|
My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्ठ ब्लाॅग के पुरस्कार से सम्मानित
बुधवार, 29 जून 2016
Better Mansoon can not be welcome by sallow rivers
सोमवार, 27 जून 2016
Sukhoi with brahmos . India on the top of air strikes
आसमानी हमलों का बेताज बादशाह भारत
पंकज चतुर्वेदीभारत दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया है जिसकी वायु सेना के लड़ाकू विमान सुपर सोनिक क्रूज मिसाईल से लैस हांेंगे। भारत ने यह परियोजना सन 2009 में षुरू की थी और दिनांक 26 जून 2016, रविवार को नासकि की वायुसेना हवाई पट्टी पर से उड़ै विमान में इसका सफल परीक्षणस किया गया। हालांकि अभी तक चलते विमान से मिसाईल चलाने का प्रयोग नहीं किया गया, लेकिन जल्द ही यह भी संभव होगा। सन 2014 में हिंदुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड ने दो सुखोई जेट में ब्रहमोस मिसाईल लगाने का काम षुरू किया था। उल्ल्ेखनीय है कि यह विमान और मिसाईल देानेा ही रूस की मदद से भारत में ही निर्मित की गई हैं।
सुखाई एसयू-30 एसएम चौथी पीढ़ी का दो सीटों वाला लड़ाकू विमान है। यह लड़ाकू विमान 16,300 मीटर की ऊँचाई पर अधिकतम 3,000 किलोमीटर तक उड़ान भर सकता है। यह विमान लगभग 2500 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ सकता है। इस जहाज में अलग-अलग किस्म के बम तथा मिसाइल ले जाने के लिये 12 स्थान बनाए गए है। इसके अतिरिक्त इसमे एक 30 मिमि की तोप भी लगी है। यह हवा र्में इंधन भर सकता है। तीन हजार किमी दूरी तक जा कर हमला करने की क्षमता वाला यह बहु-उपयोगी लड़ाकू विमान रूस के सैन्य विमान निर्माता सुखोई तथा भारत के हिन्दुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड के सहयोग से बना है। इस के नाम में स्थित एम के आई का अर्थ मॉडर्नि रोबान्बि कॉमर्स्कि इंडिकि यानि आधुनिक व्यावसायिक भारतीय (विमान)। यह विमान ने सन 1997 में पहली उड़ान भरी थी। सन 2002 मे इसे भारतीय वायुसेना मे सम्मिलित कर लिया गया। सन 2004 से इनका निर्माण भारत मे ही हिन्दुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड द्वारा किया जा रहा है। सन 2009 के अक्तूबर से ऐसे 105 जहाजों को भारत की वायु सेना में हैं।
ब्रह्मोस मिसाईल डीआरडीओ, भारत द्वारा रूस के सहयोग से विकसित अब तक की सबसे आधुनिक प्रक्षेपास्त्र प्रणाली है । ब्रह्मोस मिसाइल का पहला उड़ान परीक्षण एकीकृत परीक्षण क्षेत्र से 12 जून, 2001 को किया गया था और इसी स्थान से 5 सितंबर, 2010 को अंतिम सफल परीक्षण किया गया। इस मिसाइल की मारक क्षमता 290 किलोमीटर है और यह 300 किलोग्राम विस्फोटक सामग्री अपने साथ ले जा सकता है। मिसाइल की गति ध्वनि की गति से करीब तीन गुना अधिक है। यह परमाणु बम ले जाने में भी सक्षम है। यह इतनी सटीक है कि ज़मीनी लक्ष्य को दस मीटर की उँचाई तक से प्रभावी ढंग से निशाना बना सकती है। तभी इसके राडार से पकड़ना असंभव होता है। ब्रह्मोस मिसाइल को पनडुब्बी, जहाज, विमान और ज़मीन स्थित मोबाइल ऑटोनॉमस लांचर से दागा जा सकता है । भारतीय सेना में 290 किलोमीटर के दायरे वाली ब्रह्मोस-1 की एक रेजीमेंट पहले से ही संचालित है जिसमें 67 मिसाइलें, 12 गुणा 12 के तत्र वाहनों पर पाँच मोबाइल ऑटोनामस लांचर और दो चलित कमान चौकियों के अलावा कुछ अन्य उपकरण शामिल हैं। भारतीय नौसेना ने 2005 से अग्रिम मोर्चे के अपने सभी जंगी जहाजों पर ब्रह्मोस मिसाइल प्रणाली के पहले संस्करण की तैनाती शुरू कर दी थी। और अब इसे वायु सेना में भी स्थान मिल गया है।
ऐसे दो बेमिसाल हथियार, वह भ्ी भारत में विकसित हुए का इस तरह से सम्मिलन भारत की रक्षा पंक्ति को तो मजूबत करता ही है, देश के हथियारों की दुनिया के दूसरे देशेां में निर्यात की संभावनाएं भी प्रबल करता है। ब्रह्मोस एयरोस्पेस प्राइवेट लिमिटेड (बीएपीएल) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं प्रबंध निदेशक सुधीर कुमार मिश्र ने कहा कि विश्व में ऐसा पहली बार हुआ, जब किसी लड़ाकु विमान पर इतनी भारी (2500 किलोग्राम) सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल लगाई गई। एचएएल की ओर से जारी एक विज्ञप्ति में कहा गया कि विमान 45 मिनट तक हवा में रहा। इस विमान को विंग कमांडर प्रशांत नायर और विंग कमांडर एमएस राजू ने उड़ाया। दोनों एयरक्राफ्ट एंड सिस्टम टेस्टिंग इस्टेब्लिशमेंट के परीक्षण उड़ान चालक दल के सदस्य थे। इस सफल प्रयोग के बाद करीब 40 सुखोई 30 एमकेआई विमानों में यह प्रणाली लगाई जाएगी।
हाल ही में एनएसजी में भारत के प्रवेश के चीनी विरेाध के पीछे एक बड़ा कारण ब्रहमोस मिसाईल व इस मिसाईल के सुखोई से छोड़ने के भारतीय प्रयोग भी है। असल में भारत की देशी ब्रहमोस मिसाईल तकनीकी दुनिया के कई देशेां को लुभा रही है और सुखोई के साथ इसके सफल प्रयोग से इसकी मांग और बढ़नी है। दक्षिणी चीन सागर में भारत के मित्र और चीन के धुर विरोधी वियतनाम को ब्रहमोस बेचे जाने का अंतिम निर्ण इसी साल अप्रैल में हो गया था। दक्षिणी चीन सागर के देश वियतनाम के रक्षा और कूटनीतिक संबंध भारत और रूस दोनों से ही अच्छे रहे हैं और भारतीय कंपनी ओएनजीसी को दक्षिणी चीन सागर में तेल खोज की अनुमति दिए जाने के चलते वियतनाम चीन की आंखों की किरकिरी बना हुआ है। अब वियतनाम को भारत द्वारा इस अत्यंत घातक मिसाईल के बेचे जाने के कदम को चीन के इस क्षेत्र में बढते दबदबे के चलते एक रणनीतिक साझेदारी के रूप में देखा जा रहा है। संभावना है कि इस साल के ंअत तक दोनों देशों के बीच इस पर औपचारिक करार भी हो जाएगा। वियतनामी नौसना में पहले से मौजूद रूस निर्मित युद्धपोतों और पनडुब्बीयों पर इन मिसाईलों को लगाया जाएगा।
यह उपलब्धि भारत के अंतरराश्ट्रीय व्यापार के नए मार्ग खोल रही है, साथ ही एशिया में चीन के बढ़ते दबदबे को चुनौती भी दे रही है। यह प्रयोग दुनिया के सामरिक संतुलन की दिशा में भारत के दखल का महत्वपूर्ण व निर्णायक कदम है।
रविवार, 26 जून 2016
For better economics and ecology jute needs government Protection
जरुरी हे जूट को सरकारी संरक्षण
पंकज चतुर्वेदी
Jansatta 26-6-16 |
सीएसीपी यानी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की ताजा सिफारिशें जूट के
किसानों के लिए
आफत बन सकती हैं। आयोग का कहना है कि
चीनी मिलों में शत-प्रतिशत जूट के बोरे
के इस्तेमाल की मौजूदा नीति को बंद कर दिया जाए तथा खाद्य पदार्थों
में नब्बे फीसद जूट की अनिवार्यता को
पचहत्तर फीसद किया जाए। अगर ऐसा हुआ तो
बंगाल का जूट किसान भूखों मर जाएगा। यही नहीं, जूट कारखानों व व्यवसाय पर
निर्भर कई लाख परिवारों के सामने चूल्हा जलाने का संकट खड़ा हो जाएगा।
जूट पर्यावरण-मित्र और फिर से उपयोग
लायक प्राकृतिक फाइबर है। यह बारिश की फसल
है और अगस्त-सितंबर में इसकी कटाई होने लगती है। दुनिया भर में नष्ट न
होने वाली प्लास्टिक और पेड़ काट कर
तैयार हुए कागज के इस्तेमाल से परहेज की मुहिम
चल रही है। ऐसे में जूट की मांग बढ़ गई है। इसके बावजूद भारत में जूट
की खेती सरकारी उपेक्षा की शिकार है।
हमारे देश में जूट उपजाने वाले खेतों के
महज तेरह फीसद ही सिंचित हैं। शेष
खेती भगवान भरोसे यानी बारिश पर निर्भर करती है। चूंकि जूट की खेती
बेहद खर्चीली व मेहनत का काम है और
सरकार इसके किसानों की मूलभूत जरूरतों- जैसे
सिंचाई,
उन्नत बीज, फसल सुरक्षा और बाजार- के प्रति गंभीर नहीं रही
है, अत: मांग के बावजूद हर साल जूट का रकबा घटता जा रहा है। उधर
बांग्लादेश
के जूट उत्पादकों से मिल रही चुनौतियों
के चलते हमारा जूट उद्योग बदहाल होता
जा रहा है।
जूट की खेती मूलरूप से पश्चिम बंगाल, असम,
ओड़िशा, मेघालय,
त्रिपुरा व उत्तर प्रदेश में होती है। यहां विश्व के कुल जूट उत्पादन का
चालीस प्रतिशत
उपजता है। हमारे देश से जूट के निर्यात
का इतिहास लगभग दो सौ साल पुराना है।
सन 1859
में स्काटलैंड के एक व्यापारी जॉर्ज
आकलैंड ने बंगाल के श्रीरामपुर में जूट
का पहला कारखाना स्थापित किया था। सन 1939 में जूट के एक
सौ पांच कारखाने हो गए। आजादी के समय भारत के हिस्से में कुल एक सौ बारह
में से एक सौ पांच कारखाने आए थे।
हालांकि जूट पैदा करने वाले खेतों का बहत्तर
फीसद पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश को चला गया। आज कोई
तिहत्तर जूट मिलें काम कर रही हैं
जिनमें से उनसठ पश्चिम बंगाल में हैं। भारत
के कोई चालीस लाख किसान लगभग आठ लाख हेक्टेयर में जूट उगाते हैं। जबकि
इस जूट से बाजार की मांग लायक उत्पाद
तैयार करने के कारखानों में ढाई लाख से
अधिक लोग रोजगार पाते हैं। देश में पैदा होने वाले जूट का आधा अकेले
पश्चिम बंगाल में होता है।
हमारे यहां जूट की दो किस्में हैं- सफेद
और टोसा जूट। टोसा रेशा सफेद की तुलना
में अधिक मजबूत,
मुलायम और चिकना होता है। इन दिनों
अंतरराष्ट्रीय
बाजार में भारतीय उपमहाद्वीप के
पारंपरिक जूट की अच्छी मांग है। जूट का इस्तेमाल
न केवल बोरे बनाने में,
बल्कि सजावटी सामान, फैशनेबल कपड़े व चप्पल आदि
बनाने में भी हो रहा है। कई फैशन संस्थान इस फैब्रिक से अत्याधुनिक
कपड़े बना कर उनका सफल शो भी कर चुके
हैं। यूरोप के उच्च वर्ग में इसकी ड्रेसों
की अच्छी मांग है। जूट के बारीक हस्तशिल्प के उम्दा कारीगर हमारे
देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों के
गांव-गांव में फैले हुए हैं। गौरतलब है कि उत्तर-पूर्वी
राज्यों में रोजगार के अवसर मुहैया करवाना व पारंपरिक लोक शिल्पियों को काम दिलवाना सरकार के सामने हमेशा से चुनौती रहा
है।
जूट की डंडी से उम्दा दर्जे का चिकना
कागज बनता है। हमारे देश में हर साल
कोई पैंतालीस लाख क्विंटल जूट-डंठल निकलता है और यह सब चूल्हे में
र्इंधन के रूप में फुंक जाता है। जबकि
इसका ताप कम होता है और धुआं अत्यधिक।
थोड़ी-सी पूंजी से डंठलों से कागज बनाने के कारखाने पर भी सरकार को
विचार करना चाहिए।
हमेशा से जूट उद्योग निर्यातोन्मुख रहा
है। कच्चे जूट व उससे बने सामान के
उत्पादन की दृष्टि से भारत दुनिया में पहले स्थान पर और इससे बनी चीजों
के निर्यात के मामले में दूसरे स्थान पर
है। पिछले कुछ सालों में पैकेजिंग के
लिए प्लास्टिक या फाइबर से बनी वस्तुओं का प्रचलन बढ़ने का सीधा असर जूट
किसानों पर हुआ। एक तो यह खेती बड़ी
मेहनत की है। दूसरे,
किसान को मिल मालिक
कभी तत्काल भ्ुागतान नहीं करते। तीसरे, लागत तो बढ़ी, लेकिन दाम उसकी तुलना
में कम ही रहे। सो दिनोंदिन जूट का रकबा
भी कम हो रहा है। लगातार अल्प वर्षा
ने भी इसे बुरी तरह प्रभावित किया।
हर साल चीनी और अनाज के लिए जूट के
बोरों की अनिवार्य पैकेजिंग की खातिर सरकार
ने 1987
में एक विशेष अधिनियम लागू किया था।
पिछले साल इस अधिनियम के विरुद्ध कोलकाता
हाइकोर्ट में याचिका दायर कर दी गई। उल्लेखनीय है कि चीनी व अनाज के लिए जूट के बोरे को अनिवार्य तो कर दिया गया, लेकिन सरकार ही
पर्याप्त संख्या में बोरे उपलब्ध नहीं करवा पाई। यानी महज पैकेजिंग
सामग्री के अभाव में इनके व्यापार का
नुकसान हुआ।
जूट की खेती के लिए आवश्यक अधिक पानी की
इस क्षेत्र में कमी नहीं है। जाहिर
है,
बाढ़ व श्रमिकों की पर्याप्त मौजूदगी इस
इलाके में जूट उत्पादन व उसके हस्तशिल्प की
बेहतर संभावनाएं दर्शाती है। इसके विपरीत असम में हर साल जूट की बुवाई घटती जा रही है। नगालैंड में थोड़ी-सी जमीन पर
इसकी खेती हो
रही है। मेघालय के गारो व खासी पहाड़ी
क्षेत्रों में लगभग पांच हजार हेक्टेयर
में जूट उगाया जा रहा है। त्रिपुरा में भी जूट पैदावार में हर साल
कमी आ रही है। आंकड़ों पर गौर करें तो
पाएंगे कि हमारे खेतों में जूट की फसल
साल-दर-साल कम होती जा रही है। वर्ष 2007-08 से 2012-13
के छह साल के दौरान देश में जूट पैदावार के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2008-09 में सबसे कम (1476 लाख
टन) जूट खेतों में उगा। सन 2007-08 में
1782
लाख टन, 2009-10 में 1620,
10-11 में 1800, 2011-12 में 1845
और 12-13 में 1674
लाख टन उत्पादन हुआ। अप्रैल 2014 की स्थिति के मुताबिक जूट उद्योग में दो लाख
पंद्रह हजार कामगार प्रत्यक्ष तौर पर और
डेढ़ लाख कामगार परोक्ष तौर पर लगे हुए
हैं।
जूट का कुल निर्यात 2011-12 में 2,094.9
करोड़ रुपए में 2.11 लाख टन और 2012-13 में
1,991.8
करोड़ रुपए में 1.85 लाख टन हुआ। जूट के प्रमुख आयातक देशों में हैं अमेरिका, ब्रिटेन, सऊदी अरब, जर्मनी,
मिस्र और तुर्की। आंकडेÞ
साफ दर्शाते हैं कि उत्पादन बढ़ नहीं रहा
है। असल में बांग्लादेश सरकार जूट उत्पादों
को निर्यात करने पर सीधे दस प्रतिशत नगद सहायता देती है। इसके चलते वहां के उत्पाद सस्ते हैं तथा वहां के उत्पादक
अधिक उत्साह
से यह काम करते हैं। इसके विपरीत हमारे
यहां जूट के तागों की कीमतें पंद्रह प्रतिशत
कम हो गई हैं,
इससे किसान का लाभ बहुत ही कम हो गया है
और उसका
अपनी पारंपरिक खेती से मोहभंग हो रहा
है।
अनाज और चीनी की पैकिंग के मामले में
प्लास्टिक उद्योग जूट क्षेत्र को पीछे
छोड़ने के लिए तैयार है। सिंथेटिक बैग की कीमत जहां महज बारह रुपए है
वहीं जूट के बोरे की कीमत अट्ठाईस रुपए
पड़ती है। तिस पर जूट के थैले उतनी संख्या
में उपलब्ध नहीं हैं जितनी मांग है।
जूट उद्योग पर खराब और निम्न गुणवत्ता वाले बोरों की आपूर्ति के आरोप भी लगते रहते हैं। हालांकि जूट बोरे के उत्पादकों का कहना है कि कारखाने कम दाम के लालच में प्लास्टिक के ज्यादा से ज्यादा बोरे इस्तेमाल करने की फिराक में ऐसे आरोप लगाते हैं। भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (सीसीआइ) के समक्ष यह शिकायत भी की गई कि जूट उद्योग आपसी सांठगांठ से जूट के बोरों की कीमतें तय कर रहे हैं।
जूट उद्योग पर खराब और निम्न गुणवत्ता वाले बोरों की आपूर्ति के आरोप भी लगते रहते हैं। हालांकि जूट बोरे के उत्पादकों का कहना है कि कारखाने कम दाम के लालच में प्लास्टिक के ज्यादा से ज्यादा बोरे इस्तेमाल करने की फिराक में ऐसे आरोप लगाते हैं। भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (सीसीआइ) के समक्ष यह शिकायत भी की गई कि जूट उद्योग आपसी सांठगांठ से जूट के बोरों की कीमतें तय कर रहे हैं।
उत्तर-पूर्वी राज्यों की जमीन और जलवायु
जहां बेहतरीन जूट उत्पादन में सक्षम
है,
वहीं किसानों की माली हालत ठीक न होना व
पैदावार के लिए बाजार का न होना एक त्रासदी ही
है। असम के अमीनगंज में सरकार ने प्लास्टिक टेक्नोलॉजी
के प्रशिक्षण का संस्थान तो खोल दिया, लेकिन स्थानीय उत्पादन व तकनीक की सुध किसी ने नहीं ली। जूट के थैले, सजावटी सामान, फ्लोरिंग, शॉल,
चादर आदि बनाने में इलाके की जनजातियों
को महारत हासिल है। जरूरत है तो बस उन्हें
प्रोत्साहित करने और उनके हुनर को दुनिया के सामने लाने के सही मंच
की। आज के बदलते बाजार को देखते हुए जूट
के नए उत्पाद बनाने के लिए भी जनजातियों
को प्रशिक्षित करना चाहिए।
विडंबना यह है कि इतनी जबर्दस्त
संभावनाओं वाले उत्पाद को उगाने के क्षेत्रों
को विधिवत चिह्नित करने का काम भी नहीं हुआ है। ऐसे इलाकों को
पहचान कर वहां अधिक फसल देने वाले बीज व
तकनीक मुहैया करवा कर उत्तर-पूर्वी राज्यों
में रोजगार की गंभीर समस्या का सहजता से हल खोजा जा सकता है। ऐसे
में यह अपेक्षा की जाती है कि चीनी सहित
कई अन्य उद्योगों,
सरकारी विभागों में जूट की अनिवार्यता को कड़ाई से लागू किया जाए। जूट इसके
कामगारों के पेट
भरने का साधन मात्र नहीं है, यह मनुष्य और प्रकृति के बीच बढ़ रही दूरी के
बीच सेतु भी है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
How will the country's 10 crore population reduce?
कैसे कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी हालांकि झारखंड की कोई भी सीमा बांग्...
-
नर्मदा की कहानी सहयात्री के शब्द नर्मदा की कहानी सहयात्री के शब्द [1] ...
-
आखिर बस्तर में क्यों खुदकुशी करते हैं अर्ध सैनिक बल पंकज चतुर्वेदी गत् 26 अक्टूबर 24 को बस्तर के बीजापुर जिले के पातरपारा , भैरमगढ़ में...
-
कैसे कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी हालांकि झारखंड की कोई भी सीमा बांग्...