हम अहिंसक थे ही कब !
जैसा कि हर 30 जनवरी को होता है, ठीक 11 बजे कहीं सायरन बजेगा तो कहीं अन्य किसी तरह से वक्त की सूचना होगी। दो मिनट का मौन होगा, कुछ स्कूलों में जबरिया मौन रखवाया जाएगा, जहां बच्चे दांत दबा कर हंसेंगे और फिर मौन समाप्त होने के बाद कुछ बच्चों की पिटाई होगी। इस तरह रस्म अदायगी होगी और याद किया जाएगा कि आज वह इंसान हिंसा का शिकार हो कर गोलोकवासी हो गया था, जिसके बारे में कहा जाता है कि उनकी अहिंसा की नीति के बल पर देश को आजादी मिली। भारत की आजादी की लड़ाई या समाज के बारे में देश-दुनिया की कोई भी किताब या नीति पढं़े तो पाएंगे कि हमारा मुल्क अहिंसा के सिद्धांत पर चलता है। एक वर्ग जो अपने पर ‘पिलपिले लोकतंत्र’ का आरोप लगवा कर गर्व महसूस करता है, खुद को गांधीवादी बताता है तो दूसरा वर्ग जो गांधी को
देश के लिए अप्रासंगिक और बेकार मानता है, वह गांधीवादी (?) नीतियों को आतंकवाद जैसी कई समस्याओं का कारक मानता है। असल में इस मुगालते का कभी आकलन किया ही नहीं गया कि क्या हम गांधीवादी या अहिंसक हैं? आज तो यह बहस भी जमकर उछाली जा रही है कि असल में देश को आजादी गांधी या उनकी अहिंसा के कारण नहीं मिली, उसका असल श्रेय तो नेताजी की आजाद हिंद फौज या भगत सिंह की फांसी को जाता है। जाहिर है कि खुला बाजार बनी दुनिया और हथियारों के बल पर अपनी अर्थ नीति को विकसित की श्रेणी में रखने वाले देश हमारी अहिंसा को न तो मानेंगे और न ही मानने देंगे।आए रोज की छोटी-बड़ी घटनाएं गवाह हैं कि हम भी उतने ही हिंसक और अशांति प्रिय हैं, जिसके लिए हम पाकिस्तान या अफगानिस्तान या अमेरिका को कोसते हैं। भरोसा न हो तो अभी कुछ साल पहले ही अफजल गुरु या कसाब की फांसी के बाद आए बयान, जुलूस, मिठाई बांटने, बदला पूरा होने, कलेजे में ठंडक पहुंचने की अनगिनत घटनाओं को याद करें। हम मांगों के लिए हुल्लड़ कर लोगों को सताने या सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करने, मामूली बात पर हत्या कर देने, पड़ोसी देश के एक के बदले 10 सिर लाने के बयान, एक के बदले 100 का धर्म परिवर्तन करवाने, सुरेंद्र कोली को फांसी पर चढ़ाने को बेताब दिखने वाले जल्लाद के बयान जैसी घटनाएं आए रोज सुर्खियों में आती हैं और आम इंसान का मूल स्वभाव इसे उभरता है। जाहिर है कि बदला पूरा होने की बात करना हमारे मूल हिंसक स्वभाव का ही प्रतीक है। आखिर यह सवाल उठ ही क्यों रहा है? इंसानियत या इंसान को कठघरे में खड़ा करने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि यदि एक बार हम मान लेंगे कि हमारे साथ कोई समस्या है तो उसके निदान की अनिवार्यता या विकल्प पर भी विचार करेंगे। हम मुंह में गांधी और बगल में छुरी के अपने दोहरे चरित्र से उबरने का प्रयास करेंगे। जब सिद्धांतत: मानते हैं कि हम तो अहिंसक या शांतिप्रिय समाज हैं तो यह स्वीकार नहीं कर रहे होते हैं कि हमारे समाज के सामने कोई गूढ़ समस्या है, जिसका निदान आवश्यक है। मेनन, अफजल गुरु या कसाब की फांसी पर आतिशबाजी चलाना या मिठाई बांटना उतना ही निंदनीय है, जितना उनको मुकर्रर अदालती सजा के अमल का विरोध। जब समाज का कोई वर्ग अपराधी की फांसी पर खुशी मनाता है तो एकबारगी लगता है कि वह उन निर्दोष लोगों की मौत और उनके पीछे छूट गए परिवार के स्थाई दर्द की अनदेखी कर रहा है। ऐसा इसीलिए होता है, क्योंकि समाज का एक वर्ग मूलरूप से हिंसा-प्रिय है। देश में आए रोज ऐसे प्रदर्शन, धरने, शादी-ब्याह, धार्मिक जुलूस देखे जा सकते हैं, जो उन आत्ममुग्ध लोगों के शक्ति प्रदर्शन का माध्यम होते हैं और उनके सार्वजनिक स्थान पर बलात अतिक्रमण के कारण हजारों बीमार, मजबूर, किसी काम के लिए समय के साथ दौड़ रहे लोगों के लिए शारीरिक-मानसिक पीड़ादायी होते हैं। ऐसे नेता, संत, मौलवी बेपरवाह होते हैं, उन हजारों लोगों की परेशानियों के प्रति। असल में हमारा समाज अपने अन्य लोगों के प्रति संवेदनशील ही नहीं है, क्योंकि मूलरूप से हिंसक-कीड़ा हमारे भीतर कुलबुलाता है। ऐसी ही हिंसा, असंवेदनशीलता और दूसरों के प्रति बेपरवाही के भाव का विस्तार पुलिस, प्रशासन और अन्य सरकारी एजेंसियों में होता है। हमारे सुरक्षा बल केवल डंडे-हथियार की ताकत दिखा कर ही किसी समस्या का हल तलाशते हैं। हकीकत तो यह है कि गांधीजी शुरुआत से ही जानते थे कि हिंसा व बदला इंसान का मूल स्वभाव है व उसे बदला नहीं जा सकता। सन् 1909 में ही, जब गांधीजी महात्मा गांधी नहीं बने थे, एक वकील ही थे, इंग्लैंड से अफ्रीका की अपनी समुद्री यात्रा के दौरान एक काल्पनिक पाठक से बातचीत में माध्यम से ‘हिंद स्वराज’ में लिखते हैं (द कलेक्टेड वर्कर्स ऑफ गांधी, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, खंड 10 पेज 27, 28 और 32)- ‘मैंने कभी नहीं कहा कि हिंदू और मुसलमान लड़ेंगे ही नहीं। साथ-साथ रहने वाले दो भाइयों के बीच अक्सर लड़ाई हो जाती है। कभी-कभी हम अपने सिर भी तुड़वाएंगे ही। ऐसा जरूर होना नहीं चाहिए, लेकिन सभी लेाग निष्पक्ष नहीं होते।’ देश के ‘अहिंसा-आयकान’ गांधीजी अपने अंतिम दिनों के पहले ही यह जान गए थे कि उनके द्वारा दिया गया अहिंसा का पाठ महज एक कमजोर की मजबूरी था। तभी जैसे ही आजादी और बंटवारे की बात हुई समग्र भारत में दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा कत्लेआम हो गया। जून-जुलाई 1947 में गांधीजी ने अपने दैनिक भाषण में कह दिया था- ‘परंतु अब 32 वर्ष बाद मेरी आंख खुली है। मैं देखता हूं कि अब तक जो चलती थी, वह अहिंसा नहीं है, बल्कि मंद-विरोध था। मंद विरोध वह करता है, जिसके हाथ में हथियार नहीं होता। हम लाचारी से अहिंसक बने हुए थे, मगर हमारे दिलों में तो हिंसा भरी हुई थी। अब जब अंग्रेज यहां से हट रहे हैं तो हम उस हिंसा को आपस में लड़ कर खर्च कर रहे हैं।’ गांधीजी अपने आखिरी दिनों इस बात से बेहद व्यथित, हताश भी थे कि वे जिस अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को देश से निकालने का दावा करते रहे थे, वह उसे आम लोगों में स्थापित करने में असफल रहे थे। कैसी विडंबना है कि जिस हिंसा को लेकर गांधी दुखी थे, उसी ने उनकी जान भी ली। जिस अहिंसा के बल पर वे स्वराज पाने का दावा कर रहे थे, जब स्वराज आया तो दुनिया के सबसे बड़े नरसंहार, विस्थापन, भुखमरी व लाखों लाशों को साथ लेकर आया। शायद हमें उसी दिन समझ लेना था कि भारत का समाज मूल रूप से हिंसक है, हमारे त्यौहार-पर्व में हम तलवारें चलाकर, हथियार प्रदर्शित कर खुश होते हैं। हमारे नेता सम्मान में मिली तलवारें लहरा कर गर्व महसूस करते हैं। हर रोज बाघा बॉर्डर पर आक्रामक तेवर दिखाकर लोगों में नफरत की आड़ में उत्साह भरना सरकार की नीति है। आम लोग भी कार में खरोंच, गली पर कचरे या एकतरफा प्यार में किसी की हत्या करने में संकोच नहीं करता है। अपनी मांगों को समर्थन में हमारे धरने-प्रदर्शन दूसरों के लिए आफत बन कर आते हैं, लेकिन हम इसे लोकतंत्र का हिस्सा जताकर दूसरों की पीड़ा में अपना दबाव होने का दावा करते हैं।हम आजादी के बाद 68 सालों में छह बड़े युद्ध लड़ चुके हैं, जिनमें हमारे कई हजार सैनिक मारे जा चुके हैं। हमारे मुल्क का एक तिहाई हिस्सा सशस्त्र अलगाववादी आंदोलनों की चपेट में है, जहां सालाना तीस हजार लोग मारे जाते हैं, जिनमें सुरक्षा बल भी शामिल हैं। देश में हर साल पैंतीस से चालीस हजार लोग आपसी दुश्मनियों में मर जाते हैं, जो दुनिया के किसी देश में हत्या की सबसे बड़ी संख्या होती है। हमारा फौज व आंतरिक सुरक्षा का बजट स्वास्थ्य या शिक्षा के बजट से बहुत ज्यादा होता है। सवाल फिर खड़ा होता है कि आखिर हम यह क्यों मान लें कि हम हिंसक समाज हैं? हमें स्वीकार करना होगा कि असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। यह सवाल आलेख के पहले हिस्से में भी था। यदि हम यह मान लेते हैं तो हम अपनी शिक्षा, संस्कार, व्यवस्था, कानून में इस तरह की तब्दीली करने पर विचार कर सकते हैं, जो हमारे विशाल मानव संसाधन के सकारात्मक इस्तेमाल में सहायक होगी। हम गर्व से कह सकेंगे कि जिस गांधी के जिस अहिंसा के सिद्धांत को नेल्सन मंडेला से ले कर बराक हुसैन ओबामा तक सलाम करते रहे हैं, हिंदुस्तान की जनता उस पर अमल करना चाहती है। हमारी शिक्षा, नीतियों, महकमों में गांधी एक तस्वीर से आगे बढ़कर क्रियान्वयन स्तर पर उभरंे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी हिंसक प्रवृत्ति को अपना रोग मानें। वैसे भी गांधी के नशा की तिजारत न करने, अनाज व कपास पर सट्टा न लगाने जैसी नीतियों पर सरकार की नीतियां बिल्कुल विपरीत हैं तो फिर आज अहिंसा की बात करना एक नारे से ज्यादा तो है नहीं।
देश के लिए अप्रासंगिक और बेकार मानता है, वह गांधीवादी (?) नीतियों को आतंकवाद जैसी कई समस्याओं का कारक मानता है। असल में इस मुगालते का कभी आकलन किया ही नहीं गया कि क्या हम गांधीवादी या अहिंसक हैं? आज तो यह बहस भी जमकर उछाली जा रही है कि असल में देश को आजादी गांधी या उनकी अहिंसा के कारण नहीं मिली, उसका असल श्रेय तो नेताजी की आजाद हिंद फौज या भगत सिंह की फांसी को जाता है। जाहिर है कि खुला बाजार बनी दुनिया और हथियारों के बल पर अपनी अर्थ नीति को विकसित की श्रेणी में रखने वाले देश हमारी अहिंसा को न तो मानेंगे और न ही मानने देंगे।आए रोज की छोटी-बड़ी घटनाएं गवाह हैं कि हम भी उतने ही हिंसक और अशांति प्रिय हैं, जिसके लिए हम पाकिस्तान या अफगानिस्तान या अमेरिका को कोसते हैं। भरोसा न हो तो अभी कुछ साल पहले ही अफजल गुरु या कसाब की फांसी के बाद आए बयान, जुलूस, मिठाई बांटने, बदला पूरा होने, कलेजे में ठंडक पहुंचने की अनगिनत घटनाओं को याद करें। हम मांगों के लिए हुल्लड़ कर लोगों को सताने या सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करने, मामूली बात पर हत्या कर देने, पड़ोसी देश के एक के बदले 10 सिर लाने के बयान, एक के बदले 100 का धर्म परिवर्तन करवाने, सुरेंद्र कोली को फांसी पर चढ़ाने को बेताब दिखने वाले जल्लाद के बयान जैसी घटनाएं आए रोज सुर्खियों में आती हैं और आम इंसान का मूल स्वभाव इसे उभरता है। जाहिर है कि बदला पूरा होने की बात करना हमारे मूल हिंसक स्वभाव का ही प्रतीक है। आखिर यह सवाल उठ ही क्यों रहा है? इंसानियत या इंसान को कठघरे में खड़ा करने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि यदि एक बार हम मान लेंगे कि हमारे साथ कोई समस्या है तो उसके निदान की अनिवार्यता या विकल्प पर भी विचार करेंगे। हम मुंह में गांधी और बगल में छुरी के अपने दोहरे चरित्र से उबरने का प्रयास करेंगे। जब सिद्धांतत: मानते हैं कि हम तो अहिंसक या शांतिप्रिय समाज हैं तो यह स्वीकार नहीं कर रहे होते हैं कि हमारे समाज के सामने कोई गूढ़ समस्या है, जिसका निदान आवश्यक है। मेनन, अफजल गुरु या कसाब की फांसी पर आतिशबाजी चलाना या मिठाई बांटना उतना ही निंदनीय है, जितना उनको मुकर्रर अदालती सजा के अमल का विरोध। जब समाज का कोई वर्ग अपराधी की फांसी पर खुशी मनाता है तो एकबारगी लगता है कि वह उन निर्दोष लोगों की मौत और उनके पीछे छूट गए परिवार के स्थाई दर्द की अनदेखी कर रहा है। ऐसा इसीलिए होता है, क्योंकि समाज का एक वर्ग मूलरूप से हिंसा-प्रिय है। देश में आए रोज ऐसे प्रदर्शन, धरने, शादी-ब्याह, धार्मिक जुलूस देखे जा सकते हैं, जो उन आत्ममुग्ध लोगों के शक्ति प्रदर्शन का माध्यम होते हैं और उनके सार्वजनिक स्थान पर बलात अतिक्रमण के कारण हजारों बीमार, मजबूर, किसी काम के लिए समय के साथ दौड़ रहे लोगों के लिए शारीरिक-मानसिक पीड़ादायी होते हैं। ऐसे नेता, संत, मौलवी बेपरवाह होते हैं, उन हजारों लोगों की परेशानियों के प्रति। असल में हमारा समाज अपने अन्य लोगों के प्रति संवेदनशील ही नहीं है, क्योंकि मूलरूप से हिंसक-कीड़ा हमारे भीतर कुलबुलाता है। ऐसी ही हिंसा, असंवेदनशीलता और दूसरों के प्रति बेपरवाही के भाव का विस्तार पुलिस, प्रशासन और अन्य सरकारी एजेंसियों में होता है। हमारे सुरक्षा बल केवल डंडे-हथियार की ताकत दिखा कर ही किसी समस्या का हल तलाशते हैं। हकीकत तो यह है कि गांधीजी शुरुआत से ही जानते थे कि हिंसा व बदला इंसान का मूल स्वभाव है व उसे बदला नहीं जा सकता। सन् 1909 में ही, जब गांधीजी महात्मा गांधी नहीं बने थे, एक वकील ही थे, इंग्लैंड से अफ्रीका की अपनी समुद्री यात्रा के दौरान एक काल्पनिक पाठक से बातचीत में माध्यम से ‘हिंद स्वराज’ में लिखते हैं (द कलेक्टेड वर्कर्स ऑफ गांधी, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, खंड 10 पेज 27, 28 और 32)- ‘मैंने कभी नहीं कहा कि हिंदू और मुसलमान लड़ेंगे ही नहीं। साथ-साथ रहने वाले दो भाइयों के बीच अक्सर लड़ाई हो जाती है। कभी-कभी हम अपने सिर भी तुड़वाएंगे ही। ऐसा जरूर होना नहीं चाहिए, लेकिन सभी लेाग निष्पक्ष नहीं होते।’ देश के ‘अहिंसा-आयकान’ गांधीजी अपने अंतिम दिनों के पहले ही यह जान गए थे कि उनके द्वारा दिया गया अहिंसा का पाठ महज एक कमजोर की मजबूरी था। तभी जैसे ही आजादी और बंटवारे की बात हुई समग्र भारत में दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा कत्लेआम हो गया। जून-जुलाई 1947 में गांधीजी ने अपने दैनिक भाषण में कह दिया था- ‘परंतु अब 32 वर्ष बाद मेरी आंख खुली है। मैं देखता हूं कि अब तक जो चलती थी, वह अहिंसा नहीं है, बल्कि मंद-विरोध था। मंद विरोध वह करता है, जिसके हाथ में हथियार नहीं होता। हम लाचारी से अहिंसक बने हुए थे, मगर हमारे दिलों में तो हिंसा भरी हुई थी। अब जब अंग्रेज यहां से हट रहे हैं तो हम उस हिंसा को आपस में लड़ कर खर्च कर रहे हैं।’ गांधीजी अपने आखिरी दिनों इस बात से बेहद व्यथित, हताश भी थे कि वे जिस अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को देश से निकालने का दावा करते रहे थे, वह उसे आम लोगों में स्थापित करने में असफल रहे थे। कैसी विडंबना है कि जिस हिंसा को लेकर गांधी दुखी थे, उसी ने उनकी जान भी ली। जिस अहिंसा के बल पर वे स्वराज पाने का दावा कर रहे थे, जब स्वराज आया तो दुनिया के सबसे बड़े नरसंहार, विस्थापन, भुखमरी व लाखों लाशों को साथ लेकर आया। शायद हमें उसी दिन समझ लेना था कि भारत का समाज मूल रूप से हिंसक है, हमारे त्यौहार-पर्व में हम तलवारें चलाकर, हथियार प्रदर्शित कर खुश होते हैं। हमारे नेता सम्मान में मिली तलवारें लहरा कर गर्व महसूस करते हैं। हर रोज बाघा बॉर्डर पर आक्रामक तेवर दिखाकर लोगों में नफरत की आड़ में उत्साह भरना सरकार की नीति है। आम लोग भी कार में खरोंच, गली पर कचरे या एकतरफा प्यार में किसी की हत्या करने में संकोच नहीं करता है। अपनी मांगों को समर्थन में हमारे धरने-प्रदर्शन दूसरों के लिए आफत बन कर आते हैं, लेकिन हम इसे लोकतंत्र का हिस्सा जताकर दूसरों की पीड़ा में अपना दबाव होने का दावा करते हैं।हम आजादी के बाद 68 सालों में छह बड़े युद्ध लड़ चुके हैं, जिनमें हमारे कई हजार सैनिक मारे जा चुके हैं। हमारे मुल्क का एक तिहाई हिस्सा सशस्त्र अलगाववादी आंदोलनों की चपेट में है, जहां सालाना तीस हजार लोग मारे जाते हैं, जिनमें सुरक्षा बल भी शामिल हैं। देश में हर साल पैंतीस से चालीस हजार लोग आपसी दुश्मनियों में मर जाते हैं, जो दुनिया के किसी देश में हत्या की सबसे बड़ी संख्या होती है। हमारा फौज व आंतरिक सुरक्षा का बजट स्वास्थ्य या शिक्षा के बजट से बहुत ज्यादा होता है। सवाल फिर खड़ा होता है कि आखिर हम यह क्यों मान लें कि हम हिंसक समाज हैं? हमें स्वीकार करना होगा कि असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। यह सवाल आलेख के पहले हिस्से में भी था। यदि हम यह मान लेते हैं तो हम अपनी शिक्षा, संस्कार, व्यवस्था, कानून में इस तरह की तब्दीली करने पर विचार कर सकते हैं, जो हमारे विशाल मानव संसाधन के सकारात्मक इस्तेमाल में सहायक होगी। हम गर्व से कह सकेंगे कि जिस गांधी के जिस अहिंसा के सिद्धांत को नेल्सन मंडेला से ले कर बराक हुसैन ओबामा तक सलाम करते रहे हैं, हिंदुस्तान की जनता उस पर अमल करना चाहती है। हमारी शिक्षा, नीतियों, महकमों में गांधी एक तस्वीर से आगे बढ़कर क्रियान्वयन स्तर पर उभरंे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी हिंसक प्रवृत्ति को अपना रोग मानें। वैसे भी गांधी के नशा की तिजारत न करने, अनाज व कपास पर सट्टा न लगाने जैसी नीतियों पर सरकार की नीतियां बिल्कुल विपरीत हैं तो फिर आज अहिंसा की बात करना एक नारे से ज्यादा तो है नहीं।
= पंकज चतुर्वेदी