चार दिन की सफाई और फिर अंधेरी रात
चार दिवसीय छठ पर्व का समय आ गया, तो देश भर में तालाबों और नदियों के घाटों की सफाई शुरू हो गई है। समाज के लोग और युवा आगे आकर स्वयं सफाई में जुटने लगे हैं, क्या यही अभियान या प्रयास साल भर नहीं चल सकता? यदि देश भर की जलनिधियों को हर महीने मिल-जुलकर स्वच्छ बनाया जाए, तो कायाकल्प हो जाएगा। जरूरी होता जा रहा है कि प्रदूषण के खतरे को समझते हुए हम शपथ लें, त्योहार के भाव और जल, जीवन के महत्व को समझें, तभी हम अपना भविष्य सुधार पाएंगे।
देश का सबसे आधुनिक महानगर होने का दावा करने वाली नई दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा की तरफ सरपट दौड़ती चौड़ी सड़क के किनारे हिंडन नदी के पास बसे कुलेसरा व लखरावनी गांव में इन दिनों घाट की सफाई का काम चल रहा है। हिंडन यहां तक आते-आते नाला बन जाती है और कुछ ही किलोमीटर चलकर यमुना में विलीन हो जाती है। यह त्रासद है कि स्थानीय लोगों को इस नदी की याद बस छठ पर्व पर ही आती है। कहने को वहां स्थायी पूजा के चबूतरे बने हैं, लेकिन साल के 360 दिन ये सार्वजनिक शौचालय जैसे हो जाते हैं। गाजियाबाद हो या नोएडा, दोनों जगह लोगों को बदबूदार हिंडन किनारे छठ मनाने को तभी मिलेगा, जब सिंचाई विभाग गंगा नहर से कुछ पानी छोड़ देगा, लेकिन जैसे ही पर्व का समापन होता है, जिस नदी में भक्त खड़े थे, वह देखते ही देखते फिर काला-बदबूदार नाला बन जाती है। गांवों के गंदे पानी का निस्तार भी इसी में होने लगता है।
बस नाम बदलते जाएं, देश के अधिकांश नदी और तालाबों की यही व्यथा-गाथा है। समाज कोशिश करता है कि घर से दूर अपनी परम्परा का जैसे-तैसे पालन हो जाए, चाहे सोसायटी के स्विमिंग पूल में या अस्थायी कुंड में, लेकिन वह बेपरवाह रहता है कि असली छठ मैया तो उस जलनिधि की पवित्रता में ही साकार होती होंगी, जिसे पूरे साल प्यार से सहेजा गया होगा।
यह ऋतु के संक्रमण काल का पर्व है, ताकि कफ-वात और पित्त दोष को नैसर्गिक रूप से नियंत्रित किया जा सके और इसका मूल तत्व है जल, स्वच्छ जल। वास्तव में यह बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जलनिधियों के तटों पर बहकर आए कूड़े को साफ करने का समय है। अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने का समय है कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी रह सकें। यह दीपावली पर मनमाफिक भोजन के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोषित करने और विटामिन के स्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है। दुर्भाग्य है कि अब इसकी जगह ले ली है- आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंस्कृति वाले गीतों ने, आतिशबाजी, घाटों की दिखावटी सफाई, नेतागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने।
अस्थायी जल-कुंड या सोसायटी के स्वीमिग पुल में छठ पूजा की औपचारिकता पूरी करना असल में इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें, संकल्प करें कि पूरे साल इस स्थान को देव-तुल्य सहेजेंगे और फिर पूजा करें। इसके बजाय अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसे गंदा, बदबूदार छोड़ देना, तो इसकी आत्मा को मारना ही है।
इतना ही नहीं, पर्व समाप्त होते ही चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेशी और उसमें से कुछ अपने लिए कीमती तलाशते गरीब बच्चे, आस्था की औपचारिकता को उजागर कर देते हैं।
जलवायु परिवर्तन की मार
इस साल बिहार और कुछ अन्य राज्य तो जलवायु परिवर्तन की मार को भी छठ में महसूस करेंगे। बिहार में गंगा, कोसी, गंडक, घाघरा, कमला-बलान जैसी नदियों का जलस्तर लगातार कभी ऊपर होता है, तो कभी घट जाता है, इसके चलते न तो तट पर घाट बन पा रहे हैं और न ही दलदल के चलते वहां तक जाने के मार्ग। तभी बिहार के 25 हजार से अधिक तालाब, नहर पर घाट बनाने की तैयारी हो रही है। इसके साथ ही लगभग 350 पार्कों में स्थित फव्वारे वाले तालाब को छठ के दौरान अर्घ्य के लिए तैयार किया जा रहा है। जान लें बिहार में कोई एक लाख छह हजार तालाब, 3,400 आहर और लगभग 20,000 जगहों पर नहर का प्रवाह है। लेकिन दिल्ली, जहां कोई एक तिहाई आबादी पूर्वांचल की है। यमुना में छठ का अर्घ देने पर सियासत हो रही है। पिछले साल झाग वाले दूषित यमुना-जल में महिलाओं के सूर्योपासना के चित्रों ने दुनिया में किरकिरी करवाई थी। इस बार दिल्ली में कोई 1100 अस्थायी तालाब, घाट सुधारे या बनाए जा रहे हैं, ताकि लोग सुविधा से छठ पर्व मनाएं। यहीं एक सवाल उठता है कि इन तालाबों या कुंड को नागरिक समाज को सौंपकर इन्हें स्थायी क्यों नहीं किया जा सकता?
प्रकृति की चिंता जरूरी
हमारे पुरखों ने जब छठ जैसे पर्व की कल्पना की थी, तब निश्चित ही उन्होंने हमारी जलनिधियों को एक उपभोग की वस्तु के बनिस्पत साल भर श्रद्धा और आस्था से सहेजने के जतन के रूप में स्थापित किया होगा। काश, छठ पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे के तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जलनिधियों की पवित्रता, स्वच्छता के संदेश को आस्था के साथ व्यावहारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ों की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए, तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है।
कितनी गंदगी, कितनी सफाई
22 जुलाई 2021 को केंद्रीय जल संसाधन मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने एक प्रश्न के जवाब में संसद में बताया था कि वर्ष 2013-14 में संपन्न 5वीं नवीनतम गणना के अनुसार, देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 5,16,303 जलनिधियां हैं, जिनका उपयोग लघु सिंचाई योजनाओं के लिए किया जा रहा है। इनमें से 53,396 जल निकाय पानी, गाद, लवणता, आदि विभिन्न कारणों से उपयोग में नहीं आ रहे हैं।
जल-निधियों को पुनर्जीवित करने की आरआरआर योजना के तहत, बारहवीं योजना के बाद विभिन्न राज्यों में बहाली के लिए कुल 2,228 जल संसाधनों पर अनुमानित लागत 1,914.86 करोड़ रुपये थी। मार्च, 2021 तक, इस योजना के तहत राज्यों को 469.69 करोड़ रुपये की केंद्रीय सहायता जारी की गई और इस अवधि में मात्र 1,549 जलाशयों का ही काम पूरा हो सका।
भारत सरकार के मत्स्य विभाग का कहना है कि देश में 1,91,024 किलोमीटर नदी और नहरें हैं, जबकि 10 लाख बीस हजार हेक्टेयर में जोहड़े हैं। 23 लाख 60 हजार हैक्टेयर में तालाब हैं, 35 हेक्टेयर में झीलें हैं।
ईमानदारी से देखा जाए, तो हमारे यहां कुओं और बावड़ियों की सटीक गणना हुई ही नहीं है। जाहिर है, सरकार जिस स्तर पर इन जलनिधियों की साफ-सफाई करवा रही है, आने वाले सौ सालों में भी यह काम पूरा होने से रहा। सबसे बड़ी बात, इन सभी योजनाओं का क्रियान्वयन राज्य सरकारों के हाथों में है, केंद्र केवल धन देता है।
नदियों में बढ़ता प्रदूषण
पूरे भारत में प्रदूषित नदियों की संख्या 2015 से 2018 तक 302 से बढ़कर 351 हो गई है। सन 2021 में लोकसभा को पूरे भारत में नदियों की स्थिति के बारे में पूछे जाने पर सरकार ने यह सूचना दी थी। जैविक प्रदूषण के एक संकेतक जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) के संदर्भ में निगरानी परिणामों के आधार पर, सीपीसीबी द्वारा समय-समय पर प्रदूषित नदी के हिस्सों की पहचान की जाती है। सन 2009 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश में कुल दूषित नदियों की संख्या 121 पाई थी, जो अब 275 हो चुकी है। यही नहीं आठ साल पहले नदियों के कुल 150 हिस्सों में प्रदूषण पाया गया था, जो अब 302 हो गया है। बोर्ड ने 29 राज्यों व छह केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 445 नदियों पर अध्ययन किया, जिनमें से 225 का जल बेहद खराब हालत में मिला। इन नदियों के किनारे बसे शहरों के 302 स्थानों पर सन 2009 में 38 हजार एमएलडी सीवर का गंदा पानी नदियों में गिरता था, जो कि आज बढ़कर 62 हजार एमएलडी हो गया है।
चिंता की बात है कि सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता नहीं बढ़ाई गई है। सरकारी अध्ययन में 34 नदियों में बायो कैमिकल ऑक्सीजन डिमांड यानि बीओडी की मात्रा 30 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक पाई गई है और यह उन नदियों के अस्तित्व के लिए बड़े संकट की ओर इशारा करता है। चूंकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे। अनेक जीवों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा।
कागज पर एक कानून
जानकर आश्चर्य होगा कि नदियों की मुक्ति का एक कानून गत 64 सालों से किसी लाल बस्ते में बंद है। संसद ने सन 1956 में रिवर बोर्ड एक्ट पारित किया था। इस ऐक्ट की धारा चार में प्रावधान है कि केंद्र सरकार एक से अधिक राज्यों में बहने वाली नदियों के लिए राज्यों से परामर्श कर बोर्ड बना सकती है। इन बोर्ड के पास बेहद ताकतवर कानून का प्रावधान इस एक्ट में है, जैसे कि जलापूर्ति, प्रदूषण आदि के स्वयं दिशा-निर्देश तैयार करना, नदियों के किनारे हरियाली, बेसिन निर्माण और योजनाओं के क्रियान्वयन की निगरानी आदि। नदियों के संरक्षण का इतना बड़ा कानून उपलब्ध है, लेकिन आज तक किसी भी नदी के लिए रिवर बोर्ड बनाया ही नहीं गया। संविधान के कार्यों की समीक्षा के लिए गठित वैंकटचलैया आयोग ने तो अपनी रिपोर्ट में इसे एक ‘मृत कानून’ करार दिया था। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी कई विकसित देशों का उदाहरण देते हुए इस अधिनियम को गंभीरता से लागू करने की सिफारिश की थी। यह बानगी है कि हमारा समाज अपनी नदियों के अस्तित्व के प्रति कितना लापरवाह है।
ऐसी नदियों के कोई 50 किलोमीटर इलाके में खेतों की उत्पादन क्षमता लगभग पूरी तरह समाप्त हो गई है। इलाके की अधिकांश आबादी चर्मरोग, सांस और उदर रोगों से बेहाल है। भूजल विभाग का एक सर्वे गवाह है कि नदी के किनारे हैंडपंपों से निकल रहे पानी में क्षारीयता इतनी अधिक है कि यह न इंसान के लायक है, न ही खेती के लायक। सरकार के ही पर्यावरण और प्रदूषण विभाग बीते 20 साल से चेताते आ रहे हैं, लेकिन आधुनिकता का लोभ पूरी व्यवस्था को लापरवाह बना रहा है।
सरकार ही नहीं, केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड के आंकड़े भी गवाह हैं कि नदियों और जलस्रोतों का हाल बुरा है। सफाई के लिए हो रहे प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा बराबर हैं। सफाई का काम अपने लक्ष्य से काफी पीछे चल रहा है और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इस गति से सौ साल में भी सफाई मुश्किल है।
2228
जलनिधियों के जीर्णोद्धार की योजना थी
1,549
ही जलनिधियों की साफ- सफाई हो पाई
सबसे ज्यादा प्रदूषित
आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, मध्य प्रदेश की खान, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। हालत यह है कि देश की 27 नदियां नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। समस्या होने लगी है कि नालों को किस तरह से नदी की श्रेणी में रखा जाए। दरअसल पिछले 50 बरसों में श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई, जिसका खमियाजा हमारे देश में सर्वाधिक नदियों ने ही उठाया है। जिन प्रांतों में मानवीय संवेदना घटी है, वहां मरती नदियों की संख्या बढ़ी है।
मरती नदियों का देश
भारत में प्रदूषित नदियों के बहाव का इलाका 12,363 किलोमीटर मापा गया है, इनमें से 1,145 किलोमीटर का क्षेत्र पहले स्तर यानि बेहद दूषित श्रेणी का है। दिल्ली में यमुना शीर्ष पर है, इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है, जहां 43 नदियां मरने की कगार पर हैं। असम में 28, मध्य प्रदेश में 21, गुजरात में 17, कर्नाटक में 15, केरल में 13, पश्चिम बंगाल में 17, उत्तर प्रदेश में 13, मणिपुर और ओडिशा में 12-12, मेघालय में दस और कश्मीर में नौ नदियां अपने अस्तित्व के लिए तड़प रही हैं। अनेक नदियों का अस्तित्व समाप्त हो चुका है और उन नदियों को बचाने के लिए कोशिशें नदारद हैं। सरकारें नदियों पर नहीं बराबर ध्यान दे रही हैं।
जलनिधियों की स्वच्छता के संदेश को आस्था के साथ व्यावहारिकता में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ों की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए, तो यह पर्व धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है।
सीवर शहरों का साल 2009 में नदियों में ही गिरता था।
सफाई पर खूब खर्च करने के बावजूद नतीजा सिफर
अनुमान है कि आजादी के बाद से अभी तक गंगा की सफाई के नाम पर करीब 20 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। अप्रेल-2011 में गंगा सफाई की योजना सात हजार करोड़ की बनाई गई थी। विश्व बैंक से इसके लिए कोई एक अरब डॉलर का कर्ज भी लिया गया था, पर न तो गंगा में पानी की मात्रा बढ़ी और न प्रदूषण घटा। सनद रहे, यह हाल केवल गंगा का ही नहीं है। अधिकांश नदियों को स्वच्छ करने के अभियान कागज, नारों व बजट को ठिकाने लगाने से ज्यादा नहीं रहे हैं।