बस्ती में घूमते तेंदुए
पंकज चतुर्वेदी
थोडी सी ठंड क्या बढ़ी देश के अलग-अलग इलाकों से कंक्रीट के जंगल में हरे जंगलों के मांसाहारी जानवरों के घूमने की खबर आने लगी। दिल्ली के पास मेरठ के घनी आबादी वाले ज्वालानगर में बीते एक सप्ताह से रात में तेंदुए की चहलकदमी कैमरों में कैद हुई है। । वैसे यहां हर साल ठंड में यह जीव दिखता है। कानपुर के आईआईटी के करीब या लखनऊ के बाहरी इलाकों में सर्द मौसम तेंदुए को बस्ती में ले आता हे। मप्र के दमोह और इंदौर में बीते दस दिनों में तेंदुए ने कुछ लोगों पर हमले भी किए हैं। यह तो सभी जानते हैं कि जगल का जानवर इंसान से सर्वाधिक भयभीत रहता है और वह बस्ती में तभी घुसता है जब वह पानी या भोजन की तलाश में भटकते हुए आ जाए। चूंकि तेंदुआ कुत्ते से लेकर मुर्गी तक को खा सकता है अतः जब एक बार लोगों की बस्ती की राह पकड़ लेता है तो सहजता से शिकार मिलने के लोभ में बार-बार यहां आता है । यदा-कदा जंगल महकमे के लोग इन्हे पिंजड़ा लगा कर ंपकड़ते हैं और फिर पकड़े गए स्थान के करीब ही किसी जंगल में छोड़ देते है। और तेंदुए की याददाश्त ऐसी होती है कि वह फिर से लौट कर वहीं आ जाता है।
तगड़ी ठंड में तेंदए के बस्ती में आने का सबसे बड़ा कारण है कि जंगलों में प्राकृतिक जल-स्त्रोत कम हो रहे हैं । ठंड में ही पानी की कमी से हरियाली भी कम हो रही है। घास कम होने का अर्थ है कि तेंदुए का शिकार कहे जाने वाले हिरण आदि की कमी या पलायन कर जाना। ऐसे में भूख-प्यास से बेहाल जानवर सड़क की ओर ही आता है। वैसे भी अधिक ठंड से अपने को बचाने के लिए जानवर अधिक भोजन करता है ताकि तन की गरमी बनी रहे। जान लें कि घने जंगल में बिल्ली मौसी के परिवार के बड़े सदस्य बाघ का कब्जा होता है और इसी लिए परिवार के छोटे सदस्य जैसे तेंदुए या गुलदार बस्ती की तरफ भागते हैं। विडंबना है कि जंगल के संरक्षक जानवर हों या फिर खेती-किसानी के सहयोगी मवेशी,उनके के लिए पानी या भोजन की कोई नीति नहीं है। जब कही कुछ हल्ला होता है तो तदर्थ व्यवस्थाएं तो होती हैं लेकिन इस पर कोई दीर्घकालीक नीति बनी नहीं।
प्रकृति ने धरती पर इंसान , वनस्पति और जीव जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया, लेकिन इंसान ने भौतिक सुखों की लिप्सा में खुद को श्रेष्ठ मान लिया और प्रकृति की प्रत्येक देन पर अपना अधिक अधिकार हथिया लिया। यह सही है कि जीव-जंतु या वनस्पति अपने साथ हुए अन्याय का ना तो प्रतिरोध कर सकते हैं और ना ही अपना दर्द कह पाते हैं। परंतु इस भेदभाव का बदला खुद प्रकृति ने लेना शुरू कर दिया। आज पर्यावरण संकट का जो चरम रूप सामने दिख रहा है, उसका मूल कारण इंसान द्वारा नैसर्गिकता में उपजाया गया, असमान संतुलन ही है। परिणाम सामने है कि अब धरती पर अस्तित्व का संकट है। समझना जरूरी है कि जिस दिन खाद्य श्रंखला टूट जाएगी धरती से जीवन की डोर भी टूट जाएगी। समूची खाद्य श्रंखला का उत्पादन व उपभोग बेहद नियोजित प्रक्रिया है। जंगल बहुत विशाल तो उससे मिलने वाली हरियाली पर जीवनयापन करने वाले उससे कम तो हरियाली खाने वाले जानवरों को मार कर खाने वाले उससे कम। हमारा आदि -समाज इस चक्र से भलीभांति परिचित था तभी वह प्रत्येक जीव को पूजता था, उसके अस्तित्व की कामना करता था। जंगलों में प्राकृतिक जल संसाधनों ंका इस्तेमाल अपने लिए कतई नहीं करता था- न खेती के लिए न ही निस्तार के लिए और न ही उसमें ंगंदगी डालने को ।
जान लें कि तेंदुआ एक शानदार शिकारी तो है ही किसी इलाके के पारिस्थितिकी तंत्र की गुणवत्ता का मानक चिह्नक भी होता है। जमीनी हकीकत यह है कि वर्तमान में इसका अस्तित्व ही सवालों के घेरे में है। जंगली बिल्लियों के कुनबे के मूलभूत गुणों से विपरीत इनका स्वभाव हालात के अनुसार खुद को ढाल लेने का होता है। जैसे कि ये चूहों और साही से लेकर बंदरों और कुत्तों तक किसी भी चीज का शिकार कर सकते हैं। वे गहरे जंगलों और मानव बस्तियों के पास पनप सकते हैं। यह अनुकूलन क्षमता, इन्हें कही भी छिपने अयौर इंसान के साथ जीने के काबिल बना देती है। लेकिन जब तेंदुए जंगलों के बाहर उच्च मानव घनत्व वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं, तो हमें लगता है कि वे भटक गए हैं। हम भूल जाते हैं कि यह उनका भी घर है, उतना ही हमारा भी है।
तेंदुआ अपना जंगल छोड़ कर यदि लंबी यात्रा करता है तो उसका कारण भोजन के अलावा अपनी यौन क्रिया के लिए साथी तलाशना होता है। एक जंगल से दूसरे जंगल में जाने के लिए, तेंदुए प्राकृतिक गलियारों का उपयोग करते हैं जो ज्यादातर नदियों और खेतों के माध्यम से होते हैं। चूंकि ये कॉरिडोर मानव बस्तियों के अंधाधुंध विस्तार के चलते टूट गए हैं, इसलिए तेंदुए-मानव संपर्क की संभावना बन जाती हैं। हालांकि तेंदुए जितना हो सके मानव संपर्क से बचने की कोशिश करते हैं।
भारत में संरक्षित वन क्षेत्र तो बहुत से विकसित किए गए और वहां मानव गतिविधियों पर रोक के आदेश भी दिए,लेकिन दुर्भाग्य है कि सभी ऐसे जंगलों के करीब तेज गति वाली सड़कें बनवा दी गईं। इसके लिए पहाड़ काटे गए, जानवरों के नैसर्गिक आवागमन रास्तों पर काली सड़कें बिछा दी गईं। इस निर्माण के कारण कई झरने, सरितांए प्रभावित हुए। जंगल की हरियाली घटने और हरियाली बढ़ाने के लिए गैर-स्थानीय पेड बोने के कारण भी जानवरों को भोजन की कमी महसूस हुई। अब वानर को लें, वास्तव में यह जंगल का जीव है। जब तक जंगल में उसे बीजदार फल खाने को मिले वह कंक्रीट के जंगल में आया नहीं। वानर के पर्यावास उजड़ने व पानी की कमी के कारण वह सड़क की ओर आया। जंगल से गुजरती सड़कों पर आवागमन और उस पर ही बस गया। यहां उसे खाने को तो मिल जाता है लेकिन उसके पीछे-पीछे तेंदुआ भी आ जाता है है।
प्रत्येक वन में सैंकडों छोटी नदियां, तालाब और जोहड़ होते हैं। इनमें पानी का आगम बरसात के साथ-साथ जंगल के पहाड़ों के सोते- सरिताओं से होता है। असल में पहाड़ जंगल और उसमें बसने वाले जानवरों की संरक्षण-छत होता है। चूंकि ये पहाड़ विभिन्न खनिजों के भंडार होते है। सो खनिज उत्खनन के अंधाधुघ दिए गए ठेकों ने पहाड़ा ेंको जमींदोज कर दिया। कहीं-कहीं पहाड़ की जगह गहरी खाई बन गईं और कई बार प्यासे जानवर ऐसी खाईयों में भी गिर कर मरते हैं।
तेंदुए को यदि एक बार इंसान के खून की लत लग जाए तो यह खतरनाक होता है। घने जंगलों के खमाप्त होने व वहां के जीवों के लगातार इंसान के संपर्क में आने के कारण हम इन दिनों कोविड की त्रासदी झेल ही रहे हैं। जंगल का अपने एक चक्र हुआ करता था , सबसे भीतर घने ऊँचे पेड़ों वाले जंगल, गहरी घास जो कि किसी बाहरी दखल से मुक्त रहती थी , वहां मनुष्य के लिए खतरनाक जानवर शेर आदि रहते थे . वहीं ऐसे सूक्ष्म जीवाणुओं का बसेरा होता था जो यदि लगातार इंसान के सम्पर्क में आये तो अपने गुणसूत्रीय संस्कारों को इन्सान के शरीर के अनुरूप बदल सकता था . इसके बाहर कम घने जंगलों का घेरा- जहां हिरन जैसे जानवर रहते थे, माँसाहारी जानवर को अपने भोजन के लिए महज इस चक्र तक आना होता था . उसके बाद जंगल का ऐसा हिस्सा जहां इंसान अपने पालतू मवेशी चराता, अपनी इस्तेमाल की वनोपज को तलाशता और इस घेरे में ऐसे जानवर रहते जो जंगल और इंसान दोनों के लिए निरापद थे , तभी इस पिरामिड में शेर कम, हिरन उससे ज्यादा, उभय- गुनी जानवर उससे ज्यादा और उसके बाहर इंसान , ठीक यही प्रतिलोम जंगल के घनेपन में लागु होता जंगलों की अंधाधुंध कतई और उसमें बसने वाले जानवरों के प्राकृतिक पर्यावास के नष्ट होने से इंसानी दखल से दूर रहने वाले जानवर सीधे मानव के संपर्क में आ गए।
यदि इंसान चाहता है कि वह जंगली जानवरों का निवाला ना बने तो जरूरत है कि नैसर्गिक जंगलों को छेड़ा ना जाए, जंगल में इंसानों की गतिविधियों पर सख्ती से रेक लगे।
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