जरूरी है प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का मजबूत होना
पंकज चतुर्वेदी
बीते डेढ साल में देश को यह समझ आ गया कि भारत की मजबूती के लिए जितना जरूरी सेना की तैयारी है , सुगठित चिकित्सा सेवा उससे कम नहीं है। बीमारियां देश के अर्थ तंत्र, शिक्षा सहित लगभग सभी पक्षों को कमजोर कर रही हैं। आज सवाल यह है कि हमारी चिकित्या नीति क्या हो? बीते कुछ सालों में अधिक से अधिक एम्स खोलना, निजी क्षेत्र में मेडिकल कालेज शुरू करना और जिला स्तर के अस्पतालों में अधिक से अधिक मूलभूत सुविधांए जोड़ना हमारी प्राथमिकता रही। कोविड ने चेता दिया है कि यदि ग्रामीण अंचल में प्रिवेटिव हैल्थ का मूलभूत ढांचा होता तो बड़े अस्पतालों पर इतना जोर नहीं होता । यह बानगी है कि प्रधानमंत्री सहायता कोष से सारे देश को गए अधिकांष वैंटिलेटर इस्तेमाल में ही नहीं आए और इसका मूल कारण था कि कहीं बिजली नहीं थी तो कहीं इस मषीन को चलाने को स्टाफ नहीं था। एक बात समझना होगा कि सरकार की प्राथमिकता लोगों का रोग अधिक गंभीर ना हो और उसे अपने घर के पास प्राथमिक उपचार ऐसा मिल जाए ताकि कम से कम लोगों को बड़े अस्पताल या मेडिकल कालेज तक जाना पड़े। यह कड़वा सच है कि स्वास्थ्य सेवाओं में बड़े कारपोरेट के आगमन के बाद यही हुआ कि दूरस्थ अंचल पर रोगों के बारे में ना तो जागरूकता रही और ना ही उपचार, जब हालात बहुत खराब हो गए तो बड़े षहरों के नामचीन अस्पताल की ओर दौड़ना पड़ा।
राश्ट्रीय स्वास्थ्य मिषन का मानक है कि प्रत्येक तीस हजार आबादी(दुर्गम, आदिवासी और रेगिस्तानी इलाकों में बीस हजार) पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या पीएचसी और पग्रत्येक चार पीएचसी पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र अर्थात सीएचसी हो। इसके अलावा प्रत्येक पांच हजार आबादी (दुर्गम, आदिवासी और रेगिस्तानी इलाकों में तीन हजार) एक उप केंद्र का भी प्रावाधान है। इस तरह देष में कोई एक लाख 58 हजार उप केंद्र, 24,885 पीएचासी और 5335 सीएचसी होने का सरकारी दवा है। इसके अलावा 1234 उपखंड व 756 जिला अस्पताल भी सरकारी रिकार्ड में हैं। हालांकि देष की एक अरब 36 करोड के लगभग आबादी के सामने यह स्वास्थ्य तंत्र बहुत जर्जर हैं। वैसे भी देष की 70 करोड़ से अधिक आबादी 664369 गांवों में रहती हैं। उप्र में सबसे गांव हैं, जिनकी संख्या 97941 है, उसके बाद उड़िसा में 51352, मप्र में 55392, महाराश्ट्र में 43,772, पष्चिम बंगाल में 40,783 और बंगाल में 45113 गांव है। जिस तरह से इन दिनों इदूरस्थ अंचल में कोरोना संक्रमण फैल रहा है और कई राज्यों में बीस-बीस किलोमीटर में डाक्टर तो क्या नर्स भी नहीं है, अंदाज लगाया जा सकता है कि हालात कैसे होंगे। हमारे देष में एक डाक्टर औसतन 11,082 लोगों की देखभाल करता है जो कि विष्व स्वास्थय संगठन के मानक का दस गुणा है।
केाविड के समय दूरस्थ गांव का मरीज षहर में भटकता परेषान दिखा, उसका कारण है कि गांव व षहर के बीच की सीएचसी नाम मात्र की ही है। नियमानुसार हर सीएचसी में एक सर्जन, एक महिलया रोग, बल रोग विषेशज्ञ व एक फिजीषियन होना चाहिए। तीस बिस्तरों के अस्पताल में नर्स, पेथोलाजी, एक्सरे जैसी मूलभूत सुविधाओ की अपेक्षा है। जमीनी आंकड़ े बताते हैं कि सीएचसी में डाक्टर के 63 फीसदी पद खाली हंै। इनमें सर्जन के 68.4 प्रतिषत, महिला रोग विषेशज्ञ के 56.1, फिजीषियन के 68.8 और बाल रोग विषेशज्ञ के 63.1 प्रतिषत पद खाली हैं। कुल मिला कर यहां 12.5 प्रतिषत डाक्टर व 3.71 प्रतिषत विषेशज्ञ ही काम कर रहे हैं। इसके अलावा एक्सरे मषीन चलाने वाले के 3266, फार्मासिस्ट के 327 सहित अधिकांष पद खाली हैं। उप केंद्र में हजारों की संख्या में स्वास्थ्य सहायक हैं ही नहीं। देष के 63 जिले ऐसे हैं जहां कोई ब्लड बैंक ही नहीं है और 350 से ज्यादा जिला व तहसील अस्पताल में एक भी वैंटिलेटर नहीं हैं। जान लें यदि हमारा दूरस्थ अंचल का स्वास्थ्य नेटवर्क काम ही करता होता और महज जागरूकता, प्राथमिक उपचार पर काम करता तो ना ही इतनी आक्सीजन लगती और ना ही इतने वेंटिलेटर की जरूरत होती।
चूंकि अब षहरों की ओर गांव से पलायन बढ़ा है और कोविड में देखा गया कि ऐसे लोग बेरोजगारी के डर से फिर गांव लौटे, जाहिर है कि इस तरह गांव की चिकित्या व्यवस्था दुरूस्त ना होने का खामियाजा भुगताना पड़ा। हजारेां ऐसे गांव हैं जहां एक भी थर्मामीटर नहीं है। जब दवा नहीं, सही सूचना नहीं तो ऐसे में अंध विष्वास के पैर फैलाने की पूरी संभावना भी रहती है और इससे संक्रमण जैसे रोग खूब फैलते हैं। देष के आंचलिक कस्बें की बात तो दूर राजधानी दिल्ली के एम्स यया सफदरजंग जैसे अस्पतालों की भीड़ और आम मरीजों की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। एक तो हम जरूरत के मुताबिक डाक्टर तैयार नहीं कर पा रहे, दूसरा देष की बड़ी आबादी ना तो स्वास्थ्य के बारे में पर्याप्त जागरूक है और ना ही उनके पास आकस्मिक चिकित्सा के हालात में केाई बीमा या अर्थ की व्यवस्था है। हालांकि सरकार गरीबों के लिए मुफ्त इलाज की कई योजनाएं चलाती है लेकिन व्यापक अषिक्षा और गैरजागरूकता के कारण ऐसी योजनाएं माकूल नहीं हैं।
आज यदि देष के स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करना है तो बड़े अस्पताल या एम्स जैसे लुभावने वायदों के बनिस्पत प्रत्येक पीएचसी में बिजली, पानी सहित डाक्टर व स्टाफ के रहने की व्यवस्था, , हर दिन सीएचसी से एक वाहन का पीएचसी में आगमन जो कि पैथालाजी लेब के संेपल ले जाने, जरूरी दवा की सप्लाई के अलावा स्टज्ञफ के निजी इस्तेमाल की ऐसी चीजें जो गांव में नहीं मिलती, उसके लाने ले जाने का कमा करे। ग्रामीण अंचलों में सेवा कर रकहे डाक्टरों के बच्चों की उच्च षिक्षा का जिम्मा सरकार ले व यदि वे बच्चे षहर में पढ़ते हैं तो उनके हास्टल आदि की व्यवस्था हो। डाक्टर भी तभी काम कर पाएगा जब उसके पास मूलभूत सुविधांए होंगी। इसी तरह पीएचसी में सेवा करने वाले डाक्टर का दस साल में सीएससी और सीएएसी में सात साल सेवा करने वाले को जिला या तहसील पर तबादले की नीति बने। दवा व मरहम पट्टी जैसी आवष्यक खरीदी का स्थानीय बजट, हर स्त्र के अस्पताल में निरापद बिजली व पानी की व्यवस्था , वहां काम करने वालों की सुरक्षा पर काम करना जरूरी है।
कुछ साल पहले तब के केंद्र के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग से डाक्टर तैयार करने के चार साला कोर्स की बात कही थी। इसके लिए प्रत्येक जिला अस्पताल में 40 सीटों के मेडिकल कालेज की बात थी। जाहिर हैकि निजी मेडिकल कालेज चलाने वालों के हितो पर इससे चोट पहुंचनी थी सो वह योजना कभी परवान चढ़ नहीं सकी। आज जरूरत है कि उस योजना का क्रियान्वयन हो, साथ ही आयुष चिकित्सकों को भी आपात स्थिति में सरकारी अस्पतालों में इंजेक्षन आदि लगाने के लिए तैयार किया जाए।
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