बिगड़ रही है नदियों की सेहत
पंकज चतुर्वेदी
हाल ही में भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक (कैग) की संसद में पेश रिपोर्ट से पता चला है कि गंगा सफाई की बड़ी परियोजना ‘नमामि गंगे’ के तहत बजट राशि खर्च ही नहीं हो पाई। एनएमसीजी के बीते तीन वर्षों के लेखा-जोखा का अध्य्यन करने के बाद कैग इस नतीजे पर पहुंचा है कि गंगा स्वच्छता के लिए आवंटित धनराशि में से महज 8 से 63 प्रतिशत ही खर्च हो सकी है। इसके अलावा कैग ने आवंटित राशि के सही ढंग से खर्च न हो पाने और उसका लेखा परीक्षा न करा पाने को लेकर भी सवाल खड़े किए हैं। है। एक अनुमान है कि आजादी के बाद से अभी तक गंगा की सफाई के नाम पर कोई 20 हजार करोड़ रूप्ए खर्च हो चुके हैं। अप्रेल-2011 में गंगा सफाई की एक योजना सात हजार करोड़ की बनाई गई। विष्व बैंक से इसके लिए कोई एक अरब डालर का कर्जा भी लिया गया, लेकिन ना तो गंगा में पानी की मात्रा बढ़ी और ना ही उसका प्रदूशण घटा। सनद रहे यह हाल केवल गंगा का ही नहीं है। देश की अधिकश्ंा नदियों को स्वच्छ करने के अभियान कागज, नारों व बजट को ठिकोन लगोन से ज्यादा नहीं रहे हैं। लखनउ में गोमती पर छह सौ करोड़ फूंके गए लेकिन हालत जस के तस तो यमुना कई सौ करोड़ लगाने के बाद भी दिल्ली से आगे और मथुरा-आगरा तक नाले के मानिंद ही रहती है।
यह सभी जानते हैं कि मानवता का अस्तित्व जल पर निर्भर है और आम इंसान के पीने-खेती-मवेशी के लिए अनिवार्य मीठे जल का सबसे बड़ा जरिया नदियां ही हैं। जहां-जहां से नदियां निकलीं, वहां-वहां बस्तियां बसती गईं और इस तरह विविध संस्कृतियों, भाशाओं, जाति-धर्मो का भारत बसता चला गया। तभी नदियां पवित्र मानी जाने लगीं-केवल इसलिए नहीं कि इनसे जीवनदायी जल मिल रहा था, इस लिए भी कि इन्हीं की छत्र-छाया में मानव सभ्यता पुश्पित-पल्लवित होती रही। गंगा और यमुना को भारत की अस्मिता का प्रतीक माना जाता रहा है। लेकिन विडंबना है कि विकास की बुलंदियों की ओर उछलते देष में अमृत बांटने वाली नदियां आज खुद जहर पीने को अभिषप्त है। इसके बावजूद देश की नदियों को प्रदूषण-मुक्त करने की नीतियां महज नारों से आगे नहीं बढ़ पा रही है । सरकार में बैठे लेाग खुद ही नदियों मंे गिरने वाले औद्योगिक प्रदूषण की सीमा में जब विस्तार करेंगे तो यह उम्मीद रखना बेमानी है कि देश की नदियों जल्द ही निर्मल होंगी। असल में हमारी नदियां इन दिनों कई दिशाअेंा से हमले झेल रही हैं, - उनमें पानी कम हो रहा है, वे उथली हो रही हैं, उनसे रेत निकाल कर उनका मार्ग बदला जा रहा है, नदियों के किनारे पर हो रही खेती से बह कर आ रहे रासायनिक पदार्थ, कल-कारखानों और घरेलू गंदगी का नदी में सीधा मिलाना। सनद रहे नदी केवल एक जल‘मार्ग नहीं होती, जल के साथ उसमें रहने वाले जीव-जंतु, वनस्पति, उसके किनारे की नमी, उसमें पलने वाले सूक्ष्म जीव , उसका इस्तेमाल करने वाले इंसान व पशु; सभी मिल कर एक नही का चक्र संपूर्ण करते है। यदि इसमें एक भी कड़ी कमजोर या नैसर्गिक नियम के विरूद्ध जाती है तो नदी की तबियत खराब हो जाती है।
हमारे देष में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बह कर नदियों में आता है। इसमें हिंमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि षामिल होते हैं। जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है , उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किजरेमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदंड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृश्णा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्रह्मणी, महानदी, और साबरमति बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं। इनमें से तीन नदियां - गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। षेश दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः वर्शा पर निर्भर होती हैं।
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देष का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के माग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिषत है। आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिष के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।
सन 2009 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश में कुल दूषित नदियों की संख्या 121 पाई थी जो अब 275 हो चुकी है। यही नहीं आठ साल पहले नदियों के कुल 150 हिस्सों में प्रदूषण पाया गया था जो अब 302 हो गया है। बोर्ड ने 29 राज्यों व छह केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 445 नदियें पर अध्ययन किया, जिनमें से 225 का जल बेहद खराब हालत में मिला। इन नदियों के किनारे बसे शहरों 650 के 302 स्थानों पर सन 2009 में 38 हाजर एमएलडी सीवर का गंदा पानी नदियों में गिरता था जो कि आज बढ़ कर 62 हजार एमएलडी हो गया। चिंत की बात है कि हीं भी सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता नहीं बढ़ाई गई है। सरकारी अध्ययन में 34 नदियों में बायो केमिकल आक्सीजन डिमांड यानि बीओडी की मात्रा 30 मिलग्राम प्रति लीटर से अधिक पाई गई और यह उन नदियों के अस्तित्व के लिए बड़े संकट की ओर इशारा करता है।
भारत में प्रदूषित नदियों के बहाव का इलाका 12,363 किलोमीटर मापा गया है इनमें से 1,145 किलोमीटर का क्षेत्र पहले स्तर यानि बेहद दूषित श्रेणी का है। दिल्ली में यमुना इस पर शीर्ष पर है, इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है जहां 43 नदियां मरने की कगार पर हैं। असम में 28, मध्यप्रदेश में 21, गुजरात में 17, कर्नाटक में 15, केरल में 13, बंगाल में 17, उप्र में 13, मणिपुर और उडिसा में 12-12, मेंघालय में दस और कश्मीर में नौ नदियां अपने अस्तित्व के लिए तड़प रही हैं। ऐसी नदियों के कोई 50 किलोमीटर इलाके के खेतों की उत्पादन क्षमता लगभग पूरी तरह समाप्त हो गई है। इलाके की अधिकांष आबादी चर्मरोग, सांस की बीमारी और पेट के रोगों से बेहाल है। भूजल विभाग का एक सर्वे गवाह है कि नदी के किनारे हैंडपंपों से निकल रेह पानी में क्षारीयता इतनी अधिक है कि यह ना तो इंसान के लायक है,ना ही खेती के। सरकार के ही पर्यावरण और प्रदूशण विभाग बीते 20 सालों से चेताते रहते हैं लेकिन आधुनिकता का लोभ पूरे सिस्टम को लापरवाह बना रहा है।
नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूशण।
असल में इन नदियों को मरने की कगार पर पहुंचाने वाला यही समाज और सरकार की नीतियां हैं। सभी जाने हैं कि इस दौर में विकास का पैमाना निर्माण कार्य है -भवन, सड़क, पुल आदि-आदि। निर्माण में सीमेंट, लोहे के साथ दूसरी अनिवार्य वस्तु है रेत या बालू। यह एक ऐसा उत्पाद है जिसे किसी कारखाने में नहीं बनाया जा सकता। यह नदियोंके बहाव के साथ आती है और तट पर एकत्र होती है। प्रकृति का नियम यही है कि किनारे पर स्वतः आई इस रेत को समाज अपने काम में लाए, लेकिन गत एक दशक के दौरान हर छोटी-बड़ी नदी का सीना छेद कर मशीनों द्वारा रेत निकाली जा रही है। इसके लिए नदी के नैसर्गिक मार्ग को बदला जाता है, उसे बेतरतीब खोदा या गहरा किया जाता है। जान लें कि नदी के जल बहाव क्षेत्र में रेत की परत ना केवल बहते जल को शुद्ध रखती है, बल्कि वह उसमें मिट्टी के मिलान से दूषित होने और जल को भूगर्भ में जज्ब होने से भी बचाती है। जब नदी के बहाव पर पॉकलैंड व जेसीबी मशीनों से प्रहार होता है तो उसका पूरा पर्यावरण ही बदल जाता है। याद करं दिल्ली में यमुना के तट पर श्री श्री रविशंकर ने महोत्सव कर उसके पूरे इको-सिस्टम को नुकसान पहुंचाया था। नदी के जल ग्रहण क्षेत्र में लगातार भारी मशीनें व ट्रक आने से मिट्टी खराब होती है और उस पर पलने वाले पर्यावरण मित्र सूक्ष्म जीवाणु सदा के लिए मर जाते हैं। नदियों के उथले होने का कारण भी यही है।
आधुनिक युग में नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदूशण से है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रायायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिषत की ही खपत होती है, षेश 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपषिश्ट या माल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुष्मन है। भले ही हम कारखानों को दोशी बताएं, लेकिन नदियों की गंदगी का तीन चौथाई हिस्सा घरेलू मल-जल ही है। हर घर में शौचालय, घरों मे स्वच्छता के नाम पर बहुत से साबुन और केमिकल का इस्तेमाल, शहरो में मल-जल के शुद्धिकरण की लचर व्यवस्था और नदियों के किनारे हुए बेतरतीब अतिक्रमण नदियो के बड़े दुश्मन बन कर उभरे है। गौर से देखें तो ये सभी कारक हमने ही उपजाए हैं।