My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 30 मई 2024

life giving water is poison

 

जहर होता जीवनदायी जल

पंकज चतुर्वेदी



 

देश की राजधानी दिल्ली , और वह शहर जो कि लगभग 27 किलोमीटर तक यमुना जैसी सदा-नीरा नदी के किनारे बसा है , अब जल संकट से कराह  रहा है । यदि इसमें भी सेहत के लिए माकूल पानी की बात करें तो शहर का बड़ा हिस्सा बोतलबंद जल पर निर्भर है । वैसे तो इंदिरपुरम का  वैभव खंड गाजियाबाद में आता है  लेकिन इसकी दिल्ली से दूरी बमुश्किल तीन किलोमीटर है ।  यहाँ साया गोल्ड एवेन्यू में दूषित पानी के कारण 762 लोगों को अब तक डायरिया हो चुका है। नहाने से  त्वचा रोग के मरीज लगभग हर घर में हैं । यहाँ हंगामा हुआ, पुलिस आई तो बात सभी के सामने खुल गई । 


त्रासदी यह है कि इतना हाल हुआ , उसके बाद 25  दिन बीत जाने पर वहाँ साफ पानी का पर्याप्त इंतजाम हो नहीं पाया । वैसे तो गाजियाबाद- नॉयडा –गुरुग्राम आदि  में यह हाल लगभग हर  ऊंची इमारतों वाली सोसायटी का है । अधिकांश में जल आपूर्ति  भूमिगत जल से है और पीने के जल का आश्रय या तो  बोतल बंद पानी से या फिर खुद के आर ओ । छत्तीसगढ़ के कबीरधाम के कोयलारी गांव में कुएं का दूषित पानी पीकर एक बुजुर्ग महिला की मौत हो गई. वहीं, 50 से अधिक लोग डायरिया की चपेट में आ गए। मध्य प्रदेश  के बुरहानपुर से भी कई बच्चों के  दूषित जल पीने से बीमार होने की खबर है । 


प्यास के लिए कुख्यात बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले के नयारा गाँव में खुले कुएं का पानी पीने से एक बच्ची कि मौत हो गई जबकि 50 से  अधिक को अस्पताल में बहरती होना पड़ा । कर्नाटक के मुख्यमंत्री के अपने जिले में  दूषित जल से एक युवक मार गया जबकि सैकड़ों बीमार हो गए ।  एक तरफ देश के हर हिस्से में बढ़ता तापमान  समस्या बना है तो  उसके साथ गर्मी से राहत का एकमात्र सहारा  जल ही जहर बन गया है ।



देश के अलग-अलग हिस्से  अब नल से  बदबूदार पानी आने या फिर हेंडपम्प से गंदे पानी की शिकायतों से  परेशान हैं । गर्मी में पानी  धरती के लिए प्राण है लेकिन यदि जल दूषित हो तो यह प्राण हर भी सकता है । हमारे विकास के बड़े बड़े दावे कहीं जल जैसी मूलभूत सुविधा के सामने या कर ठिठक जाते हैं । बहुत सी सरकारी योजनाएं हर घर स्वच्छ जल के वायदे करती रही हैं  लेकिन  आपूर्ति पर केंद्रित ये योजनाएं हर समय  सुरक्षित जल-स्रोत विकसित करने में  असफल ही रही हैं ।



कितना दुखद है कि पाँच साल पहले राजधानी के करीबी पश्चिम  उ.प्र के सात जिलों में पीने के पानी से कैंसर से मौत का मसला जब गरमाया तो एनजीटी में प्रस्तुत रिपोर्ट के मुताबिक इसका कारण हैंडपंप का पानी पाया गया। अक्तूबर 2016 में ही एनजीटी ने नदी के किनारे के हजारों हैंडपंप बंद कर गांवों में पानी की वैकल्पिक व्यवस्था का आदेश  दिए थे । कुछ हैंडपंप तो बंद भी हुए , कुछ पर लाल निशान की औपचारिकता हुई लेकिन सुरक्षित जल का विकल्प ना मिलने से मजबूर ग्रामीण वही जहर पी रहे हैं।


अतीत में झांकें तो केंद्र सरकार की कई योजनाएं, दावे और नारे फाईलों में  तैरते मिलेंगे, जिनमें भारत के हर एक नागरिक  को सुरक्षित पर्याप्त जल मुहैया करवाने के सपने थे। इन पर अरबों खर्च भी हुए लेकिन आज भी  कोई करीब 3.77 करोड़ लोग हर साल दूषित पानी के इस्तेमाल से बीमार पड़ते हैं। लगभग 15 लाख बच्चे दस्त से अकाल मौत मरते हैं । अंदाजा है कि पीने के पानी के कारण बीमार होने वालों से 7.3 करोड़ कार्य-दिवस बर्बाद होते हैं। इन सबसे भारतीय अर्थव्यवस्था को हर साल करीब 39 अरब रूपए का नुकसान होता है।

हर घर जल  की केंद्र की येाजना इस बात में तो सफल रही है कि  गाव-गांव में हर घर तक पाईप बिछ गए, लेकिन आज भी इन पाईपों में आने वाला 75 प्रतिषत जल भूजल है । गौरतलब है कि ग्रामीण भारत की 85 फीसदी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है।  एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है , दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूषित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। यह संसद में बताया गया है कि करीब 6.6 करोड़ लोग अत्यधिक फ्लोराइड वाले पानी के घातक नतीजों से जूझ रहे हैं, इन्हें दांत खराब होने , हाथ पैरे टेड़े होने जैसे रोग झेलने पड़ रहे हैं।  जबकि करीब एक करोड़ लोग अत्यधिक आर्सेनिक वाले पानी के शिकार हैं। कई जगहों पर पानी में लोहे (आयरन) की ज्यादा मात्रा भी बड़ी परेशानी का सबब है।

नेशनल सैंपल सर्वे आफिस(एनएसएसओ) की 76वीं रिपोर्ट बताती है कि देश  में 82 करोड़ लोगों को उनकी जरूरत के मुताबिक पानी  मिल नहीं पा रहा है। देश  के महज 21.4 फीसदी लोगों को ही घर तक सुरक्षित जल उपलब्ध है।  सबसे दुखद है कि नदी-तालाब जैसे भूतल जल का 70 प्रतिशत बुरी तरह प्रदूशित है।  यह सरकार स्वीकार रही है कि 78 फीसदी ग्रामीण और 59 प्रतिषत शहरी घरों तक स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं हैं। यह भी विडंबना है कि अब तक हर एक को पानी पहुंचाने की परियोजनाओं पर 89,956 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने के बावजूद, सरकार परियोजना के लाभों को प्राप्त करने में विफल रही है। आज लगभग 19,000 गाँव ऐसे भी हैं जहां साफ पीने के पानी का कोई नियमित साधन नहीं है।

पूरी दुनिया में, खासकर विकासशील देशों जलजनित रोग एक बड़ी चुनौती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और यूनिसेफ का अनुमान है कि अकेले भारत में हर रोज 3000 से अधिक लोग दूषित पानी से उपजने वाली बीमारियों का शिकार हो कर जान गंवा रहे हैं।  गंदा पानी पीने से दस्त और आंत्रशोथ, पेट में दर्द और ऐंठन, टाइफाइड, हैज़ा, हेपेटाइटिस जैसे रोग अनजाने में षरीर में घर बना लेते हैं।

यह भयावह आंकड़े सरकार के ही हैं कि भारत में करीब 1.4 लाख बच्चे हर साल गंदे पानी से उपजी बीमारियों के चलते मर जाते हैं। देश के 639 में से 158 जिलों के कई हिस्सों में भूजल खारा हो चुका है और उनमें प्रदूषण का स्तर सरकारी सुरक्षा मानकों को पार कर गया है। हमारे देश में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले तकरीब 6.3 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी तक मयस्सर नहीं है। इसके कारण हैजा, मलेरिया, डेंगू, ट्रेकोमा जैसी बीमारियों के साथ-साथ कुपोषण के मामले भी बढ़ रहे हैं।

पर्यावरण मंत्रालय और केंद्रीय एजेंसी ’एकीकृत प्रबंधन सूचना प्रणाली’ (आईएमआईएस) द्वारा सन 2018 में पानी की गुणवत्ता पर करवाए गए सर्वे के मुताबिक राजस्थान में सबसे ज्यादा 19,657 बस्तियां और यहां रहने वाले 77.70 लाख लोग दूषित जल पीने से प्रभावित हैं। आईएमआईएस के मुताबिक पूरे देश में 70,736 बस्तियां फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौह तत्व और नाइट्रेट सहित अन्य लवण एवं भारी धातुओं के मिश्रण वाले दूषित जल से प्रभावित हैं। इस पानी की उपलब्धता के दायरे में 47.41 करोड़ आबादी आ गई है।

देश के पेय जल से जहर के प्रभाव को शुन्य करने के लिए जरूरी है कि पानी के लिए भूजल पर निर्भरता कम हो और नदी-तालाब आदि सतही जल में गंदगी  मिलने से रोका जाए। भूजल के अंधाधुंध इस्तेमाल को रोकने के लिए कानून बनाए गए हैं, लेकिन भूजल को दूषित करने वालों पर अंकुश के कानून किताबों से बाहर नहीं आ पाए हैं । नदी- तालाब को जहरीला बनाने में तो किसी ने भी कसर छोड़ी नहीं।  यह साधारण सी समझ है कि नदी-तालाब के जल को शुद्धध करने के लिए चल रही    परियोजनाओं पर हो रहे  खर्च से आधे में इन जल-निधियों को  अशुद्ध होने से रोका जा सकता है ।  कैसी विडंबन है कि समाज को 20 रुपये का एक लीटर पानी पीना मंजूर है लेकिन पुश्तों से सेवा कर रहे पारंपरिक जल- संसाधनों को सहेजने में लापरवाही । यह अंदेशा सभी को है कि आने वाले दशकों में पानी को ले कर सरकार और समाज को बेहद मशक्कत करनी होगी ।

 

बुधवार, 29 मई 2024

Still coal mining from rat-hole mines has not stopped

 

फिर भी नहीं बंद  हुआ चूहा- बिल खदानों से कोयला खनन

पंकज चतुर्वेदी

26 मई को असम के तिनसुकिया जिले की पाटकाई पहाड़ियों पर अवैध रूप से संचालित  “रेट होल माइंस ”  में दाब कर तीन लोग मारे  गए ।  विदित हो पास ही में मेघालय के पूर्वी  जयंतिया  जिले में  कोयला उत्खनन की  26 हजार से अधिक “रेट होल माइंस” अर्थात चूहे के बिल जैसी  खदाने बंद करने के लिए  राष्ट्रीय हरित  प्राधिकरण द्वरा दिए गए आदेश को दस साल हो गए लेकिन  आज तक एक भी खदान बंद नहीं हुई। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी इन खतरनाक खदानों को बंद करने लेकिन पहले से निकाल लिए गए कोयले के परिवहन के आदेश दिए थे । इस काम की निगरानी के लिए मेघालय हाई कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस बी के काटके समिति ने अपनी 22 वीं अंतरिम रिपोर्ट में बताया है कि किस तरह ये खदानें अभी भी मेघों का देश कहे जाने वाले प्रदेश के परिवेश में जहर घोल रही है ।  उल्लेखनीय है कि कभी दुनिया में सबसे अधिक बरसात के लिए मशहूर  मेघालय में अब प्यास ने डेरा जमा लिया है। यहाँ की नदियां  जहरीली हो रही है, धरती पर स्थाई पर्यावरणीय संकट है और सांस में कार्बन घुल रहा है । यह सब हो रहा है इन खतरनाक खदानों से कोयले के अवैध, निर्बाध खनन के कारण। जब इन खदानों में फंस कर लोग मरते हैं तो हाल होता है और प्रशासन- पुलिस कागज भरती है- वायदे होते हैं , उसके बाद  कोयले की दलाली में सभी श्याम हो जाते हैं । गुवाहाटी  की होटलों में  सौदे होते हैं और  बाकायदा कागज बना आकर  दिल्ली के आसपास के ईंट भट्टों तक कोयले का परिवहन हो जाता है ।

हाई कोर्ट की कमेटी बताती है कि अभी भी अकेले पूर्वी जयंतिया जिले के  चूहा-बिल खदानों के बाहर 14 लाख मेट्रिक टन कोयला पड़ा हुआ है जिसको यहा से हटाया जाना है । दस साल बाद भी इन खड़ाओं को कैसे बंद किया जाए , इसकी “विस्तृत कार्यान्वयन  रिपोर्ट” अर्थात  डी पी आर प्रमाभिक  चरण में केन्द्रीय खनन  योजना और  डिजाइन  संस्थान लिमिटेड (सी एम पी डी आई) के पास लंबित है । जाहीर है कि न तो इसको ले कर कोई गंभीर है और न ही ऐसा करने की इच्छा शक्ति । एक बात और, 26 हजार की संख्या तो केवल एक जिले की है , ऐसी ही खदानों का विस्तार वेस्ट खासी हिल्स , साउथ वेस्ट खासी हिल्स और साउथ गारो हिल्स जिलों में भी है । इनकी कुल  संख्या साथ हजार से अधिक होगी ।

जस्टिस काटके की रिपोर्ट में कहा गया है कि “मेघालय पर्यावरण संरक्षण और पुनर्स्थापन निधि (एम ई पी आर एफ ) में 400 करोड़ रुपये की राशि बगैर इस्तेमाल की पड़ी है  और इन खदानों के कारण हुए प्रकृति को नुकसान की भरपाई का कोई कदम उठाया नहीं गया ।

मेघालय में प्रत्येक एक वर्ग किलोमीटर में 52 रेट होल खदाने हैं। अकेले जयंतिया हिल्स पर इनकी संख्या 26 हजार से अधिक है। असल में ये खदानें दो तरह की होती हैं।  पहली किस्म की खदान बामुश्किल तीन से चार फीट की होती  है।  इनमें श्रमिक रेंग कर घुसते हैं।  साईड कटिंग  के जरिए मजूदर को भीतर भेजा जाता है और वे  तब तक भीतर जाते हैं जब तक उन्हें कोयले की परत नहीं मिल जाती। सनद रहे मेघालय में कोयले की परत बहुत पतली  हैं, कहीं-कहीं तो महज दो मीटर मोटी। इसमें अधिकांश  बच्चे ही घुसते हैं। दूसरे किस्म की खदान में आयताकार आकार में 10 से 100 वर्गमीटर आमाप में जमीन को काटा जाता है और फिर उसमें 400 फीट गहराई तक मजदूर जाते हैं।  यहां मिलने वाले कोयले में गंधक की मात्रा ज्यादा है और इसे दोयम दजे।ं का कोयला कहा जाता है। तभी यहां कोई बड़ी कंपनियां खनन नहीं करतीं। ऐसी खदानों के मालिक राजनीति में  लगभग सभी दलों के लोग हैं और इनके श्रमिक बांग्लादेश, नेपाल  या असम से आए अवैध घुसपैठिये होते हैं।
एनजीटी द्वारा रोक लगाने के बाद मेघालय की पिछली  सरकार ने स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय आदिवासियों के अधिकार के कानून के तहत  इस तरह के खनन को वैध रूप देने का प्रयास किया था लेकिन केायला खदान(राष्ट्रीयकरण) अधिनियम 1973 की धारा 3 के तहत  कोयला खनन के अधिकार, स्वामित्व आदि हित केंद्र सरकार के पास सुरक्षित हैं सो राज्य सरकार इस अवैध खनन को वैध का अमली जामा नहीं पहना पाया। लेकिन गैरकानूनी खनन , भंडारण  और पूरे देश में इसका परिवहन चलता रहता है । आये रोज लोग मारे जाते हैं , कुछ जब्ती और गिरफ्तारियां होती हैं और फिर खेल जारी रहता हैं |

रेट होल खनन न केवल अमानवीय है बल्कि इसके चलते यहां से बहने वाली कोपिली नदी का अस्तित्व ही मिट सा गया है। एनजीटी ने अपने पाबंदी के आदेश में साफ कहा था कि खनन इलाकों के आसपास सड़कों पर कोयले का ढेर जमा करने से वायु, जल और मिट्टी  के पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। भले ही कुछ लोग इस तरह की खदानों पर पाबंदी से आदिवासी अस्मिता का मसला जोड़ते हों, लेकिन हकीकत  तो सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत नागरिक समूह की रिपेार्ट में बताया गया था कि अवैध खनन में प्रशासन, पुलिस और बाहर के राज्यों के धनपति नेताओं की हिस्सेदारी है और स्थानीय आदिवासी तो केवल शेाषित श्रमिक ही है।


सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि कोयले की कालिख राज्य की जल निधियों की दुश्मन बन गई है। लुका नदी पहाड़ियों से निकलने वाली कई छोटी सरिताओं से मिल कर बनी है,इसमें लुनार नदी मिलने के बाद इसका प्रवाह तेज होता है। इसके पानी में गंधक की उच्च मात्रा, सल्फेट, लोहा व कई अन्य जहरीली धातुओं की उच्च मात्रा, पानी में आक्सीजन की कमी पाई गई है।

एक और खतरा है कि जयंतिया पहाड़ियों  के गैरकानूनी खनन से कटाव बढ़ रहा है , नीचे दलदल के बढ़ने से मछलियां कम आ रही हैं।  ऊपर से जब खनन का मलवा इसमें मिलता है तो जहर और गहरा हो जाता हें । मेघालय ने गत दो दशकों में कई नदियों को नीला होते, फिर उसके जलचर मरते और आखिर में जलहीन होते देखा है। विडंबना है कि यहां प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से ले कर एनजीटी तक सभी विफल हैं।

दुर्भाग्य है कि अदालत की फटकार है , पर्याप्त धन है लेकिन इन खदानों से टपकने वाले तेजाब से प्रभावित हो रहे जनमानस को कोई राहत नहीं हैं । यह हरियाली चाट गया , जमीन बंजर कर दी , भूजल  इस्तेमाल लायक नहीं रहा और बरसात में यह पानी बह कर जब पहाड़ी नदियों में जाता है तो वहाँ भी तबाही है । नदी में मछलिया लुप्त हैं।

मेघालय पुलिस यदा कदा  अवैध कोयला परिवहन के मुकदमे दर्ज करती है लेकिन ये कागजी औपचारिकता से अधिक नहीं, आज भी जेन्टिय हिल्स में असम  से आए रोहांगीय  श्रमिकों की बस्तियां हैं जो सस्ते श्रम को स्वीकार कर अपनी जान पर दांव लगा इन अवैध खदानों से हर रोज कोयला निकालते हैं । 

अभी तो मेघालय से बादलों की कृपा भी कम हो गई है, चैरापूंजी अब सर्वाधिक बारिश  वाला  गांव रह नहीं गया है।  यदि कालिख की लोभ में नदियां भी खो दीं तो दुनिया के इस अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य वाली धरती पर मानव जीवन भी संकट में  होगा।

 

 

Trees uprooting from fields – threat to human existence

 

                खेतों से उजड़ते पेड़ – मानवीय अस्तित्व पर खतरा

                                        पंकज चतुर्वेदी



न तो अब खेतों में कोयल की कूक सुनाई देती है और न ही  सावन के झूले पड़ते हैं । यदि  फसल को किसी आपदा का ग्रहण लग जाए  अतितरिक्त आय का जरिया होने वाले फल भी गायब हैं । अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका “ नेचर  सस्टैनबिलिटी “ में 15 मई 2024 को प्रकाशित आलेख बताता है कि भारत में खेतों में पेड़ लगाने की परंपरा अब  समाप्त हो रही है । कृषि-वानिकी का मेलजोल कभी भारत के किसानों की ताकत था । देश के कई पर्व-त्योहार, लोकाचार , गीत -  संगीत खेतों में खड़े पेड़ों के इर्द गिर्द रहे हैं । मार्टिन ब्रांट, दिमित्री गोमिंस्की,  फ्लोरियन रेनर,  अंकित करिरिया,  वेंकन्ना बाबू गुथुला, फ़िलिप सियाइस , ज़ियाओये टोंग , वेनमिन झांग  , धनपाल गोविंदराजुलु, डैनियल ऑर्टिज़-गोंज़ालो और  रासमस फेंशोल्ट  के बड़े दल ने भारत के विभिन्न हिस्सों में आंचलिक क्षेत्रों में जा कर शोध कर पाया कि  अब खेत किनारे छाया मिलना  मुश्किल है । इसके कई विषम परिणाम  खेत झेल रहा है । जब देश में बढ़ता तापमान व्यापक समस्या के रूप में सामने खड़ा है और सभी जानते हैं कि धरती पर अधिक से अधिक हरियाली की छतरी ही इससे बचाव का जरिया है । ऐसे में इस शोध का यह  परिणाम  गंभीर चेतावनी है कि बीते पांच वर्षों में हमारे खेतों से 53 लाख फलदार व छायादार पेड़ गायब हो गए हैं।इनमें नीम, जामुन, महुआ और कटहल जैसे पेड़ प्रमुख हैं।  



इन शोधकर्ताओं ने भारत के खेतों में मौजूद 60 करोड़ पेड़ों का नक्शा तैयार  किया और फिर लगातार दस साल उनकी निगरानी की । कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अध्ययन के अनुसार, देश में प्रति हेक्टेयर पेड़ों की औसत संख्या 0.6 दर्ज की गई। इनका सबसे ज्यादा घनत्व उत्तर-पश्चिमी भारत में राजस्थान और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में छत्तीसगढ़ में दर्ज किया गया है। यहां पेड़ों की मौजूदगी प्रति हेक्टेयर 22 तक दर्ज की गई।  रिपोर्ट से ससमने आया कि खेतों में सबसे अधिक पेड़ उजाड़ना में  तेलंगाना और महाराष्ट्र अव्वल रहे हैं ।  जिन पेड़ों को 2010-11 में दर्ज किया गया था उनमें से  करीब 11 फीसदी बड़े छायादार पेड़ 2018 तक गायब हो चुके थे। बहुत जगहों पर तो खेतों में मौजूद आधे  पेड़ गायब हो चुके हैं। अध्ययन से यह भी पता चला है कि 2018 से 2022 के बीच करीब 53 लाख पेड़ खेतों से अदृश्य थे। यानी इस दौरान हर किमी क्षेत्र से औसतन 2.7 पेड़ नदारद मिले। वहीं कुछ क्षेत्रों में तो हर किमी क्षेत्र से 50 तक पेड़ गायब हो चुके हैं।  



यह विचार करना होगा कि आखिर किसान ने अपने खेतों से पेड़ों को उजड़ा क्यों ? यह किसान भलीभाँति जानता है कि खेत कि मेढ पर छायादार पेड़ होने का अर्थ है पानी संचयन , पत्ते और पेड़ पर बिराजने वाले पंछियों की बीट से निशुल्क कीमती खाद,मिट्टी के मजबूत पकड़  और सबसे बड़ी बात- खेत में हर समय किसी बड़े बूढ़े के बने रहने का एहसास । इन पेड़ों पर पक्षियों का बसेरा भी रहता था। जो फसलों में लगने वाले कीट-पतंगों से रक्षा करते थे। फसलों को नुकसान करने वाले कीटाणु सबसे पहले मेड़ के पेड़ पर ही बैठते हैं। उन पेड़ों पर दवाओं को छिड़काव कर दिया जाए तो फसलों पर छिड़काव करने से बचत हो सकती है। जलावन , फल- फूल से अतिरिक्त आय तो है ही ।


इसके बावजूद नीम, महुआ, जामुन, कटहल, खेजड़ी (शमी), बबूल, शीशम, करोई, नारियल आदि जैसे बहुउद्देशीय पेड़ों का काटा जाना, जिनका मुकुट 67 वर्ग मीटर या उससे अधिक था ,किसान की किसी बड़ी मजबूरी की तरफ इशारा करता हैं । एक बात समझना होगा कि हमारे यहाँ तेजी से खेती का रकबा काम होता जा रहा है । एक तो घरों में ही खेती की जमीन का बंटवारा हुआ , फिर लोगों ने समय समय पर व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए खेतों को बेचा । आज से पचास साल पहले 1970-71 तक देश के कूल किसानों में से  आधे किसान सीमांत थे । 


सीमांत यानि जिनके पास  एक हेक्टेयर या उससे काम जमीन हो ।
2015-16 आते-आते सीमांत किसान बढ़कर 68 प्रतिशत हो गए हैं। अनुमान यही आज इनकी संख्या 75 फीसदी है ।  सरकारी आंकड़ा कहता है कि सीमांत किसानों की औसत खेती 0.4 हेक्टेयर से घटकर 0.38 हेक्टेयर रह गई है । ऐसा ही छोटे, अर्ध मध्यम और मझोले किसान के साथ हुआ । कम जोत का सीधा असर किसानों की आय पर पड़ा है।  अब वह जमीन के छोटे से टुकड़े पर अधिक  कमाई चाहता है तो उसने पहले खेत की चौड़ी मेंढ़ को ही तोड़ डाला। इसके चलते वहाँ लगे पेड़ कटे । उसे लगा कि  पेड़ के कारण हाल चलाने लायक भूमि और सिकुड़  रही है तो  उसने  पेड़ पर कुल्हाड़ी चला दी ।  इस लकड़ी से उसे तात्कालिक कुछ पैसा भी मिल गया ।  इस तरह घटती जाट का सीधा सर खेत में खड़े पेड़ों पर पड़ा । सरकार खेतों में पेड़ लगाने की योजना , सब्सिडी के पोस्टर  छापती रही और  किसान अपने काम होते रकबे को थोड़ा स बढ़ाने की फिराक में धरती के श्रंगार पेड़ों को उजाड़ता रहा । देश में बड़े स्तर पर धान बोने के चस्के ने भी बड़े पेड़ों को नुकसान पहुंचाया । साथ ही खेतों में  मशीनों के इस्तेमाल बढ़ने ने भी पेड़ों की बली ली। काई बार भारी भरकम मशीनें  खेत की पतली पगडंडी से लाने में पेड़ आड़े आते थे तो तात्कालिक लाभ के लिए उन्हें काट दिया गया ।

खेत तो काम होंगे ही लेकिन पेड़ों का कम होना  मानवीय अस्तित्व पर बड़े संकट का आमंत्रण  हैं । आज समय की मांग है कि खेतों के आसपास सामुदायिक वानिकी को विकसित किया जाए , जिससे जमीन की उर्वरा, धरती की कोख का पानी और हरियाली का सारा बना रहे ।

 

शुक्रवार, 24 मई 2024

How will Srinagar survive without Dal Lake?

 

बगैर डल झील के कैसे जिएगा श्रीनगर ?

पंकज चतुर्वेदी



 

अभी 08 मई को राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एन.जी.टी.) ने कश्मीर में डल झील की ‘बिगड़ती स्थिति' पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और जम्मू-कश्मीर प्रदूषण नियंत्रण समिति सहित कई प्राधिकारों से जवाब मांगा है। एन.जी.टी. के अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव और विशेषज्ञ सदस्य ए. सेंथिल वेल की पीठ ने कहा कि एक समय लोग इस झील का पानी पीते थे, लेकिन आज इसका उपयोग मुंह धोने के लिए भी नहीं किया जा सकता है। यह बात इसरो द्वारा खींची गई सेटेलाईट चित्रों के सहयोग से  अमेरिका की संस्था “अर्थ ऑबजरवेटरी इमेज “ भी कह चुकी है कि सन  1980 से 2018 के बीच धरती का स्वर्ग कहलाने वाले श्रीनगर ‘अस्तित्व’ कहे जाने वाल डल झील का आकार  25 फीसदी घट गया ।  अदालती दाखल, सरकारी कोशिशों और स्थानीय दवाब के बावजूद तिल-तिल कर मर रही है हताश सी जल निधि मजबूर है मौन रह कर अतिक्रमण सहने और घरेलू गंदगी को खपाने का सहूलियतमंद स्थान मान लेने की त्रासदी को सहने के लिए। यह झील इंसानों के साथ-साथ लाखों-लाख जलचरों, परिंदों का घरोंदा हुआ करती थी, झील से हजारों हाथों को काम व लाखों पेट को रोटी मिलती थी, अपने जीवन की थकान, हताषा और एकाकीपन को दूर करने देश-दुनिया के लाखों लोग इसके दीदार को आते थे। अब यह बदबूदार नाबदान और शहर के लिए मौत के जीवाणु पैदा करने का जरिया बन गई है। अभी पिछले महीने ही  जम्मू –कश्मीर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका के दवाब में सरकार ने  एक हजार पन्ने का के दस्तावेज में एक योजना पेश की ।  बीते अनुभव बताते हैं कि  अदालत में पेश योजना जब  महकमों के पास साकार करने आती है तो  कागजों के अलावा काही सुधार होता नहीं । एक मोटा अनुमान है कि अभी तक इस झील को बचाने के नाम पर कोई एक हजार करोड़ रूपए खर्च किए जा चुके हैं। होता यह है कि इसको बचाने की अधिकांश योजनांए उपरी कॉस्मेटिक या सैंदर्य की होती हैं- जैसे एलईडी लाईट लगाना, रैलिंग लगाना, फुटपाथ को नया बनाना आदि, लेकिन इन सबसे इस अनूठी जल-निधि के नैसर्गिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने की दिशा में कोई लाभ नहीं होता, उल्टे इस तरह के निर्माण कार्य का मलवा-अवशेष झील को गंदला जरूर करता है।

सन 1980 में  कश्मीर के शहरी पर्यावरण अभियांत्रिकी विभाग ने झील में बसे  झोंपड़ – झुग्गी और  संकरी बस्तियों का सर्वे करवाया था, तब 58 बस्तियों में पचास हजार की आबादी दर्ज की गई थी, आज यह संख्या एक लाख के पार हो जाना , सरकारी अनुमान में दर्ज है । यह विडंबना है कि डल महज एक पानी का सोता नहीं बल्कि स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा है; इसे बावजूद स्थानीय लोग इसके प्रति बेहद उदासीन है। श्रीनगर नगर निगम के अफसरान तो साफ कहते हैं कि शहर की अधिकांश आबादी ‘प्रापर्टी टैक्स’ तक नहीं चुकाती है। ये ही लोग साफ-सफाई, प्रकाश  आदि के लिए सरकार को कोसते हैं। डल के प्रति सरकार व समाज का ऐसा साझा रवैया इसका दुश्मन है।

पहले कई बार अदालती आदेशों पर अतिक्रमण हटाने, हाउस बोट को दूसरी जगह ले जाने  आदि के आदेश आए  लेकिन सियासती दवाब में उन पर क्रियान्वयन हुआ नहीं, यह बात भी सच है कि जब तक स्थानीय लोगों की भागीदारी  और सहमति नहीं होगी, डल को  दर्द का दरिया बनने से रोक जा नहीं सकता ।   डल का सबसे बाद दुश्मन एक तो इस पर हो रहा तेजी से अतिक्रमण और  रिहाईश है । फिर आसपास की बस्तियों और  शिकारों से निकालने वाले माल-मूत्र और निस्तार का सीधे इसमें मिलना इसकी जल-गुणवत्ता को जहर बना रहा है । सबसे बड़ी समस्या है , स्थानीय और पर्यटकों  के इस्तेमाल से निकले ठोस कूड़े का सही तरीके से निशापदन न कर उसे चोरी- चुपके झील में गिरा देना ।

डल झील तीन तरफ से पहाड़ों से घिरी है। इसमें चार जलाशयों का जल आ कर मिलता है - गगरी बल, लोकुट डी, बोड डल और नागिन। होता यह है कि डल  के सुधार को थोड़ा बहुत असर होता है तो ये चारों ही झीलें  बेहद प्रदूषित है और इनकी गंदगी डल का रोग दुगना कर देती हैं।

आज डल के बड़े हिस्से में वनस्पतिकरण हो गया है । इससे सूर्य की किरने जल में गहराई तक जाती नहीं और इससे पानी में ऑक्सीजन की कमी  होती है और जल से बदबू आती है । कहने को वनस्पियां डल की खूबसूरती को चार चांद लगाती है। कमल के फूल, पानी में बहती कुमुदनी झील का नयनाभिराम दृष्य प्रस्तुत करती हैं, लेकिन इस जल निधि में अधिक कमाई के लोभ में होने लगी निरंकुश खेती ने इसके पानी में रासायनिक खादों व कीटनायाकों की मात्रा जहर की हद तक बढ़ा दी है। इस झील का ्रपमुख आकर्शण यहां के तैरते हुए बगीचे हैं।  यहीं मुगलों द्वारा बनवाए गए  सुदर पुश्प वाटिका की सुंदरता देखते ही बनती है। 

समुद्र तल से 1500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित डल एक प्राकृतिक झील है और कोई पचास हजार साल पुरानी है। यह जल-निधि पहाड़ों के बीच इस तरह से विकसित हुई थी कि बरफ के गलने या बारिश के पानी की एक-एक बूंद इसमें संचित होती थी। इसका जल ग्रहण क्षेत्र और अधिक पानी की निकासी का मार्ग बगीचों व घने जंगलों से आच्छादित हुआ करता था। सरकारी रिकार्ड गवाह है कि सन 1200 में इस झील का फैलाव 75 वर्ग किलोमीटर में था। सन 1847 यानी आजादी से ठीक 100 साल पहले इसका क्षेत्रफल 48 वर्गकिमी आंका गया। सन 1983 में हुए माप-जोख में यह महज 10.56 वर्गकिमी रह गई। अब इसमें जल का फैलाव बमुश्किल  आठ वर्गकिमी रह गया है। झील की गहराई गाद से पटी हुई है। पानी का रंग लाल-गंदला है और काई की परतें हैं। इसका पानी इंसान के इस्तेमाल के लिए खतरनाक घोषित किया जा चुका है। पानी का प्रदूषण  इस कदर बढ़ गया है कि इलाके के भूजल को भी विष  कर रहा है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि श्रीनगर की कुल आय का 16 प्रतिशत इसी झील से आता है और यहां के 46 फीसदी लोगों के घर का चूल्हा इसी झील के जरिए हुई कमाई से जलता है।

 बढ़ते वैश्विक तापमान से भी डल अछूती नहीं है । यदि डल का सिकुड़ना ऐसा ही जारी रहा तो इस झील का अस्तित्व बमुश्किल 350 साल बचा है। यह बात रूड़की यूनिवर्सिटी के वैकल्पिक जल-उर्जा केंद्र द्वारा डल झील के संरक्षण और प्रबंधन के लिए तैयार एक विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट में कही गई है। डल झील के लिए सबसे बड़ा खतरा उसके जल-क्षेत्र को निगल रही आबादी से है। 

रूडकी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि झील में हर साल 61 लाख टन गंदगी गिर रही है जो सालाना 2.7 मिमी मोटी परत के तौर पर जम रही है। इसी गति से कचरा जमा होने पर यहां जल्दी ही सपाट मैदान होगा। रेडियो मैट्रीक डेटिंग तकनीक से तैयार रपट चेताती है कि हालात ना सुधरे तो आने वाले साढ़े तीन सौ सालों में डल का नामोनिशान मिट जाएगा।

16वीं सदी तक इस झील की देखभाल खुद प्रकृति करती थी। 18 और 19वीं सदी में मुगल बादशाहों की यहां आमद-दरफ्त बढ़ी और श्रीनगर एक शहर और पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने लगा। इसी के साथ झील पर संकट की घटाएं छाने लगीं। सन 1976 में सरकार ने पहली बार झील के बिगड़ते मिजाज पर विचार किया और झील व उसके आसपास झील व उसके आसपास किसी भी तरह के निर्माण पर रोक का सरकारी आदेश सन 1978 में ही जारी किया।, लेकिन बीते 45 सालों में इस पर अमल होता कभी भी कहीं नहीं दिखा है।

श्रीनगर शहर के पास न तो क्षमताओं के अनुरूप सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट है न ही शहर के बड़े होटल इस बारे में  कोई कदम उठाते हैं। इसका खामियाजा वहीं के लोग भुगत रहे हैं।  झील के करीबी बस्तियों में षायद ही ऐसा कोई घर हो जहां गेस्ट्रोइंटाटीस, पेचिस, पीलिया जैसे रोगों से पीड़ित ना हों।

मंगलवार, 21 मई 2024

Life becomes difficult in cities becoming hot islands

                      तपते द्वीप बनते शहरों में जीना हुआ दूभर

पंकज चतुर्वेदी




दिल्ली से देहरादून की  हवाई दूरी बमुश्किल 200 किलोमीटर हा और वहाँ का तापमान लगातार 41 से पार । फिर दिल्ली को तो 45 से आगे जाना ही है । जब देश-दुनिया गर्मी में तपते थे तो हिमाचल प्रदेश में लोग सुकून की तलाश में आते थे । इस साल इस हिमाच्छादित राज्य के नो जिलों में तापमान 42 डिग्री से पार है और सरकार ने वहाँ लू की चेतावनी दे दी है । 20 मई ,रविवार को ऊना का अधिकतम तापमान 44.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। इसके अलावा हमीरपुर के नेरी का तापमान 44.1 डिग्री सेल्सियस था ।  प्रदेश के मैदानी इलाकों में पिछले चार दिनों से तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रिकार्ड हो रहा है। गौर से देखें तो ये तपते शहर वे हैं जहां तेजी से शहरीकरण हुआ । 


जब हिमाचल के यह हाल है तो  
फिर पंजाब-हरियाणा  तो तापमान 45 के पार होना कोई बड़ी बात नहीं है । ध्यान से देखे तो पता चलेगा कि जिन स्थानों पर अस्वाभाविक रूप से  तापमान बढ़, वहाँ कंक्रीट एक जंगल रोपने में समाज अव्वल रहा है । जान लें बढ़ती आबादी वाले शहरों में तापमान का बढ़ना केवल  शारीरिक स्वास्थ्य का विकार ही नहीं है, बल्कि कई और दिक्कतें साथ ले कर आता है । दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद  के सरकारी अस्पताल में बीते एक पखवाड़े के दौरान चिढ़चिढ़ा पान, दिमाग घूमने के मरीज जाम कर या रहे है, यही नहीं सड़कों पर झगड़े बढ़ रहे हैं । काम करने में दिक्कतों के चलते एक तरफ कमाई काम हो रही है तो बिजली और पानी का खर्चा बढ़ने से  आमदनी  के साथ साथ बचत पर भी  सेंध लग रही है ।



भारत के बड़ेर हिस्से में सदियों से गर्मी पड़ती रही है लेकिन एक तो अब इसका अदायरा बढ़ रहा है, दूसरा इसके दिन भी दुगने हो रहे हैं । प्रचंड गर्मी ने देश में पिछले 50 साल में 17,000 से ज्‍यादा लोगों की जान ली है। 1971 से 2019 के बीच लू चलने की 706 घटनाएं हुई हैं।लेकिन गत पांच सालों में चरम तापमान और  लू की घटनाएँ न केवल समय के पहले हो रही हैं , बल्कि  लम्बे समय तक इनकी मार रहती है, खासकर शहरीकरण ने इस मौसमी आग में ईंधन का काम किया है, शहर अब जितने दिन में तपते हैं, रात उससे भी अधिक गरम हवा वाली होती है ।  जान लें आबादी से उफनते महानगरों में बढ़ता तापमान अकेले संकट नहीं होता , उसके साथ  बढती बिजली और पानी की मांग , दूषित होता पर्यावरण भी नया संकट खड़ा करता है ।



अमरीका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के शीर्ष वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक बढ़ती आबादी और गर्मी के कारण देश के चार बड़े शहर नई दिल्लीकोलकातामुम्बई और चेन्नई सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। पूरी दुनिया में बांग्लादेश की राजधानी ढाका इस मामले में पहले पायदान पर है। कोलकाता में बढ़ते जोखिम के पीछे 52 फीसदी गर्मी तथा 48 फीसदी आबादी जिम्मेदार है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बाहरी भीड़ को नही रोका गया तो तापमान तेजी से बढ़ेगा यह स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह साबित होगा।

शहरों में बढ़ते तापमान के  कई कारण है – सबसे बड़ा तो शहरों के विस्तार में हरियाली का होम होना ।  भले ही दिल्ली जैसे शहर दावा करें कि उनके यहाँ हरियाली की छतरी का विस्तार हुआ है लेकिन हकीकत यह है कि इस महानगर में लगने वाले अधिकाँश पेड़ पारम्परिक ऊँचे वृक्ष की जगह, जल्दी उगने वाले झाड हैं, जो धरती के बढ़ते तापमान की विभीषिका से निबटने में अक्षम हैं ।  “शहरी ऊष्मा द्वीप” शहरों की कई विशेषताओं के कारण बनते हैं। बड़े वृक्षों के कारण वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन होता है जो कि धरती के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करता है । वाष्पीकरण अर्थात मिट्टीजल संसाधनों आदि से हवा में पानी का प्रवाह। वाष्पोत्सर्जन  अर्थात पौधों की जड़ों के रास्ते  रंध्र कहलाने वाले पत्तियों में छोटे छिद्रों के माध्यम से हवा में पानी की आवाजाही। सड़कों के बीच डिवाईडर पर रोपे गए बोगेनवेलिया या ऐसे ही पौधे धरती के शीतलीकरण की नैसर्गिक प्रक्रिया में कोई भूमिका निभाते नहीं हैं ।



महानगरों की गगनचुम्बी इमारतें भी इसे गरमा रही हैं ।  ये भवन सूर्य की तपन  से गर्मी को प्रतिबिंबित और अवशोषित करते हैं। इसके अलावाएक-दूसरे के करीब कई ऊंची इमारतें भी हवा के प्रवाह में बाधा बनती हैंइससे शीतलन अवरुद्ध होता हैं।  शहरों की सड़कें उसका तापमान बढ़ने में बड़ी कारक हैं ।  महानगर में सीमेंट और कंक्रीट के बढ़ते जंगलडामर की सड़कें और ऊंचे ऊंचे मकान बड़ी मात्रा में सूर्य की किरणों को सोख रहे हैं। इस कारण शहर में गर्मी बढ़ रही है।



वैज्ञानिकों के मुताबिक तापमान में जितनी वृद्धि होगी बीमारियां उतना ही गुणा बढ़ेगी और लोग मौत के मुंह में समा जाएंगे। सडक डामर की हो या कंक्रीट की, यह गर्मी को अवशोषित करते हैं और फिर वायुमंडल का तापमान जैसे ही कम हुआ तो उसे उत्सर्जित कर देते हैं ।  शहर को सुंदर और समर्थ बनाने वाली कंक्रीट की ऊष्मा क्षमता बहुत अधिक होती है और यह ऊष्मा के भंडार के रूप में कार्य करती है। इसके अलावाशहरों के ऊपर वायुमंडलीय स्थितियों के कारण अक्सर शहरी हवा जमीन की सतह के पास फंस जाती हैजहां इसे गर्म शहरी सतहों से गर्म किया जाता है।  हालाँकि शहरों को भट्टी बनाने में इंसान भी पीछे नहीं हैं । वाहनों के चलने और इमारतों में लगे पंखेकंप्यूटररेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशनर जैसे बिजली के उपकरण भले ही इंसान को सुख देते हों लेकिन  ये शहरी अप्रिवेश का तापमान बढ़ने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं ।  फिर कारखाने , निर्माण कार्य और बहुत कुछ है जो शहर को उबाल रहा है ।

यदि इन शहरों से कोई 50 किलोमीटर दूर किसी कसबे या या गाँव में जाएँ तो गर्मी का तीखापन इतना नहीं लगता , गर्मी अपने साथ बहुत सी बीमारियाँ ले कर आ रही है , गर्मी के कारण शहर के नालों के पानी का तापमान बढ़ता है और यह जल जब नदी में मिलता है तो उसका तापमान भी बढ़ जाता है, जिससे नदी का जैविक जीवन, जिसमें वनस्पति और जीव दोनों हैं , को खतरा है । जान लें किसी भी नदी  की पावनता में उसमें उपस्थित जैविक तत्वों की अहम् भूमिका होती है।  

शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का  आसान जरिया होते हैंयहां दूषित  पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है।  देश  के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करनाएक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। यह सब चुनौतियां बढे तापमान में और भी दूभर हो जाती हैं ।  

यदि शहर में गर्मी की मार से बचना है तो अधिक से अधिक  पारम्परिक पेड़ों का रोपना  जरुरी है, साथ ही शहर के बीच बहने वाली नदियाँ, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल और अविरल  रहेंगे  तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे , कार्यालयों के समय में बदलाव , सार्वजनिक  परिवहन को बढ़ावा, बहु मंजिला भवनों का ईको फ्रेंडली होना , उर्जा संचयन  सहित कुछ ऐसे उपाय हैं जो बहुत कम व्यय में शहर को भट्टी बनने  से बचा सकते हैं ।  हां – अंतिम उपाय तो शहरों की तरफ पलायन रोकना ही होगा ।  

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...