My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 25 सितंबर 2022

Such cities will surely drown!

 ऐसे शहर तो डूबेंगे ही !

 पंकज चतुर्वेदी

 

 


इस बार बरसात में बस दिल्ली ही बची थी , बाकी चेन्नई, हैदराबाद , बंगलुरु, लखनऊ, भोपाल, पटना , रांची – बहुत लम्बी  हो जाएगी सूची , मानसून के तनिक सी बौछार में डूब चुके थे . विदा होते मानसून में एक निचले स्तर पर चक्रवाती स्थिति क्या बनी , बादल जैम कर बरसे और फिर विज्ञापनों में यूरोप-अमेरिका को मात देते दिल्ली के विकास के दावे पानी-पानी हो गए.  अत्याधुनिक वास्तुकला का उदाहरण प्रगति मैदान की सुरंग में वाहन फंसे रहे तो तेज रफ़्तार ट्रेफिक के लिए खम्भों पर खड़े बारापुला पर वाहन थम गये, ईएमएस के बहु-मार्गी  पुल तो स्विमिंग पूल बन गए .  बस  शहर – सडक का नाम बदलते जाएँ कमोवेश यही स्थित सारे देश के उन नगरों की है जिनको हम स्मार्ट सिटी बनाना चाहते हैं . दुर्भाग्य है कि देश के शहरों में अब बरसात आनंद ले कर नहीं आती,  यहां बरसात का मतलब है अरबों रूपए की लागत से बने फ्लाईओवर हों या अंडर पास या फिर छह लेन वाली सडक़ेंहर जगह इतना पानी होता है कि जिंदगी ही ठिठक जाए। दुर्भाग्य है कि शहरों में हर इंसान येन-केन प्रकारेण भरे हुए पानी से बच कर बस अपने मुकाम पर पहुंचना चाहता है लेकिन वह सवाल नहीं करता कि आखिर ऐसा क्यों व कब तक ?

 

बात अकेले महानगरों की ही नहीं है यह तो अब गोरखपुर , बलिया, जबलपुर या बिलासपुर जैसे मध्यम शहरों की भी त्रासदी हो गई है कि थोड़ी सी बरसात या आंधी चले तो सारी मूलभूत सुविधांए जमीन पर आ जाती हैं। जब दिल्ली की सरकार हाई कोर्ट के आदेशों की परवाह नहीं करतीं और हाई कोर्ट भरी अपने आदेशों की नाफरमानी पर मौन रहता है तो जाहिर है कि आम आदमी क्यों आवाज उठाएगा। 22 अगस्त 2012 को दिल्ली हाई कोर्ट ने जल जमाव का स्थाई निदान खोजने के लिए  ओदश दिए थे।  31 अगस्त 2016 को दक्षिणी दिल्ली में जलजमाव से  सड़के जाम होने पर एक जनहित याचिका पर  कोर्ट ने कहा था - ‘‘जल जमाव को किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती ।’’  15 जुलाई 2019 को  दिल्ली हाई कोर्ट की श्री जीएस सिस्तानी व सुश्री ज्योति  सिंह की बैंच ने  दिल्ली सरकार को निर्देश दिया था कि  जल जमाव व यातायात बाधित होने की त्वरित निगरानी व निराकरण के लिए ड्रैन का इस्तेमाल किया जाए।  31 अगस्त 2020 को मुख्या न्यायाधीश डीएन पटले व जस्टिस प्रतीक जालान की बैंच ने जल जमाव बाबात एक जनहित याचिका को दिल्ली सरकार को प्रेशित  करते हुए  इसके अस्थाई समाधान खोजने का निर्देश दिया था । कई अन्य राज्यों से भी इस तरह के आदेश हैं लेकिन उसकी हकीकत 30 मई को दिल्ली में पहली एलीवेटेड रोड़- बारापुला पर देखने को मिली, जहां जगह-जगह पानी भरने से 10 किलोमीटर का रास्ता तीन घंटे में भी पूरा नहीं हो पाया। बारिकी से देखा तो उसका कारण महज  जल माव वाले स्थान पर बनी निकासी की कभी सफाई नहीं होना व उसमें मिट्टी, कीचड़, पॉलीथीन आदि का कूड़ा गहरे तक जमा होना ही था, और इस कार्य के लिए हर महीने हजारों वेतन वाले कर्मचारी व उनके सुपरवाईजर पहले से तैनात हैं।

विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौडे़ सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं । सारा दोष  नालों की सफाई ना होने ,बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं । वैसे इस बात की जवाब कोई नहीं दे पाता है कि नालों की सफाई सालभर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है । इसके हल के सपने, नेताओं के वादे और पीड़ित जनता की जिंदगी नए सिरे से शुरू करने की हड़बड़ाहट सब कुछ भुला देती है । यह सभी जानते हैं कि दिल्ली में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सबवे हलकी सी बरसात में जलभराव के स्थाई स्थल हैं,लेकिन कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं कर रहा है कि आखिर निर्माण की डिजाईन में कोई कमी है या फिर उसके रखरखाव में ।

यह सच र्है कि अचानक तेजी से बहुत सारी बरसात हो जाना एक प्राकृतिक आपदा है और जलवायु  परिवर्तन की मार के दौर पर यह स्वाभाविक भी है लेकिन  ऐसी विषम परिस्थिति  उत्पन्न ना हों इसके लिए मूलभूत  कारण पर सभी आँख मूंदे रहते है . दिल्ली, कोलकाता, पटना जैसे महानगरों में बरसात का जल गंगा-जमुना तक जाने के रास्ते छेंक दिए गए. मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही है। बंगलौर में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है । दिल्ली में सैंकड़ो तालाब व यमुना नदी तक पानी जाने के रास्ते पर खेल गाँव से ले कर ओखला तक बसा दिए गए । 

शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा । यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा । विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं । परिणामतः थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है ।

महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं । जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं ? पोलीथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण हैं, जोकि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं । महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है । यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या उपजेगी, जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगा । 

महानगरों में बाढ़ का मतलब है परिवहन और लोगों का आवागमन ठप होना। इस जाम के ईंधन की बर्बादी, प्रदुषण स्तर में वृद्धि और मानवीय स्वभाव में उग्रता जैसे कई दीघ्रगामी दुश्परिणाम होते हैं। इसका स्थाई निदान तलाशने के विपरीत जब कहीं शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य लगाना होता है, जोकि तात्कालिक सहानुभूतिदायक तो होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर स्थाई रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है । जल भराव और बाढ़ मानवजन्य समस्याएं हैं और इसका निदान दूरगामी योजनाओं से संभव है ; यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलींभांति जान लेना चाहिए और इसी सिद्धांत पर भविष्य की योजनाएं बनाना चाहिए ।

 

पंकज चतुर्वेदी

साहिबाबाद, गाजियाबाद

201005

 

बुधवार, 21 सितंबर 2022

when our missing soldiers will return!

  

ना जाने कब लौटेंगे हमारे लापता फौजी!

 

                    ... पंकज चतुर्वेदी

 


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को आदेश दिया है कि अप्रैल 1997 में कच्छ की खाड़ी से लापता कैप्टन संजीत भट्टाचार्जी की 83 वर्शीय मां को  भारत सरकार हर तीन महीने में यह अवगत कराए कि 25 साल से पाकिस्तान की जेल में बंद उनके बेटे को लाने के लिए क्या प्रयास किए गए। हालांकि पाकिस्तान इंकार करता है कि संजीत उनकी कैद में हैं लेकिन कई प्रमाण मिले हैं कि गोरखा रायफल के जांबाज कैप्टन कोट लखपत जेल, लाहौर में है। इसी सुनवाई के दौरान एडीशनर सालिसिटर जनरल केएम नटराज ने कोर्ट को यह भी बताया कि भारत सरकार ने पाकिस्तान सरकार को अपने 83 लापता बंदियों की खेज का नोट दिया है ,जिनमें सन 19651971 के युद्ध में पाक सेना द्वारा पकड़े गए जांबांज हैं। ऐसा  नहीं है कि भारत की सरकारें इस दिशा में कुछ कर नहीं रहीं, कई बार प्रतिनिधि मंडल सीमा पार गए, जेलों को दिखाया गया, लेकिन यह किसी से छुपा नहीं है कि यह सब कवायतें महज औपचारिकता होती हैं। इससे पहले एक सितंबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश  आरएस लोढ़ा ने भी उन सैनिकों के मामले को अंतर्राष्ट्रीय  अदालत में ले जाने के निर्देश दिए थे लेकिन अभी तक उस पर अमल हुआ नहीं।

लगभग हर साल संसद में विदेश मंत्री बयान भी देते हैं कि पाकिस्तानी जेलों में आज भी सन 1971 के 54 युद्धबंदी सैनिक हैं, लेकिन कभी लोकसभा में प्रस्ताव या संकल्प पारित नहीं हुआ कि हमारे जाबांजों की सुरक्षित वापिसी के लिए सरकार कुछ करेगी। देश की नई पीढ़ी को तो शायद यह भी याद नहीं होगा कि 1971 में पाकिस्तान युद्ध में देश का इतिहास व विश्व का भूगोल बदलने वाले कई रणबांकुरे अभी भी पाकिस्तान की जेलों में नारकीय जीवन बिता रहे हैं । उन जवानों के परिवारजन अपने लेगों के जिंदा होने के सबूत देते हैं, लेकिन भारत सरकार महज औपचारिकता निभाने से अधिक कुछ नहीं करती है । इस बीच ऐसे फौजियों की जिंदगी पर बालीवुड में कई फिल्में बन गई हैं और उन्हें दर्शकों ने सराहा भी । लेकिन वे नाम अभी भी गुमनामी के अंधेरे में हैं।


उम्मीद के हर कतरे की आस में तिल-दर-तिल घुलते इन जवानों के परिवारजन, अब लिखा-पढ़ी करके थक गए हैं । दिल मानता नहीं हैं कि उनके अपने भारत की रक्षा वेदी पर शहीद हो गए हैं । 1971 के युद्ध के दौरान जिन 54 फौजियों के पाकिस्तानी गुनाहखानों में होने के दावे हमारे देशवासी करते रहे हैं ,उनमें से 40 का पुख्ता विवरण उपलब्ध हैं । इनमें 6-मेजर, 1-कमाडंर, 2-फ्लाईंग आफिसर, 5-कैप्टन, 15-फ्लाईट लेफ्टिनेंट, 1-सेकंड फ्ला.लेफ्टि, 3-स्कावर्डन लीडर, 1-नेवी पालयट कमांडर, 3-लांसनायक, और 3-सिपाही हैं ।

एक लापता फौजी मेजर अशोक कुमार सूरी के पिता डा. आरएलएस सूरी के पास तो कई पक्के प्रमाण हैं, जो उनके बेटे के पाकिस्तानी जेल में होने की कहानी कहते हैं । डा. सूरी को 19741975 में  उनके बेटे के दो पत्र मिले, जिसमें उसने 20 अन्य भारतीय फौजी अफसरों के साथ, पाकिस्तान जेल में होने की बात लिखी थी । पत्रों का बाकायदा ‘‘हस्तलिपि परीक्षण’’ करवाया गया और यह सिद्ध भी हुआ कि यह लेखनी मेजर सूरी की ही है।1979 में डा. सूरी को किसी अंजान ने फोन करके बताया कि उनके पुत्र को पाकिस्तान में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश की किसी भूमिगत जेल में भेज दिया गया है । मेजर सूरी सिर्फ 25 साल की उम्र में ही गुम होने का किस्सा बन गए ।


पाकिस्तान जेल में कई महीनों तक रहने के बाद लौटे एक भारतीय जासूस मोहन लाल भास्कर ने, लापता विंग कमाडंर एचएस गिल को एक पाक जेल में देखने का दावा किया था । लापता फ्लाईट लैफ्टिनेंट वीवी तांबे को पाकिस्तानी फौज द्वारा जिंदा पकड़ने की खबर, ‘संडे पाकिस्तान आब़जर्वरके पांच दिसंबर 1971 के अंक में छपी थी । वीर तांबे का विवाह बेडमिंटन की राष्ट्ीय चेंपियन रहीं दमयंती से हुआ था । शादी के मात्र डेढ़ साल बाद ही लड़ाई छिड़ गई थी । सेकंड लेफ्टिनेंट सुधीर मोहन सब्बरवाल जब लड़ाई के लिए घर से निकले थे, तब मात्र 23 साल उम्र के थे । केप्टर रवीन्द्र कौरा को अदभ्य शौर्य प्रदर्शन के लिए सरकार ने वीर चक्रसे सम्मानित किया था, लेकिन वे अब किस हाल में और कहां हैं, इसका जवाब देने में सरकार असफल रही है । ।


पाकिस्तान के मरहूम प्रधानमंत्री जुल्फकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के तथ्यों पर छपी एक किताब भारतीय युद्धवीरों के पाक जेल में होने का पुख्ता सबूत मानी जा सकती है । बीबीसी संवाददाता विक्टोरिया शोफील्ड की किताब भुट्टो : ट्रायल एंड एक्सीक्यूशनके पेज 59 पर भुट्टो को फांसी पर लटकाने से पहले कोट लखपतराय जेल लाहौर में रखे जाने का जिक्र है । किताब में लिखा है कि भुट्टो को पास की बैरक से हृदयविदारक चीख पुकार सुनने को मिलती थीं । भुट्टो के एक वकील ने पता किया था कि वहां 1971 के भारतीय युद्ध बंदी है । जो लगातार उत्पीड़न के कारण मानसिक  विक्षिप्त हो गए थे ।

कई बार लगता है कि इन युद्धवीरों की वापिसी के मसले किसी भी सरकार के लिए प्राथमिकता नहीं रहे।यहां पता चलता है कि युद्ध बाबत संयुक्त राष्ट् संघ के निर्धारित कायदे कानून महज कागजी दस्तावेज हैं । संयुक्त राष्ट्र के विएना समझौते में साफ जिक्र है कि युद्ध के पश्चात, रेड़क्रास की देखरेख में तत्काल सैनिक अपने-अपने देश भेज दिए जाएंगे । दोनों देश आपसी सहमति से किसी तीसरे देश को इस निगरानी के लिए नियुक्त कर सकते हैं । इस समझौते में सैनिक बंदियों पर क्रूरता बरतने पर कड़ी पाबंदी है । लेकिन भारत-पाक के मसले में यह कायदा-कानून कहीं दूर-दूर तक नहीं दिखा । 1972 में अतंर्राष्ट्ीय रेडक्रास ने भारतीय युद्ध बंदियों की तीन लिस्ट जारी करने की बात कही थी । लेकिन सिर्फ दो सूची ही जारी की गइंर् । एक गुमशुदा फ्लाईग आफ्सिर सुधीर त्यागी के पिता आरएस त्यागी का दावा है कि उन्हें खबर मिली थी कि तीसरी सूची में उनके बेटे का नाम था । लेकिन वो सूची अचानक नदारत हो गई ।

भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि हमारी फौज के कई जवान पाक जेलों में नारकीय जीवन भोग रहे हैं । उन्हें शारीरिक यातनाएं दी जा रही हैं । करनाल के करीम बख्श और पंजाब के जागीर सिंह का पाक जेलों में लंबी बीमारी व पागलपन के कारण निधन हो गया । 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान द्वारा युद्ध बंदी बनाया गया सिपाही धर्मवीर 1981 में जब वापिस आया तो पता लगा कि यातनाओं के कारण उसका मानसिक संतुलन पूरी तरह बिगड़ गया है । सरकार का दावा है कि कुछ युद्ध बंदी कोट लखपतराय लाहौर, फैसलाबाद, मुलतान, मियांवाली और बहावलपुर जेल में है ।

भारत की सरकार लापता फौजियों के परिवारजनों को सिर्फ आस दिए हैं कि उनके बेटे-भाई जीवित हैं । लेकिन कहां है किस हाल में हैं ? कब व कैसे वापिस आएंगे ? इसकी चिंता ना तो हमारे राजनेताओं को है और ना ही आला फौजी अफसरों को । काश 1971 की लड़ाई जीतने के बाद भारत ने पाकिस्तान के 93,000 बंदियों को रिहा करने से पहले अपने एक-एक आदमी को वापिस लिया होता । पूरे पांच साल तक प्रधानमंत्री रहे पीवी नरसिंहराव भी भूल चुके थे कि उन्होंने जून 90 में बतौर विदेश मंत्री एक वादा किया था कि सरकार अपने बहादुर सैनिक अधिकारियों को वापिस लाने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं । लेकिन देश के सर्वोच्च पद पर रहने के दौरान अपनी कुर्सी बचाने के लिए हर कीमत चुकाने की व्यस्तता में उन्हें सैनिक परिवारों के आंसूओं की नमी का एहसास तक नहीं हुआ।

 

  पंकज चतुर्वेदी


 

 

 

 

शनिवार, 17 सितंबर 2022

Angry sea due to oil spill

                                                        तेल रिसाव से गुस्साते समुद्र

पंकज चतुर्वेदी



इसी साल  मई में गोवा के  कई समुद्र तटों पर  तेलीय “कार्सिनोजेनिक टारबॉल  के कारण चिपचिपा रहे थे . गोवा में सन  2015  के बाद 33 ऐसी घटनाएँ हो चुकी हैं . टारबॉल  काले-भूरे रंग के ऐसे चिपचिपे गोले होते हैं जिनका आकार फुटबॉल से ले कर सिक्के तक होता है . ये समुद्र तटों की रेत को भी चिपचिपा बना देते हैं और इनसे बदबू तो आती ही है .गोवा में सिन्कुरिम से ले कर मोराजिम तक, बाघा , अरम्बोल. वारका, केवेलोसिन , बेनेलिम सहित 105 किलोमीटर के अधिकाँश समुद्र तट पर इस तरह की गंदगी आना  बहुत आम बात है . इससे  पर्यटन तो प्रभावित होता ही है , मछली पालन से जुड़े लोगों के लिए यह रोजो-रोटी का सवाल बना जाता है .  इसका कारण है समुद्र में तेल या क्रुद आयल का रिसाव . कई बार यह  रास्तों से गुजरने वाले जहाजों से होता है तो इसका बड़ा कारण विभिन्न स्थानों पर समुद्र की गहराई से कच्चा तेल निकालने वाले संयत्र भी हैं . वैसे भी अत्यधिक पर्यटन और  अनियंत्रित  मछली पकड़ने के ट्रोलर समुद्र की साथ को लगातार तेलिय बना ही रहे हैं .


हाल ही में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशनोग्राफी (एनआईओ) ने एक अध्ययन में देश के पश्चिमी तट पर तेल रिसाव के लिए दोषी तीन मुख्य स्थानों की पहचान कर ली है . इनसे निकलने वाला तेल पश्चिमी और दक्षिण पश्चिमी भारत के गोवा के अलावा  महाराष्ट्र, कर्नाटका के समुद्र तटों को प्रदूषित करने के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं. इस शोध में सिफारिश की गई है कि 'मैनुअल क्लस्टरिंग' पद्धति  अपना कर इन अज्ञात तेल रिसाव कारकों का पता लगाया जा सकता है .

गुजरात के प्राचीन समुद्र तट, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक मोड़ और गुजरात पश्चिमी तट पर सबसे व्यस्त अंतरराष्ट्रीय समुद्र  जलीय मार्ग हैं जो तेल रिसाव के कारण खतरनाक टारबॉल के चलते गंभीर पारिस्थिकीय  संकट के शिकार हो रहे हैं हैं।

एनआईओ गोवा के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में - वीटी राव, वी सुनील, राजवंशी, एमजे एलेक्स और पीटी एंटोनियालॉन्ग द ईस्टर्न अरब सी (ईएएस) नामक जहाजों से सम्म्वेदंशील इलाकों में तेल रिसाव होना पाया गया . यहाँ तक कि कोविद के दौरान लॉक डाउन  में भी ये जहाज तेल की खोज और अंतरराष्ट्रीय टैंकर के संचालन के कारण समुद्र में तेल छोड़ते रहे हैं. सबसे चिंता की बात यह है कि तेल रिसाव की मार समुद्र के संवेदनशील  हिस्से में  ज्यादा है . संवेदनशील क्षेत्र अर्थात कछुआ प्रजनन स्थल, मैंग्रोव, कोरल रीफ्स (प्रवाल भित्तियां) शामिल स्थान मनोहर पर्रीकर के मुख्य्मंत्रितव काल में गोवा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जीपीसीबी) की ओर से तैयार गोवा राज्य तेल रिसाव आपदा आपात योजना में कहा गया था कि गोवा के तटीय क्षेत्रों में अनूठी वनस्पतियों और जीवों का ठिकाना है। इस रिपोर्ट में तेल के बाहव के कारण प्रवासी पक्षियों पर विषम असर की भी चर्चा थी . पता नहीं  दो खण्डों की इतनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट किस लाल बसते में  गूम गई और  तेल की मार से बेहाल समुद्र तटों का दायरा बढ़ता गया .


लगातार चार वर्षों 2017 से 2020 (मार्च-मई) तक हासिल किए गए आंकड़ों के अध्ययन से पता चला कि तेल फैलाव के तीन हॉट स्पॉट ज़ोन है। जहाज से होने वाला तेल रिसाव जोन -1 (गुजरात से आगे ) और 3 (कर्नाटक और केरल से आगे) तीसरा ,जोन -2  जो महाराष्ट्र से आगे है, यह तेल उत्खनन के कारण हैं . कोविड-19 महामारी के कारण लॉकडाउन के दौरान जोन-1 में केवल 14.30 वर्ग किलोमीटर  (1.2 प्रतिशत) तेल रिसाव दर्ज किया गया जो काफी काफी कम था। "जबकि, ज़ोन 2 और 3 में साल-दर-साल तेल रिसाव में कोई बदलाव नहीं आया है  और यह 170.29 वर्ग किमी  से  195.01 वर्ग किमी  के बीच ही रहा है . जाहिर है कि लॉक डाउन  के दौरान भी तेल उत्खनन और अंतरराष्ट्रीय टैंकर यातायात पर कोई असर हुआ नहीं , जिससे तेल रिसाव यथावत रहा .

समुद्र में तेल रिसाव की सबसे बड़ी मार उसके जीव जगत पर पड़ती है, व्हेल, डोल्फिन जैसे जीव अपना पारम्परिक स्थान छोड़ कर दुसरे इलाकों में पलायन करते हैं तो  जल निधि की गहराई में पाए जाने वाले छोटे पौधे, नन्ही मछलियाँ मूंगा जैसे संरचनाओं को स्थाई नुक्सान होता है . कई समुद्री पक्षी मछली पकड़ें नीची आते है और उनके पंखों में तेल चिपक जाता है और वे फिर उड़ नहीं पाते और तड़प –तड़प कर उनके प्राण निकल जाते हैं . यदि चक्रवात प्रभावित इलाकोएँ में तेल रिसाव होता है तो यह तेल लहरों के साथ धरती पर जाता है, बस्तियों में फैलता है और यहाँ उपजी मछलिया खाने से ९इन्सान कई गंभीर रोगों का शिकार होता है .

तेल रिसाव का सबसे प्रतिकूल  प्रभाव तो समुद्र के जल तापमान में वृद्धि है जो की जलवायु परिवर्तन के दौर में धरती के अस्तित्व को बड़ा खतरा है . पृथ्वी-विज्ञान मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र बहुत अधिक प्रभावित हो रहे हैं. सनद रहे ग्लोबल वार्मिंग से उपजी गर्मी का 93 फीसदी हिस्सा समुद्र पहले तो उदरस्थ कर लेते हैं फिर जब उन्हें उगलते हैं तो ढेर सारी व्याधियां पैदा होती हैं। हम जानते ही हैं कि बहुत सी चरम प्राकृतिक आपदाओं जैसे कि बरसात, लू , चक्रवात, जल स्तर में वृद्धि आदि का उद्गम स्थल महासागर या समुद्र  ही होते हैं । जब परिवेश की गर्मी के कारण समुद्र का तापमान बढ़ता है तो अधिक बादल पैदा होने से भयंकर बरसात, गर्मी के केन्द्रित होने से चक्रवात , समुद्र की गर्म भाप के कारण तटीय इलाकों में बेहद गर्मी बढ़ना जैसी घटनाएँ होती हैं ।

असेसमेंट ऑफ क्लाइमेट चेंज ओवर द इंडियन रीजनशीर्षक की यह रिपोर्ट भारत द्वारा तैयार आपने तरह का पहला दस्तावेज हैं जो देश को जलवायु परिवर्तन के संभावित खतरों के प्रति आगाह करता है व सुझाव भी देता है. यह समझना आसान है कि जब सनुद्र की उपरी साथ पर ज्वलनशील तेल की परत दूर तक होगी तो ऐसे जल का तापमान निश्चित ही बढेगा . समुद्र के बढ़ते तापमान के प्रति आगाह करते हुए रिपोर्ट बताती है कि हिंद महासागर की समुद्री सतह पर तापमान में 1951-2015 के दौरान औसतन एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है, जो कि इसी अवधि में वैश्विक औसत एसएसटी वार्मिंग से 0.7 डिग्री सेल्सियस अधिक है। समुद्री सतह के अधक गर्म होने के चलते उत्तरी हिंद महासागर में समुद्र का जल-स्तर 1874-2004 के दौरान प्रति वर्ष 1.06-1.75 मिलीमीटर की दर से बढ़ गया है और पिछले ढाई दशकों (1993-2017) में 3.3 मिलीमीटर प्रति वर्ष तक बढ़ गया है, जो वैश्विक माध्य समुद्र तल वृद्धि की वर्तमान दर के बराबर है.

सागर की विशालता व निर्मलता मानव जीवन को काफी हद तक प्रभावित करती है , हालांकि आम आदमी इस तथ्य से लगभग अनभिज्ञ है । जिस गृह ‘‘पृथ्वी  ’’ पर हम रहते हैं, उसके मौसम और वातावरण में नियमित बदलाव का काफी कुछ दारोमदार समुद्र पर ही होता है । जान लें समुद्र के पर्यावरणीय चक्र मे  जल के साथ-साथ उसका प्रवाह, गहराई में एल्गी की जमावट, तापमान , जलचर जैसे कई बातें शामिल हैं व एक के भी गड़बड़ होने पर समुद्र के कोप से मानव्  जाति बच नहीं पाएगी। समुद्र का विशाल मन वैसे तो हर तरीके के पर्यावरणीय संकट से जूझ लेता है लेकिन यदि एक बार यह ठिठक गया तो उसका कोई निदान हमारे पास नहीं हैं .   समुद्र से तेल निकलना और परिवहन भले ही आज बहुत  आकर्षित कर रहा है लेकिन इससे समुद्र के कोप को बढना  धरती के अस्तित्व के लिए चुनौती है .

शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

Killer mining

 हत्यारा होता खनन

पंकज चतुर्वेदी



 

हरियाणा के नूंह जिला के तावडू थाना क्षेत्र के गांव पचगांव में  अवैध खनन की सूचना मिलने पर कार्यवाही को गए डीएसपी सुरेंद्र विश्नोई को 19 जुलाई को जिस तरह पत्थर के अवैध खनन  से भरे  ट्रक से कुचल कर मार डाला गया , अभी मामले की जांच पूरी हुई नहीं और 10 सितम्बर को नूह में एक अवैध खनन स्थल पर छापेमारी के दौरान अज्ञात लोगों ने पुलिस और जिला खनन विभाग की संयुक्त टीम पर हमला कर दिया . एक पुलिस वाला घायल  भी हुआ . उससे एक बार फिर खनन माफिया के निरंकुश इरादे उजागर हुए हैं . यह घटना  अरावली पर्वतमाला से अवैध खनन की है , वही  अरावली जिसका अस्तित्व है तो गुजरात से दिल्ली तक कोई 690 किलोमीटर का इलाका  पाकिस्तान की तरफ से आने वाली रेत की आंधी से निरापद है और रेगिस्तान होने से बचा है . व्ही अरावली है जहां के वन्य क्षेत्र में कथित अतिक्रमण के कारण पिछले साल लगभग इन्हीं दिनों सवा लाख लोगों की आबादी वाले खोरी गाँव को उजाड़ा गया था,  यह वही अरावली है जिसके बारे में  सुप्रीम कोर्ट ने अक्तूबर 2018 जब सरकार से पूछा कि राजस्थान की कुल 128 पहाड़ियों में से 31 को क्या हनुमानजी उठा कर ले गए? तब सभी जागरूक लोग चौंके कि इतनी सारी पांबदी के बाद भी अरावली पर चल रहे अवैध खनन से किस तरह भारत पर खतरा है.


जब चौड़ी सडकें , गगन चुम्बी इमारतें और भव्य प्रासाद किसी क्षेत्र के विकास का एकमात्र पैमाना बन जाएँ तो जाहिर है कि इसका खामियाजा वहां की जमीन , जल और  जन को ही उठाना पडेगा . निर्माण कार्य से जुडी प्राकृतिक  संपदा  का गैरकानूनी खनन खासकर पहाड़ से पत्थर और नदी से बालू , अब हर राज्य की राजनीति का हिस्सा बन गया है , पंजाब हो या मप्र या बिहार या फिर  तमिलनाडु , रेत खनन के आरोप प्रत्यारोप से कोई भी दल अछूता नहीं हैं . असल में इस दिशा में हमारी नीतियाँ हीं- “गुड खा कर गुलगुले से परहेज” की हैं.



जरा देखिये -बरसात के दिनों में छोटी –बड़ी नदियाँ सलीके से बह सकें , उनके मार्ग में नैसर्गिक गतिविधियाँ हो सकें, इस उद्देश्य से राष्ट्रीय हरित न्यायलय ने समूचे देश में नदियों से रेत निकालने पर 30 जून से चार महीने के लिए पाबन्दी लगाईं हुई है , लेकिन क्या इस तरह के आदेश जमीनी स्तर पर क्रियान्वयित होते हैं ? मप्र के भिंड  जिले में प्रशासन को खबर मिली कि लहार क्षेत्र की पर्रायच रेत खदान पर सिंध नदी में अचानक नदी में आए तेज बहाव के चलते कई ट्रक फँस गए हैं . जब सरकारी बचाव दल वहां गया तो उजागर हुआ कि 72 से अधिक डम्पर और ट्रक बीच नदी में खड़े हो कर  बालू निकाल रहे थे ..



  बस राज्य, शहर, नदी के नाम बदलते जाएँ , अवैध खनन सारे देश में  कानूनों से बेखबर ऐसे ही होता है , यह भी समझ लें कि इस तरह अवैध तरीके से निकाले गए पत्थर या रेत का अधिकांश इस्तेमाल सरकारी योजनाओं ने होता है और किसी भी राज्य में सरकारी या निजी निर्माण कार्य पर कोई रोक है नहीं, सरकारी निर्माण कार्य की तय समय- सीमा भी है – फिर बगैर  रेत-पत्थर के कोई निर्माण जारी रह नहीं सकता. जाहिर है कि कागजी कार्यवाही ही होगी और उससे प्रकृति  बचने से रही .

यह किसी से छुपा नहीं था कि यहां पिछले कुछ सालों के दौरान वैध एवं अवैध खनन की वजह से सोहना से आगे तीन पहाड़ियां गायब हो चुकी हैं। होडल के नजदीक, नारनौल में नांगल दरगु के नजदीक, महेंद्रगढ़ में ख्वासपुर के नजदीक की पहाड़ी गायब हो चुकी है। इनके अलावा भी कई इलाकों की पहाड़ी गायब हो चुकी है। रात के अंधेरे में खनन कार्य किए जाते हैं। सबसे अधिक अवैध रूप से खनन की शिकायत नूंह जिले से सामने आती है। पत्थरों की चोरी की शिकायत सभी जिलों में है।वैसे तो भूमाफिया की नजर दक्षिण हरियाणा की पूरी अरावली पर्वत श्रृंखला पर है लेकिन सबसे अधिक नजर गुरुग्राम, फरीदाबाद एवं नूंह इलाके पर है। अधिकतर भूभाग भूमाफिया वर्षों पहले ही खरीद चुके हैं। जिस गाँव में डीएसपी  श्री विश्नोई जहां शहीद  हुए  या हाल ही में जहां  सरकारी टीम पर हमला हुआ , असल में वे  गाँव भी अवैध है . अवैध खनन की पहाड़ी तक जाने का रास्ता इस गाँव के बीच से एक संकरी पगडण्डी से ही जाता है , इस गाँव के हर घर में डम्पर खड़े हैं . यहाँ के रास्तों में जगह जगह अवरोध हैं , गाँव से कोई पुलिस या अनजान गाडी गुजरे तो पहले गाँव से खबर कर दी जाती है जो अवैध खनन कर रहे होते हैं . यही नहीं पहाड़ी पर भी कई लोग इस बात की निगरानी करते हैं और सूचना देते है कि पुलिस की गाडी आ रही है .


अब  इतना सब आखिर हो यों न ! भले ही अरावली गैर खनन  क्षेत्र घोषित हो लेकिन यहाँ क्रशर धड़ल्ले से चल रहे हैं और क्रशर के लिए  कच्चा  माल तो इन अवैध खनन से ही मिलता है . हरियाणा – राजस्थान  सीमा अपर स्टे जमालपुर के बीवन पहाड़ी पर ही 20 क्रशर हैं , जिनके मालिक सभी रसूखदार लोग हैं.  सोहना के रेवासन ज़ोन में आज भी 15 क्रशर चालू हैं . तावडू में भी पत्थर दरने का काम चल रहा है. हालाँकि इन सभी क्रशर के मालिक कहते हैं कि उनको  कच्चा माल  राजस्थान से मिलता है . जबकि हकीकत तो यह है कि पत्थर उन्ही पहाड़ों का है जिन पर पाबंदी है . हरियाण के नूह जिला पुलिस डायरी बताती है कि वर्ष 2006 से अभी तक 86 बार  खनन माफिया ने पुलिस पर हमले किये . यह एक बानगी है कि खनन माफिया पुलिस से टकराने में डरता नहीं हैं .

 अभी सात दिन पहले ही आगरा के एक वीडियों वायरल हुआ जिसमें अवैध खनन वाली तेरह  ट्रेक्टर ट्रोली  टोल प्लाजा का बेरियर तोड़ कर निकल गई . आखिर इतनी हिम्मत केवल  ट्रेक्टर ड्रायवर में होती नहीं  और इतना दुसाहस करने वाले को यह भरोसा रहता है कि उसका रसूख इस अपराध के परिणाम से उन्हें बचा लेगा

नदी के एक जीवित संरचना है और रेत उसके श्वसन  तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा। भीशण गर्मी में सूख गए नदी के आंचल को जिस निर्ममता से उधेड़ा जा रहा है वह इस बार के  विश्व पर्यावरण दिवस के नारे - केवल एक धरतीऔर प्रकृति के साथ सामंजस्य से टिकाऊ जीवन ’’ के बिलकुल विपरीत है।  मानव जीवन के लिए जल से ज्यादा जरूरी जल-धारांए हैं। नदी महज पानी के परिवहन का मार्ग नहीं होती, वह  धरती के तापमान के संतुलन, जल-तंत्र के अन्य अंग जैसे जलीय जीव व पौधों के लिए आसरा होती है।  लेकिन आज अकेले नदी ही नहीं मारी जा रही, उसकी रक्षा का साहस करने वाले भी मारे जा रहे हैं . साल 2012 में मप्र  के  मुरेना में नूह की ही तरह युवा आइपीएस अफसर नरेंद्र कुमार  को पत्थर से भरे ट्रेक्टर से कुचल कर मार डाला था . कुछ दिन वहां सख्ती हुई लेकिन  फिर खनन-माफिया यथावत काम करने लगा , उसी चम्बल में सन  2015 में एक सिपाही को को मार डाला गया था . इसी मुरेना में सन 2018 में एक डिप्टी  रेंजर की ह्त्या ट्रेक्टर से कुचल कर की गई .यह लम्बा सिलसिला है . आगरा. इटावा.फतेहाबाद से ले कर  गुजरात तक ऐसी घटनाएँ हर रोज होती हैं, कुछ दिन उस पर रोष होता है और यह महज एक अपराध घटना के रूप में कहीं गूम हो जाता है  और उस अपराध के कारक अर्थात पर्यावरण संरक्ष्ण और कानून की पालना पर बात होती नहीं है .

यह जान लें की जब तक निर्माण कार्य से पहले उसमें लगने वाले पत्थर , रेत, ईंट की आवश्यकता  का आकलन और उस निर्माण का ठेका लेने वाले से पहले ही सामग्री जुटाने का स्रोत नहीं तलाशा जाता . अवैध खनन  और खनन में रसूखदार लोगों के दखल को रोका जा सकता नहीं है.  आधुनिकता और पर्यावरण के बीच समन्वयक विकास की नीति पर गंभीरता से काम करना जरुरी है .  अवैध खनन जंगल, नदी , पहाड़, पेड़  और अब जन के जान का दुश्मन बन चुका है . यह केवल  कानून का नहीं , मानवीय और पर्यावरणीय अस्तित्व का मसला है .

बुधवार, 7 सितंबर 2022

Carbon bomb warehouse will not be less than trees alone

 अकेले पेड़ों से नहीं  कम होगा कार्बन बम का गोदाम

पंकज चतुर्वेदी



भारत पहले ही संयुक्त राष्ट्र को आश्वस्त  कर चुका है कि 2030 तक  हमारा देश  कार्बन उत्सर्जन की मौजूदा मात्रा को 33 से 35 फीसदी घटा देगा, लेकिन असल समस्या तो उन देशों के साथ है जो मशीनी  विकास व आधुनिकीकरण के चक्र  में पूरी दुनिया को कार्बन उत्सर्जन का दमघोंटू बक्सा बनाए दे रहे हैं और अपने आर्थिक प्रगति की गति के मंथर होने के भय से पर्यावरण के साथ इतने बड़े दुष्कर्म  को थामने को राजी नहीं हैं। पेरिस में जलवायु परिवर्तन के सम्मेलन में विकसित देश नारे तो बड़े-बड़े लगाते रहे लेकिन कार्बन की मात्रा खुद घटाने के बनिस्पत भारत व ऐसे ही तेजी से विकास की राह पर दौड़ रहे देशों पर दवाब बना रहे हैं। चूंकि भारत में अभी भी बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं जो खाना पकाने के लिए लकड़ी या कोयले के चूल्हे इस्तेमाल कर रहे हैं, सो अंतर्राष्ट्रीय  एजेंसियां परंपरागत ईंधन के नाम पर भारत पर दबाव बनाती रहती हैं, जबकि विकसित देशों  में कार्बन उत्सर्जन के अन्य कारण ज्यादा घातक हैं । यह तो सभी जानते हैं कि वायुमंडल में सभी गैसों की मात्रा तय है और 750 अरब टन कार्बन कार्बन डाय आक्साईड के रूप में वातावरण में मौजूद है। कार्बन की मात्रा बढने का दुष्परिणाम  है कि  जलवायु परिवर्तन व धरती के गरम होने जैसे प्रकृतिनाषक बदलाव हम झेल रहे हैं। कार्बन की मात्रा में इजाफे से दुनिया पर तूफान, कीटों के प्रकोप, सुनामी या ज्वालामुखी जैसे खतरे मंडरा रहे हैं। दुनिया पर तेजाबी बारिष की संभावना बढ़ने का कारक भी है कार्बन की बेलगाम मात्रा।


धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़ , प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते है। आज विष्व में अमेरिका सबसे ज्यादा 1,03,30,000 किलो टन कार्बन डाय आक्साईड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है।  उसके बाद कनाड़ा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं । जापान, जर्मनी, द.कोरिया आदि औद्योगिक देशों में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 20 लाख सत्तर हजार किलो टन या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन डाय आक्साईड ही उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 2030 तक तीन गुणा यानि अधिकतम पांच तक जा सकता है। इसमें कोई शक  नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों की भौगोलिक सीमाएं देख कर तो हमला करती नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देश  हैवह भी अधिकांश  ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बरफ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही चाहिए।


कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने के लिए हमें एक तो स्वच्छ इंधन  को बढ़ावा देना होगा। हमारे देश  में रसोई गैसे की तो कमी है नहीं, हां सिलेंडर बनाने के लिए जरूरी स्टील, सिलेंडर वितरण के लिए आंचलिक क्षेत्रों तक नेटवर्क को विकसित करना और गरीब लोगों को बेहद कम दाम पर गैस उपलब्ध करवाना ही बड़ी चुनौती है। कार्बन उत्सर्जन घटाने में सबसे बड़ी बाधा वाहनों की बढ़ती संख्या, मिलावटी पेट्रो पदार्थों की बिक्री, घटिया सड़केंव आटो पार्टस की बिक्री व छोटे कस्बों तक यातायात जाम होने की समस्या है। देश  में बढ़ता कचरे का ढेर व उसके निबटान की माकूल व्यवस्था ना होना भी कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की बड़ी बाधा है। सनद रहे कि कूड़ा जब सड़ता है तो उससे बड़ी मात्रा में मीथेन, कार्बन मोनो व डाय आक्साईड गैसें निकल कर वायुमंडल में कार्बन के घनत्व को बढ़ाती हैं। साथ ही बड़े बांध, सिंचाई नहरों के कारण बढ़ते दल-दल भी कार्बन डाय आक्साईड पैदा करते हैं।



गर्म होती धरती और कार्बन की मात्रा को समझने के लिए वातावरण और ग्रीन हाउस गैसों के बारे में जानकारी लेना जरूरी है। इन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं. इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड है, मीथेन है, नाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है। इनमें भी सबसे अधिक उत्सर्जन कार्बन डाइऑक्साइड का होता है। इस गैस का उत्सर्जन सबसे अधिक ईंधन के जलने से होता है, खासतौर पर कोयला, डीजल-पेट्रोल जैसो इंर्धन। ये गैसें वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इससे ओजोन परत की छेद का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। पृथ्वी के चारों ओर का वायुमंडल मुख्यतः नाइट्रोजन (78 प्रतिशत  ), ऑक्सीजन (21 प्रतिशत  ) तथा    शेष 1 प्रतिशत  में सूक्ष्ममात्रिक गैसों (ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये बिल्कुल अल्प मात्रा में उपस्थित होती हैं) से मिलकर बना है, जिनमें ग्रीन हाउस गैसें कार्बन


 डाईऑक्साइड
, मीथेन, ओजोन, जलवाष्प, तथा नाइट्रस ऑक्साइड भी शामिल हैं। ये ग्रीनहाउस गैसें आवरण का काम करती है एवं इसे सूर्य की पैराबैंगनी किरणों से बचाती हैं। पृथ्वी की तापमान प्रणाली के प्राकृतिक नियंत्रक के रूप में भी इन्हें देखा जा सकता है। ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह है। यह भी साबित हो चुका है कि ग्रीन हाउस जब वायुमंडल में मौजूद होती हैं तो वे सूरज की गर्मी को अवशोषित करती हैं। जिससे कि हमारे वातावरण का तापमान बढ़ता ही है।


अभी तक यह मान्यता रही है कि पेड़ कार्बन डाय आक्साईड को सोख कर आक्सीजन में बदलते रहते है। सो, जंगल बढ़ने से कार्बन का असर कम होगा। यह एक आंशिक  तथ्य है। कार्बन डाय आक्साईड में यह गुण होता है कि यह पेड़े की वृद्धि में सहायक है।


 लेकिन यह तभी संभव होता है जब पेड़ो को नाईट्रोजन सहित सभी पोषक  तत्व सही मात्रा में मिलते रहें। यह किसी से छिपा नहीं है कि खेतों में बेशुमार  रसायनों के इस्तेमाल से बारिश  का बहता पानी कई गैरजरूरी तत्वों को ले कर जंगलों में पेड़ो तक पहुचता है और इससे वहां की जमीन में मौजूद नैसर्गिक तत्वों की गणित गड़बड़ा जाती है। तभी षहरी पेड़ या आबादी के पास के जंगल कार्बन  नियंत्रण में बेअसर रहते है। यह भी जान लेना जरूरी है कि जंगल या पेड़ वातावरण में कार्बन की मात्रा को संतुलित करने भर का काम करते हैं, वे ना तो कार्बन को संचित करते हैं और ना ही उसका निराकरण। दो दषक पहले कनाड़ा में यह सिद्ध हो चुका था कि वहां के जंगल उल्टे कार्बन उत्सर्जित कर रहे थे।

कार्बन की बढ़ती मात्रा दुनिया में भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं का न्यौता है। जाहिर है कि इससे जूझना सारी दुनिया का फर्ज है, लेकिन भारत में मौजूद प्राकृतिक संसाधन व पारपंरकि ज्ञान इसका सबसे सटीक निदान है। छोटे तालाब व कुंए, पारंपरिक मिश्रित जंगल, खेती व परिवहन के पुराने साधन, कुटी उद्योग का सशक्तिकरण  कुछ ऐसे  प्रयास हैं जो बगैर किसी मशीन  या बड़ी तकनीक या फिर अर्थ व्यवस्था को प्रभावित किए बगैर ही कार्बन पर नियंत्रण कर सकते हैं और इसके लिए हमें पश्चिम  से उधार में लिए ज्ञान की जरूरत भी नहीं है।


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