ऐसे कैसे होगी भंगी-मुक्ति
THE SEA EXPRESS AGRA,28-9-14 | http://theseaexpress.com/epapermain.asp |
पंकज चतुर्वेदी
एक तरफ अंतरिक्ष को अपने कदमों से नापने के बुलंद हौसलें हैं, तो दूसरी तरफ दूसरों का मल सिर पर ढोते नरक कुंड की सफाई करती मानव जाति। संवेदनहीन मानसिकता और नृशंस अत्याचार की यह मौन मिसाल सरकारी कागजों में दंडनीय अपराध है। यह बात दीगर है कि सरकार के ही महकमे इस घृणित कृत्य को बाकायदा जायज रूप देते हैं। नृशंसता यहां से भी कही आगे तक है, समाज के सर्वाधिक उपेक्षित व कमजोर तबके के उत्थान के लिए बनाए गए महकमे खुद ही सरकारी उपेक्षा से आहत रहे हैं।
शुष्क शौचालयों की सफाई या सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को सरकार संज्ञेय अपराध घोषित कर चुकी है। इस व्यवस्था को जड़ से खत्म करने के लिए केंद्र व विभिन्न राज्य सरकारें कई वित्तपोषित योजनाऐं चलाती रही हैं। लेकिन यह सामाजिक नासूर यथावत है। इसके निदान हेतु अब तक कम से कम 10 अरब रूपये खर्च हो चुके हैं। इसमें वह धन शामिल नहीं है, जो इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए पले ‘‘सफेद हाथियों’’ के मासिक वेतन व सुख-सुविधाओं पर खर्च होता रहा है। लेकिन हाथ में झाडू-पंजा व सिर पर टोकरी बरकरार है। देश की आजादी के साठ से अधिक वसंत बीत चुके हैं। लेकिन जिन लोगों का मल ढोया जा रहा है उनकी संवेदनशून्यता अभी भी परतंत्र है। उनमें न तो इस कुकर्म का अपराध बोध है, और न ही ग्लानि। मैला ढ़ोने वालों की आर्थिक या सामाजिक हैसियत में भी कहीं कोई बदलाव नहीं आया । सरकारी नौकरी में आरक्षण की तपन महज उन अनुसूचित जातियों तक ही पहुंची है, जिनके पुश्तैनी धंधों में नोटों की बौछार देख कर अगड़ी जातियों ने उन पर कब्जे किए। भंगी महंगा हुआ नहीं, इस धंधे में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को मुनाफा लगा नहीं, सो इसका औजार भी नहीं बदला।
देश का सबसे अधिक सांसद और सर्वाधिक प्रधानमंत्री देने वाले प्रदेश उत्तरप्रदेश में पैंतालिस लाख रिहाईशी मकान हैं । इनमें से एक तिहाई में या तो शौचालय है ही नहीं या फिर सीवर व्यवस्था नहीं है । तभी यहां ढ़ाई लाख लोग मैला ढ़ोने के अमानवीय कृत्य में लगे हैं । इनमें से अधिकांश राजधानी लखनऊ या शाहजहांपुर में हैं। वह भी तब जबकि केंद्र सरकार इस मद में राज्य सरकार को 175 करोड़ रुपए दे चुकी है । यह किसी स्वयंसेवी संस्था की सनसनीखेज रिर्पोट या सियासती शोशेबाजी नहीं , बल्कि एक सरकारी सर्वेक्षण की ही नतीजे हैं ।यहां याद करना होगा कि लखनऊ के सौंदर्यीकरण के नाम पर करोड़ो रुपए का ‘अंबेडकर पार्क’ बनाना तो सरकार की प्राथमिकता रहा, लेकिन मानवता के नाम पर कलंक सिर पर मैला ढ़ोने को रोकने की सुध किसी ने भी नहीं ली ।
घरेलू शौचालयों को फ्लश लैट्रिनों में बदलने के लिए 1981 से कुछ कोशिशें हुई, पर युनाईटेड नेशनल डेवलपमेंट प्रोग्राम के सहयोग से। अगर संयुक्त राष्ट्र से आर्थिक सहायता नहीं मिलती तो भारत सरकार के लिए मुहिम चलाना संभव नहीं था। तथाकथित सभ्य समाज को तो सिर पर मैला ढ़ोने वालों को देखना भी गवारा नहीं है, तभी यह मार्मिक स्थिति उनकी चेतना को झकझोर नहीं पाती है। सिर पर गंदगी लादने या शुष्क शौचालयों को दंडनीय अपराध बनाने में ‘‘हरिजन प्रेमी’’ सरकारों को पूरे 45 साल लगे। तब से सरकार सामान्य स्वच्छ प्रसाधन योजना के तहत 50 फीसदी कर्जा देती है। बकाया 50 फीसदी राज्य सरकार बतौर अनुदान देती हैं। स्वच्छकार विमुक्ति योजना में भी ऐसे ही वित्तीय प्रावधान है। लेकिन अनुदान और कर्जे, अफसर व बिचैलिए खा जाते हैं।
सरकार ने सफाई कर्मचारियों के लिए एक आयोग बनाया। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसे अन्य सांविधिक आयोगों के कार्यकाल की तो कोई सीमा निर्धारित की नहीं गई, लेकिन सफाई कर्मचारी आयोग को अपना काम समेटने के लिए महज ढ़ाई साल की अवधि तय कर दी गई थी। इस प्रकार मांगीलाल आर्य की अध्यक्षता वाला पहला आयोग 31 मार्च, 1997 को रोते-झींकते खत्म हो गया । तब से लगातार सरकार बदलने के साथ आयोग में बदलाव होते रहे हैं, लेकिन नहीं बदली तो सफाईकर्मियों की तकदीर और अयोग के काम करने का तरीका। सफाई कर्मचारी आयोग के प्रति सरकारी भेदभाव महज समय-सीमा निर्धारण तक ही नहीं है, बल्कि अधिकार, सुविधाओं व संसाधन के मामले में भी इसे दोयम दर्जा दिया गया। समाज कल्याण मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में गठित अन्य तीनों आयोगों को अपने काम-काज के लिए सिविल कोर्ट के अधिकार दिए गए हैं जबकि सफाई कर्मी आयोग के पास सामान्य प्रशासनिक अधिकार भी नहीं है। इसके सदस्य राज्य सरकारों से सूचनाएं प्राप्त करने का अनुरोध मात्र कर सकते हैं। तभी राज्य सरकारों सफाई कर्मचारी आयोग के पत्रों का जबाव तक नहीं देती।
वैसे इस आयोग के गठन का मुख्य उद्देश्य ऐसे प्रशिक्षण आयोजित करना था, ताकि गंदगी के संपर्क में आए बगैर सफाई काम को अंजाम दिया जा सके। सिर पर मैला ढ़ोने से छुटकारा दिलवाना, सफाई कर्मचारियों को अन्य रोजगार मुहैया कराना भी इसका मकसद था। आयोग जब शुरू हुआ तो एक अरब 11 करोड़ की बहुआयामी योजनाएं बनाई गई थीं। इसमें 300 करोड़ पुर्नवास और 125 करोड़ कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च करने का प्रावधान था। पर नतीजा वही ‘‘ढाक के तीन पात’’ रहा। दीगर महकमों की तरह घपले, घूसखोरी और घोटालों से यह ‘‘अछूतों’’ का विभाग भी अछूता नहीं रहा। कुछ साल पहले आयोग के उत्तर प्रदेश कार्यालय में दो अरब की गड़बड़ का खुलासा हुआ था।
आयोग व समितियों के जरिए भंगी मुक्ति के सरकारी स्वांग आजादी के बाद से जारी रहे हैं। संयुक्त प्रांत (वर्तमान उ.प्र.) ने भंगी मुक्ति बाबत एक समिति का गठन किया था। आजादी के चार दिन बाद 19 अगस्त 1947 को सरकार ने इस समिति की सिफारिशों पर अमल के निर्देश दिए थे। पर वह एक रद्दी का टुकड़ा ही साबित हुआ। 1963 में मलकानी समिति ने निष्कर्ष दिया था कि जो सफाई कामगार अन्य कोई रोजगार अपनाना चाहें, उन्हें लंबरदार, चैकीदार, चपरासी जैसे पदों पर नियुक्त दिया जाए। परंतु आज भी सफाई कर्मचारी के ग्रेजुएट बच्चों को सबसे पहले ‘‘झाडू-पंजे’’ की नौकरी के लिए ही बुलाया जाता है। नगर पालिका हो या फौज, सफाई कर्मचारियों के पद भंगियों के लिए ही आरक्षित हैं।
सन 1964 और 1967 में भी दो राष्ट्रीय आयोग गठित हुए थे। उनकी सिफारिशों या क्रियाकलाप की फाईलें तक उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि उन दोनों आयोगों की सोच दिल्ली से बाहर विस्तार नहीं पा सकी थीं। 1968 में बीएस बंटी की अध्यक्षता में गठित न्यूनतम मजदूरी समिति की सिफारिशें 21 वीं सदी के मुहाने पर पहुंचते हुए भी लागू नहीं हो पाई हैं। पता नहीं किस तरह के विकास और सुदृढ़ता का दावा हमारे देश के कर्णधार करते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हरियाणा के 40.3 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास टेलीविजन हैं, पर शौचालय महज आठ फीसदी हैं। करीबी समृद्ध राज्य पंजाब में टीवी 38.6 प्रतिशत लोगों के पास है परंतु शौचालय मात्र 19.8 की पहुंच में हैं। 1990 में बिहार की आबादी 1.11 करोड़ थी। उनमें से सिर्फ 30 लाख लोग ही किसी न किसी प्रकार के शौचालय की सेवा पाते हैं। यह आंकड़े इंगित करते हैं कि सफाई या उस कार्य से जुड़े लोग सरकार की नजर में निहायत उपेक्षित हैं।
आजाद भारत में सफाई कर्मचारियों के लिए गठित आयोग, समितियों, इस सबके थोथे प्रचार व तथाकथित क्रियान्वयन में लगे अमले के वेतन, कल्याण योजनाओं के नाम पर खर्च व्यय का यदि जोड़ करें तो यह राशि अरबों-खरबों में होगी। काश, इस धन को सीधे ही सफाई कर्मचारियों में बांट दिया जाता तो हर एक परिवार करोड़पति होता। यदि आधी सदी के अनुभवों को सीख माने तो यह तय है कि जब तक भंगी महंगा नहीं होगा, उसकी मुक्ति संभव नहीं है।
यदि सरकार या सामाजिक संस्थाएं वास्तव में सफाई कर्मचारियों को अपमान, लाचारी और गुलामी से उपजी कुंठा से मुक्ति दिलवाना चाहते हैं तो आई आई टी सरीखे तकनीकी शोध संस्थानों में ‘‘सार्वजनिक सफाई’’ जैसे विषयों को अनिवार्य करना होगा। जिस रफ्तार से शहरों का विस्तार हो रहा है, उसके मद्देनजर आने वाले दशक में स्वच्छता एक गंभीर समस्या होगी।
पंकज चतुर्वेदी
एक तरफ अंतरिक्ष को अपने कदमों से नापने के बुलंद हौसलें हैं, तो दूसरी तरफ दूसरों का मल सिर पर ढोते नरक कुंड की सफाई करती मानव जाति। संवेदनहीन मानसिकता और नृशंस अत्याचार की यह मौन मिसाल सरकारी कागजों में दंडनीय अपराध है। यह बात दीगर है कि सरकार के ही महकमे इस घृणित कृत्य को बाकायदा जायज रूप देते हैं। नृशंसता यहां से भी कही आगे तक है, समाज के सर्वाधिक उपेक्षित व कमजोर तबके के उत्थान के लिए बनाए गए महकमे खुद ही सरकारी उपेक्षा से आहत रहे हैं।
शुष्क शौचालयों की सफाई या सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को सरकार संज्ञेय अपराध घोषित कर चुकी है। इस व्यवस्था को जड़ से खत्म करने के लिए केंद्र व विभिन्न राज्य सरकारें कई वित्तपोषित योजनाऐं चलाती रही हैं। लेकिन यह सामाजिक नासूर यथावत है। इसके निदान हेतु अब तक कम से कम 10 अरब रूपये खर्च हो चुके हैं। इसमें वह धन शामिल नहीं है, जो इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए पले ‘‘सफेद हाथियों’’ के मासिक वेतन व सुख-सुविधाओं पर खर्च होता रहा है। लेकिन हाथ में झाडू-पंजा व सिर पर टोकरी बरकरार है। देश की आजादी के साठ से अधिक वसंत बीत चुके हैं। लेकिन जिन लोगों का मल ढोया जा रहा है उनकी संवेदनशून्यता अभी भी परतंत्र है। उनमें न तो इस कुकर्म का अपराध बोध है, और न ही ग्लानि। मैला ढ़ोने वालों की आर्थिक या सामाजिक हैसियत में भी कहीं कोई बदलाव नहीं आया । सरकारी नौकरी में आरक्षण की तपन महज उन अनुसूचित जातियों तक ही पहुंची है, जिनके पुश्तैनी धंधों में नोटों की बौछार देख कर अगड़ी जातियों ने उन पर कब्जे किए। भंगी महंगा हुआ नहीं, इस धंधे में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को मुनाफा लगा नहीं, सो इसका औजार भी नहीं बदला।
देश का सबसे अधिक सांसद और सर्वाधिक प्रधानमंत्री देने वाले प्रदेश उत्तरप्रदेश में पैंतालिस लाख रिहाईशी मकान हैं । इनमें से एक तिहाई में या तो शौचालय है ही नहीं या फिर सीवर व्यवस्था नहीं है । तभी यहां ढ़ाई लाख लोग मैला ढ़ोने के अमानवीय कृत्य में लगे हैं । इनमें से अधिकांश राजधानी लखनऊ या शाहजहांपुर में हैं। वह भी तब जबकि केंद्र सरकार इस मद में राज्य सरकार को 175 करोड़ रुपए दे चुकी है । यह किसी स्वयंसेवी संस्था की सनसनीखेज रिर्पोट या सियासती शोशेबाजी नहीं , बल्कि एक सरकारी सर्वेक्षण की ही नतीजे हैं ।यहां याद करना होगा कि लखनऊ के सौंदर्यीकरण के नाम पर करोड़ो रुपए का ‘अंबेडकर पार्क’ बनाना तो सरकार की प्राथमिकता रहा, लेकिन मानवता के नाम पर कलंक सिर पर मैला ढ़ोने को रोकने की सुध किसी ने भी नहीं ली ।
घरेलू शौचालयों को फ्लश लैट्रिनों में बदलने के लिए 1981 से कुछ कोशिशें हुई, पर युनाईटेड नेशनल डेवलपमेंट प्रोग्राम के सहयोग से। अगर संयुक्त राष्ट्र से आर्थिक सहायता नहीं मिलती तो भारत सरकार के लिए मुहिम चलाना संभव नहीं था। तथाकथित सभ्य समाज को तो सिर पर मैला ढ़ोने वालों को देखना भी गवारा नहीं है, तभी यह मार्मिक स्थिति उनकी चेतना को झकझोर नहीं पाती है। सिर पर गंदगी लादने या शुष्क शौचालयों को दंडनीय अपराध बनाने में ‘‘हरिजन प्रेमी’’ सरकारों को पूरे 45 साल लगे। तब से सरकार सामान्य स्वच्छ प्रसाधन योजना के तहत 50 फीसदी कर्जा देती है। बकाया 50 फीसदी राज्य सरकार बतौर अनुदान देती हैं। स्वच्छकार विमुक्ति योजना में भी ऐसे ही वित्तीय प्रावधान है। लेकिन अनुदान और कर्जे, अफसर व बिचैलिए खा जाते हैं।
सरकार ने सफाई कर्मचारियों के लिए एक आयोग बनाया। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसे अन्य सांविधिक आयोगों के कार्यकाल की तो कोई सीमा निर्धारित की नहीं गई, लेकिन सफाई कर्मचारी आयोग को अपना काम समेटने के लिए महज ढ़ाई साल की अवधि तय कर दी गई थी। इस प्रकार मांगीलाल आर्य की अध्यक्षता वाला पहला आयोग 31 मार्च, 1997 को रोते-झींकते खत्म हो गया । तब से लगातार सरकार बदलने के साथ आयोग में बदलाव होते रहे हैं, लेकिन नहीं बदली तो सफाईकर्मियों की तकदीर और अयोग के काम करने का तरीका। सफाई कर्मचारी आयोग के प्रति सरकारी भेदभाव महज समय-सीमा निर्धारण तक ही नहीं है, बल्कि अधिकार, सुविधाओं व संसाधन के मामले में भी इसे दोयम दर्जा दिया गया। समाज कल्याण मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में गठित अन्य तीनों आयोगों को अपने काम-काज के लिए सिविल कोर्ट के अधिकार दिए गए हैं जबकि सफाई कर्मी आयोग के पास सामान्य प्रशासनिक अधिकार भी नहीं है। इसके सदस्य राज्य सरकारों से सूचनाएं प्राप्त करने का अनुरोध मात्र कर सकते हैं। तभी राज्य सरकारों सफाई कर्मचारी आयोग के पत्रों का जबाव तक नहीं देती।
वैसे इस आयोग के गठन का मुख्य उद्देश्य ऐसे प्रशिक्षण आयोजित करना था, ताकि गंदगी के संपर्क में आए बगैर सफाई काम को अंजाम दिया जा सके। सिर पर मैला ढ़ोने से छुटकारा दिलवाना, सफाई कर्मचारियों को अन्य रोजगार मुहैया कराना भी इसका मकसद था। आयोग जब शुरू हुआ तो एक अरब 11 करोड़ की बहुआयामी योजनाएं बनाई गई थीं। इसमें 300 करोड़ पुर्नवास और 125 करोड़ कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च करने का प्रावधान था। पर नतीजा वही ‘‘ढाक के तीन पात’’ रहा। दीगर महकमों की तरह घपले, घूसखोरी और घोटालों से यह ‘‘अछूतों’’ का विभाग भी अछूता नहीं रहा। कुछ साल पहले आयोग के उत्तर प्रदेश कार्यालय में दो अरब की गड़बड़ का खुलासा हुआ था।
आयोग व समितियों के जरिए भंगी मुक्ति के सरकारी स्वांग आजादी के बाद से जारी रहे हैं। संयुक्त प्रांत (वर्तमान उ.प्र.) ने भंगी मुक्ति बाबत एक समिति का गठन किया था। आजादी के चार दिन बाद 19 अगस्त 1947 को सरकार ने इस समिति की सिफारिशों पर अमल के निर्देश दिए थे। पर वह एक रद्दी का टुकड़ा ही साबित हुआ। 1963 में मलकानी समिति ने निष्कर्ष दिया था कि जो सफाई कामगार अन्य कोई रोजगार अपनाना चाहें, उन्हें लंबरदार, चैकीदार, चपरासी जैसे पदों पर नियुक्त दिया जाए। परंतु आज भी सफाई कर्मचारी के ग्रेजुएट बच्चों को सबसे पहले ‘‘झाडू-पंजे’’ की नौकरी के लिए ही बुलाया जाता है। नगर पालिका हो या फौज, सफाई कर्मचारियों के पद भंगियों के लिए ही आरक्षित हैं।
सन 1964 और 1967 में भी दो राष्ट्रीय आयोग गठित हुए थे। उनकी सिफारिशों या क्रियाकलाप की फाईलें तक उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि उन दोनों आयोगों की सोच दिल्ली से बाहर विस्तार नहीं पा सकी थीं। 1968 में बीएस बंटी की अध्यक्षता में गठित न्यूनतम मजदूरी समिति की सिफारिशें 21 वीं सदी के मुहाने पर पहुंचते हुए भी लागू नहीं हो पाई हैं। पता नहीं किस तरह के विकास और सुदृढ़ता का दावा हमारे देश के कर्णधार करते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हरियाणा के 40.3 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास टेलीविजन हैं, पर शौचालय महज आठ फीसदी हैं। करीबी समृद्ध राज्य पंजाब में टीवी 38.6 प्रतिशत लोगों के पास है परंतु शौचालय मात्र 19.8 की पहुंच में हैं। 1990 में बिहार की आबादी 1.11 करोड़ थी। उनमें से सिर्फ 30 लाख लोग ही किसी न किसी प्रकार के शौचालय की सेवा पाते हैं। यह आंकड़े इंगित करते हैं कि सफाई या उस कार्य से जुड़े लोग सरकार की नजर में निहायत उपेक्षित हैं।
आजाद भारत में सफाई कर्मचारियों के लिए गठित आयोग, समितियों, इस सबके थोथे प्रचार व तथाकथित क्रियान्वयन में लगे अमले के वेतन, कल्याण योजनाओं के नाम पर खर्च व्यय का यदि जोड़ करें तो यह राशि अरबों-खरबों में होगी। काश, इस धन को सीधे ही सफाई कर्मचारियों में बांट दिया जाता तो हर एक परिवार करोड़पति होता। यदि आधी सदी के अनुभवों को सीख माने तो यह तय है कि जब तक भंगी महंगा नहीं होगा, उसकी मुक्ति संभव नहीं है।
यदि सरकार या सामाजिक संस्थाएं वास्तव में सफाई कर्मचारियों को अपमान, लाचारी और गुलामी से उपजी कुंठा से मुक्ति दिलवाना चाहते हैं तो आई आई टी सरीखे तकनीकी शोध संस्थानों में ‘‘सार्वजनिक सफाई’’ जैसे विषयों को अनिवार्य करना होगा। जिस रफ्तार से शहरों का विस्तार हो रहा है, उसके मद्देनजर आने वाले दशक में स्वच्छता एक गंभीर समस्या होगी।
पंकज चतुर्वेदी