कबतक रिसता रहेगा यह नासूर
भोपाल गैस त्रासदी
भोपाल गैस त्रासदी
Jansandesh Times UP |
2001 में डाउ केमिकल ने यूनियन कार्बाइड का अधिग्रहण कर लिया था। डाउ ने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को किसी तरह का हर्जाना देने से इनकार कर दिया था। सीबीआई ने विदेश मंत्रालय के सहयोग से अमेरिकी कंपनी को समन भेजा था, लेकिन कंपनी भारतीय अदालत में नहीं हाजिर हुई।यह भी दुखद तथ्य है कि भोपाल में गैस पीड़ितों की लगभग दो पीढ़ी नई आ चुकी हैं और उनका अब दोषियों को सजा दिलवाने में कुछ ज्यादा उत्साह बचा नहीं हैं। उन्होंने तो सन् 2004 में तब अपनी लड़ाई को पूरा मान लिया था, जब सुप्रीम कोर्ट ने रिजर्व बैंक को निर्देश दे दिए कि राहत राशि के 1503 करोड़ रुपए गैस राहत कल्याण आयोग को सौंप दिए जाएं। इस राशि का वितरण भोपाल के गैस प्रभावित 36 नगर निगम वार्ड में रहने वाले पांच लाख 70 हजार लोगों को किया जाना है। गैस से हुई शारीरिक हानि को कुछ वगोंर् में बांटा गया है और उसके मुताबिक मुआवजे का वितरण होगा। इससे पहले 220 रुपए महीने का भुगतान गत कई वषोंर् से हो रहा था। उस समय पैसा लोगों तक पहुंचा नहीं था और वहां बाजार सज गया था। कैसी विडंबना थी कि एक-डेढ़ लाख का मुआवजा मिलने की आस दिखते ही लोग गलियों में गाते-बजाते निकल आए थे। गैस पीड़ित मुहल्लों में मोटर-साइकिल, स्कूटर, रंगीन टीवी के लिए कर्जे की विशेष दुकानें खुल गई थीं। कई बैंक वाले नेताओं व बस्ती के नेताओं को लुभा रहे थे कि मुआवजा पाने वाले उनकी संस्थाओं में पैसा लगाएं। चारों ओर सपने बिक थे- चकाचौंध, खुशहाली व समृद्धि के लुभावने सपने। ऐसे में किसे याद रहता कि असल न्याय तो लापरवाह अमेरिकी कंपनी को कड़ी सजा दिलवा कर मिलेगा।अब स्वास्थ्य का ही मामला लें, अभी तक इस बात के शोध सतत जारी हैं कि गैस का असर कब तक और कितनी पीढि़यों तक रहेगा। यही नहीं विभिन्न चिकित्सकों का कहना है कि उस रात मिक यानी मिथाइल आईसो सायनाइड के अलावा कई अन्य गैस भी रिसीं थीं, तभी इतने विषम हालात बने हैं। ये अन्य गैस कौन सी थीं, इसकी जांच अभी तक नहीं हो पाई है। कारखाने में पड़े कई टन जहरीले अपशिष्ठ का निबटारा नहीं होना, एक नई त्रासदी को जन्म दे रहा है। यहां आर्थो डाय क्लोरो बैंजीन, कार्बन टेट्रा क्लोरेट, पारा आदि खुले में पड़ा है। तभी बारिश के साथ ये जहर भूमिगत जल में घुलते रहे हैं और अब यह वैज्ञानिकों ने घोषित कर दिया है कि कारखाने की करीबी कालोनियों में हैंडपंप का पानी पीने वालों में कैंसर व यकृत की खराबी होना तय है। झीलों का शहर कहलाने वाले भोपाल में दर्द के दरिया की हिलोरें यहीं नहीं रुकी हैं, 68 फीसदी लोग ब्लड प्रेशर के शिकार हैं। युवाओं व महिलाओं में हार्ट अटैक का आंकड़ा काफी बढ़ गया है। बढ़ते गुस्से, अधीरता का कारण मिक के खून में घुलने से हार्मोन में आए बदलाव को माना जा रहा है। शहर में छोटी-छोटी बातों पर खूनी जंग हो जाना मनोवैज्ञानिक बीमारी बन गया है। गैस के कारण शरीर काम कर नहीं रहा है, भौतिक सुखों की लालसा बढ़ी है और आय न होने की कुंठा या धन कमाने के शार्ट-कट का भ्रम लोगों को जेल की ओर ले जा रहा है। एक-डेढ़ लाख मिलने की खुशी मनाने वाले गैस राहत के नाम पर बने अस्पतालों के बंद होने व वहां पर दवाइयां न मिलने को जैसे बिसरा बैठे हैं।इसी तरह गैस के कारण अक्षम हुए लोगों को वैकल्पिक रोजगार का मामला भी राहत में दफन हो गया। गैस राहत के नाम पर शहर में 60 भवन बनाए गए थे, जिनमें हजारों लेागों को नौकरियां भी बंटी। इनमें से असली गैस पीड़ित गिने-चुने ही थे। राहत का काम सिमट गया, लेकिन सरकार पर इन कर्मचारियों का बोझ व दफ्तरों का खर्चा बरकरार है। भोपाल में 6 करोड़ खर्च कर 152 वर्क शेड बनाए गए, ताकि पीड़ित लोग वहां अपना लघु उद्योग खोल सकें। वहां रैपिड एक्शन फोर्स की छावनी बना दी गई। कई साल पहले 36 सिलाई केंद्र खोले गए। इनमें हजारों-हजार औरतें, विषेशरूप से युवतियां आईं। उन दिनों माधवराव सिंधिया रेल मंत्री थे, उन्होंने वहां तैयार माल रेलवे के लिए खरीदने के लिए आदेश दे दिए। सिलाई केंद्रों का काम चल निकला। केंद्र में सरकार बदली व दिवंगत श्री सिंधिया का मंत्री पद गया, साथ ही रेलवे ने वहां का माल खरीदना बंद कर दिया। कह दिया गया कि माल का स्तर घटिया है। आज ये सिलाई केंद्र लावारिस हो चुके हैं। क्या एक लाख का मुआवजा उन लोगों के हाथों से काम छीनने की भरपाई कर सकता है?सबसे बड़ा मसला रहा आपराधिक मामले का। लाखों-लाख लोगों की पीढि़यां अपाहिज करने वाले यूनयिन कार्बाइड के मालिक व अमेरिकी नागरिक वारेन एंडरसन, केशव महेंद्रा सहित आठ लोगों के खिलाफ भोपाल के हनुमानगंज थाने में अपराध क्रमांक 1104/84 पर भारतीय दंड संहिता की धारा 304, 304ए, 426, 229, 278, 284, 120 बी के तहत एक मामला दर्ज किया गया था। इधर एंडरसन को 25 हजार की जमानत पर रिहा किया गया और सरकारी संरक्षण में हवाई जहाज पर चढ़ाकर अमेरिका भगा दिया गया। 9 दिसंबर, 1984 को मामले के कागजात सीबीआई ने अपने कब्जे में ले लिए। इस प्रकरण में फंसे भारतीय नागरिक तो अदालत के दांवपेच में हैं, लेकिन असली अपराधी एंडरसन को भारत लाने पर कभी कुछ नहीं हुआ। सन् 2014 में वह अपनी मौत मर गया अमेरिका में। मुआवजे की लड़ाई में लोग यह भूल गए कि उस आपराधिक मामले का क्या हुआ? यही नहीं निपुण कुमार सिंह की अध्यक्षता में गठित जांच आयोग की क्या सिफारिशें थीं, उस आयोग का अंजाम क्या हुआ? यह सबकुछ बाजार यानी नगदी की चाह डकार गया। क्या मुआवजा मिल जाने के बाद भोपाल का संघर्ष समाप्त हो गया था? इस पर गंभीरता से विचार किया जाना जरूरी है कि किसी जन संघर्ष का अंजाम क्या होना चाहिए? भोपाल का चप्पा-चप्पा गवाह है कि मिक रिसने के संघर्ष को जिस तरह व दिशा में उठाया गया, उससे आम आदमी के मूल सरोकार-स्वास्थ्य, रोजगार, न्याय व आपदा प्रबंधन तो लाल बस्ते में सिमट गए, इसके एवज में उसे मिला बढ़ा प्रशासनिक बोझ, भ्रष्टाचार, पारिवारिक विग्रह व आपसी टकराव। ऐसे में अमेरिका के कुछ लोग महज एक अर्जी पर ऑनलाइन दस्तखत नहीं कर रहे हैं, वे भारत के पीड़ितों की गैरत को भी ललकार रहे हैं। व्हाइट हाउस की वेबसाइट पेज पर अगर किसी याचिका पर 30 दिन में एक लाख लोग दस्तखत कर दें तो उसपर आगे कार्रवाई की जाती है। इसके बाद दो महीने के अंदर व्हाइट हाउस याचिका पर अपनी आधिकारिक प्रतिक्रिया देता है। इस याचिका पर 13 साल से अधिक उम्र का कोई भी अमेरिकी या गैर-अमेरिकी हस्ताक्षर कर सकता है। इस याचिका को हॉलीवुड स्टार मार्टिन शीन ने भी समर्थन दिया है । शीन ने भोपाल गैस त्रासदी पर बनी फिल्म ‘भोपाल: ए प्रेयर फॉर रेन’ में एंडरसन की भूमिका निभाई थी। शीन ने याचिका के समर्थन में जारी एक वीडियो संदेश कहा है कि अमेरिकी कानूनी मंत्रालय ढाई दशक से डाउ और यूनियन कार्बाइड को बचा रहा है। काश, भारत के आम लोग, अभिनेता, राजनेता, कार्यकर्ता इस मुहिम का हिस्सा बनें, ताकि भोपाल कांड के असली दोषी को असली सजा मिल सके।
= पंकज चतुर्वेदी
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