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बुधवार, 7 दिसंबर 2022

When will the poison of union carbide clear from Bhopal

 आखिर कब साफ होगा भोपाल से जहर
पंकज चतुर्वेदी



दो दिसंबर को जब भोपाल में दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी की बरसी में लोगों की आंखें नम थी, नगर निगम उस तालाब से सिंघाड़े  की फसल नष्ट कर रहा था  जो यूनियन कार्बाइड कारखाने की सीमा में बना है। हालांकि सन 2014 में ही सुप्रीम कोर्ट आदेश दे चुका था कि इस तालाब में ना तो कोई खेती  हो और ना ही यहां के पानी से फिर भी  यहां मौत की फसल बोई जाती रही। यह किसी से छुपा नहीं है कि इस तालाब में कारखाने का जहरीले अपशिष्ट की 1.7 लाख टन मात्रा डुबोई गई थी।  मामला अकेले इस तालाब का ही नहीं है, शहर  की जमीन- हवा और पानी में इतना जहर जज्ब है कि यहां की आने वाली कई पुश्तें  इसका कुप्रभाव झेलेंगी।   इसके बावजूद वहां सालो ंसे जमा जहर के निबटारे पर कोई  सोच नहीं रहा।


दुनिया की उस सर्वाधिक भयावह रासायनिक त्रासदी की याद से बदन सिहर उठता है जिसका दंश  अभी भी तीसरी पीढ़ी झेल रही है और पता नहीं उस रात यूनियन कार्बाईड कारखाने से रिसी गैस अभी और कितने दषकों तक लोगों को जान लेगी।  बीते 38 सालों में गैस पीड़ितों की लड़ाई स्वास्थ्य के लिए गौण हो गई। आपराधिक मुकदमे की तो किसी को परवाह नहीं, भोपाल को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए पूरा खोद दिया गया है लेकिन इसके सीने मे दफन मिथाईल आईसोसाईनाइट और दीगर जहरीले रसायनों का जखीरा अभी भी लोगों को तिल-दर-तिल खोखला कर रहा है।

दो-तीन दिसंबर 1984 की रात भोपाल में अमेरिकी कारखाने यूनियन कार्बाईड से रिसी मिथाईल आईसो साईनाईड गैस ने लगभग चार हजार लोगों को सोते से उठने का मौका भी नहीं दिया । जो बच गए, भाग लिए, वे कई शारीरिक व मानसिक रोगों की गिरफ्त में आ गए । यही नहीं शहर  के हवा व पानी में जो जहर घुला और अनुवांषिकी स्तर पर आने वाली पीढ़ियों तक को खोखला कर गया । अनुमान है कि अभी तक गैसे प्रभावित 20 हजार लोग दम तोड़ चुके हैं । मौत का सिलसिला जारी है और औसतन हर हफ्ते पांच लोग उस जहर से मर रहे हैं ।

अभी तक इस बात के शोध  सतत जारी हैं कि गैस का असर कब तक और कितनी पीढ़ियों तक रहेगा । यही नहीं विभिन्न चिकित्सकों का कहना है कि उस रात मिक यानी मिथाईल आईसो साईनाईड के अलावा कई अन्य गैस भी रिसीं थीं
, तभी इतने विषम हालात बने हैं । ये अन्य गैस कौन सी थीं, इसकी जांच अभी तक नहीं हो पाई है । कारखाने में पड़े कई टन जहरीले अपशिष्ट का निबटारा नहीं होना एक नई त्रासदी को जन्म दे रहा है । यहां आर्थो डाय क्लोरो बैंजीन, कार्बन टेट्रा क्लोरेट, पारा आदि खुले में पड़ा है । वहीं कारखाने से निकले कचरे को तो इसके षुरू होने के साल 1969 से ही जमीन में दबाया जा रहा था और अब  यह जही शहर  की 42 कॉलेनियों के भूजल व जमीन पर बस गया है। यहां दे तरह का कचरा है जो भोपाल की लाखें आबादी को तिल-दर तिल मौत दे रहा है - एक तो गोदाम  में पड़ा  340 मीट्रिक टन रसायन व अपशिष्ट और दूसरा कारखाना परिसर के 68 एकड़ में 21 गडढों में दफनाया गया अकूत  जहरीला अवशेष । बारिश  के साथ ये जहर भूमिगत जल में घुलते रहे हैं और अब इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टॉक्सालोजी के  वैज्ञानिकों ने घोशित कर दिया है कि कारखाने की करीबी कालोनियों में हैंडपंप का पानी पीने वालों में कैंसर व यकृत की खराबी होना तय है । इस कचरे के चलते यूनियन कार्बाइड के कई किलोमीटर क्षेत्रफल के भूजल में डायक्लोरोबेंजीन, पॉलीन्यूक्लियर एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन्स, मरकरी जैसे लगभग 20 रसायन घुल गए। इनके कारण फेफड़े, यकृत, गुर्दे के रोग हर घर में हुए। 

भारतीय विष विज्ञान शोध  संस्थान की रिपोर्ट बताती है कि  यूनियन कार्बाइड कारखाने  के कचरे का सर्वाधिक और दूरगामी नुकसान आर्गनोक्लोरिन से हो रहा है। इसकी मात्रा भूजल के  अधिकांश नमूनों में निर्धारित से कई सौ गुना अधिक मिली है। यह रसायन लंबे समय तक अपनी विषाक्तता बनाए रखता है और इसके शरीर में जमा होने से  मस्तिष्क जिगर, गुर्दे के साथ-साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता, अंतःस्त्राव, प्रजनन और अन्य तंत्रों पर पड़ता है। कोई 43 कोलोनियों में अब यह जहर हर घर में पहुंच गया है। एक बार सुप्रीम कोर्ट ने कहा तो कुछ बस्तियों में नल से पानी दिए जाने लगा लेकिन जब उस जल की जांच हुई तो पता चला कि 70 फीसदी जल नमूने में सीवर मिला था जिससे फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया तय मानकों से 2400 गुना अधिक हो गया। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनेप ने  प्रस्ताव दिया था कि यदि भारत सरकार चाहे तो वे इस जहरीले कूड़े को हटा सकते हैं, लेकिन हमारी सरकार ने इस कार्य में किसी विदेशी  एजेंसी के सहयोग से इंकार कर दिया।

झीलों का शहर  कहलाने वाले भोपाल में दर्द के दरिया की हिलौरें यहीं नहीं रुकी हैं, 68 फीसदी लोग ब्लड प्रेशर के शिकार हैं । युवाओं व महिलाओं में हार्ट अटैक का आंकड़ा आसमान की तरफ है । बढ़ते गुस्से, अधीरता का कारण मिक के खून में घुलने से हार्मोन में आए बदलाव को माना जा रहा है । शहर  में छोटी-छोटी बातों पर खूनी जंग हो जाना मनोवैज्ञानिक बीमारी बन गया है । गैस के कारण शरीर काम कर नहीं रहा है, भौतिक सुखों की लालसा बढ़ी है और आय ना होने की कुंठा  या धन कमाने के शोर्ट -कट का भ्रम लोगों को जेल की ओर ले जा रहा है ।  यह भी सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि हर साल आम लोगों की अपेक्षा गैस पीड़ितों की बीमारियों के कारण मौत का आंकड़ा 28 प्रतिशत अधिक है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि सामान्य लोगों की अपेक्षा गैस पीड़ितों में बीमारियां 63 फीसदी अधिक होती है।

यह बात कई शोध  में सामने आ चुकी है कि भोपाल में महिलाओं में असमय माहवारी और अत्यधिक रक्तस्राव की समस्या के साथ जन्म लेने वालों में शारीरिक और मानसिक वृद्धि में रुकावट आम समस्या हो गई है। खांसी, सीने में दर्द, आंखों में जलन, हाथ-पैर में दर्द, आम हो गए हैं। बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो कुछ मीटर चलने पर ही हांफने लगते है।

कोरोना वायरस के प्रभाव ने कमजोर फैंफडे वाले भोपालियों को गहरी चोट पहुंचाई है।  कोविड भले ही टल गया हो लेकिन आज भी गैस के षिकार लोगों के फैंफडों पर इसका असर कम हो नहीं रहा है। सरकार के राहत शिविर  , रोजगार योजनाएं और अस्पताल बंद हो चुके हैं। भले ही यहां के बड़े तालाब की लहरें दूर तक लहराती हों लेकिन लोगों के दिल में तो गैस से उपजे दर्द का ही दरिया लरजता है।

 

 

 

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