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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

Farmers need actual cost of there labour, not rlief fund



उपज की कीमत बनाम मुआवजा
क्या अजीब विरोधाभास है कि एक तरफ किसान फसल नष्ट होने पर मर रहा है तो दूसरी ओर अच्छी फसल होने पर भी उसे मौत को गले लगाना पड़ रहा है।


देश का बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में है। बुंदेलखंड, मराठवाड़ा जैसे इलाकों में न जाने कितने किसान इस सदमे से खुदकुशी कर चुके हैं कि उनकी महीनों की दिन-रात की मेहनत के बाद भी अब वे कर्ज उतार नहीं पाएंगे, उन्हें कहीं से कोई भरोसा नहीं मिला कि इस विपदा की घड़ी में समाज या सरकार उनके साथ है। अलग-अलग राज्यों व सरकारों ने कई हजार करोड़ की राहत की घोषणाएं, नेताओं के वायदे, अखबारों में छप रहे बड़े-बड़े इश्तहार किसान को आश्वस्त नहीं कर पा रहे हैं कि वह अगली फसल उगाने को अपने पैरों पर खड़ा हो पाएगा।
मध्यप्रदेश के धार जिले के अमझेरा के किसानों को जब टमाटर के सही दाम नहीं मिले तो उन्होंने इस बार टमाटर से ही रंगपंचमी मना ली। सनद रहे, मालवा अंचल में होली पर रंग नहीं खेला जाता, रंगपंचमी पर ही अबीर-गुलाल उड़ता है। मंडी में टमाटर की एक क्रैट यानी लगभग पच्चीस किलो के महज पचास रुपए मिल रहे थे, जबकि फसल को मंडी तक लाने का किराया प्रति क्रैट पच्चीस रुपए, तुड़ाई दस रुपए, हम्माली पांच रुपए व दीगर खर्च मिला कर कुल अड़तालीस रुपए का खर्च आ रहा था। अब दो रुपए के लिए वे क्या दिन भर मंडी में खपाते। यही हाल गुजरात के साबरकांठा जिले के टमाटर उत्पादक गांवों ईडर, वडाली, हिम्मतनगर आदि का है। जब किसानों ने टमाटर बोए थे तब उसके दाम तीन सौ रुपए प्रति बीस किलो थे। लेकिन पिछले पखवाड़े जब उनकी फसल आई तो मंडी में इसके तीस रुपए देने वाले भी नहीं थे। थक-हार कर किसानों ने फसल मवेशियों को खिला दी।
गुजरात में गांवों तक अच्छी सड़क है, मंडी में भी पारदर्शिता है, लेकिन किसान को उसकी लागत का दाम भी नहीं। जिन इलाकों में टमाटर का यह हाल हुआ, वे भीषण गर्मी की चपेट में आए हैं और वहां कोल्ड स्टोरेज की सुविधा है नहीं, सो फसल सड़े इससे बेहतर उसको मुफ्त में ही लोगों के बीच डाल दिया गया। सनद रहे, इस समय दिल्ली एनसीआर में टमाटर के दाम चालीस रुपए किलो से कम नहीं हैं। यदि ये दाम और बढ़े तो सारा मीडिया व प्रशासन इसकी चिंता करने लगेगा, लेकिन किसान की चार महीने की मेहनत व लागत मिट्टी में मिल गई तो कहीं चर्चा तक नहीं हुई।
बुंदेलखंड व मराठवाड़ा-विदर्भ में किसान इसलिए आत्म हत्या कर रहा है कि पानी की कमी के कारण उसके खेत में कुछ उगा नहीं, लेकिन इन स्थानों से कुछ सौ किलोमीटर दूर ही मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ के किसान की दिक्कत उसकी बंपर फसल है। भोपाल की करोद मंडी में इस समय प्याज का दाम महज दो सौ से छह सौ रुपए क्विंटल है। आढ़तिये मात्र दो-तीन रुपए किलो के लाभ पर माल दिल्ली बेच रहे हैं। यहां हर दिन कोई पंद्रह सौ क्विंटल प्याज आ रहा है। गोदाम वाले प्याज गीला होने के कारण उसे रखने को तैयार नहीं हैं, जबकि जबर्दस्त फसल होने के कारण मंडी में इतना माल है कि किसान को उसकी लागत भी नहीं निकल रही है। याद करें यह वही प्याज है जो पिछले साल सौ रुपए किलो तक बिका था। आज के हालात ये हैं कि किसान का प्याज उसके घर-खेत पर ही सड़ रहा है।
कैसी विडंबना है कि किसान अपनी खून-पसीने से कमाई-उगाई फसल लेकर मंडी पहुंचता है तो उसके ढेर सारे सपने और उम्मीदें अचानक ढह जाते हैं। कहां तो सपने देखे थे समृद्धि के, यहां तो खेत से मंडी तक की ढुलाई निकालना भी मुश्किल दिख रहा था। असल में यह किसान के शोषण, सरकारी कुप्रबंधन और दूरस्थ अंचलों में गोदाम की सुविधा या सूचना न होने का मिला-जुला कुचक्र है, जिसे जान-बूझ कर नजरअंदाज किया जाता है। अभी छह महीने पहले पश्चिम बंगाल में यही हाल आलू के किसानों का हुआ था व हालात से हार कर बारह आलू किसानों ने आत्महत्या का मार्ग चुना था।
क्या अजीब विरोधाभास है कि एक तरफ किसान फसल नष्ट होने पर मर रहा है तो दूसरी ओर अच्छी फसल होने पर भी उसे मौत को गले लगाना पड़ रहा है। दोनों ही मसलों में मांग केवल मुआवजे की, राहत की है। जबकि यह देश के हर किसान की शिकायत है कि गिरदावरी यानी नुकसान के जायजे का गणित ही गलत है। और यही कारण है कि किसान जब कहता है कि उसकी पूरी फसल चौपट हो गई तो सरकारी रिकार्ड में उसकी हानि सोलह से बीस फीसद दर्ज होती है और कुछ दिनों बाद उसे बीस रुपए से लेकर दौ सौ रुपए तक के चैक बतौर मुआवजे मिलते हैं। सरकार प्रति हेक्टेयर दस हजार मुआवजा देने के विज्ञापन छपवा रही है, जबकि यह तभी मिलता है जब नुकसान सौ टका हो और गांव के पटवारी को ऐसा नुकसान दिखता नहीं है। यही नहीं, मुआवजा मिलने की गति इतनी सुस्त होती है कि राशि आते-आते वह खुदकुशी के लिए मजबूर हो जाता है। काश, कोई किसान को फसल की वाजिब कीमत का भरोसा दिला पाता तो उसे जान न देनी पड़ती।
नुकसान का आकलन होगा, फिर मुआवजा राशि आएगी, फिर बंटेगी, जूते में दाल की तरह। तब तक अगली फसल बोने का वक्त निकल जाएगा, किसान या तो खेती बंद कर देगा या फिर साहूकार के जाल में फंसेगा। हर गांव का पटवारी इस सूचना से लैस होता है कि किस किसान ने इस बार कितने एकड़ में क्या फसल बोई थी। होना तो यह चाहिए कि जमीनी सर्वे के बनिस्बत किसान की खड़ी-अधखड़ी-बर्बाद फसल पर सरकार को कब्जा लेना चाहिए तथा उसके रिकार्ड में दर्ज बुवाई के आंकड़ों के मुताबिक तत्काल न्यूनतम खरीदी मूल्य यानी एमएसपी के अनुसार पैसा किसान के खाते में डाल देना चाहिए। इसके बाद गांवों में मनरेगा में दर्ज मजदूरों की मदद से फसल कटाई करवा कर जो भी मिले उसे सरकारी खजाने में डालना चाहिए। जब तक प्राकृतिक विपदा की हालत में किसान आश्वस्त नहीं होगा कि उसकी मेहनत, लागत का पूरा दाम उसे मिलेगा ही, खेती को फायदे का व्यवसाय बनाना संभव नहीं होगा।
एक तरफ जहां किसान प्राकृतिक आपदा में अपनी मेहनत व पूंजी गंवाता है तो दूसरी तरफ यह भी डरावना सच है कि हमारे देश में हर साल कोई पचहत्तर हजार करोड़ के फल-सब्जी, माकूल भंडारण के अभाव में नष्ट हो जाते हैं। आज हमारे देश में कोई तिरसठ सौ कोल्ड स्टोरज हैं जिनकी क्षमता 3011 लाख मीट्रिक टन की है। जबकि हमारी जरूरत 6100 मीट्रिक टन क्षमता के कोल्ड स्टोरेज की है। मोटा अनुमान है कि इसके लिए लगभग पचपन हजार करोड़ रुपए की जरूरत है। जबकि इससे एक करोड़ बीस लाख किसानों को अपने उत्पाद के ठीक दाम मिलने की गारंटी मिलेगी। वैसे जरूरत के मुताबिक कोल्ड स्टोरेज बनाने का व्यय सालाना हो रहे नुकसान से भी कम है।
चाहे आलू हो या मिर्च या ऐसी ही फसल, इनकी खासियत है कि इन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। टमाटर, अंगूर आदि का प्रसंस्करण कर वे पर्याप्त लाभ देते हैं। सरकार मंडियों से कर वूसलने में तो आगे रहती है, लेकिन गोदाम या कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने की उनकी जिम्मेदारियों पर चुप रहती हे। यही तो उनके द्वारा किसान के शोषण का हथियार भी बनता है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में लगे कोई चौंसठ फीसद लोगों के पसीने से पैदा होता है। पर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है।
पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की कीमत पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों। किसान जब कैश क्रॉपयानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचौलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है। पिछले साल उत्तर प्रदेश में 88 लाख मीट्रिक टन आलू हुआ था तो आधे साल में ही मध्य भारत में आलू के दाम बढ़ गए थे। इस बार किसानों ने उत्पादन बढ़ा दिया। अनुमान है कि इस बार 125 मीट्रिक टन आलू पैदा हो रहा है। कोल्ड स्टोरेज की क्षमता बमुश्किल 97 लाख मीट्रिक टन की है। जाहिर है कि आलू या तो सस्ते-मंदे दामों में बिकेगा या फिर किसान उसे खेत में ही सड़ा देगा। आखिर आलू उखाड़ने, मंडी तक ले जाने के दाम भी तो निकलने चाहिए।
देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे गौण दिखते हैं। सब्जी, फल और दूसरी नकदी फसलों को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दलहन, तिलहन और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की हद तक सामने आ रहे हैं। आज जरूरत इस बात की है कि कौन-सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे, इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या गोदाम पर किसान का कब्जा हो, साथ ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर लगें। किसान को न तो कर्ज चाहिए और न ही बगैर मेहनत के कोई छूट या सबसिडी। इससे बेहतर है कि उसके उत्पाद को उसके गांव में ही विपणन करने की व्यवस्था और सुरक्षित भंडारण की स्थानीय व्यवस्था की जाए।

For saving Bundelkhand, save forest, hills and water

पहाड़-पेड़-पानी सहेजे बगैर नहीं बचेगा बंुदेलखंड

                                                                                                                      पंकज  चतुर्वेदी
बुंदेलखंड का कोई भी गांव-कस्बा ले लें, हर जगह पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण हुआ। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाली पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नए सिरे से नहीं बनाया गया तो न तो सूरत बदलेगी और न ही सीरत...
लगातार तीसरे साल बेहद कम पानी बरसने से बंुदेलखंड बेहाल है। इस बार गरमी शुरू होने से बहुत पहले ही बुंदेलखंड में जल संकट, पलायन और बेबसी की खबरें हवा में तैरने लगी थीं। अब यहां के बाशिंदों को ही तय करना होगा कि वे कैसा बुंदेलखंड चाहते हैं। यह जान लें कि यहां पानी तो इतना ही बरसेगा, यह भी जान लें कि आधुनिक इंजीनियरिंग व तकनीक यहां कारगर नहीं है। बंुदेलखंड को बचाने का एकमात्र तरीका अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। बुंदेलखंड के सभी गांव, कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है- चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती। पहाड़ के पार घने जंगल व उसके बीच से बहती बरसाती या छोटी नदियां। आजादी के बाद यहां के पहाड़ बेहिसाब काटे गए, जंगलों का सफाया हुआ व पारंपरिक तालाबों को पाटने में किसी ने संकोच नहीं किया। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखंड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपनेआप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे-बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोनेे वाले नाबदान बन गए। बुंदेलखंड का कोई गांव-कस्बा ले लें, हर जगह पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण हुआ। छतरपुर में तो पहाड़ों पर दो लाख से ज्यादा आबादी बस गई। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई। और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाली पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। जो बड़े पहाड़ जंगलों में थे, उनको खनन माफिया चाट गया। 
आज जहां पहाड़ होना था, वहां गहरी खाइयां हैं। पहाड़ की भूमि पर पेड़ खत्म हुए व ऊपरी परत नष्ट हुई तो बारिश के साथ वहां की मिट्टी का तालाबों में गिरना तेज हो गया। ऐसे में उसकी तली में सजे तालाबों में पानी कहां से आता? उनको रीत रहना ही था। इस तरह गांवों की अर्थव्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे बंुदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां न तो कल-कारखाने हैं और न ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है। कभी बुंदेलखंड के 45 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमट कर 10 से 13 प्रतिशत रह गई है। छतरपुर सहित कई जिलों में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी भी दो सौ किलोमीटर दूर से मंगवानी पड़ रही है। यहां के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों सौर, कौंदर, कौल और गोंड़ो की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखें। ये आदिवासी वनोपज से जीवीकोपार्जन चलाते थे, सूखे गिरे पेड़ों को ईंधन के लिए बेचते थे। लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बद्तर हो गई। ठेकेदारों ने जमकर जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए। बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्पवर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे।इलाके के गांव-गांव में तालाब हैं, जहां की मछलियां कोलकाता के बाजार में आवाज लगा कर बिकती हैं। इस क्षेत्र के जंगलों में मिलने वाले अफरात तेंदू पत्ता को ग्रीन-गोल्ड कहा जाता है। आंवला, हर्र जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं। लेकिन जब जंगल व तालाब नहीं तो यह समृद्धि भी नदारद हो गई। बुंदेलखंड की असली समस्या अल्पवर्षा नहीं है, वहां तो यहां सदियों, पीढि़यों से यही होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं... सभी को।
यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं, बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पहाड़ कटने से रोकना, पारंपरिक बिरादरी के पेड़ों वाले जंगलों को सहेजना, पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना, महज ये पांच उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। मनरेगा भी यहां कारगर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का शोषण रोककर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिए तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं। विशेषकर यहां के पारंपरिक जल स्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए। यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा।यदि बंुदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्पत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हट कर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। इलाके के पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बहकर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहंुचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं, जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बनाकर या नदियों को पारंपरिक तालाबों से जोड़कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रुपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बंुदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी। अब चाहे राज्य अलग बने या नहीं, यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नए सिरे से नहीं बनाया गया तो न तो सूरत बदलेगी और न ही सीरत।
श्चष्७००१०१०ञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व
= पंकज चतुर्वेदी



After all, why do death houses become sewers?

      आखिर मौतघर क्यों बन जाते हैं   सीवर? पंकज चतुर्वेदी केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय  मंत्रालय  द्वारा कराए गए एक सोशल ऑडिट की एक...