सूखा : राहत नहीं दूरगामी स्थायी योजना की
हाल
ही में सुप्रीम कोर्ट ने स्वराज अभियान की एक जनहित याचिका पर 11 राज्यों
को नोटिस जारी कर पूछा है कि सूखे से बेहाल लोगों को मरहम लगाने के लिये
अभी तक माकूल कदम क्यों नहीं उठाए गए। अदालत ने किसान को 20 हजार प्रति
हेक्टेयर मुआवजा व प्रत्येक व्यक्ति को पाँच किलो अनाज, हर माह देने के
खाद्य सुरक्षा कानून का पालन ना करने पर भी जवाब माँगा है। यह कोई सोच ही
नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से अकेले खेती ही प्रभावित होगी? या पीने के
पानी का संकट होगा या फिर अर्थव्यवस्था में जीडीपी का आँकड़ा गड़बड़ाएगा।
हालांकि यह चार महीने पहले ही तय हो गया था कि देश का बड़ा हिस्सा अल्प बारिश के कारण बड़े संकट की ओर अग्रसर है, लेकिन भारतीय राजनीति की यह विडम्बना है कि हम किसी भी समस्या पर तब तक गम्भीर नहीं होते, जब तक वह लाईलाज नहीं हो जाये।
ठीक यही सूखे के मामले में हुआ, हालांकि सूखा एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है जिसकी पूर्व सूचना हमें मिल जाती है, यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि औसत से कम पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिये त्राहि-त्राहि करती है।
इसके बावजूद हम दूरगामी या स्थायी योजना बनाने के बनिस्पत राहत बाँटने में ज्यादा भरोसा करते हैं। कहने में कोई शक नहीं है कि राज-काज सम्भाल रहा बड़ा वर्ग हर समय किसी आपदा व उसके लिये राहत राशि का ही इन्तजार करता रहता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को भी सूखे से राहत के मामले में दखल देना पड़ा। जाहिर है कि पूरा तंत्र ना तो सूखे से जूझने की तैयारी ठीक प्रकार कर पाया और ना ही राहत कार्य को समय रहते चालू कर पाया।
सवाल उठता है कि हमारा विज्ञान मंगल पर तो पानी खोज रहा है लेकिन जब कायनात छप्पर फाड़ कर पानी देती है उसे पूरे साल सहेजकर रखने की तकनीक नहीं। हालांकि हम अभागे हैं कि हमने अपने पुरखों से मिली ऐसे सभी ज्ञान को खुद ही बिसरा दिया।
जरा गौर करें कि यदि पानी की कमी से लोग पलायन करते तो हमारे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके तो कभी के वीरान हो जाने चाहिए थे, लेकिन वहाँ रंग, लोक, स्वाद, मस्ती, पर्व सभी कुछ है। क्योंकि वहाँ के पुश्तैनी बाशिन्दे कम पानी से बेहतर जीवन जीना जानते थे।
यह आम आदमी भी देख सकता है कि जब एक महीने की बारिश में हमारे भण्डार पूरे भर कर छलकने लगे तो यदि इससे ज्यादा पानी बरसा तो वह बर्बाद ही होगा। फिर भी वर्षा के दिनों में पानी ना बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिन्तित हो जाते हैं।
केन्द्र सरकार मौसम विभाग के आँकड़े भले ही देश के 300 से अधिक जिलों को सूखे की चपेट में बताते हों, लेकिन राज्य सरकारों की नजर में केवल 200 जिले ही सूखाग्रस्त हैं। अब तक सात राज्यों ने अपने यहाँ सूखे की सूचना दी है, जिसके लिये केन्द्र सरकार सूखा राहत देने की तैयारी में जुटी है।
कुछ राज्यों ने तो केन्द्र सरकार के आग्रह पर अपने यहाँ सूखे का एलान किया है। इनमें उत्तर प्रदेश और ओडिशा प्रमुख हैं। सूखे के प्रभाव की समीक्षा के लिये राज्यों के कृषि विभाग के प्रमुख सचिवों की बैठक बुलाई गई। कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने खुद प्रत्येक राज्य में सूखे के प्रभाव और उससे पैदा होने वाली मुश्किलों के बारे में विस्तार से जानकारी ली।
भूमि में नमी की कमी की समस्या की वजह से फ़सलों की बुवाई में होने वाले विलम्ब पर चिन्ता जताई गई। केन्द्र से राहत पाने के लिये पहले राज्यों को अपने यहाँ के हालात पर एक रपट भेजनी होती है, फिर केन्द्र की टीम मौके पर जाकर मुआयना करती है और उसके बाद राज्यों को केन्द्र की तरफ से राहत राशि जारी की जाती है।
यह हास्यास्पद है कि जहाँ देश के 11 से ज्यादा राज्य कम बरसात के कारण पलायन, खेती की बर्बादी व पेयजल संकट से दो-चार हो रहे हैं, अधिकांश राज्य सरकारों ने समय रहते इसकी सूचना भी केन्द्र को नहीं भेजी।
कर्नाटक राज्य ने सबसे पहले सूखे की अधिसूचना जारी की थी, जिसकी वजह से उसे 1540 करोड़ रुपए की राहत राशि मिल भी गई। मंजूर करके जारी कर दी गई। यहाँ के कुल 27 जिले सूखाग्रस्त हैं। छत्तीसगढ़ ने 25 जिलों को हाल ही में सूखा प्रभावित बताया है, जिसकी तस्दीक के लिये केन्द्रीय टीम भी दौरा पूरी कर चुकी है।
मध्य प्रदेश के 22 जिले सूखे की चपेट में हैं, जिसके लिये केन्द्रीय टीम ने दौरा पूरा कर अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। महाराष्ट्र के 21 सूखाग्रस्त जिलों का मौका मुआयना हो चुका है। उत्तर प्रदेश में 50 जिलों को सूखग्रस्त घोषित किया गया है। झारखण्ड व तेलंगाना का अधिकांश हिस्सा सूखाग्रस्त है।
मध्य प्रदेश में भी 123 तहसीलें सूखग्रस्त अधिसूचित की गई हैं। जरा गौर करें तो मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड, तेलंगाना का बड़ा हिस्सा, छत्तीसगढ़ व झारखण्ड के सूखाग्रस्त क्षेत्र हर तीन साल में एक बार इस विपदा का सामना करते ही हैं। जाहिर है हक राज्य सरकारों को इसके लिये हर समय तैयार रहना चाहिए।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने स्वराज अभियान की एक जनहित याचिका पर 11 राज्यों को नोटिस जारी कर पूछा है कि सूखे से बेहाल लोगों को मरहम लगाने के लिये अभी तक माकूल कदम क्यों नहीं उठाए गए। अदालत ने किसान को 20 हजार प्रति हेक्टेयर मुआवजा व प्रत्येक व्यक्ति को पाँच किलो अनाज, हर माह देने के खाद्य सुरक्षा कानून का पालन ना करने पर भी जवाब माँगा है।
यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से अकेले खेती ही प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थव्यवस्था में जीडीपी का आँकड़ा गड़बड़ाएगा। केन्द्र से लेकर राज्य व जिला से लेकर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनानेे में लग गए हैं कि कम बारिश से उपजे हालात पर राहत कार्य के लिये कितना व कैसे बजट मिल सकता है।
असल में इस बात को लोग नजरअन्दाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबन्धन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।
जरा मौसम महकमे की घोषणा के बाद उपजे आतंक की हकीक़त जानने के लिये देश की जल-कुंडली भी बाँच ली जाये। भारत में दुनिया की कुल ज़मीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है।
दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घनमीटर पानी ही काम आता है।
जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हाँ, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी माँगने वाले सोयाबीन व अन्य कैश क्रॉप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है।
इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून-से-सितम्बर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आँकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से।
भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं।
मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाये तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं। एक बात जानना जरूरी है कि खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी और देश में खाद्यान्न की कमी में भारी अन्तर है।
यदि देश के पूरे हालात को गम्भीरता से देखा जाये तो हमारे बफर स्टाक में आने वाले तीन सालों का अन्न भरा हुआ है। यह बात दीगर है कि लापरवाह भण्डारण, भ्रष्टाचारी के श्राप से ग्रस्त वितरण और गैर व्यावसायिक प्रबन्धन के चलते भले ही खेतों में अनाज पर्याप्त हो, हमारे यहाँ कुपोषण व भूख से मौत होती ही रहती हैं। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिये इन्द्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं।
सूखे के दौरान संयम और प्रबन्धन, शिक्षा और जागरुकता के माध्यम से ही सम्भव है। सूखा तात्कालिक मुसीबत नहीं है, समय के साथ इसकी विकरालता भी बढ़ती जाती है। इसके दुष्प्रभाव दूरगामी होते हैं। इन हालातों में आपसी तालमेल, सुनियोजित व्यवस्था और प्रबन्धन से तकलीफों को कम किया जा सकता है।
सूखे के कारण ज़मीन के कड़े होने, या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोज़गार घटने व पलायन, मवेशियों के लिये चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। यहाँ जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है।
यह बात दीगर है कि हम हमारे यहाँ बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जाकर मिल जाता है और बेकार हो जाता है।
आज यह आवश्यक हो गया है कि किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोषित करने, वहाँ राहत के लिये पैसा भेजने जैसी पारम्परिक व छिद्रयुक्त योजनाओं को रोका जाये, इसके स्थान पर पूरे देश के सम्भावित अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों में जल संचयन, खेती, रोज़गार, पशुपालन की नई परियोजनाएँ स्थायी रूप से लागू की जाएँ ताकि इस आपदा को आतंक के रूप में नहीं, प्रकृतिजन्य अनियमितता मानकर सहजता से जूझा जा सके।
कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिये तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिये सूखे का इन्तजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा।
कम पानी में उगने वाली फसलें, कम-से-कम रसायन का इस्तेमाल, पारम्परिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।
हालांकि यह चार महीने पहले ही तय हो गया था कि देश का बड़ा हिस्सा अल्प बारिश के कारण बड़े संकट की ओर अग्रसर है, लेकिन भारतीय राजनीति की यह विडम्बना है कि हम किसी भी समस्या पर तब तक गम्भीर नहीं होते, जब तक वह लाईलाज नहीं हो जाये।
ठीक यही सूखे के मामले में हुआ, हालांकि सूखा एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है जिसकी पूर्व सूचना हमें मिल जाती है, यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि औसत से कम पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिये त्राहि-त्राहि करती है।
इसके बावजूद हम दूरगामी या स्थायी योजना बनाने के बनिस्पत राहत बाँटने में ज्यादा भरोसा करते हैं। कहने में कोई शक नहीं है कि राज-काज सम्भाल रहा बड़ा वर्ग हर समय किसी आपदा व उसके लिये राहत राशि का ही इन्तजार करता रहता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को भी सूखे से राहत के मामले में दखल देना पड़ा। जाहिर है कि पूरा तंत्र ना तो सूखे से जूझने की तैयारी ठीक प्रकार कर पाया और ना ही राहत कार्य को समय रहते चालू कर पाया।
सवाल उठता है कि हमारा विज्ञान मंगल पर तो पानी खोज रहा है लेकिन जब कायनात छप्पर फाड़ कर पानी देती है उसे पूरे साल सहेजकर रखने की तकनीक नहीं। हालांकि हम अभागे हैं कि हमने अपने पुरखों से मिली ऐसे सभी ज्ञान को खुद ही बिसरा दिया।
जरा गौर करें कि यदि पानी की कमी से लोग पलायन करते तो हमारे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके तो कभी के वीरान हो जाने चाहिए थे, लेकिन वहाँ रंग, लोक, स्वाद, मस्ती, पर्व सभी कुछ है। क्योंकि वहाँ के पुश्तैनी बाशिन्दे कम पानी से बेहतर जीवन जीना जानते थे।
यह आम आदमी भी देख सकता है कि जब एक महीने की बारिश में हमारे भण्डार पूरे भर कर छलकने लगे तो यदि इससे ज्यादा पानी बरसा तो वह बर्बाद ही होगा। फिर भी वर्षा के दिनों में पानी ना बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिन्तित हो जाते हैं।
केन्द्र सरकार मौसम विभाग के आँकड़े भले ही देश के 300 से अधिक जिलों को सूखे की चपेट में बताते हों, लेकिन राज्य सरकारों की नजर में केवल 200 जिले ही सूखाग्रस्त हैं। अब तक सात राज्यों ने अपने यहाँ सूखे की सूचना दी है, जिसके लिये केन्द्र सरकार सूखा राहत देने की तैयारी में जुटी है।
कुछ राज्यों ने तो केन्द्र सरकार के आग्रह पर अपने यहाँ सूखे का एलान किया है। इनमें उत्तर प्रदेश और ओडिशा प्रमुख हैं। सूखे के प्रभाव की समीक्षा के लिये राज्यों के कृषि विभाग के प्रमुख सचिवों की बैठक बुलाई गई। कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने खुद प्रत्येक राज्य में सूखे के प्रभाव और उससे पैदा होने वाली मुश्किलों के बारे में विस्तार से जानकारी ली।
भूमि में नमी की कमी की समस्या की वजह से फ़सलों की बुवाई में होने वाले विलम्ब पर चिन्ता जताई गई। केन्द्र से राहत पाने के लिये पहले राज्यों को अपने यहाँ के हालात पर एक रपट भेजनी होती है, फिर केन्द्र की टीम मौके पर जाकर मुआयना करती है और उसके बाद राज्यों को केन्द्र की तरफ से राहत राशि जारी की जाती है।
यह हास्यास्पद है कि जहाँ देश के 11 से ज्यादा राज्य कम बरसात के कारण पलायन, खेती की बर्बादी व पेयजल संकट से दो-चार हो रहे हैं, अधिकांश राज्य सरकारों ने समय रहते इसकी सूचना भी केन्द्र को नहीं भेजी।
कर्नाटक राज्य ने सबसे पहले सूखे की अधिसूचना जारी की थी, जिसकी वजह से उसे 1540 करोड़ रुपए की राहत राशि मिल भी गई। मंजूर करके जारी कर दी गई। यहाँ के कुल 27 जिले सूखाग्रस्त हैं। छत्तीसगढ़ ने 25 जिलों को हाल ही में सूखा प्रभावित बताया है, जिसकी तस्दीक के लिये केन्द्रीय टीम भी दौरा पूरी कर चुकी है।
मध्य प्रदेश के 22 जिले सूखे की चपेट में हैं, जिसके लिये केन्द्रीय टीम ने दौरा पूरा कर अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। महाराष्ट्र के 21 सूखाग्रस्त जिलों का मौका मुआयना हो चुका है। उत्तर प्रदेश में 50 जिलों को सूखग्रस्त घोषित किया गया है। झारखण्ड व तेलंगाना का अधिकांश हिस्सा सूखाग्रस्त है।
मध्य प्रदेश में भी 123 तहसीलें सूखग्रस्त अधिसूचित की गई हैं। जरा गौर करें तो मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड, तेलंगाना का बड़ा हिस्सा, छत्तीसगढ़ व झारखण्ड के सूखाग्रस्त क्षेत्र हर तीन साल में एक बार इस विपदा का सामना करते ही हैं। जाहिर है हक राज्य सरकारों को इसके लिये हर समय तैयार रहना चाहिए।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने स्वराज अभियान की एक जनहित याचिका पर 11 राज्यों को नोटिस जारी कर पूछा है कि सूखे से बेहाल लोगों को मरहम लगाने के लिये अभी तक माकूल कदम क्यों नहीं उठाए गए। अदालत ने किसान को 20 हजार प्रति हेक्टेयर मुआवजा व प्रत्येक व्यक्ति को पाँच किलो अनाज, हर माह देने के खाद्य सुरक्षा कानून का पालन ना करने पर भी जवाब माँगा है।
यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से अकेले खेती ही प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थव्यवस्था में जीडीपी का आँकड़ा गड़बड़ाएगा। केन्द्र से लेकर राज्य व जिला से लेकर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनानेे में लग गए हैं कि कम बारिश से उपजे हालात पर राहत कार्य के लिये कितना व कैसे बजट मिल सकता है।
असल में इस बात को लोग नजरअन्दाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबन्धन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।
जरा मौसम महकमे की घोषणा के बाद उपजे आतंक की हकीक़त जानने के लिये देश की जल-कुंडली भी बाँच ली जाये। भारत में दुनिया की कुल ज़मीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है।
दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घनमीटर पानी ही काम आता है।
जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हाँ, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी माँगने वाले सोयाबीन व अन्य कैश क्रॉप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है।
इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून-से-सितम्बर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आँकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से।
भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं।
मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाये तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं। एक बात जानना जरूरी है कि खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी और देश में खाद्यान्न की कमी में भारी अन्तर है।
यदि देश के पूरे हालात को गम्भीरता से देखा जाये तो हमारे बफर स्टाक में आने वाले तीन सालों का अन्न भरा हुआ है। यह बात दीगर है कि लापरवाह भण्डारण, भ्रष्टाचारी के श्राप से ग्रस्त वितरण और गैर व्यावसायिक प्रबन्धन के चलते भले ही खेतों में अनाज पर्याप्त हो, हमारे यहाँ कुपोषण व भूख से मौत होती ही रहती हैं। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिये इन्द्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं।
सूखे के दौरान संयम और प्रबन्धन, शिक्षा और जागरुकता के माध्यम से ही सम्भव है। सूखा तात्कालिक मुसीबत नहीं है, समय के साथ इसकी विकरालता भी बढ़ती जाती है। इसके दुष्प्रभाव दूरगामी होते हैं। इन हालातों में आपसी तालमेल, सुनियोजित व्यवस्था और प्रबन्धन से तकलीफों को कम किया जा सकता है।
सूखे के कारण ज़मीन के कड़े होने, या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोज़गार घटने व पलायन, मवेशियों के लिये चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। यहाँ जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है।
यह बात दीगर है कि हम हमारे यहाँ बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जाकर मिल जाता है और बेकार हो जाता है।
आज यह आवश्यक हो गया है कि किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोषित करने, वहाँ राहत के लिये पैसा भेजने जैसी पारम्परिक व छिद्रयुक्त योजनाओं को रोका जाये, इसके स्थान पर पूरे देश के सम्भावित अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों में जल संचयन, खेती, रोज़गार, पशुपालन की नई परियोजनाएँ स्थायी रूप से लागू की जाएँ ताकि इस आपदा को आतंक के रूप में नहीं, प्रकृतिजन्य अनियमितता मानकर सहजता से जूझा जा सके।
कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिये तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिये सूखे का इन्तजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा।
कम पानी में उगने वाली फसलें, कम-से-कम रसायन का इस्तेमाल, पारम्परिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।