My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

Prawn farming is destroying the mangroves of Bhitarkanika

  झींगे की खेती उजाड़ रही है भीतरकनिका का मेंग्रोव 

 
पंकज चतुर्वेदी

 
 उड़ीसा के केंद्रपाडा जिले में भीतरकनिका राष्ट्रीय उद्यान भारत का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है और यह “रामसर स्थल” के रूप में संरक्षित है। इसका क्षेत्रफल सन 2002 में  65 हज़ार हेक्टेयर हुआ करता था जो पन्द्रह फ़ीसदी सिमट गया है . भीतरकनिका , ओडिया के दो शब्दों से मिल कर बना है - 'भीतर' अर्थात आंतरिक और 'कनिका' का अर्थ है जो असाधारण रूप से सुंदर है। अभयारण्य में 55 विभिन्न प्रकार के मैंग्रोव हैं जहाँ  मध्य एशिया और यूरोप से आने वाले प्रवासी पक्षी भी इस समय अपना डेरा जमाते  है।
यह ओडिशा के बेहतरीन जैव विविधता वाला दुर्लभ स्थान है. समुद्र  से सटे इसके तट पर  अजूबे कहे जाने वाले  ओलिव रिडले  कछुए  अंडे देते हैं तो  विलक्षण खारे पानी वाले  मगरमच्छों को देखा जा सकता है। यहाँ मिले 23 फूट लम्बे  मगरमच्छ का नाम गिनिस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है . ऐसा कहा जाता है कि देश के खारे पानी के मगरमच्छों की सत्तर फीसदी आबादी यहीं रहती है,  जिनका संरक्षण 1975 में शुरू किया गया था। यूनेस्को द्वारा संरक्षित इस मैंग्रोव को बढ़ते औद्योगीकरण और खनन से पहले से ही खतरा रहा है और अब झींगे की खेती ने इसके सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है .
यह विडम्बना है कि उड़ीसा हाई कोर्ट ने 27 जुलाई 2021 को राज्य सरकार को आदेश दे चुकी है कि भीतरकनिका राष्ट्रिय उद्यान और उसके आसपास से झींगे की खेती के सभी घेरों को तत्काल  समाप्त किया जाये. अदालत का आदेश था कि  ड्रोन या सेटेलाइट से इसका सर्वेक्षण कर  तत्काल “घेरों” को हटाया जाए . लेकिन राज्य सरकार एक तरफ तो इन्हें हटाने के आदेश देती है दूसरी तरफ  इस क्षेत्र में  झींगा खेती को बढ़ावा दे रही है . विदित हो तीन अप्रैल, 2017 को, सर्वोच्च न्यायालय ने 15 राज्यों में उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश को निर्देश दिया था कि वे महत्वपूर्ण आर्द्रभूमि के संरक्षण के मुद्दे को गंभीरता से लें . देश में ऐसी  लगभग 26 जल संरचनाएं  हैं जहां अवैध झींगा 'घेरी' हैं और इससे आर्द्रभूमि को गंभीर नुकसान हो रहा है .
तदनुसार, उड़ीसा उच्च न्यायालय ने दो आर्द्रभूमि - पुरी, खुर्दा , गंजाम जिलों की चिल्का और केंद्रपाड़ा जिले के भितरकनिका संरक्षण हेतु खुद ही पहल की थी .वकील मोहित अग्रवाल को इस मामले में एमिकस क्यूरी नियुक्त किया गया था.
झींगा पालन ओडिशा में खनन के बाद सबसे बड़ी विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाली गतिविधियों में से एक है। कहा जाता है कि शक्तिशाली राजनेता, नौकरशाह और व्यवसायी द्वारा पर्दे के पीछे से गतिविधियों को संचालित करते हैं. एक तो इस काम में बहुत अधिक मुनाफ़ा है, दूसरा समुद्र तट होने के कारण  खारा पानी कि उपलब्धता के कारण झींगे का उत्पादन  सरल होता है , तीसरा कोई दस हज़ार लोग इस कार्य से अपना जीवकोपार्जन  चला रहे है – तभी सरकार इस पर कोई कड़ी कार्यवाही करने को राजी नहीं हैं . अनुमान है कि भितरकनिका  मेंग्रो के आसपास कोई 17  हज़ार 780 हेक्टेयर में झींगे के घेरे बने हुए हैं .
उड़ीसा जो कि पहले भी एक बड़ा चक्रवात झेल चुका है और जलवायु परिवर्तन  के चलते  साल दर साल बढ़ रहे  चक्रवाती खतरे के कारण यहाँ मेंग्रोव् या वर्षा वन का बेहद महत्व है . मैंग्रोव वन धरती तथा समुद्र के बीच एक उभय प्रतिरोधी (बफर) की तरह कार्य करते हैं तथा समुद्री प्राकृतिक आपदाओं से तटों की रक्षा करते हैं. ये तटीय क्षेत्रों में तलछट के कारण होने वाले जान-मान के नुकसान को रोकते हैं. यही नहीं स्थानीय निवासियों द्वारा पारम्परिक रूप इनका प्रयोग भोजन, औषधि, टेनिन, ईंधन तथा इमारती लकड़ी के लिये किया जाता रहा है। तटीक इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों के लिये जीवनयापन का साधन इन वनों से प्राप्त होता है तथा ये उनकी पारम्परिक संस्कृति को जीवित रखते हैं। ऐसे में महज कुछ धन के लिए झींगा उत्पादन कर  मेंग्र्वो को नुकसान पहुँचाने का अर्थ है   खुद ब खुद आपदा को आमंत्रण  देना .
जानना जरुरी है कि दुनिया में जहां भी वर्षा वनों में झींगे के खेत लगाए , वहां जल निधियां उजाड़ गईं, इंडोनेशिया में तो कई जगह भारी पर्यावर्णीय संकट का सामना करना पड़ा , यु एन की एक रिपोर्ट के अनुसार 1980 के बाद से दुनिया भर में मैंग्रोव का लगभग पांचवां नष्ट हो गया है और यह हुआ झींगा की खेती के लिए स्थान देने के कारण . जहाँ झींगे लगाए गए, ढेर सारी कीटनाशक. एंटीबायोटिक्स और कचरों के ढेर ने वर्षा वनों को लीलना शुरू कर दिया . जबकि धरती के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने में इन वनों की महत्वपूर्ण भूमिका है.  यह ग्रीनहाउस गैस कार्बन डाइऑक्साइड को अन्य पेड़ों की तुलना में चार गुना अधिक अवशोषित करते हैं, और इसे अपनी जड़ों में जमा करते हैं. इससे समुद्र तट का स्टार उंचा होता है और यह  चक्रवात की स्थिति में  एक दीवार बन जाते हैं .
भीतरकनिका  राष्ट्रीय  उद्यान  में इस समय आ रहे प्रवासी पक्षियों के लिए भी झींगा खेती खतरा है, विदित हो यदि ये पंछी तट पर लापरवाही से पड़े सादे –गले झींगे को हका लें तो इन्हें एविएशन फ्लू की संभावना होती है और यह बीमारी यदि एक चिडया में लग जाए तो हज़ारों मारे जाते हैं,इन दिनों ओलिव रिडले कछुए के बच्चे समुद्र मार्ग से  दूर देश लौट रहे हैं और मेंग्रो में लगे झींगे के अवैध जाल और घेरे उनका मार्ग रोकते हैं . 
इतने गंभीर पर्यावरणीय संकट और भीतरकनिका  के लिए बड़ा खतरा बनते जा रहे झींगा उत्पादन पर जिला प्रशासन ने ढेर सारे स्वयं सहायता समूह, सहकारी समितियां बना दी हैं और उन्हें  विभिन्न योजनाओं के तहत प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है . जिला प्रशासन का दावा है कि कोर्ट ने तो गैरकानूनी घेरों को हटाने के लिए खान है जिन्हें हटा दिया गया है . उधर  हाई कोर्ट के  एमिकस क्युरी श्री अग्रवाल ने अदालत को बताया है कि  जिला प्रशासन ने ईमानदारी  से हवाई सर्वे किया नहीं जा रहा है ।  वैसे प्रशासन हजारों लोगों के रोजगार की आड़ में घेरों को हटाने से बच  रहा है, जबकि सितम्बर 21 में जर्मनी के पर्यावरण मंत्रालय की एजेंसी  इंटरनेशनल क्लाइमेट इनिशिएटिव के राजदूत स्वयं भीतरकनिका  आये थे और उन्होंने वैकल्पिक रोजगार के लिए एक बड़ी योजना की घोषणा की थी . चूँकि अधिकांश स्थानीय लोग महज मजदूर हैं और इसमें लगा धन रसूखदार लोगों का  है ,सो वह योजना जमीन  पर नहीं दिखी .
दिसम्बर 2020 में ‘इंटिग्रेटेड मेनेजमेंट ऑफ़  वाटर एंड एनवायरनमेंट “ पर एक कार्यशाला का आयोजन भीतरकनिका में किया गया था | इसका आयोजन  राजनगर वन संभाग, चिल्का विकास प्राधिकरण और जीआइझेड इंडिया ने किया था | इस कार्यशाला में वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने बताया था कि भीतरकनिका मैंग्रोव में मीठे पानी का प्रवाह  सन 2001 में जहां  74.64  प्रतिशत था , आज यह घट कर 46 फीसदी रह गया है | जाहिर है कि मीठे पानी के प्रवाह में कमी का मूल कारण खारास्रोता नदी में साफ़ पानी के आगम या क्षमता में गिरावट है | यदि इसके पानी को अभी कहीं भी अविरल बहने से रोका-टोका गया तो  भीतरकनिका मैंग्रोव में खारा पानी बढेगा और यही इसके पूरे तंत्र के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा .

मैंग्रोव में खारा पानी बढ़ने से मगरमच्छों के नदी की तरफ रुख करने से इंसान से उनका  टकराव बढ़ सकता है . इस इलाके में हज़ारों लोग  मछलीपालन से आजीविका चलाते हैं. नदी में यदि मीठा जल घटा तो मछली भी कम होगी , जाहिर है उनकी रोजी रोटी पर भी संकट . ऐसे में यहाँ के नैसर्गिक तन्त्र से छोटी सी छेड़छाड़ प्रकृति को बड़ा स्थायी नुक्सान पहुंचा सकती है .

 
 

 

 

बुधवार, 23 नवंबर 2022

Find a solution to the farmer's compulsion to burn stubble

 पराली जलाने में किसान की मजबूरी का हल खोजें

पंकज चतुर्वेदी 




पिछले साल कई करोड़ के विज्ञापन चले जिसमें किसी ऐसे घोल की चर्चा थी , जिसके डालते ही पराली गायब हो जाती है व उसे जलाना नहीं पड़ता लेकिन जैसे ही मौसम का मिजाज ठंडा हुआ जब दिल्ली-एनसीआर के पचास हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को स्मॉग ने ढंक लिया था । इस बार भी आश्विन मास विदा हुआ और कार्तिक लगा कि हरियाणा- पंजाब से  पराली जलाने के समाचार आने लगे. हालाँकि इस बार हरियाणा, पंजाब और  यूपी _ हर सरकार  आंकड़ों में यह जताने का प्रयास कर रही है कि पिछले साल की तुलना में इस बार पराली कम जली लेकिन  जमीनी हकीकत यह है कि  इस बार दिल्ली नवम्बर के पहले हफ्ते में ही ग्रेप 4 की ग्रिप में थी . इस बार  एक तो मौसम की अनियमितता और ऊपर से बीते चुनाव में पराली जलाने वाले किसानों पर आपराधिक मुकदमे को वापिस लेना राजनितिक वादा बन जाना. जब रेवाड़ी जिले के धारूहेडा से ले कर गाजियाबाद के मुरादनगर तक का वायु गुणवत्ता सूचकांक साढे चार सौ से अधिक था तो मामला सुप्रीम कोर्ट में गया व फिर सारा ठीकरा पराली पर थोप दिया गया। हालांकि इस बार अदालत इससे असहमत थी कि  करोड़ों लोगों की सांस घोटने वाले प्रदूषण का कारण महज पराली जलाना है।


विदित हो केंद्र सरकार ने वर्ष  2018 से 2020-21 के दौरान पंजाब, हरियाणा, उप्र व दिल्ली को पराली समस्या से निबटने के लिए कुल 1726.67 करेाड़ रूपए जारी किए थे जिसका सर्वाािक हिस्सा पंजाब को 793.18 करोड दिया गया। विडंबना है कि  इसी राज्य में सन 2021 में पराली जलाने की 71,304 घटनाएँ दर्ज की गईं , हालाँकि यह पिछले साल के मुकाबले कम थीं लेकिन हवा में जहर भरने के लिए पर्याप्त . विदित हो पंजाब में सन 2020 के दौरान पराली जलाने की 76590 घटनाएं सामने आई, जबकि बीते साल 2019 में ऐसी 52991 घटनाएं हुई थीं। हरियाणा का आंकडा भी कुछ ऐसा ही है . जाहिर है कि आर्थिक मदद , रासायनिक घोल , मशीनों से परली के निबटान जैसे प्रयोग जितने सरल और लुभावने लग रहे हैं, किसान को वे आकर्षित नहीं कर रहे या उनके लिए लाभकारी नहीं हैं .



इस बार तो बारिश के दो लंबे दौर – सितंबर के अंत और अक्टूबर में आये और  इससे पंजाब और हरियाणा के कुछ हिस्सों में धान की कटाई में एक से दो सप्ताह की देरी हुई है,. यह इशारा कर रहा है कि अगली फसल के लिए अपने खेत को तैयार करने के लिए किसान समय के विपरीत तेजी से भाग रहा है, वह मशीन से अवशेष के निबटान के तरीके में लगने वाले समय के लिए राजी नहीं और वह अवशेष को आग लगाने को ही सबसे  सरल तरीका मान रहा है . कंसोर्टियम फॉर रिसर्च ऑन एग्रोइकोसिस्टम मॉनिटरिंग एंड मॉडलिंग फ्रॉम स्पेस के आंकड़ों के मुताबिक, अवशेष जलाने की नौ घटनाएं 8 अक्टूबर को, तीन 9 अक्टूबर को और चार 10 अक्टूबर को हुईं। पंजाब और हरियाणा में बादल छंटने के कारण 11 अक्टूबर को खेत में आग लगने की संख्या बढ़कर 45 और 12 अक्टूबर को 104 हो गई. पराली जलाने की खबर उत्तर प्रदेश भी आने लगी हैं .


किसान का पक्ष है कि पराली को मशीन  से निबटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। विदित हो हरियाणा-पंजाब में कानून है कि धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं की जा सकती है। इसके पीछे धारणा है कि भूजल का अपव्यय रोकने के लिए  मानसून आने से पहले धान ना बोया जाए क्योंकि धान की बुवाई के लिए खेत में पानी भरना होता है। चूंकि इसे तैयार होने में लगे 140 दिन , फिर उसे काटने के बाद गेंहू की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह फसल अवशेष  का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान की फसल की रकवा कम नहीं होता, या फिर खेतों में बरसात का पानी सहेजने के कुंडं नहीं बनते और उस जल से धान की बुवाई 15 मई से करने की अनुमति नहीं मिलती ; पराली के संकट से निजात मिलेगा नहीं। इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रापिकल मेट्रोलोजी, उत्कल यूनिवर्सिटी, नेशनल एटमोस्फिियर रिसर्च लेब व सफर के वैज्ञानिकों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि यदि खरीफ की बुवाई एक महीने पहले कर ली जाए जो राजधानी को पराली के धुए से बचाया जा सकता है। अध्ययन कहता है कि यदि एक महीने पहले किसान पराली जलाते भी हैं तो हवाएं तेज चलने के कारण हवा-घुटन के हालता नहीं होतेव हवा के वेग में यह धुआं बह जाता है। यदि पराली का जलना अक्तूबर-नवंबर के स्थान पर सितंबर में हो तो स्मॉग बनेगा ही नहीं।


किसानों का एक बड़ा वर्ग पराली निबटान की मशीनों पर सरकार की सबसिडी योजना को धोखा मानते हैं . उनका कहना है कि पराली को नष्ट  करने की मशीन  बाजार में 75 हजार से एक लाख में उपलब्ध है, यदि सरकार से सबसिड़ी लो तो वह मशीन  डेढ से दो लाख की मिलती है। जाहिर है कि सबसिडी उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है। पंजाब और हरियाणा दोनों ही सरकारों ने पिछले कुछ सालों में पराली को जलाने से रोकने के लिए सीएचसी यानी कस्टम हाइरिंग केंद्र भी खोले हैं. आसान भाषा में सीएचसी मशीन बैंक है, जो किसानों को उचित दामों पर मशीनें किराए पर देती हैं।



किसान यहां से मशीन   इस लिए नहीं लेता क्योंकि उसका खर्चा इन मशीनों को किराए पर प्रति एकड़ 5,800 से 6,000 रूपए तक बढ़ जाता है। जब सरकार पराली जलाने पर 2,500 रुपए का जुर्माना लगाती है तो फिर किसान 6000 रूपए क्यों खर्च करेगा? यही नहीं इन मशीनों को चलाने के लिए कम से कम 70-75 हार्सपावर के ट्रैक्टर की जरूरत होती है, जिसकी कीमत लगभग 10 लाख रूपए है, उस पर भी डीजल का खर्च अलग से करना पड़ता है। जाहिर है कि किसान को पराली जला कर जुर्माना देना ज्यादा सस्ता व सरल लगता है। उधर  कुछ किसानों का कहना है कि सरकार ने पिछले साल पराली न जलाने पर मुआवजा देने का वादा किया था लेकिन हम अब तक पैसों का इंतजार कर रहे हैं।


दुर्भाग्य है कि पराली जलाना रोकने की अभी तक जो भी योजनाएं बनीं, वे मशीनी  तो हैं लेकिन मानवीय नहीं, वे कागजों -विज्ञापनो पर तो लुभावनी हैं लेकिन खेत में व्याहवारिक नहीं।  जरूरत है कि माईक्रो लेबल पर किसानों के साथ मिल कर  उनकी व्याहवारिक दिक्कतों को समझतें हुए इसके निराकरण के स्थानीय उपाय तलाशें , जिसमें दस दिन कम समय में तैयार होने वाली धान की नस्ल को प्रोत्साहित करना, धान के रकवे को कम करना , केवल  डार्क ज़ोन से बाहर के इलाकों में धान बुवाई की अनुमति आदि शामिल है .मशीने कभी भी पर्यावरण का विकल्प नहीं होतीं, इसके लिए स्वनिंयंत्रण ही एकमात्र निदान होता है।

 

 

मंगलवार, 15 नवंबर 2022

Arunachal Pradesh: Siang is under threat from China

 अरुणाचल प्रदेश : सियांग को खतरा है चीन से

पंकज चतुर्वेदी




 पिछले एक हफ्ते से  सियांग नदी का पानी जैसे ही मत्मेला होना शुरू हुआ , उसके

 किनारे रहने वालों में आशंका और भय बीएस गया है . फले भी ऐसा हुआ है कि जबी-जब नदी के पानी का रंग गन्दला हुआ, इस तेज-गति नदी में लहरें भी ऊँची ऊँची उठीं और सैंकड़ों लोगों के खेत- घर उजाड़ गए . याद करें इससे अक्तूबर-2017, दिसम्बर -18 और 2020 में भी  में इसी नदी का पानी पूरी तरह काला हो गया था और इसका खामियाजा यहा के लोगों को महीनों तक उठाना पडा था .

सियांग नदी का उदभव पश्चिमी तिब्बत के कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील से दक्षिण-पूर्व में स्थित तमलुंग त्सो (झील) से है। तिब्बत में अपने कोई 1600 किलोमीटर के रास्ते में इसेयरलुंग त्संगपो कहते हैं। भारत में दाखिल होने के बाद इस नदी को सियांग या दिहांग नाम से जाना जाता है। कोई 230 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद यह लोहित नदी से जुड़ती है। अरुणाचल के पासीघाट से 35 किलोमीटर नीचे उतरकर इसका जुड़ाव दिबांग नदी से होता है। इसके बाद यह ब्रह्मपुत्र में परिवर्तित हो जाती है। सियांग नदी में उठ रहीं उठती रही रहस्यमयी लहरों के कारण लोगों में भय व्याप्त हो जाता है। आम लोगों में यह धारणा है कि इसके पीछे चीन की ही साजिश है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चीन अरुणाचल प्रदेश के बड़े हिस्से पर अपना दावा करता है और यहाँ वह आए रोज कुछ-न-कुछ हरकतें करता है। अंतरराष्ट्रीय नदियों के प्रवाह में गड़बड़ी कर वह भारत को परेशान करने की साजिशें करता रहा है।

इसी साल एक नवम्बर  की रात सियांग में तेज आवाजें आने लगीं  और देखते ही देखते नदी का पानी गहरा काला और गाढा हो गया साफ़ लग रहा है कि सीमेंट जैसा हजारों टन कीचड़ कहीं से आया था। नदी का कई सौ किलामीटर हिस्से का पानी एकदम काला हो गया है  व पीने के लायक नहीं बचा । वहाँ मछलियाँ भी मर रही हैं । नदी के पानी में सीमेंट जैसा पतला पदार्थ होने की बात जिला प्रशासन ने अपनी रिपोर्ट में कही थी। सनद रहे सियांग नदी के पानी से ही अरुणाचल प्रदेश की प्यास बुझती हैतब संसद में भी इस पर हल्ला हुआ था और चीन ने कहा था कि उसके इलाके में 6.4 ताकत का भूकंप आया थासंभवतया यह मिट्टी उसी के कारण नदी में आई होगी। हालाँकि भूगर्भ वैज्ञानिकों के रिकॉर्ड में इस तरह का कोई भूकंप उस दौरान चीन में महसूस नहीं किया गया था। इससे पहले सन् 2012 में सियांग नदी रातों-रात अचानक सूख गई थी। इससे पहले 9 जून, 2000 को सियांग नदी का जलस्तर अचानक 30 मीटर उठ गया था और लगभग पूरा शहर डूब गयाजिससे संपत्ति की व्यापक क्षति हुई थी। इसके अलावा तिब्बत में एक जल-विद्युत बाँध के ढह जाने से सात लोगों की मौत हो गई थी।

सियांग नदी में यदि कोई गड़बड़ होती है तो अरुणाचल प्रदेश की बड़ी आबादी का जीवन संकट में आ जाता है। पीने का पानीखेतीमछलीपालन सभी कुछ इसी पर निर्भर हैं। सबसे बड़ी बात सियंाग में प्रदूषण का सीधा असर ब्रह्मपुत्र जैसी विशाल नदी और उसके किनारे बसे सात राज्यों के जनजीवन व अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। असम के लखीमपुर जिले में पिछले साल आई कीचड़ का असर आज देखा जा रहा है। वहाँ के पानी में आज भी आयरन की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक पाई जा रही है।

तिब्बत राज्य में यारलुंग सांगपो नदी को शिनजियाँग प्रांत के ताकलीमाकान की ओर मोडऩे के लिए चीन दुनिया की सबसे लंबी सुरंग के निर्माण की योजना पर काम कर रहा है। हालाँकि सार्वजनिक तौर पर चीन ऐसी किसी योजना से इनकार करता रहा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चीन ने इस नदी को जगह-जगह रोककर यूनान प्रांत में आठ जल-विद्युत परियोजनाएँ प्रारंभ की हैं और कुल मिलाकर इस नदी का सारा प्रवाह नियंत्रण चीन के हाथ में है। मई-2017 में चीन भारत के साथ सीमावर्ती नदियों की बाढ़ आदि के आँकड़े साझा करने से इनकार कर चुका है। वह जो आँकड़े हमें दे रहा हैवह हमारे कोई काम के ही नहीं हैं। वैसे यह संभावना भी है कि असमान्य तापमान के चलते  छोटे  हिम- शैलों के पिघलने से पहाड़ों पर तेज प्रवाह के चलते बड़ा  जमीनी कटाव भी हुआ हो.  यह कडवा सच है कि जलवायु परिवर्तन को ले कर  हिमालय के ऊपरी हिस्से सर्वाधिक संवेदनशील हैं  और इसका असर  वहां से नीलने वाली नदियों पर तेजी से पड़ रहा है .

भले ही चीन सरकार के वायदों के आधार पर भारत सरकार भी यह इंकार करे कि चीनअरुणाचल प्रदेश से सटी सीमा पर कोई खनन गतिविधि नहीं कर रहा है। लेकिन हाँगकाँग से प्रकाशित 'साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट की सन् 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि चीन अरूणाचल प्रदेश से सटी सीमा पर भारी मात्रा में खनन कर रहा हैक्योंकि उसे वहाँ चाँदी व सोने के अयस्क के कोई 60 अरब डालर के भंडार मिले हैं। नदी में पानी गंदला होना या लहरें ऊँची होना जैसी अस्वाभाविक बातों का कारण चीन की ऐसी हरकतें भी हो सकता है। भारत सरकार को इस क्षेत्र में अपने खुफिया सूत्र विकसित कर चीन की जल-जंगल-जमीन से जुड़ी गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिएवरना जल-बम का असर परमाणु बम से भी भयंकर होगा।

 

Such Delhi will surely suffocate

शनिवार, 12 नवंबर 2022

Climate change and Ken-Bewa Link

 नई चुनौतियां के परिपेक्ष्य में नदी जोड़ पर पुनर्विचार जरूरी

पंकज चतुर्वेदी



जलवायु परिवर्तन का भयानक असर हिंदुस्तान में दिखने लगा है जिसके कारण अचानक किसी क्षेत्र विशेष  में भयंकर बरसात हो जाती है तो बाकी हिस्से सूखे रहते हैं या फिर मौसम का चक्र गड़बड़ा रहा है। जब बरसात की जरूरत हो तब गरमी होती है और ठंड के दिनों में गरमी। केरल बानगी है कि बड़े बांधों  में बरसात का पानी रोक कर रखना मौसम के इस बैतुके मिजाज में तबाही ला सकता है। इस साल दक्षिण राज्य के षहरों - बंगलूरू, हैदराबाद, चैन्ने में  कम से  कम तीन बार अचानक इतनी भयंकर बरसात हो गई कि शहर  दरिया बन गए। वहीं  उत्तरांचल जैसे राज्य में इस बरसात में  जम कर  भूस्खलन देखने को मिले। साफ है कि जलवायु परिवर्तन  का खतरा अब हमारे नैसर्गिक संसाधनों पर सीधे चोट कर रहा हैं।  सभी जानते हैं कि जल हमारा सबसे  सषक्त संसाधन है और इसको सहेजने या इस्तेमाल के किसी भी प्रयाग पर अब नए सिरे से विचार करना जरूरी है।

सारी दुनिया जब अपने यहां कार्बन फुट प्रिंट घटानें को प्रतिबद्ध है वहीं भारत में नदियों को जोड़ने की परियोजना लागू की जा रही है। उसकी शुरूआत बुंदेलखंड से होगी जहां केन व बेतवा को जोड़ा जाएगा। असल में आम आदमी नदियें को जोड़ने का अर्थ समझता है कि किन्हीं पास बह रही दो नदियों को किसी नहर जैसी संरचना के माध्यम से जोड़ दिया जाए , जिससे जब एक में पानी कम हो तो दूसरे का उसमें मिल जाए। पहले यह जानना जरूरी है कि असल में  नदी जोड़ने का मतलब है, एक विशाल बांध और जलाशय बनाना और उसमें जमा दोनों  नदियों के पानी को नहरों के माध्यम  से  उपभोक्ता तक पहुंचाना। केन-बेतवा जोड़ योजना कोई 12 साल पहले जब तैयार की गई थी तो उसकी लगात 500 करोड के करीब थी, अभी वह कागज पर ही है और सन 2015 में इसकी अनुमानित लागत 1800 करोड़ पहुंच गई है। सबसे बड़ी बात जब नदियों को जोउ़ने की येजना बनाई गई थी, तब देष व दुनिया के सामने ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाउस इफेक्ट, जैसी चुनौतियां नहीं थीं और गंभीरता से देखें तो नदी जोड़ जैसी परियोजनाएं इन वैश्विक संकट को और बढ़ा देंगी।

जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदा का स्वाद  उस बुंदेलखंड के लोग चख ही रहे है। जहां नदी जोड़ योजना लागू की जाना है। सूखे को तो वहां तीन साल में एक बार डेरा रहता ही है। लेकिन अब वहां बरसात का पेटर्न बिल्कुल बदल गया है। सावन तक सूखा फिर भादो में किसी एक जगह पर इतनी बरसात की तबाही हो जाए। बरसात की त्रासदी इतनी गहरी है कि भले ही जल-स्त्रोत लबालब हो गए हैं लेकिन खेतों में बुवाई नहीं हो पाई और जहां हुई वहां बीज सड़ गए। ग्लोबल वार्मिंग से उपज रही जलवायु अनियमितता और इसके दुश्प्रभाव के प्रति सरकार व समाज में बैठे लोग कम ही वाकिफ या जागरूक हैं।  यह भी जान लें कि आने वाले दिनों यह संकट और गहराना है, खासकर भारत में इसके कारण मौसम के चरम रूप यानि असीम गरमी, भयंकर ठंड, बेहिसाब सूखा या बरसात।  प्रायः जिम्मेदार लोग यह कह कर पल्ला झाड़ते दिखते हैं कि यह तो वैष्विक  दिक्कत है और हम इसमें क्यों कर सकते हैं। फिर दिसंबर-2015 में पेरिस में संपन्न ‘जयवायु शिखर सम्मेलन’ में भारत के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश  जावडेकर की वह प्रतिबद्धता याद करने की जरूरत है जिसमें उन्होंने आने वाले दस सालों में भारत की ओर से कार्बन उत्सर्जन घटाने का आष्वासन दिया था।

‘‘नदियों का पानी समुद्र में ना जाए, बारिश में लबालब होती नदियां गाँवों  -खेतों में घुसने के बनिस्पत ऐसे स्थानों की ओर मोड़ दी जाए जहां इसे बहाव मिले तथा समय- जरूरत पर इसके पानी को इस्तेमाल किया जा सके ’’ - इस मूल भावना को ले कर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं । लेकिन यह विडंबना है कि केन-बेतवा के मामले में तो ‘‘ नंगा नहाए निचोडै़ क्या’ की लोकोक्ति सटीक बैठती है । केन और बेतवा दोनों का ही उदगम स्थल मध्यप्रदेष में है । दोनो नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेष में जा कर यमुना में मिल जाती हैं । जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्शा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी । तिस पर 1800 करोड़(भरोसा है कि जब इस पर काम षुरू होगा तो यह 22 करोड़ पहुंच जाएगा) की येजना ना केवल संरक्षित वन का नाष, हजारों लेगें के पलायन का करक बन रही है, बल्कि इससे उपजी संरचना दुनिया का तापमान बढ़ाने का संयत्र बन जाएगा।

नेशनल इंस्टीट्यूट फार स्पेस रिसर्च(आईएनपीसी), ब्राजील का एक गहन शोध  है कि दुनिया के बड़े बांध हर साल 104 मिलियन मेट्रीक टन मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं और यह वैश्विक तापमान में वृद्धि की कुल मानवीय योगदान का चार फीसदी है। सनद रहे बड़े जलाशय, दलदल बड़ी मात्रा में मीथेन का उत्सर्जन करती है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज़िम्मेवार  माने जाने वाली गैसों को ग्रीन हाउस या हरितगृह गैस कहते हैं। इनमें मुख्य रूप से चार गैस- कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फ़र हेक्साफ़्लोराइड, तथा दो गैस-समूह- हाइड्रोफ़्लोरोकार्बन और परफ़्लोरोकार्बन शामिल हैं।ग्रीन हाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से वायुमंडल में उनकी मात्रा निरंतर बढ़ती ही जा रही है। ये गैसें सूर्य की गर्मी के बड़े हिस्से को परावर्तित नहीं होने देती हैं, जिससे गर्मी की जो मात्रा वायुमंडल में फंसी रहती है, उससे तापमान में वृद्धि हो जाती है। पिछले 20 से 50 वर्षों में वैश्विक तापमान में करीब एक डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हो चुकी है। केन-बेतवा नदी को जोड़ने के लिए छतरपुर जिले के ढोढन में 77 मीटर उंचा और 2031 मीटर लंबाई का बंध बनाया जाएगा। इसके अलावा 221 किलोमीटर लंबी नहरें भी बनेंगी। इससे होने वले वनों के नाष और पलायन को अलग भी रख दें तो भी निर्माण, पुनर्वास आदि के लिए जमीन तैयार करने व इतने बड़े बांध व नहरों से इतना दलदल बनेगा और यह मीथेन गैस उत्सर्जन का बड़ा कारध बनेगा। भारत आज कोई तीन करोड़ 35 लाख टन मीथेन उत्सर्जन करता है व हमारी सरकार अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर इसे कम करने के लिए प्रतिबद्ध है।

इस परियोजना का सबस बड़ा असर दुनियाभर में मशहूर तेजी से विकसित बाघ क्षेत्र के नुकसान के रूप् ेमं भी होगा, पन्ना नेषनल पार्क का 41.41 वर्ग किलोमीटर वह क्षेत्र पूरी तरह जलमग्न हो जाएगा, जहां आज 30 बाघ हैं । सनद रहे सन 2006 में यहां बाघों की संख्या शून्य थी। अकेले बाघ का घरोंदा ही नहीं जंगल के 33 हजार पेड़ भी काटे जाएंगे। यह भी जान लें कि इतने बड़े हजरों पेड़े तैयार होने में कम से कम आधी सदी का समय लगेगा। जाहिर है कि जंगल कटाई व वन का नश्ट होना, जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने दवाले कारक हैं। यही नहीं जब यह परियोजना बनाई गई थी, तब बाघ व जंगली जानवर कोई विचारणीय मसले थे ही नहीं, जबकि आज दुनिया के सामने जैवविविधता संरक्षण एक बड़ी चुनौती है।

राट्रीय जल संवर्धन प्राधिकरण के दस्तावेज बताते हैं कि भारत में नदी जोड़ों की मूलभूत योजना सन 1850 में पहली बार सर आर्थर कॉटन ने बनाई थी फिर सन 1972 में डा. के.एल. राव ने गंगा कावेरी जोड़ने पर काम किया था। सन 1978 में केप्टन डास्टर्स का गार्लेंड नहर योजना पर काम हुआ और सन 1980 में नदी जोड़ का राष्ट्रिय परिदृश्य  परियोजना तैयार हुई। आज देश  में जिन परियोजनाओं पर विचार हो रहा है उसका आधार वही सन 1980 का दस्तावेज हैं। जाहिर है सन 1980 में जलवायु परिवर्तन या ग्रीनहाउस गैसों की कल्पना भी नहीं हुई थी। कहने की जरूरत नहीं है कि यदि इस योजना पर काम षुरू भी हुआ तो कम से कम एक दषक इसे पूरा होने में लगेगा व इस दौरान अनियमित जलवायु, नदियों के अपने रास्ता बदलने की त्रासदियां और गहरी होंगी।

ऐसे में जरूरी है कि सरकार नई वैश्विक  परिस्थितियों में नदियों को जोड़ने की योजना का मूल्यांकन करे। सबसे बड़ी बात इतने बड़े पर्यावरणीय नुकसान, विस्थापन, पलायन और धन व्यय करने के बाद भी बुंदेलखंड के महज तीन से चार जिलों को मिलेगा क्या? इसका आकलन भी जरूरी है। इससे एक चौथाई से भी कम धन खर्च कर समूचे बुंदेलखंड के पारंपरिक तालाब, बावड़ी कुओं और जोहड़ों की मरम्म्त की जा सकती है। सिकुड़ गई छोटी नदियों को उनके मूल स्वरूप् में लाने के लिए काम हो सकता है। गौर करें कि अं्रगेजों के बनाए पांच बांध 100 साल में दम तोड़ गए हैं, आजादी के बाद बने तटबंध व स्टाप डेम पांच साल भी नहीं चले, लेकिन समूचे बुंदेलखंड में एक हजार साल पुराने चंदेलकालीन तालाब, लाख उपेक्षा व रखरखाव के अभाव के बावजूद आज भी लेगों के गले व खेत तर कर रहे हैं। उनके आसपास लगे पेड़ व उसमें पल रहे जीव स्वयं ही उससे निकली मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों का शमन भी करते हैं।

 

मंगलवार, 8 नवंबर 2022

Not about disposal of garbage, but to think about reducing waste



कूडे के निस्तारण नहीं, कूड़ा कम करने पर सोचना होगा।


                                                                                                                                     पंकज चतुर्वेदी


हालांकि  दिल्ली ही नहीं उससे सटे  फरीदाबाद, गाजियाबाद, नोएडा और गुरूग्राम में  बीते दो दशकों  के दौरान बढ़ी आबादी और उपभोग वस्तुओं की वृद्धि की तुलना में कभी भी उससे उपजे कूड़े पर न कभी समाज चिंतित दिख और न ही सरकार।  यह सच है कि  सन 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल के बाद देश  में स्वच्छता के प्रति संवेदनशीलता बढ़ी और लोग इस पर चर्चा भी करने लगे। पिछले महीने ही केंद्र सरकार ने स्वच्छता अभियान  के दूसरे चरण में कूड़ा प्रबंधन पर विमर्श शुरू  किया और तभी दिल्ली में नगर निगम के चुनाव की घोषणा   हो गई।  


दिल्ली में  कूड़ा उठाई से ले कर उसे खंती में पहुँचाने  और यहां के कई हजार किलोमीटर नालों की सफाई  के दस्तावेजी शेरों की हकीकत  थोड़ी सी बरसात या मौसम बदलते ही होने लगती हैं।  अदालतें कई-कई बार  सरकरों को कूड़ के पहाड़ पर  दिशा निर्देश देती रहीं लेकिन हकीकत तो यह है कि  अकेले वृहत् दिल्ली ही नहीं, देश  के हर छोटे-बड़े शहर -कस्बे के निवासी की चिंता बस अपने घर-दुकान से कूड़ा निकाल कर बाहर फैकने तक ही है। वह कैसे उठ रहा है, उसका निराकरण क्या है ? उस पर कितना खर्च हो रहा है ?? ऐसे सभी सवाल आम लोगों के लिए बेमानी हैं। यह जान लें कि  दिल्ली, मुंबई सहित सभी महानगर ही नहीं  देश  के तीन सौ से अधिक जिला मुख्यालय भी इस समय कूड़ा-बमके मुहाने पर हैं।  दिल्ली में तो यह कूड़ा बम यदा-कदा फटते रहते है।, कभी ढह जाते है, तो कभी आग लगती है तो इनकी चर्चा भी होती है लेकिन दूरस्थ शहरों  में कूड़े के जलने से अस्पताल पहुंचने वालों का रिकार्ड तक नहीं है। समझना होगा कि एक तरफ कूड़े को बढ़ाना और दूसरी तरफ उसको निबटाने के बारे में सोचना वैसा ही है जैसे  नल खोल कर  फर्श पर पोंछा लगाया जाए।  सूखे फर्श के लिए पहले नल बंद करना होगा , यानी कूड़ा काम करने के तरीको ंपर विचार करना होगा।

हाल ही में एनजीटी ने दिल्ली सरकार पर कूड़े के पहाड़ पर लापरवाही बरतने के लिए 900 करोड़ का जुर्माना लगाया है। इसके अलावा कूड़े के निस्तारण के प्रति बेपरवाही के चलते महाराष्ट्र , पंजाब, तेलंगाना , कनार्टक और राजस्थान सरकारों पर कुल मिला कर कोई तीस हजार करोड़ का जुर्माना लगाया जा चुका है।  जाहिर है कि यह धन  जनता की जेब से ही जाएगा और सरकार के खजाने में और किसी मद में जाया हो जाएगा। साफ दिखता है कि आदालतें  सरकारों की नाकामी से हताष हैं और अपना रसूख जताने के लिए बड़े-बड़े जुर्माने ठोक रही हैं ।



हमारे देश  के शहर  हर दिन लगभग 1,50,000 टन ठोस कचरा (एमएसडब्ल्यू) उगल रहे हैं जिसमें से महज 25 फीसदी का प्रसंस्करण होता है। बाकी बचा कचरा या तो खुले में फेंक दिया जाता है या जला दिया जाता है। वर्ष 2030 तक कचरे की यह मात्रा 4,50,000 टन प्रतिदिन हो जाएगी। सालों से हमारे यहां इस कूड़े से बिजली बनाने की चर्चा रही है लेकिन यह प्रयोग बुरी तरह असफल  रहा। इस तरह का पहला संयंत्र ( डब्ल्यूटीई )दिल्ली के तिमारपुर में वर्ष 1987 में लगा लेकिन चला नहीं। तब से देश में 130 मेगावाट क्षमता के 14 और डब्ल्यूटीई संयंत्र लगाए गए, लेकिन इनमें से आधे बंद हो चुके हैं। बाकी पर पर्यावरण नियमों की अनदेखी की जांच चल रही है। दिल्ली के ओखला संयत्र पर तो 25 लाख का जुर्माना भी हो गया। इन संयंत्रों के फेल होने का कारण कचरे की गुणवत्ता और संघटन है। कचरे में नमी ज्यादा होती है सो जलाने में अधिक उर्जा लगती है जबकि बिजली कम मिलती है।


देश  में आए रोज कूड़े की खन्तियों  में खुद ब खुद आग सुलगने का असली कारण कूड़े का लगातार सड़ना व उससे खतरनाक गैसों का उत्सर्जन होना ही बताया गया है। सनद रहे कि इन दिनों कूड़े में बड़ी मात्रा में सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाईल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट, और ना जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा लेड और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता हे। षेश हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांश  सामग्री गलती-सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब हो कर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने  और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने  का काम करती है। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाईलो ंसे भी उपज रहा है।इससे निकला धुआं बड़ी आबादी को सांस की स्थाई बीमारियों दे रहा है।   ं


असल में कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है और इसकी सबसे बड़ी मार भी आम लोगों पर ही पड़ रही है।  अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला फाउंटेन पेन होता था, उसके बाद ऐसे बाल-पेन आए, जिनकी केवल रिफील बदलती थी। आज बाजार मे ंऐसे पेनों को बोलबाला है जो खतम होने पर फेंक दिए जाते हैं।  देश  की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। जरा सोचें कि तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में बमुश्किल एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह शेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पहले पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले यूज एंड थ्रोवाले रेजर ही  बाजार में मिलते हैं। अभी कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन ले कर डेयरी जाते थे। आज दूध तो ठीक ही है पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। अनुमान है कि पूरे देश  में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फैंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, घर में होने वाली पार्टी में डिस्पोजेबल बरतनों का प्रचलन, बाजार से सामन लाते समय पोलीथीन की थैलियां लेना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग ;ऐसे ही ना जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। घरों में सफाई  और खुशबू के नाम पर बढ़ रहे साबुन व अन्य रसायनों के चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है। सरकारी कार्यालयों में एक-एक कागज की कई-कई प्रतियां बनाना, एक ही प्रस्ताव को कई-कई टेबल से गुजारना, जैसे कई कार्य हैं जिससे कागज, कंप्ूयटर के प्रिंटग कार्टेज आदि का व्यय बढता है। और इसी कूड़े को खपाने की सभी योजनाएं विफल हो रही है।


लंदन में  प्रत्येक रेस्टोरेंट में  गिलास, उसके उपर लगे ढक्कन, बचे खाने को वहीं अलग-अलग किया जाता है और हर बेकार को रिसाईकिल किया जाता है। यह अनिवार्य है कि दिल्ली के कूड़े को ठिकाने लगाने के लिए नए ठिकाने तलाषें जाएं, इससे भी ज्यादा अनिवार्य है कि कूड़ा कम करने के सशक्त प्रयास हों। इसके लिए केरल में कन्नूर जिले से सरीख ले सकते हैं जहां पूरे जिले में बॉल पेन के इस्तेमाल से लोगों ने तौबा कर लिया, क्योंकि इससे हर दिन लाखें रिफील का कूड़ा निकलता था। पूरे जिले में कोई भी दुकानदार पॉलीथीन की थैली या प्लास्टिक के डिस्पोजेबल बर्तन ना तो बेचता है और ना ही इस्तेमाल करता है। जाहिर है कि अनिवार्यता कूड़े को कम करने की होना चाहिए। जब कूड़ा कम होगा तो उसके निबटान में कम संसाधन व स्थान  की जरूरत होगी।

 

 

 

  

सोमवार, 7 नवंबर 2022

Guru Nanak Dev : 24 years two subcontinent 60 cities who traveled continuously

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Public

महान यात्री श्री गुरुनानक देव

श्री गुरुनानक देव जी का प्रकाशोत्सव है , जान कर आश्चर्य होगा कि गुरु महाराज ने सारी दुनिया को पैरों से नापा और हर जगह वे अपने आध्यात्मिक विचारों का प्रचार करते , लोगों को धर्म और ईश्वर के वास्तविक स्वरूप की जानकारी देते और लोगों में प्रचलित झूठे रीति-रिवाजों को खत्म करके, संयम, त्याग और सदाचार का जीवन जीने के लिए प्रेरित करते । ज़रा सोचिये उस समय का समाज कितना सहिष्णु था कि नानक जब अरब देशों में अपनी बात रख रहे थे तो भी लोग उन्हें सुन रहे थे और दक्षिण के राज्यों में भी - जबकि वे हर जगह मुल्ला- पंडित के पाखण्ड पर प्रहार करते थे .यह सभी जानते है। कि बाबा नानक विश्व की ऐसी विलक्ष्ण हस्ती थे, जिन्होंने दुनिया के धर्मों, निरंकार ईश्वर की खोज, जाति-पाति व अंध विश्वास के अंत के इरादे से 24 साल तक दो उपमहाद्वीपों के 60 से अधिक श हरों की लगभग 28 हजार किलोमीटर पैदल यात्रा की। उनकी इन यात्राओं को उदासियां कहा जाता है और उनकी ये उदासियां चार हिस्सों में(कुछ सिख विद्वान पांच उदासी भी कहते हैं) विभक्त हैं। उनकी चौथी उदासी मुल्तान, सिंध से मक्का-मदीना, फिर इराक-ईरान होते हुए अफगानिस्तान के रास्ते आज के करतारपुर साहिब तक रही। इसी यात्रा में उनका अभिन्न साथी व रबाब से कई रागों की रचना करने वाले भाई मरदाना भी उनसे सदा के लिए जुदा हो गए थे। सनद रहे भाई मरदाना कोई बीस साल बाबा के साथ परछाई की तरह रहे और उनकी तीन वाणियां भी श्री गुरूग्रथ साहेब में संकलित हैं।
बाबा नानक ने कभी कोई यात्रा वृतांत लिखा नहीं और अभी तक उनकी यात्रा और उनसे जुडी यादों पर कोई विधिवत काम हुआ नहीं . तीन साल पहले जब मैं इजिप्ट में था तो पता चला कि वहां के किले "सीटादेल" में एक जग ऐसी है जिसे कभी नानक का चबूतरा कहते थे , वहां बाबा नानक रुके थे लेकिन आज उनकी कोई याद वहां है नहीं, इसी तरह बगदाद के पास भी ऐसी निशानियाँ हैं .
उनकी पहली उदासी (1499-1509) में कोई 12 वर्षों का समय लगा था। इस में गुरु जी ने सय्यदपुर, तालुम्बा, कुरुक्षेत्र, पानीपत और दिल्ली की सैर सय्यदपुर, तालुम्बा, तलवंडी, पेहोवा, कुरुक्षेत्र, पानीपत, दिल्ली, हरिद्वार, गोरख मत्ता, बनारस, गया, बंगाल, कामरूप (आसाम), सिलहट, ढाका और जगन्नाथ पूरी आदि स्थानो पर गये। पुरी से भोपाल, चंदेरी, आगरा और गुड़गांव होते हुए वे पंजाब लौट आए।पानीपत में, उन्होंने अपनी शिक्षाओं के साथ शेख सराफ नाम के एक संत को प्रभावित किया। उनकी दिल्ली यात्रा की याद आज भी मजनू दा टीला नामक स्थान का गुरुद्वारा दिलाता है।
श्री गुरुनानक देव जी की दूसरी उदासी (1510-1515) सिरसा, बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर, अजमेर, चित्तौड़, उज्जैन, अबू परबत, इंदौर, हैदराबाद, गोलकुंडा, बीदर, रामेश्वर और श्रीलंका की यात्रा की। उन्होंने राजस्थान में हिंदुओं और जैनियों के धर्म स्थानो पर भी गयें। अजमेर के निकट 'पुष्कर' (ब्रह्मा का मंदिर) के स्थान पर हिंदुओं को ईश्वर की महिमा और नाम का जाप करने के लिए प्रेरित किया। आबू पर्वत के सुंदर जैन मंदिर में, वह जैन संतों को मिले।
दक्षिण में, उन्होंने बीदर के स्थान पर उन्होंने तिल का प्रसाद कनफटे जोगियों के बीच वांट कर रिद्धि सिद्धि को चुनौती दी। वहा पर आज गुरुद्वारा तिल साहिब भी स्थापित किया गया है। वह रामेश्वरम के माध्यम से श्रीलंका पहुंचे। वहां का शासक शिवनाथ उनसे बहुत प्रभावित हुआ और अपने परिवार के साथ उनके सिख बन गए। अनुराधापुर में एक शिलालेख गुरु जी की श्रीलंका यात्रा को साबित करता है. कोचीन, गुजरात, द्वारका, सिंध, बहावलपुर और मुल्तान से गुरु पंजाब वापस आ गए। इस यात्रा में लगभग 5 साल का समय लगा।
तीसरी उदासी (1515-17), गुरु जी ने भारत के उत्तरी भागों , आज का हिमाचल प्यारदेश, कश्त्रामीर आदि की यात्रा की । वे कांगड़ा, चंबा, मंडी नादौन, बिलासपुर, कश्मीर की घाटी, कैलाश पर्वत और मान सरोवर झील पर गए। कहा जाता है कि शायद वे तिब्बत भी गए। लद्दाख और जम्मू से होते हुए वह पंजाब लौट आने के प्आरमाण तो मिलते हैं . इस दौरान उन्होंने अमरनाथ, पहलगांव, मटन, अनंतनाग, श्रीनगर और बारामूला की यात्रा की।
श्री गुरुनानक देव जी की चौथी यात्रा मुस्लिम जगत अर्थात अरब की तरफ थी .चौथी उदासी (1517-21) में वे मक्का, मदीना और बगदाद गए। इस यात्रा के दौरान, उन्हें हाजी की तरह कपड़े पहनाए गए थे। पाकपट्टन में उन्होंने शेख फरीद की समाधि के दर्शन किये और मुल्तान में उन्होंने सूफीमत के सेहरावर्दी वंश के सूफी संतों से मुलाकात की। वह एक जहाज द्वारा मक्का और मदीना की यात्रा पर गये।
उन्होंने मदीना और बगदाद की यात्रा की। मक्का-मदीना की यात्रा के बाद श्री गुरूनानक देव भाई मरदाना के साथ इराक में हजरत अली की दरगाह ‘मशहर शरीफ’ के दर्शन करने के बाद बगदाद पहुंचे। यहा उन्होंने शहर के बाहर दजला या तिगरित नदी के पश्चिम घाट पर एक कब्रिस्तान में अपना डेरा जमाया। गुरु नानक ने बगदाद (इराक) के भ्रमण में गौसेआजम शेख अब्दुल कादिर जीलानी (1077-1166 ई.) की दरगाह पर हाजिरी दी। ऐसा कहा जाता है कि यहां उनकी मुलाकात सूफी पीर बहलोल दाना से हुई। उनके बीच भारतीय दर्षन व एकेष्वरवाद पर विमर्ष हुआ। उसके बाद पीर दाना ने उन्हें विलक्षण व्यक्ति बताया। बगदाद में ही शेखे तरीकत शेख मआरुफ कररवी यानी बहलोल दाना की मजार पर चिल्ला अर्थात चालीस दिन साधना की। इस स्थान पर तब पीर के मुरीदों ने एक पत्थर लगाया था जोकि अरबी और तुर्की भाषा में मिला-जुला था। इस पर लिखा था -
गुरू मुराद अल्दी हजरत रब-उल- माजिद, बाबा नानक फकीरूल टेक इमारते जरीद, यरीद इमदाद इद!वथ गुल्दी के तीरीखेने, यपदि नवाव अजरा यारा अबि मुरीद सईद, 917 हिजरी। यहां पर बाबा का जपजी साहब की कुटका, कुछ कपड़े व कई निशानियाँ थीं। दुर्भाग्य है कि इतनी पवित्र और एतिहासिक महत्व की वस्तुएं सन 2003 में कतिपय लोग लूट कर ले गए।
गुरुद्वारा बगदाद 

हालांकि इस स्थान पर कभी कोई बड़ी इमारत नहीं रही। बमुश्किल 650 वर्ग फुट का एक कमरा पहले विश्व युद्ध के दौरान इराक गई भारत की सिख रेजीमेंट के कुछ सिपाहियों ने बनाया था। तब इराक की यात्रा करने वाले फौज की चिकित्सा सेवा के कैप्टन कृपाल सिंह द्वारा 15 अक्तूबर 1918 को लिखे गए एक खत में इस स्थान का उल्लेख है। उन्होंने लिखा था कि बेहद शांत व गुमनाम इस स्थान के बारे में कुछ सिखों के अलावा और कोई नहीं जानता। रिकार्ड गवाह है कि सन 1930 में भी सिख रेजीमेंट ने यहां का रखरखाव किया था। ‘बाबा नानक नबी अल िंहंद’ के नाम से इराक में मशहूर इस स्थान पर सद्दाम हुसैन के समय गुरूद्वारा भी बनाया गया और गुजी के पारंपरिक कमरे को यथावत रखा गया। वहां सिख धर्म का ध्वज, लंगर आदि होते थे। इसके लिए सद्दम हुसैन ने ना केवल अनुमति दी थी, बल्कि सरकारी सहयोग भी किया था। युद्ध ने इराक के लोगों को और विष्व इतिहास को बहुत नुकसान पहुंचाया। सन 2008 में भी भारत सरकार ने बगदाद के गुरूद्वारे के लिए बातचीत की थी। लेकिन उसके बाद आईएसआईएस का आतंक शुरू हुआ। सन 2014 में आईएस ने मौसूल शहर पर कब्जा किया और उस लड़ाई में चले गोला बारूद ने यहां के गुरूद्वारे को लगभग नश्ट कर दिया। यह सुखद है कि आज भी बाबा का मूल कमरा बरकरार है। पहले यहां खाड़ी देषों में रहने वाले सिख परिवार आया करते थे, लंगर भी होते थे लेकिन आईएस के आगमन के बाद अय यहां कोई नहीं आता। इस स्मारक व गुरूद्वारे की देखभाल सदियों से मुस्लिम परिवार ही करता रहा है। ये परिवार गुरूमुखी पढ़ लेते हैं और श्री गुरूग्रंथ साहेब का पाठ भी करते हैं। ये नानक और बहलोल को अपना पीर मानते हैं।
 चबूतरा नानक वली, कैयरो इजिप्ट 

बगदाद उन दिनों में मुस्लिमों के धार्मिक नेता खलीफा का मुख्य केंद्र था। यहाँ उनकी मुलाकात शेख बहलोल से हुई जिसको उन्होंने बहुत प्रभावित किया। शेख बहलोल ने उनकी याद में एक स्मारक भवन बनवाया। वहां अरबी में एक लेख लिखा है, जिसमें कहा गया है, "यहाँ एक हिंदू गुरु नानक ने फ़कीर बहलोल से बातचीत की। जब से गुरु ने ईरान छोड़ा है, तब से लेकर इसकी 60 की गिणती तक फकीर की आत्मा गुरु के वचन पर ऐसे बैठी रही, जैसे कोई भौंरा सुबह खिले होए मधु भरे गुलाब पर बैठता है। ईरान, काबुल और पेशावर होते हुए गुरु साहिब सैयदपुर (ऐमनाबाद) आ आए।
श्री गुरु महाराज की पांचवी उदासी का काल छोटा है (1521-22).इस बार वह बाहर ना जाकर पंजाब के पास कुछ इलाकों की यात्रा की। उन्होंने पाकपट्टन, दीपालपुर, सियालकोट, कसूर, लाहौर और झंग आदि स्थानो पर गये। वे श्री करतारपुर साहेब में गृहस्थ जीवन जी रहे थे .यहीं करतारपुर में, उन्होंने संगत और पंगत (एक पंक्ति में बैठे और अमीर और गरीब, उच्च और लोगों द्वारा लंगर खाने) की परंपरा स्थापित की। वह प्रतिदिन सुबह और शाम संगतो को धार्मिक प्रवचन देते थे। ज्योति ज्योत समाने से पहले उन्होंने अपने एक सच्चे भक्त भाई लहिना को उत्तराधिकारी नियुक्त किया और इस तरह गुरु परंपरा को जन्म दिया।
सीटादेल


आज जरूरत है कि गुरु महाराज की सभी उदासियों, उससे जुड़े स्थानों पर चरणबद्ध शोध हो और उन स्थानों को चिन्हित किया जाए . यात्राएं किस तरह से इंसान को महान आध्यात्मिक शक्ति देती हैं, श्री गुरुनानक जी इसके दुनिया को मिसाल हैं .

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...