पानी की बर्बादी क्यों?
पंकज चतुर्वेदी
राष्ट्रीय सहारा |
प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तय हैं, जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा सा भी पानी नहीं बचा है। कुछ तय इस प्रकार हैं-मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन बेकार बह जाता है। ब्रrापुत्र नदी का प्रतिदिन 2.16 घन मीटर पानी बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। भारत में हर वर्ष बाढ़ के कारण करीब हजारों मौतें व अरबों का नुकसान होता है। इस्रइल में औसत बारिश 10 सेंटीमीटर है, इसके बावजूद वह अनाज निर्यात करता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वष्ा होने के बावजूद सिंचाई के लिए जरूरी जल की कमी बनी रहती है। यह भी कड़वा सच है कि हमारे देश में औरत पीने के पानी की जुगाड़ के लिए हर रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती हैं। हमारे समाज में पानी बरबाद करने की राजसी प्रवृत्ति है, जिस पर अभी तक अंकुश लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई है। हकीकत में जब से देश आजाद हुआ है, तब से आज तक इस दिशा में कोई भी काम गंभीरता से नहीं हुआ है। पृवी का विस्तार 51 करोड़ वर्ग किलोमीटर है। उसमें से 36 करोड़ वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र पानी से घिरा हुआ है। दुर्भाग्य यह है कि इसमें से पीने लायक पानी का क्षेत्र बहुत कम है। 97 प्रतिशत भाग तो समुद्र है। बाकी के तीन प्रतिशत हिस्से में मौजूद पानी में से 2 प्रतिशत पर्वत और ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा हुआ है, जिसका कोई उपयोग नहीं होता है। यदि इसमें से करीब 6 करोड़ घन किलोमीटर बर्फ पिघल जाए तो हमारे महासागारों का तल 80 मीटर बढ़ जाएगा, किंतु फिलहाल यह संभव नहीं। 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में खुलापन आने के बाद निजीकरण का जोर बढ़ा है। एक के बाद एक कई क्षेत्र निजीकरण की भेंट चढ़ते गए। सबसे बड़ा झटका जल क्षेत्र के निजीकरण का है। जब भारत में बिजली के क्षेत्र को निजीकरण के लिए खोला गया तब कोई बहस नहीं हुई। बड़े पैमाने पर बिजली गुल होने का डर दिखाकर निजीकरण को आगे बढ़ाया गया, जिसका नतीजा आज सबके सामने है। सरकारी तौर पर भी यह स्वीकार किया जा चुका है कि सुधार औंधे मुंह गिरे हैं और राष्ट्र को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अब पानी के क्षेत्र में ऐसी ही निजीकरण की बात हो रही है। कई जगह नदियों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। विकास के नाम पर तालाब व नदियों को उजाड़ने में कोई परहेज नहीं हो रहा है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया तो संभव है पानी केवल हमारी आंखों में ही बच पाए। हमारा देश वह है, जिसकी गोदी में हजारों नदियां खेलती थीं, आज वे नदियां हजारों में से केवल सैकड़ों में रह गई हैं। आखिर कहां गई ये नदियां कोई नहीं बता सकता। नदियों की बात छोड़ दें, हमारे गांव-मोहल्लों तक से तालाब, कुएं, बावड़ी आदि लुप्त हो रहे हैं। जान लें, पानी की कमी, मांग में वृद्धि तो साल-दर-साल ऐसी ही रहेगी। अब मानव को ही बरसात की हर बूंद को सहेजने और उसे किफायत से खर्च करने पर विचार करना होगा। इसमें अन्न की बर्बादी सबसे बड़ा मसला है-जितना अन्न बर्बाद होता है, उतना ही पानी जाया होता है।