नारों से कम नहीं होगा कार्बन उत्सर्जन
पंकज चतुर्वेदी
हाल ही मेन नयी दिल्ली में सम्पन्न जी- 20 सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा उठा तो
लेकिन इसके निराकरन के ठोस क्रियान्वयन पर कोई दिशा निर्देश आए नहीं , सभी देश सन 2030 तक कोयले पर आधारित उद्योग व गतिविधियों पर धीरे धीरे पूर्ण पाबंदी और नैसर्गिक तरीकों से ऊर्जा के विकल्प के लिए कागज पर तो सहमत हुये
लेकिन इसकी कोई रूपरेखा नहीं बन पाई । हकीकत तो यह हैं कि दुनिया भर के कार्बन उत्सर्जन का 80 फीसदी
जी20 देशों
से होता है. इससे पहले जुलाई में हुई बातचीत के दौरान 2025 तक उत्सर्जन कम करने या अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल को तेजी से
बढ़ाने पर कोई सहमति नहीं बन पाई. 2015 से 2022 के दौरान जी20 देशों में प्रति व्यक्ति
उत्सर्जन नौ फीसदी बढ़ गया. यह रिपोर्ट ऊर्जा मामलों पर
काम करने वाले एक थिंकटैंक एंबर ने प्रकाशित की है. इस गुट के सदस्य देशों में से 12
देश ऐसे हैं जो अपना प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम करने में सफल रहे.
इनमें ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिका शामिल हैं. हालांकि दूसरे देश ऐसा कर पाने में
विफल रहे जिनमें इस बार जी20 की मेजबानी कर रहे भारत समेत इंडोनेशिया और चीन भी हैं. इन देशों
का कार्बन उत्सर्जन कम होने के बजाए बढ़ा है. इंडोनेशिया को पिछले साल कोयले की जगह
दूसरे ईंधन इस्तेमाल करने के लिए अमीर देशों से लाखों डॉलर की मदद भी मिली थी
लेकिन उसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2015 के मुकाबले 56 फीसदी बढ़ा है.
इन्टरनेशनल मोनेटरी फण्ड,
आईएमऍफ़, की एक
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में
वैश्विक स्तर पर जीवाश्म इंधन उद्योग को 7
खरब डॉलर की सब्सिडी दी गयी,
यानी हरेक मिनट 1.3 करोड़
डॉलर की सब्सिडी। यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 7 प्रतिशत है और वैश्विक स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र
में खर्च की जाने वाली राशि से लगभग दुगुनी अधिक है। जलवायु परिवर्तन और वायु
प्रदूषण से जितना नुकसान पूरी दुनिया को उठाना पड़ता है, उसमें से 80
प्रतिशत नुकसान इसी सब्सिडी की देन है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के
अनुसार वैश्विक स्तर पर जितनी सब्सिडी जीवाश्म ईंधन और कृषि क्षेत्र में दी जाती
है उसमें से 12 ख़राब
डॉलर राशि प्रतिवर्ष ऐसे कार्यों में खर्च की जाती है जिनसे तापमान वृद्धि और
पर्यावरण विनाश को बढ़ावा मिलता है।
इधर जी-20 की दिल्ली बैठक में कहा गया कि 2030 तक नेट-
जीरों के लक्ष्य को पाने के लिए सालाना 5.8 ख़ाब डॉलर सालाना की जरूरत होगी । इस पर सभी देशों की
सहमति भी रही है विदित हो हरित जलवायु कोष
(जी सी एफ) हर साल महज 100 अरब डॉलर ही एकत्र कर पाता है जो अब नाकाफी है । आईएमऍफ़
की रिपोर्ट कहती है सबसे अधिक सब्सिडी देने वाले देशों में भारत
सहित चीन, अमेरिका, रूस,
यूरोपियन यूनियन शामिल हैं। सन 2009 में ही जी20 देशों ने जीवाश्म ईंधन में सब्सिडी को ख़त्म करने का संकल्प लिया था। लेकिन यह
छूट के बढ़ती गई जो वर्ष 2022
में 1.4 खरब
डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर आ गई । इस रिपोर्ट के अनुसार
यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री
सेल्सियस तक ही नियंत्रित करना है तब वर्ष 2030
तक वर्ष 2019 के
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की तुलना में 43
प्रतिशत कटौती करनी पड़ेगी,
और यदि जीवाश्म इंधन पर सब्सिडी तत्काल प्रभाव से ख़त्म की जाती है तब
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2030
तक 34 प्रतिशत
की कमी आ जायेगी।
वैसे तो भारत चार साल पहले ही संयुक्त राष्ट्र
को आश्वस्त कर चुका है कि 2030 तक हमारा देश कार्बन उत्सर्जन
की मौजूदा मात्रा को 33 से 35 फीसदी घटा देगा, लेकिन असल समस्या तो उन देशों के साथ है जो मशीनी विकास व आधुनिकीकरण के चक्कर में पूरी दुनिया
को कार्बन उत्सर्जन का दमघोंटू बक्सा बनाए दे रहे हैं और अपने आर्थिक प्रगति की
गति के मंथर होने के भय से र्प्यावरण के साथ इतने बड़े दुष्कर्म को थामने को राजी नहीं हैं।
चूंकि भारत में अभी भी बड़ी संख्या
में ऐसे परिवार हैं जो खाना पकाने के लिए लकड़ी या कोयले के चूल्हे इस्तेमाल कर रहे
हैं, सो अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां परंपरागत ईंधन
के नाम पर भारत पर दबाव बनाती रहती हैं, जबकि विकसित देशों में कार्बन उत्सर्जन के अन्य कारण ज्यादा घातक
हैं ।
धरती में कार्बन का बड़ा भंडार
जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़ , प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पांच फीसदी कार्बन वातावरण
में पुनर्चक्रित करते है। आज दुनिया में अमेरिका सबसे ज्यादा 5414
मिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाय आक्साईड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के
अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है। उसके बाद
कनाड़ा प्रति व्यक्ति 15.7 मिलियन मीट्रिक टन, फिर रूस मिलियन मीट्रिक 12.6 टन हैं । जापान,
जर्मनी,
द.कोरिया आदि औद्योगिक देषो में भी
कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज
2274 मिलियन मीट्रिक या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन डाय आक्साईड ही उत्सर्जित
करता है। अनुमान है कि यह 2030 तक तीन गुणा यानि अधिकतम पांच तक जा सकता है। इसमें
कोई शक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों की भौगोलिक सीमाएं देख कर तो हमला
करती नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देश है, वह भी अधिकांश ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बरफ पिघलने से बनती हैं,
सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही
चाहिए। हमारे देश में प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढने का प्रमुख कारण है बिजली की
बढती खपता। सनद रहे हम द्वारा प्रयोग में लाई गई बिजली ज्यादातर जीवाश्म ईंधन
(जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक
चीजों) से बनती है। इंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है। हम जितनी
ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन
के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड
उत्सर्जित होगा।
कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने
के लिए हमें एक तो स्वच्छ इंर्धन को बढ़ावा देना होगा। हमारे देश में रसोई गैसे की तो कमी है नहीं,
हां सिलेंडर बनाने के लिए जरूरी
स्टील, सिलेंडर वितरण के लिए आंचलिक
क्षेत्रों तक नेटवर्क को विकसित करना और गरीब लोगों को बेहद कम दाम पर गैस उपलब्ध
करवाना ही बड़ी चुनौती है। कार्बन उत्सर्जन घटाने में सबसे बड़ी बाधा वाहनों की बढ़ती
संख्या, मिलावटी पेट्रो पदार्थों की बिक्री,
घटिया सड़केंव आटो पार्टस की बिक्री
व छोटे कस्बों तक यातायात जाम होने की समस्या है। देश में बढ़ता कचरे
का ढेर व उसके निबटान की माकूल व्यवस्था ना होना भी कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की
बड़ी बाधा है। सनद रहे कि कूड़ा जब सड़ता है तो उससे बड़ी मात्रा में मीथेन,
कार्बन मोनो व डाय आक्साईड गैसें
निकल कर वायुमंडल में कार्बन के घनत्व को बढ़ाती हैं। साथ ही बड़े बांध,
सिंचाई नहरों के कारण बढ़ते दल-दल भी
कार्बन डाय आक्साईड पैदा करते हैं
अभी तक यह मान्यता रही है कि पेड़
कार्बन डाय आक्साईड को सोख कर आक्सीजन में बदलते रहते है। सो,
जंगल बढ़ने से कार्बन का असर कम
होगा। यह एक आंषिक तथ्य है। कार्बन डाय आक्साईड में यह गुण होता है कि यह पेड़े की
वृद्धि में सहायक है। लेकिन यह तभी संभव होता है जब पेड़ो को नाईट्रोजन सहित सभी पोषक तत्व सही मात्रा
में मिलते रहें। यह किसी से छिपा नहीं है कि खेतों में बेशुमार रसायनों के
इस्तेमाल से बारिश का बहता पानी कई गैरजरूरी
तत्वों को ले कर जंगलों में पेड़ो तक पहुचता है और इससे वहां की जमीन में मौजूद
नैसर्गिक तत्वों की गणित गड़बड़ा जाती है। तभी शहरी पेड़ या आबादी
के पास के जंगल कार्बज नियंत्रण में बेअसर रहते है। यह भी जान लेना जरूरी है कि
जंगल या पेड़ वातावरण में कार्बन की मात्रा को संतुलित करने भर का काम करते हैं,
वे ना तो कार्बन को संचित करते हैं
और ना ही उसका निराकरण। दो दषक पहले कनाड़ा में यह सिद्ध हो चुका था कि वहां के
जंगल उल्टे कार्बन उत्सर्जित कर रहे थे।
कार्बन की बढ़ती मात्रा दुनिया में
भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं का न्यौता है। जाहिर है कि इससे जूझना सारी
दुनिया का फर्ज है, लेकिन भारत में
मौजूद प्राकृतिक संसाधन व पारपंरकि ज्ञान इसका सबसे सटीक निदान है। छोटे तालाब व
कुंए, पारंपरिक मिश्रित जंगल,
खेती व परिवहन के पुराने साधन,
कुटी उद्योग का सषक्तीकरण कुछ ऐसे
प्रयास हैं जो बगैर किसी मषीन या बड़ी तकनीक या फिर अर्थ व्यवस्था को प्रभावित किए
बगैर ही कार्बन पर नियंत्रण कर सकते हैं और इसके लिए हमें पष्चिम से उधार में लिए
ज्ञान की जरूरत भी नहीं है। सनद रहे कि बड़े बांध कार्बन को बढाते हैं जबकि छोटी जल
योजनाएं या पारंपरिक सिंचाई तीके कम पानी में बेहतर काम करते है।। ठीक इसी तरह
खेती में रसायनों व कीटनाषकों का इस्तेमाल भी वातावरण में कार्बन डाय आक्साईड में
इजाफा करता है। चूंकि भारत बड़ी आबादी वाला देष है अतः यहां पेट भरते के लिए अधिक
खेती होना लाजिमी है। कई बार खेतों के लिए हरियाली को भी उजाड़ा जा रहा है।अतः हमें
उर्जा के इस्तेमाल से कही ज्यादा खेती के तरीकों पर गंभीरता से विचार करना होगा।
क्या है ग्लोबल वॉर्मिंग ?
हमारी धरती को प्राकृतिक तौर पर सूर्य
की किरणों से गरमी मिलती है। ये किरणें वायुमंडल से गुजरते हुए पृथ्वी की सतह से
टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित होकर लौट जाती हैं। धरती का वायुमंडल कई
गैसों से मिलकर बना है जिनमें कुछ ग्रीनहाउस गैसें भी शामिल हैं। इनमें से
ज्यादातर धरती के ऊपर एक प्राकृतिक आवरण बना लेती हैं। यह आवरण लौटती किरणों के एक
हिस्से को रोक लेता है और इस तरह धरती को गरम बनाए रखता है। इंसानों, दूसरे प्राणियों और पौधों के जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है। वैज्ञानिकों का मानना है
कि ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी मोटा होता जाता है। ऐसे में
यह आवरण सूर्य की ज्यादा किरणों को रोकने लगता है और फिर यहीं से शुरू होते हैं
ग्लोबल वॉर्मिंग के दुष्प्रभाव मसलन समद्र स्तर ऊपर आना, मौसम में एकाएक बदलाव और गर्मी बढ़ना, फसलों की उपज पर असर पड़ना और ग्लेशियरों का पिघलना। यहां तक कि
ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से प्राणियों की कई प्रजातियां भी लुप्त हो चुकी हैं।
यह वैज्ञानिक तथ्य है कि बीते सौ
सालों के दौरान सन 1900 से 2000 तक पृथ्वी का औसत तापमान एक डिग्री फैरेनहाइट बढ़ गया है। सन 1970 के मुकाबले आज धरती का तापमान तीन गुणा तेजी से बढ़ रहा है। इस बढ़ती
वैश्विक गर्मी का असल कारण इंसान व उसकी भौतिक सुविधाओं की जरूरतें ही हैं। ग्रीन
हाउस गैसों के उत्सर्जन, गाड़ियों से
निकलने वाला घुँआ और जंगलों में लगने वाली आग इसकी मुख्य वजह हैं। इसके अलावा घरों
में लक्जरी वस्तुएँ मसलन एयरकंडीशनर, रेफ्रिजरेटर, ओवन आदि भी इस
गर्मी को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
ग्रीन हाउस गैस पृथ्वी के वातावरण
में प्रवेश तो कर लेती हैं लेकिन यहाँ से वापस ‘अंतरिक्ष’ में नहीं जातीं
और यहाँ का तापमान बढ़ाने में कारक बनती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का
उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 21वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 से 8 डिग्री तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक
होंगे। विश्व के कई हिस्सों में बिछी बर्फ गल जाएगी, इससे जल का आगमन बढ़ेगा व समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर तक बढ़
जाएगा। समुद्र के इस बर्ताव से विश्व के कई हिस्से जलमग्न हो जाएँगे। भारी तबाही
मचेगी।
आखिर क्यों तप रही है धरती
इसे समझने के लिए वातावरण और ग्रीन
हाउस गैसों के बारे में जानकारी लेना जरूरी है। इन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो
कार्बन भी कहते हैं. इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड है, मीथेन है, नाइट्रस ऑक्साइड
है और वाष्प है। इनमें भी सबसे अधिक उत्सर्जन कार्बन डाइऑक्साइड का होता है। इस
गैस का उत्सर्जन सबसे अधिक ईंधन के जलने से होता है, खासतौर पर कोयला, डीजल-पेट्रोल
जैसो इंर्धन। ये गैसें वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इससे ओजोन परत की छेद का
दायरा बढ़ता ही जा रहा है। पृथ्वी के चारों ओर का वायुमंडल मुख्यतः नाइट्रोजन (78ः), ऑक्सीजन (21ः) तथा शेष 1ः में
सूक्ष्ममात्रिक गैसों (ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये बिल्कुल अल्प मात्रा में
उपस्थित होती हैं) से मिलकर बना है, जिनमें ग्रीन हाउस गैसें कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, ओजोन, जलवाष्प, तथा नाइट्रस
ऑक्साइड भी शामिल हैं। ये ग्रीनहाउस गैसें आवरण का काम करती है एवं इसे सूर्य की
पैराबैंगनी किरणों से बचाती हैं। पृथ्वी की तापमान प्रणाली के प्राकृतिक नियंत्रक
के रूप में भी इन्हें देखा जा सकता है।
ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के
बीच एक कवच की तरह है। यह भी साबित हो चुका है कि ग्रीन हाउस जब वायुमंडल में
मौजूद होती हैं तो वे सूरज की गर्मी को अवशोषित करती हैं। जिससे कि हमारे वातावरण
का तापमान बढ़ता ही है। पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करती है जो पृथ्वी के धरातल
को गर्म करता है। चूंकि यह ऊर्जा वायुमंडल से होकर गुजरती है, इसका एक निश्चित प्रतिशत (लगभग 30) तितर-बितर हो जाता है। इस ऊर्जा का कुछ भाग पृथ्वी एवं सूर्य की
सतह से वापस वायुमंडल में परावर्तित हो जाता है। पृथ्वी को ऊष्मा प्रदान करने के
लिए शेष (70ः) ही बचता है। संतुलन बनाए रखने के
लिए यह आवश्यक है कि पृथ्वी ग्रहण किये गये ऊर्जा की कुछ मात्रा को वापस वायुमंडल
में लौटा दे। चूँकि पृथ्वी सूर्य की अपेक्षा काफी शीतल है, यह दृष्टव्य प्रकाश के रूप में ऊर्जा उत्सर्जित नहीं करती है। यह
अवरक्त किरणों अथवा ताप विकिरणों के माध्यम से उत्सर्जित करती है। तथापि, वायुमंडल में विद्यमान कुछ गैसें पृथ्वी के चारों ओर एक आवरण-जैसा
बना लेती हैं एवं वायुमंडल में वापस परावर्तित कुछ गैसों को अवशोषित कर लेते हैं।
इस आवरण से रहित होने पर पृथ्वी सामान्य से 300ब् और अधिक ठंडी होती। जल वाष्प सहित कार्बन डाइआक्साइड, मिथेन एवं नाइट्रस ऑक्साइड जैसी इन गैसों का वातावरण में कुल भाग
एक प्रतिशत है। इन्हें ‘ग्रीनहाउस गैस’
कहा जाता है क्योंकि इनका कार्य
सिद्धांत ग्रीनहाउस जैसा ही है। जैसे ग्रीनहाउस का शीशा प्राचुर्य उर्जा के विकिरण
को रोकता है, ठीक उसी प्रकार यह ‘गैस आवरण’ उत्सर्जित कुछ
उर्जा को अवशोषित कर लेता है एवं तापमान स्तर को अक्षुण्ण बनाए रखता है। एक फ्रेंच
वैज्ञानिक जॉन-बाप्टस्ट फोरियर द्वारा इस प्रभाव का सबसे पहले पता लगाया गया था
जिसने वातावरण एवं ग्रीनहाउस की प्रक्रियाओं में समानता को साबित किया और इसलिए
इसका नाम ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’
पड़ा।
वायुमंडल में दूसरी महत्वपूर्ण गैस
मीथेन है। माना जाता है कि मीथेन उत्सर्जन का एक-चौथाई भाग पालतू पशुओं जैसे डेरी
गाय, बकरियों, सुअरों, भैसों, ऊँटों, घोड़ों एवं भेड़ों
से होता है। ये पशु चारे की जुगाली करने के दौरान मीथेन उत्पन्न करते हैं। मीथेन
का उत्पादन चावल और धान के खेतों से भी होता है जब वे बोने और पकने के दौरान बाढ़
में डूबे होते हैं। जमीन जब पानी में डूबी होती है तो ऑक्सीजन-रहित हो जाती है।
ऐसी परिस्थितियों में मीथेन उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया एवं अन्य जंतु जैव
सामग्री को नष्ट कर मीथेन उत्पन्न करते हैं। संसार में धान उत्पन्न करने वाले
क्षेत्र का 90ः भाग एशिया में पाया जाता है, चूंकि चावल यहाँ मुख्य फसल है। संसार में धान उत्पन्न करने वाले
क्षेत्र का 80-90ः भाग चीन एवं
भारत में है।
भूमि को भरने तथा कूड़े-करकट के ढ़ेर
से भी मीथेन उत्सर्जित होता है। यदि कूड़े को भट्टी में रखा जाता है अथवा खुले में
जलाया जाता है तो कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जित होती है। तेल शोधन, कोयला खदान एवं गैस पाइपलाइन से रिसाव (दुर्घटना एवं घटिया
रख-रखाव) से भी मीथेन उत्सर्जित होती है। उर्वरकों के उपयोग को नाइट्रस आक्साइड के
विशाल मात्रा में उत्सर्जन का कारण माना गया है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है
कि किस प्रकार के उर्वरक का उपयोग किया किया है, कब और किस प्रकार उपयोग किया गया है तथा उस के बाद खेती की कौन सी
पद्धति अपनाई गई है। लेग्युमिनस पौधों जैसे बीन्स एवं दलहन, जो मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ाते हैं, भी इसके लिये जिम्मेवार हैं।
पृथ्वी की उत्पति के समय से ही यह
गैस आवरण अपने स्थान पर स्थित है। औद्योगिक क्रांति के उपरांत मनुष्य अपने
क्रिया-कलापों से वातावरण में अधिक-से-अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहा
है। इससे आवरण मोटा हो जाता है एवं ‘प्राकृतिक ग्रीनहाउस प्रभाव’ को प्रभावित करता है। ग्रीनहाउस गैसें बनाने वाले क्रिया-कलापों को
‘स्रोत’
कहा जाता है एवं जो इन्हें हटाते
हैं उन्हें ‘नाली’ कहा जाता है। ‘स्रोत’
एवं ‘नाली’ के मध्य संतुलन
इन ग्रीनहाउस गैसों के स्तर को बनाए रखता है।
मानवजाति इस संतुलन को बिगाड़ती है, जब प्राकृतिक नालियों से हस्तक्षेप करने वाले उपाय अपनाए जाते हैं।
कोयला, तेल एवं प्राकृतिक गैस जैसे इंधनों
को जब हम जलाते हैं तो कार्बन वातावरण में चला जाता है। बढ़ती हुई कृषि गतिविधियां, भूमि-उपयोग में परिवर्तन एवं अन्य स्रोतों से मिथेन एवं नाइट्रस
आक्साइड का स्तर बढ़ता है। औद्योगिक प्रक्रियाएं भी कृत्रिम एवं नई ग्रीनहाउस गैसें
जैसे सी0एफ0सी0 (क्लोरोफ्लोरोकार्बन)
उत्सर्जित करती है जबकि यातायात वाहनों से निकलने वाले धुंए से ओजोन का निर्माण
होता है। इसके परिणामस्वरूप ग्रीनहाउस प्रभाव को साधारणतः भूमंडलीय तापन अथवा ऋतु
परिवर्तन कहा जाता है।