हजार दुश्वारियां हैं बस्तर में सीआरपीएफ के सामने
यह भी चिंता का विषय है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर में आनेवाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है, ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है..
बस्तर के सुकमा जिले में बीते एक महीने में 38 सीआरपीएफ जवानों के मारे
जाने से देश में रोष है। तीन लाख जवानों से अधिक इस सक्षम पुलिस बल के
लोगों की इस तरह जंगल में अपने ही देश के लोगों के हाथों से मारा जाना बेहद
क्षोभ का विषय है। हर बार की तरह राजनेता, आम लोग विरोध जता रहे हैं, बंदी
कर रहे हैं व पुतले जला रहे हैं, लोग उन्हें शहीद बता रहे हैं, लेकिन
हकीकत यह है कि देश विरोधी ताकतों से लड़ते हुए मां भारती को अपना सर्वोच्च
बलिदान देनेवाले केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के जवानों को
शहीद का दर्जा व सुविधाएं नहीं मिलती हैं। यही नहीं, हर साल दंगा,
नक्सलवाद, अलगाववादियों, बाढ़ और ऐसी ही विकट परिस्थितयों में संघर्ष करने
वाले इस बल के लोग मैदान में लड़ते हुए मरने से कहीं ज्यादा गंभीर बीमारियों
से मर जाते हैं। यह बानगी है कि जिन लेागें पर हम मरने के बाद नारे लुटाने
का काम करते हैं, उनकी नौकरी की शर्तें किस तरह असहनीय और जोखिमभरी हैं।
संसद के अभी समाप्त हुए सत्र में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने बताया था कि पिछले साल सीआरपीएफ के 92 जवान नौकरी करते हुए हार्टअटैक से मर गए, वहीं डेंगू या मलेरिया से मरने वालों की संख्या पांच थी। 26 जवान अवसाद या आत्महत्या के चलते मारे गए तो 353 अन्य बीमारियों की चपेट में असामयिक कालगति को प्राप्त हुए। वर्ष 2015 में दिल के दौरे से 82, मलेरिया से 13 और अवसाद से 26 जवान मारे गए। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जनवरी-2009 से दिसंबर-2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए सीआरपीएफ के कुल 323 जवान देश के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्महत्या करने वालों की संख्या 228 है। वहीं मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी सौ के पार है। अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिलाकर सीआरपीएफ दुश्मन से ही नहीं, खुद से भी जूझ रही है।
सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान न तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं, न ही उन्हें स्थानीय बोली-भाषा, संस्कार की जानकारी होती है और न ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया है। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशा-निर्देश पर ही काम करते हैं। हाल ही में बुरकापाल के पास हुए संहार को ही लें, यहां गत चार साल से सड़क बन रही है और महज सड़क बनाने के लिए सीआरपीएफ की दैनिक ड्यूटी लगाई जा रही थी। असल में केंद्रीय फोर्स का काम दुश्मन को नष्ट करने का होता है, नकि चौकसी करने का। दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से है बस्तर। हरियाली, झरने, पशु-पक्षी और इंसान भी सभी नैसर्गिक वातावरण में उन्मुक्त। भले ही अखबार की सुर्खिया डराएं कि बस्तर में बारूद की गंध आती है, लेकिन हकीकत तो यह है कि किसी भी बाहरी पर्यटक के लिए कभी भी कोई खतरा नहीं है। पूरी रात जगदलपुर से रायपुर तक आनेवाली सड़क वाहनों से आबाद रहती है। यहां टकराव है तो बंदूकों का। नक्सलवाद ने यहां गहरी जड़ें जमा ली हैं। तो जब स्थानीय पुलिस उनके सामने असहाय दिखी तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को यहां झोंक दिया गया। विडंबना है कि उनके लिए न तो माकूल भोजन-पानी है और न ही स्वास्थ्य सेवाएं, न ही सड़कें और न ही संचार। परिणाम सामने है कि बीते पांच सालों के दौरान यहां सीने पर गोली खाकर शहीद होनेवालों से कहीं बड़ी संख्या सीने की धड़कनें रुकने या मच्छरों के काटने से मरने वालों की है।यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व शोषण की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा नहीं करते हैं। अधिकतर मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगातार सर्चिग्ंा व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनाव भरा है। यहां दुश्मन अदृश्य है, हर दूसरे इंसान पर शक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश। इस पर भी हाथ बंधे हुए। लगातार इस तरह का दबाव कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है। सड़कों का न होना महज सुरक्षा के इरादे से ही जवानों को दिक्कत नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी निजी जिंदगी पर भी होता है। उनकी पसंद का भोजन, कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूषित है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गरमी शुरू होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का शिकार होते हैं।
यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से शोधित होकर नहीं आता है। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूंट के साथ डायरिया, पीलिया व टाइफाइड के जीवाणु पीता है। बेहद उमस, तेज गरमी यहां के मौसम की विशेषता है और इसमें उपजते हैं बड़े मच्छर, जोकि हर साल कई जवानों की असामयिक मौत का कारण बनते हैं। हालांकि, जवानों को कड़ा निर्देश है कि वे मच्छरदानी लगाकर सोएं, लेकिन रात की गरमी और घने जंगलों में चौकसी के चलते यह संभव नहीं हो पाता। यहां तक कि बस्तर का मलेरिया अब पारंपरिक कुनैन से ठीक नहीं होता है। घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देश की तरह मौसम बदलते हैं। उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाशिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। इसके बावजूद केंद्रीय बलों के जवानों के लिए स्वास्थ्य सेवा बेहद लचर है। जवान यहां-वहां जा नहीं सकते, जगदलपुर का मेडिकल कॉलेज बेहद अव्यवस्थित-सा है। मोबाइल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर का क्षेत्रफल केरल राज्य से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाइल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक न मिलने से टावर कमजोर रहते हैं।
बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसला होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों न उनका शिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ इयर फोन लगाकर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट में यह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असुरक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख न जान पाने का दर्द भी उनको भीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और न ही जवान के पास उसके लिए समय है। यह भी चिंता का विषय है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर मंे आनेवाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है, ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाश, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेशानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी, चिकत्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं, जो जवानों में अनुशासन व कार्य प्रतिबद्धता, दोनों को बनाए रख सकते हैं। यही नहीं, जबतक सीआरपीएफ के जवान को दुश्मन से लड़ते हुए मारे जाने पर सेना की तरह शहीद का दर्जा व सम्मान नहीं मिलता, उनका मनोबल बनाए रखना कठिन होगा।
संसद के अभी समाप्त हुए सत्र में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने बताया था कि पिछले साल सीआरपीएफ के 92 जवान नौकरी करते हुए हार्टअटैक से मर गए, वहीं डेंगू या मलेरिया से मरने वालों की संख्या पांच थी। 26 जवान अवसाद या आत्महत्या के चलते मारे गए तो 353 अन्य बीमारियों की चपेट में असामयिक कालगति को प्राप्त हुए। वर्ष 2015 में दिल के दौरे से 82, मलेरिया से 13 और अवसाद से 26 जवान मारे गए। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जनवरी-2009 से दिसंबर-2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए सीआरपीएफ के कुल 323 जवान देश के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्महत्या करने वालों की संख्या 228 है। वहीं मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी सौ के पार है। अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिलाकर सीआरपीएफ दुश्मन से ही नहीं, खुद से भी जूझ रही है।
सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान न तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं, न ही उन्हें स्थानीय बोली-भाषा, संस्कार की जानकारी होती है और न ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया है। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशा-निर्देश पर ही काम करते हैं। हाल ही में बुरकापाल के पास हुए संहार को ही लें, यहां गत चार साल से सड़क बन रही है और महज सड़क बनाने के लिए सीआरपीएफ की दैनिक ड्यूटी लगाई जा रही थी। असल में केंद्रीय फोर्स का काम दुश्मन को नष्ट करने का होता है, नकि चौकसी करने का। दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से है बस्तर। हरियाली, झरने, पशु-पक्षी और इंसान भी सभी नैसर्गिक वातावरण में उन्मुक्त। भले ही अखबार की सुर्खिया डराएं कि बस्तर में बारूद की गंध आती है, लेकिन हकीकत तो यह है कि किसी भी बाहरी पर्यटक के लिए कभी भी कोई खतरा नहीं है। पूरी रात जगदलपुर से रायपुर तक आनेवाली सड़क वाहनों से आबाद रहती है। यहां टकराव है तो बंदूकों का। नक्सलवाद ने यहां गहरी जड़ें जमा ली हैं। तो जब स्थानीय पुलिस उनके सामने असहाय दिखी तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को यहां झोंक दिया गया। विडंबना है कि उनके लिए न तो माकूल भोजन-पानी है और न ही स्वास्थ्य सेवाएं, न ही सड़कें और न ही संचार। परिणाम सामने है कि बीते पांच सालों के दौरान यहां सीने पर गोली खाकर शहीद होनेवालों से कहीं बड़ी संख्या सीने की धड़कनें रुकने या मच्छरों के काटने से मरने वालों की है।यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व शोषण की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा नहीं करते हैं। अधिकतर मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगातार सर्चिग्ंा व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनाव भरा है। यहां दुश्मन अदृश्य है, हर दूसरे इंसान पर शक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश। इस पर भी हाथ बंधे हुए। लगातार इस तरह का दबाव कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है। सड़कों का न होना महज सुरक्षा के इरादे से ही जवानों को दिक्कत नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी निजी जिंदगी पर भी होता है। उनकी पसंद का भोजन, कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूषित है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गरमी शुरू होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का शिकार होते हैं।
यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से शोधित होकर नहीं आता है। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूंट के साथ डायरिया, पीलिया व टाइफाइड के जीवाणु पीता है। बेहद उमस, तेज गरमी यहां के मौसम की विशेषता है और इसमें उपजते हैं बड़े मच्छर, जोकि हर साल कई जवानों की असामयिक मौत का कारण बनते हैं। हालांकि, जवानों को कड़ा निर्देश है कि वे मच्छरदानी लगाकर सोएं, लेकिन रात की गरमी और घने जंगलों में चौकसी के चलते यह संभव नहीं हो पाता। यहां तक कि बस्तर का मलेरिया अब पारंपरिक कुनैन से ठीक नहीं होता है। घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देश की तरह मौसम बदलते हैं। उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाशिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। इसके बावजूद केंद्रीय बलों के जवानों के लिए स्वास्थ्य सेवा बेहद लचर है। जवान यहां-वहां जा नहीं सकते, जगदलपुर का मेडिकल कॉलेज बेहद अव्यवस्थित-सा है। मोबाइल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर का क्षेत्रफल केरल राज्य से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाइल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक न मिलने से टावर कमजोर रहते हैं।
बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसला होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों न उनका शिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ इयर फोन लगाकर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट में यह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असुरक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख न जान पाने का दर्द भी उनको भीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और न ही जवान के पास उसके लिए समय है। यह भी चिंता का विषय है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर मंे आनेवाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है, ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाश, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेशानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी, चिकत्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं, जो जवानों में अनुशासन व कार्य प्रतिबद्धता, दोनों को बनाए रख सकते हैं। यही नहीं, जबतक सीआरपीएफ के जवान को दुश्मन से लड़ते हुए मारे जाने पर सेना की तरह शहीद का दर्जा व सम्मान नहीं मिलता, उनका मनोबल बनाए रखना कठिन होगा।
श्चष्७००१०१०ञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व
= पंकज चतुर्वेदी
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