर डाला है फिर डीज़ल की बेतहाशा कीमतों ने  लागत बढ़ा दी. राज्य के 14 जिलों के 141 विकास खण्डों में से 85  भू जल के मामले में “लाल निशान “ से चिन्हित हैं जबकि 64  विकास खंड को डार्क ज़ोन में दर्ज किया गया है तेजीसे गिर रहे भूजल और धन की खेती की बढती चाहत ने पानी उगाहने के मद में व्यय बढ़ा दिया है, गहरा कुना हो तो पानी उलीचने में ज्यादा बिजली या डीज़ल लगता है . अधिक सिंचाई और जंगल व् अरावली पर हो रहे लगातार हमलों के चलते राज्य में हर साल बंजर और  रेतीली धरती का दायरा भी बढ़ रहा है .

एक बात जान लेना जरूरी है कि किसान को ना तो कर्ज चाहिए और ना ही बगैर मेहनत के कोई छूट या सबसिडी। इससे बेहतर है कि उसके उत्पाद को उसके गांव में ही विपणन करने की व्यवस्था और सुरक्षित भंडारण की स्थानीय व्यवस्था की जाए। किसान को सबसिडी से ज्यादा जरूरी है कि उसके खाद-बीज- दवा के असली होने की गारंटी हो तथा किसानी के सामानों को नकली बचने वाले को फंासी जैसी सख्त सजा का प्रावधान हो। अफरात फसल के हालात में किसान को बिचौलियों से बचा कर सही दाम दिलवाने के लिए जरूरी है कि सरकारी एजंेसिया खुद गांव-गांव जाकर  खरीदारी करे। सब्जी-फल-फूल जैसे उत्पाद की खरीद-बिक्री स्वयं सहायता समूह या सहकारी के माध्यम से  करना कोई कठिन काम नहीं है।  एक बात और इस पूरे काम में हाने वाला व्यय, किसी नुकसान के आकलन की सरकारी प्रक्रिया, मुआवजा वितरण, उसके हिसाब-किताब में होने वाले व्यय से कम ही होगा। कुल मिला कर किसान के उत्पाद के विपणन या कीमतों को बाजार नहीं, बल्कि सरकार तय करे।

खेती को कर्ज के संकट से उबारने के लिए  धान या नगदी फसल  जैसे उत्पाद के बनिस्पत कम लागत और सिंचाई वाले  मोटे अनाज को बढ़ावा देना , बीज की गुणवता और खाद की जरुरी सप्लाई सुनिश्चित करना, कर्ज और ब्याज के सही आकलन . मंडी  में वाजिब दाम और तत्काल भुगतान , किसान को सरकारी गोदाम का मामूली लागत में इस्तेमाल, छोटे किसान का उत्पाद गाँव में ही खरीदने की योजना आज समय की मांग है .

 

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