रामलीला भारत की अस्मिता की पहचान है
एक राम कई लीलाएं
पंकज चतुर्वेदी
यह केवल बुराई पर अच्छाई की सीख मात्र नहीं है, यह केवल महाबलिशाली रावण के पतन या राजा रामचंद्र द्वारा सीता मैया को ‘असुर बंधन’ से मुक्त करवाने की षौय गार्था तक सीमित नहीं है, इसे देखने वाले इसकी कहानी को, संवादों को पात्रों को संगीत को सालें से देखते आ रहे हैं, लेकिन ना तो एक और बार देखने-सुनने की प्यास समाप्त होती है और ना ही तड़क-भड़क वाले मल्टीमीडिया के युग में समाज से लुप्त हो रही लोक षैलियों में गायन या नृत्य का रसास्वदन करने की लालसा। भले ही कोविड के चलते बीते दो सालो ंसे रामलील मैदान सूने है। लेकिन आज भी भारत के लोक-मन में राम कथा को फिर से देखने की उत्कंठा जीवंत है। अंधेरा छाते ही राजधानी दिल्ली का लालकिला हो या बंबई में गिरगांव चैपाटी के पास का मैदान या फिर बुंदलखंड का छोटा सा गांव या दरभंगा बिहार, हर जगह अपनी जगह सुरिक्षित करने के लिए टाट-बोरे बिछाना, सही जगह पाने के लिए गाली-गलौज करना, षहर का बाजार जल्दी बंद हो कर रामलीला मैदान पर जुट जाना, समूचे देश में हजारो-हजार जगह यथावत है, निरापद है। कुछ जगह अभिनय, सजावट, पटकथा को समय की हवा भी लगी तो कई जगह आज भी सदियों पुरानी रामकथा वैसे ही बांची-अभिनित की जा रही है। कई व्यावसायिक नाट्य समूह बड़े-बड़े हाल ले कर वहां षो कर रहे हैं व पर्याप्त दर्शक उन्हें मिल रहे हैं वहीं घर-घर में बसे दूरदर्शन पर रामानंद सागर के अलावा कई अन्य निर्माताओं द्वारा तैयार रामकथा, रामचरित जैसे कार्यक्रम प्रसारित होते रहते है।, लेकिन खुले मैदानों पर जाने वाले लेगा कम नहीं हो रहे है। शायद लोक- संवाद का यही सुख है, अपनों के साथ सामूहिक रूप से रीति-नीति-ज्ञान-संगीत-नाट्य-लास्य का आनंद लेना । और इसी के चलते युग बदले, मान्यताएं बदली, समाज व सुविधाएं बदलीं लेकिन नहीं बदली तो रामलीला ।
दिल्ली का ही हिस्सा हो गए टीएचए यानि ट्रांस हिंडन की अधिकांश कालेनियां अभी 40 साल पहले बसीं, अधिकांश वाशिंदे देश के अलग-अलग हिस्सों से रोजी रोटी की तलाश में दिल्ली आए मध्य आय वर्ग के लोग हैं। इंदिरापुरम कई फिल्मों की षुटिंग का पसंसीदा स्थल, शिप्रा मॉल से घिरी हुई गगनचुंबी अट्टालिकाओं की कालोनी है और यहां धरोहर समाज द्वारा मंचित की जाती रामलीला के संवाद गढवाली में होते हैं। हिमलय की गोद से उजड़ कर दिल्ली की देहरी पर आ गए इन उत्तरांचलियां की रामलीला के सभी कलाकार वहीं रहते हैं, दिन में नौकरी करते हैं फिर घर आ कर दो घंटे रिहर्सल और उसके बाद मंचन। उधर सूर्यनगर की रामलीला का आज भी संस्कृत में होना और इस देवभाषा को अधिकांश लोगों द्वारा ना समझ में आने के बावजूद हजारों लोगों को वहां श्रद्धापूर्ण बैठे रहना बानगी है कि राम की गाथा देश की संस्कृति के कण-कण में किस तरह सची-बसी है। कहीं पर यह रामलीला अपनी बिछुड़ी परंपरा को बचाने का प्रयास है तो कई जगह आज जहरीले बनाए जा रहे दौर में गंगा-जमुनी मेलजोल की मिसाल। उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले के बढ़नी विकास खंड के अंतर्गत औदही कलां गांव एक छोटा सा गांव है लेकिन यहां की रामलीला कम से कम दो सौ साल पुरानी है और प्रारंभ से ही साझा संस्कृति की मिसाल है। रामलीला में हिंदूओ के साथ ही मुस्लिम समुदाय के लोग भी कंधे से कंधा मिलाकर मंचन और प्रबंधन करते हैं।
पश्चिमी उप्र की सबसे पुरानी रामलीलाओं में से एक सुल्लामल रामलीला,गाजियाबाद का प्रारंभ सन 1900 में हुआ था। इसके लिए स्वयं सुल्लामल ने एक पदबंध रामकथा लिखी थी और प्रारंभ में वे अपने आठ शिशरें के साथ उसी पुस्तिका से रामलीला खेलते थे। उस रामायण की पूजा की जाती थी। फिर उस पुस्तक की प्रति पता नहीं कैसे नश्ट हो गई, उसके बाद से तुलसीदासकृत रामचरितमानस के आधार पर मंचन होने लगा। सुल्लामल के परपोते विनोद गर्ग आज भी रामलीला से सक्रियता से जुड़े है।। यहां हर दिन 20 हजार लोग आते हैं। फिरोजाबाद जिले के खैरिया गांव की रामलीला में राम का अभिनय करने वाले षमसाद अली मंच पर जाने से पहले इस्लामिक रीति अनुसार ‘वजु’ करते हैं। राजस्थान के सूरतगढ़ में बुधवार रात अनूठी रामलीला का मंचन हुआ. संस्कृत श्लोकों और हिंदी के दोहों के स्थान पर यहां ठेठ मारवाड़ी में संवाद हुए. राजा दशरथ से लेकर श्रवण कुमार तक सभी किरदार पूरी तरह से मायड़ भाषा में रचे-बसे नजर आए. दरअसल, राजस्थानी भाषा में रामलीला का मंचन कर सूरतगढ़ के श्रीबालाजी रामलीला संस्थान की ओर से यह प्रयास राजस्थानी को फिर से नई ऊर्जा देने का था. उल्लेखनीय है कि दशकों के संघर्ष के बावजूद राजस्थानी भाषा को अब तक मान्यता नहीं मिल पाई है. लेकिन मारवाड़ी भाषाप्रेमी नए-नए प्रयोग करके भाषा आंदोलन को मजबूती देने का प्रयास कर रहे हैं। जोधपुर के मां्रगरियाओं की रामलीला में जाति-धर्म का भेद दिखता ही नहीं है। असल में लोक-परंपराओं को किसी कानून में बांधना या किसी दायरम में समेटना असंभव है। लोक के गीत-संगीत-कला, समय के साथ स्वयं अपना रास्ता बनाते हैं। अब राजस्थान के बारां जिले पाटुडा गाव को ही लें, वहां पूरे देश की तरह षारदये नवरात्रि यानि यही सितंबर-अक्तूबर वाली में रामलीला होती थी। अचानक इलाके के बड़े-बुर्जुगों को खयाल आया कि इस समय रामलीला करना तो रावण की मौत का जश्न मनाना है जबकि रामजी का जन्म तो चैत्र नवरात्रि के बाद आता है। तब से वहां रामलीला चैत्र में होने लगी। यह गांव काली सिंध नदी के किनारे, कोटा से कोई 70 किलोमीटर दूर है। यहां की रामलीला पूरी तरह संगीतमय है जिसमें सिंध, गुजराती, षेखावटी और ब्रज के लोकसंगीत का रंग होता है।
बनारस के रामनगर की रामलीला को देश ही नहीं दुनिया में अपने तरह का विलक्षण नाट्य मंचन कहा जाता है। वाराणसी के कोई 20 किमी दूर रामनगर में साल 1783 में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने की थी । यहां रामलीला का मंचन 31 दिन तक चलता है। यहां पर बनाये गये स्टेज देखने योग्य होते हैं। रामनगर की रामलीला की खास बात यह है कि इसके प्रधान पात्र एक ही परिवार के होते हैं। उनके परिवार के सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी रामलीला अपनी भूमिका आदा करते आ रहे हैं। यहां आज भी ना तो चमचमाती रोशनी वाले लट्टू होते हैं ना ही ध्वनिविस्तारक यंत्र ,कोई सजा-धजा मंच या दमक वाली पोशाक भी नहीं ं। केवल पेट्रोमेक्स या मशला की रोशनी, खुला मंच और दूर-दूर तक फैले ण्क दर्जन कच्चे-पक्के मंच व झोपड़े । इनमें से कोई अयोध्या तो कोई लंका ता कोई अशेक वाटिका हो जाता है। परंपरा के अनुसार हर दिन काशी नरेश गजराज पर सवार हो कर आते हैं और उसी के बाद रामलीला प्रारंभ होती है। इस मंचन का आधार रामचरित मानस है, सो सभी दर्शक भी अपने साथ पाटी पर रख कर रामचरितमानस लाते हैं व साथ-साथ पाठ करते हैं।
प्रयाग यानि इलाहबाद में तो कई-कई रामलीलाएं एक साथ होती है, सभी का अपना इतिहास है। लेकिन वहां की रामलीला मंचन पर टेलीविजन की रामलीलाओं का प्रभाव सर्वाधिक हुआ और अब वे चुटिले संवाद, चमकीले सेट और चटकीले अस्त्र-शस्त्र का दिखावा बढ़ गया है। इलाहाबाद में रामलीला षुरू होने से एक दिन पहले कर्ण -अश्व की आकर्षक शोभायात्रा निकाली जाती है । इसमें पचास से ज्यादा बैंड पार्टियां , डांस करते कालाकार और बिजली से सज्ज्ति झांकियां लोगों को रामलीला षुरू होने की सूचना देती हैं। भगवान राम का दूत कहे जाने वाले कर्णघोड़े की लोग रास्ते भर आरती और पूर्जा अर्चना करते हैं। यह परंपरा इलाहाबाद में बहुत पुरानी रही है। ऐसा भी माना जाता है कि कर्ण घोड़े के कारण ही भगवान राम की लीला लोगों तक पहुंची और उसी के स्वरूप आज दुनिया भर में रामलीला का मंचन किया जाता है। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक 19वीं सदी की षुरूआत में प्रयोग में चार स्थानों पर रामलीला मंचन होता था। एक अंग्रेज अफसर फैनी पार्क्स ने अपने संस्मरण में सन 1829 में फौजियों द्वारा चेथम लाइन्स में संचालित व अभिनीति रामलीला का उल्लेख किया है। मुगल बादशाह अकबर ने भगवत गोसाईं को कमोरिन नाथ महादेव के पास की भूमि रामलीला के लिए दान में दी थी जिस पर वर्षों रामलीला होती रहीं थी । पथरचट्टी यानि बेनीराम की रामलीला की षुरूआत सन 1799 में कही जाती है जिसे अंग्रेज षासक खुल कर मदद करते थे। इन दिनों इलाहबाद व उसके आसपास 100 से यादा स्थनों पर रामलीला हो रही है , कहीं रावण इलेक्ट्रानिक चैहरे से आवाज निकालता, आंखे दिखाता है तो कहीं हनुमान को लिफ्ट से ऊपर उठा कर हवा में उड़ाया जात है। करोड़ों का बजट, फिर भी भीड़ जुटाने को नर्तकियों का सहारा।
राजाराम की जन्म स्थली अयोध्या की रामलीला बेहद विशिश्ठ है, इसमें कत्थक नृत्य में पारंगत कलाकार एकल व सामूहिक नृत्य व पारंपरिक ताल, ध्ुन, टप्पों के आधार पर संपूर्ण रामलीला को एक विशाल मंच पर प्रस्तुत करते हैं। रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास से जुड़े एक अन्य स्थान चित्रकूट में रामलीला का मंचन फरवरी के अंतिम सप्ताह में सिर्फ पांच दिनों के लिए ही होता है। यहां गीत-संगीत- अभिनय को और सशक्त बनाने के लिए समय के साथ आए तकनीकी उपकरणों का खुल कर इस्तेमाल हेता है। हर पांचवे साल में वहां किसी नई षैली व प्रस्तुति का मंचन दिखने लगता है।
जब देश-दुनिया की रामलीलाओं का विमर्श हो तो गढ़वाल व कुमायूं की रामभक्ति के रंग को याद करना अनिवार्य है। अभी कुछ दशक पहले तक वहां सड़कें थी नहीं, बिजली व संचार के साधन भी नहीं, ऐसे में लोगों के आपस में मेल-जोल, मनोरंजन और अपनी कला-प्रतिभा के प्रदर्शन का सबसे प्रामाणिक मंच रामलीलाएं ही थी। यहां की रामलीला की खासियत है, संवादों में छंद और रागनियों का प्रयांग। इनमें चौपाई , दोहा, गजल, राधेश्याम, लावणी, सोरठा, बहरेतबील जैसी विधाओं के वैविध्य का प्रयोग होता है। कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर में हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व. देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में क्रमशः 1880, 1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारम्भ हुआ। मध्यप्रदेश में होशंगाबाद, जबलपुर, इंदौर, छतरपुर में रामलीलाओं का इतिहास सौ साल से ज्यादा पुराना है। इन सभी में स्थानीय बोलियों - बुंदेली, मालवी आदि का पुट स्पश्ट दिखता है। गढवाल और बुंदेलखंड की रामलीलओं में पारसी थियेटर ाक प्रभाव काफी देखा जाता है।
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सात समंदर पार भी जय सिया-राम
वैसे तो भारतीय समुदाय जहां-जहां भी रोजगार-व्यापार के लिए गया, रामचरित मानस को अपने साथ ले गया, लेकिन एशिया के कई देशों, जैसे - मलेशिया, इंडोनेशिया, नेपाल, थाईलैंड आदि में उनकी अपनी परंपराओं के अनुसार सदियों से रामलीला मंचन होता रहा है। फिजी, मारीशस सूरीनम कनाड़ा, दक्षिण अफ्रीका और अब अमेरिका में भी रमलीला मंचन हो रहे हैं। इंडोनेशिया और मलेशिया में मुखौटा रामलीला का प्रचलन है।
दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते है जिससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। जावा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने उपर्युक्त अवसर पर नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया बर्मा के राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदर्शन होने का उल्लेख लगा। माइकेल साइमंस ने सन 1795 में किया है।
कंपूचिया में रामलीला का अभिनय ल्खोनखोल के माध्यम के होता है। ‘ल्खोन’ यानि इंडोनेशाई भाशा में नाटक और कंपूचिया की भाषा खमेर में खोल का अर्थ बंदर होता है। कंपूचिया के राजभवन में रामायण के प्रमुख प्रसंगों का अभिनय होता था।
विविधता और अनुठेपन के कारण षेडो ड्रामा के जरिये जावा तथा मलेशिया के वेयांग और थाईलैंड के नंग का विशिष्ट स्थान है। जापानी भाषा में वेयांग का अर्थ छाया है। इसके अंतर्गत सफ़ेद पर्दे पर रोशनी डाली जाती है और बीच में चमड़े की विशाल पुतलियों को कौशलता साथ नचाते हुए उसकी छाया से राम कथा को देखा जाता है।
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अनुमान है कि सबसे पुरानी रामकथा महर्शि वाल्मिकी ने लिखी थी और उसका काल ईसा से नौ से सात हजार साल पूर्व का है। फिलहाल जितनी रामलीलाएं उपलब्ध हैं उनमें से अधिकांश का उपलब्ध इतिहासस अधिक से अधिक पांच सौ साल का है। यह बात सही है कि गोस्वामी तुलसीदास ने आम लेगों की बोली-भाशा में चौपाई के माध्यम से रामायण का जो स्वरूप दिया उससे रामकथा घर-घर तक पहुंची और उसी के चलते अधिकांश रामलीलाओं का मूलभूत दस्तावेज रामचरितमानस ही है।
वर्तमान भारती की भौगोलिक सीमाओं से परे जावा के सम्राट ‘वलितुंग’ के 907 ई के एक शिलालेख में रामकथा के मंचन का उल्लेख है । थाईलैंड के राजा ‘ब्रह्मत्रयी’ के राजभवन की नियमावली में रामलीला का उल्लेख है जिसकी तिथि 1458 ई है। पुरातन भारतीय के कुछ विद्वान भरत मुनि के नाटय षास्त्र के साथ ही रामकथा मंचन का इतिहास होने का दावा करते हैं। ‘नाट्यशास्त्र’ के छह हजार श्लोकों में ‘अवस्थानुकृति’ नाट्यम की चर्चा की है। इस शास्त्र का आरंभ समुद्र मंथन की लीला से होता है। समुद्र मंथन का संबंध भगवान विष्णु से है। विष्णु को सृष्टि का पालन करने वाला देव माना जाता है। श्रीराम और श्रीकृष्ण भी विष्णु के ही अवतार माने जाते हैं। इसलिए जब भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक हो गया तो कुल गुरु वसिष्ठ जी ने कहा कि भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार श्रीराम आपकी लीलाओं के मंचन और दर्शन से समाज में आशावादिता जगेगी और बुराई का अंत होगा। इस प्रकार रामलीला प्रारंभ हुई।
बरेली में 25 नवंबर 1890 को जन्मे पं.राधेश्याम रामायणी ने ‘राधेश्याम रामायण’ की रचना कर रामलीलाओं को नया जीवन दे दिया था। कम पढ़े-लिखे, रिहर्सल के लिए कम समय निकाल पाने वाले कलाकारों के लिए रोधश्यामी बहुत उपयोगी रही। आज की रामलीलाओं में लगभग 60 प्रतिशत संवाद उसी रामायण से आते हैं।
कुछ रामकथा विशेषज्ञ कहते हैं मेघा भगत नामक एक संत तुलसीदास से बहुत पहले वाल्मिकी रामयण आधरित रामलीला का मंचन करते थे। देश के दक्षिण व पूर्वोत्तर में कथाएं भी बदल जाती है, संवाद, मेकअप भी लेकिन नहीं बदलती है तो दर्शकों की संख्या।
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दिल्ली की रामलीला यनि राजनीति का मैदान
दिल्ली में रामलीलाएं बेहद भव्य, तड़क-भड़क वाली, व्यापारिक गतिविधियों का क्षेत्र और उससे भी अध्कि अपने सियासती रसूख का मुजाहिरा करने का जरिया होती है। आज दिल्ली में कोई 1100 जगहों पर रामलीला होती हैं और उनमें से राम की असली आराधना केवल उन्ही कालोनियों की छोटी-मझोली रामलीलाओं में षेश है जिनका संचालन स्थानीय समाज अपनी हैसियत से करता है । दिल्ली में रामलीला के प्रारंभ को ले कर बड़ी रोचक कथा है। । कहा जाता है कि उन दिनों गोस्वामी तुलसीदास लालकिले के पीछे कलकतिया गेट के पास गुड़ वालों की धर्मशाला में रहा करते थे। किसी ने बादशाह के कान भर दिए कि एक दुबला-पतला जनेऊधारी ब्राहण प्रत्येक सुबह यमुना के तट पर कोई तांत्रिक क्रिया करता है। अकबर ने गोस्वामी जी को सिपाहियों से पकड़वा लिया। कुछ ही देर में लाल किले में बंदर ही बंद छा गए । पूरी सेना लगा दी लेकिन बंदर किला छोड़ने को राजी नहीं। जैसे ही तुलसीदास जी को रिहा किया गया, वानर गायब हो गए। तभी से उसी धर्मशाला में तुलसीदासजी ने रामलीला षुरू की। बीच में रामलीला बंद हुई और बहादुर षाह जफर ने उसे फिर षुरू करवाया । तभी से 180 साल से ज्यादा बीत गए रामलीला अनवरत जारी है। वही रामलीला आज भी रामलीला मैदान में होती है और उसमें हर दल के नेता अपने सबसे बड़े नेता को बुलाने की खींच-तान किया करते है।। यहां की रामलीला शाम छह बजे से शुरू होती है जो रात 10-11 बजे तक चलती है।
पश्चिमी दिल्ली के जनकपुरी में गत 15 साल से आधुनिक तकनीक के जरिये मात्र तीन घंटे में पूरी रामकथा दर्शाने का प्रयोग बेहद सफल रहा है। इन दिनों दिल्ली में श्रीरामलीला समिति, श्री धार्मिक रामलीला समिति, नवश्री धार्मिक रामलीला समिति, लव-कुश रामलीला समिति, श्री सनातन धर्म लीला समिति, दंगल मैदान आदि समितियों की बड़ी चर्चा होती है। इनमें से कई रामलीलओं में भीड़ जुटाने के लिए फिल्मी सितारे बुलाए जाते हैं और जितना बड़ा सितारा आता है, परिसर में लगे स्टॉल का किराया उतना ही बढ़ जाता है।
दिल्ली के लालकिला के प्रांगण में होने वाली लवकुश रामलीला भी एक बड़ी राजनीतिक लीला का स्थल है। यह सबसे चर्चित रामलीला है। लव कुश रामलीला कमेटी का गठन 1979 में किया गया था। यहां फिल्मी सितारे सबसे ज्यादा अते है। यह रोज शाम सात बजे से शुरू होती है। दिल्ली की तीसरी सबसे चर्चित और ऐतिहासिक रामलीला लालकिला के पास सुभाष मैदान में आयोजित की जाती है। 1923 से शुरू हुई इस रामलीला में बड़े बडे़ नेताओं को बुलाने के लिए चर्चित है। यहां पर प्रधानमंत्री जैसे बड़े नेता भी आते रहते हैं। यहां की रामलीला मंचन के लिहाज से भी खास होती है। यहां उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद और बरेली से मशहूर कलाकार बुलाए जाते हैं। यहां पर आपको चांदनी चौक के बने स्वादिष्ट व्यंजनों का भी लुत्फ उठाया जा सकता है। शाम सात बजे से शुरू होने वाली यहां की रामलीला भी 10- 11 बजे तक चलती है। यहां पर दशहरा को विशाल रावण का दहन किया जाता है।
इंडिया गेट के पास कॉपरनिकस मार्ग पर स्थित श्रीराम भारतीय कलाकेंद्र में सन 1957 से हर साल यहां पर भव्य रामलीला के दर्शक सभ्रांत, कलाप्रेमी, विदेशी मेहमान होते है। चूंकि यहां प्रतिदिन का टिकट 100 से पांच सौ तक होता है सो यहां आम आदमी आता नहीं है, लेकिन यहां के कलाकार लोक व शास्त्रीय नृत्य में पारंगत अंतरराष्ट्रीय स्तर के कलाकार होते हैं। यह आयोजन दीपावली से पहले धनतेरस तक कोई महीने चलता है और हर दिन शो खचाखच होता है।