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शनिवार, 3 दिसंबर 2022

If the waterfalls are saved then the rivers will be saved

 झरने बचेंगे तो बचेगी नदियाँ

पंकज चतुर्वेदी



जलवायु परिवर्तन की मार  अब भारत मे प्रत्येक प्राकृतिक संरचना और उसके जरिये समाज पर पद रही हैं . झरने एक ऐसा जल स्रोत हैं  हैं जिस पर बड़ी आबादी निर्भर है लेकिन उनके सिकुड़ने पर  समाज और सरकार  का  अपेक्षित ध्यान नहीं जा रहा है . देश के सैंकड़ों  गैर हिमालयी नदियाँ, खासकर दक्षिण राज्यों का तो उद्गम ही झरनों से हैं . नर्मदा, सोन,जैसी विशाल नदियाँ मध्य प्रदेश में अमरकंटक से झरने से ही फूटती हैं. झरने का अस्तित्व पहाड़  से है , उसे ताकत मिलती हैं परिवेश के घने  जंगलों से  और संरक्ष्ण मिलता है  अविरल प्रवाह से . 2020 में, अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका “ वाटर पालिसी” ने भारतीय हिमालय  क्षेत्र (आईएचआर) में स्थित 13 शहरों में 10 अध्ययनों की एक श्रृंखला आयोजित की थी. इस अध्ययन से खुलासा हुआ कि इन शहरों में से कई, जिनमें मसूरी, दार्जिलिंग और काठमांडू जैसे प्रसिद्ध पर्वतीय स्थल शामिल हैं, पानी की मांग-आपूर्ति के गहरे अंतर का सामना कर रहे हैं जो कई जगह 70% तक है और इसका मूल कारण  इन इलाकों में जल सरिताओं-झरनों का तेजी से सूखना है . ठीक यही बात अगस्त -18 में नीति आयोग द्वारा रिपोर्ट में कही गई थी . इसमें स्वीकार किया गया था कि आईएचआर में करीब 50 फीसदी झरने सूख रहे हैं. जिससे हजारों गांव प्रभावित हुए हैं .




एक झरना एक ऐसी प्राकृतिक संरचना है, जहां से जल एक्वीफ़र्स (चट्टान की परत जिसमें भूजल होता है) से पृथ्वी की सतह तक बहता है. पूरे भारत में लगभग पचास लाख झरने हैं, जिनमें से लगभग तीस लाख अकेले आईएचआर में हैं। हमारे देश की  बीस करोड़ से अधिक आबादी पानी के लिए  झरनों पर निर्भर हैं. याद रखना होगा कि भारतीय हिमालय क्षेत्र 2,500 किलोमीटर लंबे और 250 से 300 किमी़ चौड़े क्षेत्र में फैला है और इसमें 12 राज्यों के 60,000 गांव हैं, जिसकी आबादी पांच करोड़ है . जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा इसके दायरे में हैं। असम और पश्चिम बंगाल भी आंशिक रूप से इसके तहत आते हैं। यहां की करीब 60 प्रतिशत आबादी जल संबंधी जरूरतों के लिए धाराओं पर निर्भर है. उधर दक्षिणी भारत में पश्चिमी घाटों में, कभी बारहमासी रहने वाले झरने मौसमी होते जा रहे हैं और इसका सीधा असर कावेरी, गोदावरी जैसी नदियों पर पड रहा है .यहाँ झरनों के जल गृहण क्षेत्र में  बेपरवाही से रोप जा रहे नलकूपों ने  भी झरनों का रास्ता रोका है .

बानगी है कि अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के लिए मशहूर उत्तराखंड के उत्तराखंड के अल्मोड़ा क्षेत्र में झरनों की संख्या पिछले 150 वर्षों में 360 से घटकर 60 रह गई. उत्तराखंड में नब्बे प्रतिशत पेयजल आपूर्ति झरनों पर निर्भर है, जबकि मेघालय में राज्य के सभी गांव पीने और सिंचाई के लिए झरनों का उपयोग करते हैं। ये झरने जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र के महत्वपूर्ण घटक भी हैं . झरने से जल का बहाव मौसम के मिजाज पर निर्भर करता है . गर्मियों के दौरान बहुत कम तो बरसात में बहुत तेज . गर्मी में इनसे लगभग आधा लीटर प्रति मिनट की दर से पानी बहता है तो कई बड़े झरने अपने यौवन के काल में  डेढ़ लाख लीटर प्रति मिनट की दर से पानी छोड़ सकते हैं.


झरनों के लगातार लुप्त होने या उनमें जल की मात्रा कम होने का सारा दोष जलवायु परिवर्तन पर नहीं मढ़ा जा सकता . अंधाधुंध पेड़ कटाई और निर्माण के कारण पहाड़ों को हो रहे नुकसान ने झरनों के प्रकृति –डे मार्गों में व्यवधान  पैदा किया है . भले ही बांध बना कर पहाड़ों पर पानी एकत्र करने को  आधुनिक विज्ञानं  अपनी सफलता मान  रहा हो  लेकिन  इस तरह की संरचनाओं के निर्माण  के लिए  निर्ममता से होने वाले बारूदी धमाके और  पारम्परिक जंगलों के उजाड़ने से  सदा नीरा कहलाने वाली नदियों के प्रवाह में जो कमी हो रही है , उस पर कोई विचार कर नहीं रहा है .

हालाँकि नीति आयोग  ने सन 2018  झरना संरक्षण कार्यक्रम की कार्य योजना तैयार की और यह उसकी चार साल पुराणी एक रिपोर्ट पर आधारित था लेकिन बीते चार साल में झरनों को बचाने के लिए न तो योजना बनी है और न ही राष्ट्रस्तर पर अभी तक कोई सर्वे हुआ . जान आकर सुखद लगेगा कि सिक्किम ने इस संकट को सन 2009 में ही भांप लिया था . इससे पहले सिक्किम में प्रति परिवारपानी का खर्च 3200 रुपये महीना था. इसके बाद सरकार ने स्प्रिंग शेड प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया. 2013-14 में झरनों के आसपास 120 हेक्टेयर पहाड़ी क्षेत्र में गड्ढे बनाकर बारिश के पानी को संरक्षित करने पर काम शुरू किया और इसके 100 फीसद परिणाम आने शुरू हो गए. अब पूरे राज्य में “धारा विकास योजना” चल रही है और परिवारों का पानी पर होने वाला खर्च भी खत्म हो गया है.


झरनों को ले कर सबसे अधिक बेपरवाही उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में हैं जो बीते पांच सालों में भूस्खलन  के कारण तेजी से बिखर भी रहे हैं . इन राज्यों में झरनों के आसपास भुमिक्ष्र्ण कम करने, हरियाली बढाने और मिटटी के नैसर्गिक गुणों को बनाए रखने की कोई नीति बनाई नहीं गई . मिट्टी में पानी का प्राकृतिक प्रवाह बढ़ाने और एक्वीफ़र्स या जलभृत में अधिक बरसाती जल पहुँचने के मार्ग खोलने पर विचार ही नहीं हुआ . जलग्रहण क्षेत्र में स्वच्छता बनाए रखते हुए पारिस्थितिक तंत्र को अक्षुण रखने और भूजल और धरती पर जल-प्रवाह के प्रदूषण को रोकने की किसी को परवाह ही नहीं .



यह अब किसी से छिपा नहीं है कि मौसम चक्र तेजी से बदल रहा है , कहीं बरसात कम हो रही है तो कहीं  अचानक  जरूरत से ज्यादा बरसात , फिर धरती का तापमान तो बढ़ ही रहा है , ऐसे में झरने हमारे सुरक्षित और  शुद्ध जल का भण्डार तो हैं ही ,नदियों के प्राण भी इसी में बसे है .  जरूरत इस बात की है कि नैसर्गिक जल सरिताओं और झरनों के   कुछ दायरे में निर्माण कार्य  पर पूरी तरह रोक हो , ऐसे स्थानों पर कोई बड़ी परियोजनाएं ना लाई जाएँ जहां का पर्यवार्नीय संतुलन झरनों से हों.

 

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