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शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

Electoral system needs urgent reform

लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखने के लिए जरूरी हैं कड़े चुनाव सुधार 

पंकज चतुर्वेदी


Independent mail bhopal 
इन दिनों देश की सबसे बडी ताकत, लोकंतत्र ही दांव पर लगा है। यह बात सही है कि कई लगता है हमारा मुल्क चुनाव-प्रधान देश हो गया है। हर समय किसी ना किसी राज्य में कोई ना कोई चुनाव अवश्य होता रहता है। राजनीतिक दल भी पूरे समय चुनाव जीतने की जुगत में रहते हैंव उनका जमीनी जन कल्याण कार्य से वास्ता समाप्त हो रहा है। हालांकि अभी केंद्र सरकार ने सभी चुनाव एकसाथ करवाने की पहल तो की है। लेकिन जरूरी यह है कि आम वोटर को भी शिक्षित किया जाए कि वह किस उम्मीदवार को, किस चुनाव में किस काम के लिए वोट दे रहा है । चुनाव तो राज्य की सरकार को चुनने का होता है लेकिन मसला कभी मंदिर  तो कभी आरक्षण कभी गाय और उससे आगे निजी अरोप-गालीगलौज। चुनाव के प्रचार अभियान ने यह साबित कर दिया कि लाख पाबंदी के बावजूद चुनाव ना केवल महंगे हो रहे हैं, बल्कि सियासी दल जिस तरह एक दूसरे पर षुचिता के उलाहने देते दिखेे, खुद को पाक-साफ व दूसरे को चोर साबित करते रहे हैं असल में समूचे कुंए में ही भांग घुली हुई हैं। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई हैं और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं।
इवीएम पर सवाल उठाना , वास्तव में लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र है, यह चरम बिंदू है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है। जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिशा में काम नहीं करना चाहता है। दुखद तो यह है कि हमारा अधिसंख्यक मतदाता अभी अपने वोट की कीमत और विभिन्न निर्वाचित संस्थआों के अधिकार व कर्तव्य जानता ही नहीं है। लोकसभा चुनाव में मुहल्ले की नाली और नगरपालिका चुनाव में पाकिस्तान के मुद्दे उठाए जाते हैं। यही नहीं नेता भी उल जलूल वादे भी कर देते हैं जबकि वह उनके अधिकार क्षेत्र में होता नहीं है। आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रूचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना - ये कुछ ऐसी बुराईयां हैं जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और इस बार ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं।
आज चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार  मतदाता सूची का विश्लेशण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से , दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते है। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राहण वोट के।  केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर निर्वाचित प्रतिनिधियों का उनको मिले कुछ वोटो का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा।
कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राशि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयशुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याशी चुनने  में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रशासनिक  दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याशी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं । सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याशी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविशेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजुट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मशीन का आकार बढ़ जाता है । चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्दों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों,, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देश के आधे से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है ।
ऐसे भी लोगों की संख्या कम नहीं है, जोकि स्थानीय प्रशासन या राजनीति में अपना रसूख दिखानेभर के लिए पर्चा भरते हैं । ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जबकि मात्र नामांकन दाखिल कर कुछ लोग लाखों के वारे-न्यारे कर लेते हैं । बहुत से राजनैतिक दल राश्ट्रीय या राज्य स्तर की मान्यता पाने के लिए निधार्रित मत-प्रतिशत पाना चाहते हैं । इस फिराक में वे आंख बंद कर प्रत्याशी मैदान में उतार देते हैं । जेल में बंद कुख्यात अपराधियों का जमानत पाने या फिर कारावास की चारदीवारी से बाहर निकलने के बहानों के रूप में  या फिर मुकदमें के गवाहों व तथ्यों को प्रभावित करने के लिए चुनाव में पर्चा भरना भी एक आम हथकंडा  है ।
यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का या ताजा-ताजा किसी अन्य दल से आयातित उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लेमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। ऐसे में सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की पीढ़ी बढ़ती जा रही है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीशाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा। इस कदम से सदन में कारपोरेट दुनिया के बनिस्पत आम आदमी के सवालों को अधिक जगह मिलेगी। लिहाजा आम आदमी संसद से अपने सरोकारों को समझेगा व ‘‘कोउ नृप हो हमें क्या हानि’’ सोच कर वोट ना देने वाले मध्य वर्ग की मानसकिता भी बदलेगी।
इस समय चुनाव करवाना बेहद खर्चीला होता जा रहा है, तिस पर यदि पूरे साल देश में कहीं  जिला पंचायत के तो कहीं विधानसभा के चुनाव होते रहते हैं इससे सरकारी खजाने का दम तो निकलता ही ही है, सरकार व सरकारी मशीनरी के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवश्यक काम भी आचार संहिता के कारण रूके रहते हैं । ऐसे में नए चुनाव सुधारों में तीनों चुनाव(कम से कम दो तो अवश्य) लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एकसाथ करवाने की व्यवस्था करना जरूरी है। रहा सवाल सदन की स्थिरता को तो उसके लिए एक मामूली कदम उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव खुले सदन में वोट की कीमत यानी जो जितने वोट से जीता है, उसके वोट की सदन में उतनी ही अधिक कीमत होगी; के आधार पर पांच साल के लिए हो।
सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुश भी स्थाई व मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में कम से कम दो प्रतिशत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम ‘दिल्ली में घोडा़ मंडी’’ की रोक का सशक्त जरिया बन सकता है। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की षर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याशी लोकतंत्र का मजाक ना बना पाएं। सनद रहे कि 16 से अधिक उम्मीदवार होने पर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन की एक से अधिक यूनिट लगानी पड़ती है, जो खर्चीली भी है  और जटिल भी। जमानत जब्त होने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को अगले दो किसी भी चुनावों में लड़ने से राकना जैसे कुछ कड़े कानून समय की मांग हैं।
मतदाता सूचियों में कमियां होना हरेक चुनाव के दौरान सामने आती हैं। घर-घर जा कर मतदाता सूचियों का पुनररीक्षण एक असफल प्रयोग रहा है। दिल्ली जैसे महानगरों में कई कालोनियां ऐसी हैं जहां गत दो दशकों से कोई मतदाता सूची बनाने नहीं पहुंचा है। देश के प्रत्येक वैध बाशिंदे का मतदाता सूची में नाम हो और वह वोट डालने में सहज महसूस करे; इसके लिए एक तंत्र विकसित करना भी बहुत जरूरी है। वहीं पड़ोसी राज्यों के लाखों लोगों को इस गरज से मतदाता सूची में जुड़वाया गया, ताकि उनके वोटों के बल पर चुनाव जीता जा सके।इस बार तो चुनाव आयोग ने केवल सटे हुए जिलों से मतदाता सूची का मिलान किया, लेकिन 40 फीसदी विस्थापित मजदूरों से बनी दिल्ली में उप्र, मप्र, बंगाल या बिहार व दिल्ली दोनो जगह मतदाता सूची में नाम होने के लाखों लाख उदाहरण मिलेंगे।
चुनावी खर्च बाबत कानून की ढ़ेरों खामियों को सरकार और सभी सियासती पार्टियां स्वीकार करती हैं । किंतु उनके निदान के सवाल को सदैव खटाई में डाला जाता रहा है । राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन, मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिए 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा । 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि  राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरेक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित ऑडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाता है तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा करती हैं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है । यहां तक कि नई नई राजनीति में आई आम आदमी पार्टी अपने विदेशी चंदे के हिसाब को सबके सामने रखने में गोलमोल कर रही हैं
पंकज चतुर्वेदी ,
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376




बुधवार, 26 सितंबर 2018

Climate change is effecting nutritious value of agriculture product

कम होगी अनाज की पोषकता

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केरल में जल-प्लावन का ज्वार भले ही धीरे-धीरे छंट रहा हो, लेकिन उसके बाद वहां जो कुछ हो रहा है वह पूरे देश के लिए चेतावनी है। जैव विविधता के लिए जग-जाहिर वायनाड जिले में अचानक ही केंचूए और कई प्रकृति प्रेमी कीट गायब हो गए। पंपा, पेरियार, कबानी जैसी कई नदियों का जल-स्तर बहुत कम हो गया। इदुकी, वायनाड जिलों में कई सौ मीटर लंबी दरारें जमीन में आ गईं। यह बानगी है कि धरती के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी और उसके गर्भ से उपजे जलवायु परिवर्तन का भीषण खतरा मंडरा रहा है। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला। यह इंसान के भोजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थो की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से ले कर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है, जिसके चलते प्रकृति का अस्तित्व और मानव का जीवन सांसत में है। 1अमेरिका की एक सालाना जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट 2017 में बताया गया है कि मौसम में बदलाव के कारण पानी को सुरक्षित रखने वाले जलाशयों में ऐसे शैवाल विकसित हो रहे हैं जो पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं। भारत में भी जलाशयों के प्राकृतिक स्वरूप में कई तरह का बदलाव देखा गया है। 1यह सर्वविदित है कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाइऑक्साइड की मात्र है। कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी और करीब 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे। दरअसल 63 फीसद प्रोटीन, 81 फीसद लौह तत्व तथा 68 फीसद जिंक की आपूर्ति पेड़-पौधों से होती है। एक शोध में पाया गया कि अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में तीन तत्वों- जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहां पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है। यह पर्यावरण में कार्बन की मात्र बढ़ा रही है। इससे पैदा पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव है कि मरुस्थलीयकरण दुनिया के सामने बेहद चुपचाप, लेकिन खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। रेगिस्तान बनने का खतरा उन जगहों पर ज्यादा है, जहां पहले उपजाऊ जमीन थी और अंधाधुंध खेती या भूजल दोहन या सिंचाई के कारण उसकी उपज क्षमता खत्म हो गई। ऐसी जमीन धीरे-धीरे रेगिस्तान में तब्दील हो जाती है। यहां जानना जरूरी है कि धरती के महज सात फीसद इलाके में ही मरुस्थल है, लेकिन खेती में काम आने वाली लगभग 35 प्रतिशत जमीन ऐसी भी है जो शुष्क कहलाती है और यही खतरे का केंद्र है। 1भारत की कुल 328.73 मिलियन हेक्टेयर जमीन में से 105.19 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर बंजर ने डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हेक्टेयर जमीन रेगिस्तान में बदल रही है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि पर मंडराते खतरों के प्रति सचेत करते हुए इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रोफॉरेस्ट्री के निदेशक डॉ. कुलूस टोपर ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आने वाले दिन जलवायु परिवर्तन के भीषणतम उदाहरण होंगे जो कृषि उत्पादकता पर चोट, जल दबाव, बाढ़, चक्रवात व सूखे जैसी गंभीर दशाएं पैदा करेंगे। हकीकत यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि व्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ने से पूरी दुनिया में ‘खाद्यान्न संकट’ की विकरालता बढ़ जाएगी। ऐसे में खेती-किसानी की अर्थव्यवस्था पर आधारित भारते जैसे देशों के लिए विशाल आबादी का पेट भरना मळ्श्किल हो सकता है। 1जलवायु परिवर्तन की मार भारत में जल की उपलब्धता पर भी पड़ रही है। देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है। 20वीं सदी के प्रारंभ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो 1990 के दशक में कम होकर 119 सेंटीमीटर रह गई है। उत्तरी भारत में पेयजल का संकट भयावह होता जा रहा है। 1एक शोध अध्ययन में यह आशंका जताई गई है कि तापमान में दो डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि होने पर गेहूं की उत्पादकता में व्यापक कमी आएगी। आशंका है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से रबी की फसलों को अधिक नुकसान होगा। इसके अलावा वर्षा आधारित फसलों को अधिक नुकसान होगा, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्र कम होगी, जिस कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पाएगा।1जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव मिट्टी पर पड़ने के कारण उसकी उर्वरा क्षमता घटने, मवेशियों की दुग्ध क्षमता कम होने पर भी दिख रहा है। खाद्य सुरक्षा रिपोर्ट पर गौर करें तो वर्ष 2030 तक देश में जलवायु में हो रहे परिवर्तन से कई तरह की फसलों को उगाना मुश्किल हो जाएगा। भारत में जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव से खेती-किसानी चौपट होने की बात भारत के आर्थिक सर्वेक्षण 2018 में भी दर्ज है। हमारी अधिकांश खेती असिंचित होने के कारण कृषि विकास दर पर मौसम का असर पड़ रहा है। यदि तापमान एक डिग्री-सेल्सियस बढ़ता है तो खरीफ मौसम के दौरान किसानों की आय 6.2 फीसद कम कर देता है और असिंचित जिलों में रबी मौसम के दौरान छह फीसद की कमी करता है। इसी तरह यदि बरसात में औसतन 100 मिमी की कमी होने पर किसानों की आय में 15 फीसद और रबी के मौसम में सात फीसद की गिरावट होती है, जैसा कि सर्वेक्षण में कहा गया है।1यही नहीं ज्यादा बारिश के कारण प्रभावति होने वालों की संख्या भी छह गुणा बढ़ सकती है। अभी हर साल करीब 25 करोड़ लोग बाढ़ से प्रभावित होते हैं। जनसंख्या विस्फोट और पलायन के कारण उभरी आवासीय कमी ने नदी के रास्तों पर बस्तियां बसा दीं और अब बरसात होने पर नदी जब अपने भूले बिसरे रास्ते पर लौट आती है तो तबाही होती है। ठीक इसी तरह तापमान बढ़ने से ध्रुवीय क्षेत्र में तेजी से बर्फ पिघलने के कारण समुद्र के जल-स्तर में अचानक बढ़ोतरी का असर भी हमारे देश में तटीय इलाकों पर पड़ रहा है।

जलवायळ् परिवर्तन के असर से खेती के व्यापक तौर पर प्रभावित होने की आशंका जताई गई है, जिससे अनाज उत्पादन घट सकता है। साथ ही इसके अन्य दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं

पंकज चतुर्वेदी 1स्वतंत्र टिप्पणीकार

ANIMALS ARE ALSO ESSENTIAL FOR EARTH

जानवर भी जरुरी हैं जमीन पर  


पर्यावरण संकट का जो चरम रूप दिख रहा है, उसका कारण इंसान द्वारा नैसर्गिकता में उपजाया गया, असमान संतुलन ही है। परिणाम सामने है कि अब धरती पर अस्तित्व का संकट है। प्रकृति ने वन्य जीव-जंतुओं (Wildlife Prevention India) के रूप में हमें जो उपहार दिया है, उसे हम अपनी लालच के चलते खत्म करते जा रहे हैं। इसीलिए प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है।
राज एक्सप्रेस भोपाल २६-९-१८ 

अभी जुलाई माह में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक आदेश में कहा था कि जानवरों को भी इंसान की तरह जीने का हक है। वे भी सुरक्षा, स्वास्थ्य और क्रूरता के विरुद्ध इंसान जैसे ही अधिकार रखते हैं। हालांकि इस आदेश पर चर्चा कम हुई और राज्य सरकार ने गाय को राष्ट्रमाता घोषित कर दिया। असल में ऐसे आदेशों से न तो गाय बच सकती है और न ही अन्य जानवर। जब तक समाज के सभी वर्गो तक यह संदेश नहीं जाता कि प्रकृति ने धरती पर इंसान, वनस्पति और जीव-जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया है, तब तक उनके संरक्षण को इंसान अपना कर्तव्य नहीं मानेगा। यह सही है कि जीव-जंतु या वनस्पति अपने साथ हुए अन्याय का न तो प्रतिरोध कर सकते हैं और न ही अपना दर्द कह पाते हैं। परंतु इस भेदभाव का बदला खुद प्रकृति ने लेना शुरू कर दिया है। पर्यावरण संकट का जो चरम रूप दिख रहा है, उसका कारण इंसान द्वारा नैसर्गिकता में उपजाया गया, असमान संतुलन ही है। परिणाम सामने है कि अब धरती पर अस्तित्व का संकट है। समझना जरूरी है कि जिस दिन खाद्य श्रंखला टूट जाएगी धरती से जीवन की डोर भी टूट जाएगी।
jansandesh times UP
भारत में संसार का केवल 2.4 प्रतिशत भू-भाग है जिसके सात से आठ प्रतिशत भू-भाग पर भिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं। प्रजातियों की संवृद्धि के मामले में भारत स्तनधारियों में 7वें, पक्षियों में 9वें और सरीसृप में 5वें स्थान पर है। कितना सधा हुआ खेल है प्रकृति का! मानव जीवन के लिए जल जरूरी है तो जल को संरक्षित करने के लिए नदी तालाब। नदी-तालाब में जल को स्वच्छ रखने के लिए मछली, कछुए और मेंढक अनिवार्य हैं। मछली उदर पूर्ति के लिए तो मेंढक ज्यादा उत्पात न करें इसके लिए सांप अनिवार्य हैं और सांप जब संकट बने तो उनके लिए मोर या नेवला। कायनात ने एक शानदार सहअस्तित्व व संतुलन का चक्र बनाया। तभी पूर्वज यूं ही सांप या बैल या सिंह या मयूर की पूजा नहीं करते थे, जंगल के विकास के लिए छोटे छोटे अदृश्य कीट भी उतने ही अनिवार्य हैं जितने इंसान। विडंबना है कि फसल की लालच में हम केंचुए व अन्य कृषि मित्र कीट को मार रहे हैं।
अब गिद्ध को ही लें, भले ही इसकी शक्ल सूरत अच्छी न हो, लेकिन हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक अनिवार्य पक्षी है। 90 के दशक की शुरुआत में भारतीय उपमहाद्वीप में करोड़ों की संख्या में गिद्ध थे, लेकिन अब उनमें से कुछ लाख ही बचे हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि उनकी संख्या हर साल आधी के दर से कम होती जा रही है। इसकी संख्या घटने लगी तो सरकार भी सतर्क हो गई-चंडीगढ़ के पास पिंजौर, बुंदेलखंड में ओरछा सहित देश के दर्जनों स्थानों पर अब गिद्धों के संरक्षण की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं। जान लें कि मृत पशु को खाकर अपने परिवेश को स्वच्छ करने के कार्य में गिद्ध का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। हुआ यूं कि इंसान ने अपनी लालच के चलते पालतू मवेशियों को दूध के लिए रासायनिक इंजेक्शन देना शुरू कर दिए। वहीं मवेशी के भोजन में खेती में इस्तेमाल कीटनाशकों व रासायनिक दवाओं का प्रभाव बढ़ गया। अब गिद्ध अपने स्वभाव के अनुसार जब ऐसे मरे हुए जानवरों को खाने आया तो वह खुद ही काल के गाल में समा गया।
janwani meerut 
आधुनिकता ने अकेले गिद्ध को ही नहीं, घर में मिलने वाली गौरेया से लेकर बाज, कठफोड़वा एवं कई अन्य पक्षियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। वास्तव में ये पक्षी जमीन पर मिलने वाले ऐसे कीड़ों व कीटों को अपना भोजन बनाते हैं जो खेती के लिए नुकसानदेह होते हैं। कौवा, मोर, टटहिरी, उकाब व बगुला सहित कई पक्षी जहां पर्यावरण को शुद्ध रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। वहीं मानव जीवन के उपयोग में भी इनकी अहम भूमिका है। मिट्टी को उपजाऊ बनाने व सड़े-गले पत्ते खा कर शानदार मिट्टी उगलने वाले केंचुए की संख्या धरती के अस्तित्व के लिए संकट है। प्रकृति के बिगड़ते संतुलन के पीछे लोग अंधाधुंध कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग मान रहे हैं। कीड़े-मकौड़े व मक्खियों की बढ़ रही आबादी के चलते इन मांसाहारी पक्षियों की मानव जीवन में कमी खल रही है। यदि इसी प्रकार पक्षियों की संख्या घटती गई तो आने वाले समय में मनुष्य को भारी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

मोर राष्ट्रीय पक्षी है। यह सांप सहित कई जनघातक कीट-पतंगों की संख्या को नियंत्रित करने में प्रकृति का अनिवार्य तत्व है। ये खेतों में बोए गए बीजों को खाते हैं। चूंकि बीजों को रासायनिक दवाओं में भिगोया जा रहा है, सो इनकी मृत्यु हो जाती है। यही नहीं दानेदार फसलों को सूंडी से बचाने के लिए किसान उस पर कीटनाशक छिड़कता है और जैसे ही मोर या अन्य पक्षी ने उसे चुगा, वह मारा जाता है। सांप को किसानों का मित्र कहा जाता है। सांप संकेतक प्रजाति है, इसका मतलब यह होता है कि आबोहवा बदलने पर सबसे पहले वही प्रभावित होते हैं। इस लिहाज से तो उनकी मौजूदगी हमारी मौजूदगी को सुनिश्चित करती है। हम सांपों के महत्व को कम महसूस करते हैं और उसे डरावना प्राणी मानते हैं, जबकि सच्चाई यही है कि उनके बगैर हम कीटों और चूहों से परेशान हो जाएंगे। यह भी जान लें कि ‘सांप तभी आक्रामक होते हैं, जब उनके साथ छेड़छाड़ किया जाए या हमला किया जाए। वे हमेशा आक्रमण करने की जगह भागने की कोशिश करते हैं।’ मेंढकों का इतनी तेजी से सफाया करने के भयंकर परिणाम सामने आए हैं। इसकी खुराक हैं वे कीड़े-मकोड़े, मच्छर तथा पतंगे, जो हमारी फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। अब हुआ यह कि मेंढकों की संख्या बेहद घट जाने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया। पहले मेंढक बहुत से कीड़ों को खा जाया करते थे, किंतु अब कीट-पतंगों की संख्या बढ़ गई और वे फसलों को भारी नुकसान पहुंचाने लगे हैं।
दूसरी ओर सांपों के लिए भी कठिनाई उत्पन्न हो गई। सांपों का मुख्य भोजन हैं मेंढक और चूहे। मेंढक समाप्त होने से सांपों का भोजन कम हो गया तो वे भी कम हो गए। सांप कम होने का परिणाम यह निकला कि चूहों की संख्या में वृद्धि हो गई। वे चूहे अनाज की फसलों को चट करने लगे। इस तरह मेंढकों को मारने से फसलों को कीड़ों और चूहों से पहुंचने वाली हानि बहुत बढ़ गई। मेंढक कम होने पर वे मक्खी-मच्छर भी बढ़ गए, जो पानी वाली जगहों में पैदा होते हैं और मनुष्यों को काटते हैं या बीमारियां देते हैं। कौआ भारतीय लोक परंपरा में यूं ही आदरणीय नहीं बन गया। हमारे पूर्वज जानते थे कि इंसान की बस्ती में कौए का रहना स्वास्थ्य एवं अन्य कारणों से कितना महत्वपूण है। कौए अगर विलुप्त हो जाते हैं तो इंसान की जिंदगी पर इसका बुरा असर पड़ेगा क्योंकि कौए इंसान को अनेक बीमारी एवं प्रदूषण से बचाते हैं। टीबी से ग्रस्त रोगी के खखार में टीबी के जीवाणु होते हैं, जो रोगी द्वारा बाहर फेंकते ही कौए उसे तुरंत खा जाते हैं, जिससे जीवाणु फैल नहीं पाते। ठीक इसी तरह वे किसी मवेशी के मरने पर उसकी लाश से उत्पन्न कीड़े-मकोड़े को सफाचट कर जाते हैं। शहरी भोजन में रासायनिक तत्व तथा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण कौए भी समाज से विमुख होते जा रहे हैं। इंसानी जिंदगी में कौओं के महत्व को हमारे पुरखों ने बहुत पहले ही समझ लिया था। यही वजह थी कि आम आदमी की जिंदगी में तमाम किस्से कौओं से जोड़कर देखे जाते रहे हैं।
कुल मिलाकर, प्रकृति में हर जीव-जंतु का एक चक्र है। जैसे कि जंगल में यदि हिरण जरूरी है तो शेर भी। यह सच है कि शेर का भोजन हिरण है लेकिन प्राकृतिक संतुलन का यही चक्र है। यदि जंगल में हिरण की संख्या बढ़ जाए तो वहां अंधाधुंध चराई से हरियाली का संकट खड़ा हो जाएगा, इसीलिए इस संतुलन को बनाए रखने के लिए शेर भी जरूरी हैं। इसी तरह हर जानवर, कीट, पक्षी धरती पर इंसान के अस्तित्व के लिए अनिवार्य हैं।
पंकज चतुर्वेदी (वरिष्ठ पत्रकार)

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

eco friendly ganesh

बदलने लगा है गणपति पूजा का तरीका

पंकज चतुर्वेदी

कुछ साल पहले मिट्टी और अन्य प्राकृतिक वस्तुओं से बने ऐसी गणपति प्रतिमाओं की बहुत चर्चा हुई थी जो एक गमले के आकार में होते हैं और विसर्जन के समय उन पर जल डालने पर उनमें दबे बीज कुछ दिनों में पौधे के रूप में विकसित हो जाते हैं। यह प्रयोग इंदौर के पत्रकार सुबोध खंडेलवाल ने किया और देश भर के लोगों ने उसे अपनाया। इस साल गोवा में कच्चे केले से बने गणपति सोशल मीडिया पर छाये हुए हैं। विसर्जन के दिन तक ये केले पक जाएंगे और इनका प्रसाद भक्तों में बांटा जाएगा। गोवा में ही बांस के गणपति भी लोगों को लुभा रहे हैं। मुंबई में एक संस्था ने विसर्जन के बाद समुद्र में मौजूद मछलियों का ध्यान रखते हुए 'फिश-फ्रेंडली' सामग्री से गणपति प्रतिमा बनायी है। मुंबई के कुर्ला में 300 किलो बर्फ के गणपति का प्रयोग महंगा तो है, लेकिन है अनूठा। लुधियाना में सिख बंधुओं का चॉकलेट गणपति का प्रयोग भी दूसरों के लिए प्रेरणादायक है। यहां तैयार चॉकलेट की गणेश प्रतिमा को विर्सजन के दिन दूध में घोल दिया जाता है और यह दूध शहर के गरीब बच्चों को पिला दिया जाता है। अहमदाबाद में एक गणपति प्रतिमा नारियल से तैयार की गयी है। 
बेंगलुरु में गन्ना-गणेश लोगों को बहुत आकर्षित कर रहे हैं। केवल गन्ने से तैयार इस प्रतिमा को प्रसाद के रूप में पाने के लिए लोगों ने अभी से अपना नंबर लगा रखा है। यहां गन्ना सीधे किसान से उसके मनमाफिक दाम पर खरीदा गया और फिर उसे प्रतिमा का स्वरूप दिया गया। पुणे के विवेक कांबले के पर्यावरण मित्र गणपति का सलीका तो पूरे देश को अपनाना चाहिए। वह फिटकरी के बड़े से क्रिस्टल को तराशकर गणपति बनाते हैं। विसर्जन के समय जिस जल-निधि में फिटकरी की इतनी बड़ी मात्रा मिलती है, वहां का पानी खुद-ब-खुद साफ हो जाता है। इसी तरह शक्कर और गुड़ की गणेश मूर्तियां भी कई जगहों पर स्थापित की गयी हैं। इन्हें विसर्जन के दिन पानी में घोलकर भक्तों को वितरित किया जाता है। कुछ जगह इसका हलुआ भी बनता है। मलाड, मुंबई के मसाला-गणपति भी अपने आप में अनूठे हैं। नौ किलो लौंग, 20 किलो दाल चीनी, छह किलो मिर्ची, एक किलो सरसों व कुछ अन्य मसाले मिलाकर बनायी गयी यह प्रतिमा बेहद चटकीले रंगों से सजी दिखती है। अंतिम दिन इन मसालों से खिचड़ी बनती है।
ये सारी खबरें देश के भिन्न-भिन्न कोनों की हैं जो समाज में फैल रही पर्यावरण चेतना के बारे में बहुत कुछ कहती हैं। ये खबरें बताती हैं कि परंपरागत उत्सवों के उत्साह और उनकी रौनक से कोई समझौता किये बगैर लोग धार्मिक आयोजनों को नया रूप देने के लिए आगे आ रहे हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये लोग किसी नए चलन के पीछे नहीं भाग रहे, बल्कि अपने-अपने तरीके से अपने इलाके में उपलब्ध सामग्री से पर्यावरण की समस्या का समाधान तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। वे ऐसे रास्ते खोज रहे हैं जिससे गणपति पूजा भी हो रही है और उससे पर्यावरण को कोई नुकसान भी नहीं हो रहा है। सच तो यह है कि परंपरागत रूप से गणपति पूजन ऐसा आयोजन था भी नहीं जो प्रकृति को कोई नुकसान पहुंचाता हो। पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे कुदरती रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। गाय के गोबर से भी भगवान गणेश की प्रतिमाएं बनती रही हैं लेकिन बाद में चीजें बदल गयीं। मिट्टी की जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस का इस्तेमाल होने लगा और सस्ते सिंथेटिक रंगों की सहज उपलब्धता के बाद शुरू में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि लेड से बने ये रंग अंत में हमारे लिए ही नुकसानदायक होंगे।
ये प्रतिमाएं कितनी नुकसानदायक हैं, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अभी दो महीने पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के करबला तालाब की सफाई व इसे गहरा करने का काम जब शुरू हुआ, तो उसकी गाद के नीचे सैकड़ों गणपति प्रतिमाएं यथावत मिलीं। रासायनिक रंगों से सज्जित और प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी से प्रतिमाएं तालाब में दस महीने बाद भी ठीक से घुल नहीं पायीं। कुछ राज्य सरकारों ने ऐसी मूर्तियों के इस्तेमाल पर चेतावनियां भी जारी कीं लेकिन इसके आगे कुछ नहीं हुआ। चेतावनी के आगे कोई कदम उठाना आसान भी नहीं था। महाराष्ट्र और उससे सटे गोवा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, गुजरात एवं मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है। उम्मीद करनी चाहिए कि पर्यावरण हितैषी गणपति प्रतिमाओं की यह परंपरा भी ऐसे ही पूरे देश में विस्तार पाएगी और दुर्गापूजा जैसे आयोजनों के लिए भी प्रेरणा का काम करेगी।
स्वतंत्र टिप्पणीकार

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

पर्व-श्रंखला का स्वागत करें पर्यावरण के साथ


भारत में पर्व केवल सामाजिक अनुष्ठान  नहीं हैं, बल्कि वे प्रकृति के संरक्षण का संकल्प और कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर होते हैं। भारत के सभी त्योहार सूर्य-चंद्रमा-धरती- जल संसाधनों- पशु-पक्षी आदि की आराधना पर केंद्रित हैं।  बीते कुछ सालों ने भारतीय आध्यात्म को बाजारवाद की ऐसी नजर लगी कि अब पर्व पर्यावरण को दूशित करने का माध्यम बनते जा रहे हैं। हर साल सितंबर महीने के साथ ही बारिश के बादल अपने घरों को लौटने को तैयार हो जाते हैं। सुबह सूरज कुछ देर से दिखता है और जल्दी अंधेरा छाने लगता है। असल में मौसम का यह बदलता मिजाज उमंगों. खुशहाली के स्वागत की तैयारी होता है । सनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसी लिए उत्सवों का प्रारंभ गणेश चतुर्थी से ही होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में  अगस्त- 2016  में अपील कर चुके रहे हैं कि देव प्रतिमाएं प्लास्टर आफ पेरिस यानि पीओपी की नहीं बनाएं, मिट्टी की ही बनाए, लेकिन देश के दूरस्थ अंचलों की छोड़ दें , राजधानी दिल्ली में ही अक्षरधाम के करीब मुख्य एनएच-24 हो या साहिबाबाद में जीटी रेाड पर थाने के सामने ;धड़ल्ले से पीओपी की प्रतिमाएं बिकती हैं।
ऐसा ही दृश्य देश के हर बड़े-छोटे कस्बों में देखा जा सकता है। गणपति स्थापना तो तो प्रारंभ होता है, इसके बाद दुर्गा पूजा या नवरात्रि, दीपावली से ले कर होली तक एक के बाद एक के आने वाले त्योहार असल में किसी जाति- पंथ के नहीं, बल्कि भारत की सम्द्ध सांस्कृतिक परंपराओं के प्रतीक हैं। विडंबना है कि जिन त्येाहरों के रीति रिवाज, खानपान कभी समाज और प्रकृति के अनुरूप हुआ करते थे, आज पर्व के मायने हैं पर्यावरण, समाज और संस्कृति सभी का क्षरण।
गत एक दशक के दौरान विभिन्न गैरसरकारी संस्थाओं, राज्यों के प्रदुषण  बोर्ड आदि ने गंगा, यमुना, सुवर्णरेखा, गोमती, चंबल जैसी नदियों की जल गुणवत्ता का , गणपति या देवी प्रतिमा विसर्जन से पूर्व व पश्चात अध्ययन किए और पाया कि आस्था का यह ज्वार नदियों के जीवन के लिए खतरा बना हुआ है। ऐसी सैंकड़ों रिपोर्ट लाल बस्तों में बंधी पड़ी हैं और आस्था के मामले में दखल से अपना वोट-बैंक खिसकने के डर से षासन धरती के अस्तित्व को ही खतरे में डाल रहा है।

खूब हल्ला हुआ, निर्देश, आदेश का हवाला दिया गया, अदालतों के फरमान बताए गए, लेकिन गणपति के पर्व का मिजाजा बदलता नहीं दिख रहा है। महाराष्ट्र, उससे सटे गोवा, आंध््राप्रदेश व तेलगांना, छत्तीसगढ़, गुजरात व मप्र के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है। दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियां स्थापित हो रही हैं। यही नहीं मुंबई के प्रसिद्ध लाल बाग के राजा की ही तरह विशाल प्रतिमा, उसी नाम से यहां देखी जा सकती है। पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। आज प्रतिमाएं प्लास्टर आफ पेरिस से बन रही हैॅ, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है। कुछ राज्य सरकारों ने प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियों को जब्त करने की चेतावनी भी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और पूरा बाजार घटिया रासायनिक रंगों से पुती प्लास्टर आफ पेरिस की प्रतिमाओं से पटा हुआ है।


अभी गणेशात्सव का समापन होता ही है कि नवरात्रि में दुर्गा पूजा शुरू हो जाती है।यह भी लगभग पूरे भारत में मनाया जाने लगा है। हर गांव-कस्बे में एक से अधिक स्थानों पर सार्वजनिक पूजा पंडाल बनने लगे हैं। बीच में विश्वकर्मा पूजा भी आ जाती है और अब इसी की प्रतिमाएं बनाने की रिवाज शुरू हो गई है। एक अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान कई लाख प्रतिमाएं बनती हैं और इनमें से 90 फीसदी प्लास्टर आफ पेरिस की होती है। इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर आफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिल जाती है। पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है। इससे वातावरण में प्रदूषण का मात्रा के बढ़ने की संभावना बहुत अधिक है। प्लास्टर आफ पेरिस, कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है जो कि जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट डीहाइड्रेट) से बनता है चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलने वाले प्लास्टर आफ पेरिस से बनी होती है, उन्हें विषैले एवं पानीे में न घुलने वाले नॉन बायोडिग्रेडेबेल रंगों में रंगा जाता है, इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की बॉयोलॉजिकल आक्सीजन डिमांड तेजी से घट जाती है जो जलजन्य जीवों के लिए कहर बनता है। चंद साल पहले मुम्बई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था जब मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में जुहू किनारे मरी मछलियां पाई गई थीं।
पहले श हरों में कुछ ही स्थान पर सार्वजनिक पंडाल में विशाल प्रतिमांए रखी जाती थीं, लेकिन अब यह चंदा, दिखावा और राजनीति का माध्यम बन गया है सो, जितने खलीफा, उतनी प्रतिमाएं। अंदाजा है कि अकेले मुंबई में कोई डेढ लाख गणपति प्रतिमाएं हर साल समुद्र में विसर्जित की जाती है।ं इसी तरह से कोलकाता की हुबली नदी में ही 15000 से अधिक बड़ी दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन होता है । अनुमान है कि विसर्जित होने वाली प्रतिमाओं में से अधिकांश 15 से 50 फुट ऊंची होती है । बंगाल में तो वसंत पंचमी के अवसर पर सरस्वती पूजा के लिए कोई एक करोड़ प्रतिमांए स्थापित करने और उनको विसर्जित करने की भी रिवाज है। एक तरफ प्रतिमांए व उसमें इस्तेमाल होने वाले रसायनों की मात्रा बढ़ रही है तो दूसरी तरफ जल संसाधनों में जी की मात्रा उथली हो रही है। चूंकि ये पर्व बरसात समाप्त होते ही आ जाते हैं, जुलाई महीने में मछलियों के भी अंडे व बच्चों का मौसम होता है। ऐसे में दुर्गा प्रतिमांओं का सिंदूर, सिंथेटिक रंग, थर्माकोल आदि पानी में  घुल कर उसमें निवास करने वाले जलचरों को भी जहरीला करते हैं। बाद में ऐसी ही जहरीली मछलियां खाने पर कई गंभीर रोग इंसान के षरीर में घर कर जाते हैं। यह सभी जानते हैं कि रासायनिक रंग में जस्ता, कैडमियम जैसी धातुएं होती हैं और धातुएँ नष्ट नहीं होतीं। तभी ये धीरे -धीरे भोजन श्रृखंला का हिस्सा बन अनेक बीमारियों यथा मस्तिष्क किडनी और कैंसर का कारण बनती है ।
कुछ समय पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में गंगा और यमुना नदी में मूर्तियां के विसर्जन पर रोक लगाई थी। उसके बाद जिला प्रशासन प्रयास करता है कि नदी-सरिताओं के करीब ही गहरे कुड बना कर उसमें प्रतिमाओं का विसर्जन हो। भारत सरकार के केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने मूर्तियों के विसर्जन के कारण नदियों तथा जलाशयों में भारी धातुओ तथा प्लास्टर ऑफ पेरिस इत्यादि के कारण होने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए मार्गदर्शिका जारी की है  मार्गदर्शिका के प्राधानों के अनुसार नगरीय निकायों की जिम्मेदारी है कि वे मूर्ति विसर्जन के लिए पृथक स्थान तय करें। लेकिन यह जान लें कि यह तरीका भी धरती की मिट्टी और भूगर्भ जल को इतना दूशित करने वाला है कि इससे बर्बाद जमीन व जल का कोई निदान नही नहीं है।

सवाल खड़ा होता  है कि तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है? इन्हें मनाना बंद कर देना चाहिए? एक तो हमें प्रत्येक त्योहर की मूल आत्मा को समझना होगा, जरूरी तो नहीं कि बड़ी प्रतिमा बनाने से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे ! क्या छोटी प्रतिमा बना कर उसका विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीेके से करके अपनी आस्था और परंपरा को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता ? प्रतिमाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने  जैसे प्रयोग तो किए जा सकते हैं पूजा सामग्री में प्लास्टिक या पोलीथीन का प्रयोग वर्जित करना, फूल- ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में जमीन में दबा कर उसका कंपोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल , अन्य सामग्री को जरूरतमंदों को बांटना, बिजली की जगह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साघारण से प्रयोग हैंं ; जो पर्वो से उत्पन्न प्रदूषण व उससे उपजने वाली बीमारियांे पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं। पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने के और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं। इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की

बुधवार, 12 सितंबर 2018

Ganpati must be welcome with eco friendly vision

गणेश चतुर्थी 2018: गणपति का स्वागत नैसर्गिक ढंग से करें

बीते कुछ वर्षों में भारतीय अध्यात्म को बाजारवाद की ऐसी नजर लगी कि अब पर्व पर्यावरण पूरक नहीं रह पा रहे हैं।



लेखक- पंकज चतुर्वेदी
बरसात हुई और सारी प्रकृति नहा-धो कर तैयार हो गई, समृद्धि, सुख और आस्था के श्रम और प्रतिउत्तर के फल में। पहाड़ों से निकली लहलहाती नदियों के साथ ढेर सारी बारीक मिट्टी तटों पर जमा हो गई। इसी रज-कण में भारतीय कृषक समाज का जीविकोपार्जन और अस्तित्व बसा है सो वे मिट्टी को घर ले गए, सिद्धिविनायक की प्रतिमा बनाई, पूजा और उसको उसी जलस्नेत में ऐसी सामग्री के साथ विसर्जित कर दिया, जिससे उस जल-निधि में पलने वाले जीवों का पेट भर सके।
भारत में पर्व केवल सामाजिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि वे प्रकृति के संरक्षण का संकल्प और कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर होते हैं। भारत के सभी त्यौहार सूर्य-चंद्रमा-धरती-जल संसाधनों-पशु-पक्षी आदि की आराधना पर केंद्रित हैं। लेकिन बीते कुछ वर्षो में भारतीय अध्यात्म को बाजारवाद की ऐसी नजर लगी कि अब पर्व पर्यावरण पूरक नहीं रह पा रहे हैं।
हर साल सितंबर महीने के साथ ही बारिश के बादल अपने घरों को लौटने को तैयार हो जाते हैं। सुबह सूरज कुछ देर से दिखता है और जल्दी अंधेरा छाने लगता है। असल में मौसम का यह बदलता मिजाज उमंगों, खुशहाली के स्वागत की तैयारी होता है। प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसीलिए उत्सवों का प्रारंभ गणोश चतुर्थी से ही होता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में अगस्त- 2016 में अपील कर चुके हैं कि देव प्रतिमाएं प्लास्टर आफ पेरिस यानी पीओपी की नहीं बनाएं, मिट्टी की ही बनाएं। लेकिन देश के दूरस्थ अंचलों की छोड़ दें, राजधानी दिल्ली में ही अक्षरधाम के करीब मुख्य एनएच-24 हो या साहिबाबाद में जीटी रोड पर थाने के सामने; धड़ल्ले से पीओपी की प्रतिमाएं बिकती हैं। ऐसा ही दृश्य देश के हर बड़े-छोटे कस्बों में देखा जा सकता है।
गत एक दशक के दौरान विभिन्न गैरसरकारी संस्थाओं, राज्यों के प्रदूषण बोर्ड आदि ने गंगा, यमुना, सुवर्णरेखा, गोमती, चंबल जैसी नदियों की जल गुणवत्ता का, गणपति या देवी प्रतिमा विसर्जन से पूर्व व पश्चात अध्ययन किया और पाया कि आस्था का यह ज्वार नदियों के जीवन के लिए खतरा बना हुआ है। जब नदियां नहीं रहेंगी तो धरती पर इंसान भी नहीं जी पाएगा।
प्रत्येक त्योहर की मूल आत्मा को समझना होगा। प्रतिमाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने  जैसे प्रयोग किए जा सकते हैं। पूजा सामग्री में प्लास्टिक या पॉलीथिन का प्रयोग वर्जित करना, फूल-ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में जमीन में दबा कर उसका कंपोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल, अन्य सामग्री को जरूरतमंदों को बांटना, बिजली की जगह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साधारण से प्रयोग हैं; जो प्रदूषण व उससे उपजने वाली बीमारियों पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं। पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने के और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं। इन्हें मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी भी समाज की है।

गुरुवार, 6 सितंबर 2018

Hindi not an official language, it is language of folk

हिंदी राजभाषा नहीं लोकभाषा

दिल्ली के एक नामचीन पब्लिक स्कूल के कक्षा तीन के बच्चे को गृह-कार्य डायरी में लिख कर भेजा गया कि बच्चे का ‘श्रुत लेखन’ का टेस्ट होगा। बच्चे के माता-पिता अंग्रेजी माध्यम से पढ़े थे। अपने परिचितों को फोन कर वे पूछते रहे कि यह क्या होता है?1लखनऊ के निकट चिनहट के एक माध्यमिक स्कूल की कक्षा आठ की एक घटना राज्य में शिक्षण व्यवस्था की दयनीय हालत की बानगी है। स्कूल शुरू होने के कई महीने बाद विज्ञान की किताब के पहले पाठ पर चर्चा हो रही थी। पाठ था पौधों के जीवन का। दूसरे या तीसरे पृष्ठ पर लिखा था कि पौधे श्वसन क्रिया करते हैं। बच्चों से पूछा कि क्या वे भी श्वसन करते हैं तो कोई बच्चा यह कहने को तैयार नहीं हुआ कि वे भी श्वसन करते हैं। यानी जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है उसे व्यावहारिक धरातल पर समझाने के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं, महज तोता रटंत को ही शिक्षा मान लिया जा रहा है। 1भोपाल में अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय का प्रारंभ इस उद्देश्य से किया गया कि वहां सभी तकनीकी विषयों की शिक्षा हिंदी में दी जाएगी। इसमें कुल 231 पाठ्यक्रम हैं। पिछले साल इसमें से 170 में एक भी प्रवेश नहीं हुआ। 14 कोर्स में केवल एक-एक छात्र है तो 46 पाठ्यक्रम ऐसे हैं, जिनमें पढ़ने वालों की संख्या 10 से भी कम है। गौर करें कि वे बच्चे जो उच्च शिक्षा में अंग्रेजी को व्यवधान मानते रहे हैं, बेहद कम फीस के साथ जब हिंदी में शिक्षा की व्यवस्था हुई तो भी वे क्यों नहीं आए? विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर हिंदी के कुछ शब्दों पर गौर कीजिए- भेषज विज्ञान (फार्मेसी), भ्रमणभाष (मोबाइल), अंतरताना (वेबसाइट)। यही कारण है कि यहां पिछले साल इंजीनियरिंग में सात छात्र थे जो इस साल घट कर दो रह गए हैं। 1ये तीन घटनाएं बानगी हैं कि जब हम हिंदी में संप्रेषण के किसी माध्यम की चर्चा करते हैं, उस पर प्रस्तुत सामग्री पर विमर्श करते हैं तो सबसे पहले गौर करना होता है कि उस माध्यम को पढ़ने-देखने वाले कौन हैं, उनकी पठन क्षमता कैसी है और वे किस उद्देश्य से इस माध्यम का सहारा ले रहे हैं। विडंबना है कि हिंदी को राजकाज की भाषा बनाने के सरकारी प्रयासों ने हिंदी को अनुवाद की, और वह भी भाव-विहीन व संस्कृतनिष्ठ हिंदी बना कर रख दिया है। यहां जानना जरूरी है कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं के मानिंद राजभाषा ही है, न कि राष्ट्रभाषा, फिर भी देश में केवल हिंदी दिवस मनाया जाता है, कभी पंजाबी, कन्नड़ या सिंधी दिवस नहीं। जबकि हिंदी की असल ताकत हमारे राज्यों की भाषाएं व बोलियां ही हैं। 11857 के करीब जनगणना में महज एक प्रतिशत लोग साक्षर पाए गए थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उससे पहले भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, अंतरिक्ष का ज्ञान हमारे पास नहीं था। वह था- देश की बोलियों में, संस्कृत में, उससे पहले प्राकृत या पालि में जिसे सीमित लोग समझते थे, और वे ही उसका इस्तेमाल करते थे। फिर अमीर खुसरो के समय आई हिंदी, हिंद यानी भारत के गोबर पट्टी की संस्कृति, साहित्य व ज्ञान की भाषा, उनकी बोलियों का एक समुच्चय। हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 ई. से 1700 ई. तक माना जाता है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।1सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुभरुजदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास- मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु। इसके अलावा कई मुस्लिम लेखक भी सूफी या साझा संस्कृति की बात कर रहे थे। इस तरह से हिंदी के उदय ने ज्ञान को आम लोगों तक ले जाने का रास्ता खोला और इसीलिए हिंदी को प्रतिरोध या परंपराएं तोड़ने वाली भाषा कहा जाता है। भाषा का अपना स्वभाव होता है अैर हिंदी के इस विद्रोही स्वभाव के विपरीत जब इसे लोक से परे हट कर राजकाज की या राजभाषा बनाने का प्रयास होता है तो उसमें सहज संप्रेषणीय शब्दों का टोटा प्रतीत होता है। 1आज जिस हिंदी की स्थापना के लिए पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है उसकी सबसे बड़ी दुविधा है मानक हिंदी यानी संस्कृतनिष्ठ हिंदी। ऐसा नहीं है कि आम लोगों की हिंदी में संस्कृत से कोई परहेज है। उसमें संस्कृत से यथावत लिए गए तत्सम शब्द भी हैं तो संस्कृत से परिशोधित हो कर आए तद्भव शब्द जैसे अग्नि से आग आदि भी हैं। इसमें देशज शब्द भी थे, बोलियों से आए स्थानीय शब्द और विदेशज भी जो अंग्रेजी, फारसी व अन्य भाषाओं से आए। 1यदि आंकड़ों पर भरोसा करें तो हिंदी में अखबार व अन्य पठन सामग्री के पाठक हर साल बढ़ रहे हैं लेकिन जब हिंदी में शिक्षा की बात आती है तो उसके हाल ‘अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय’ जैसे हो जाते हैं। यह समझना अनिवार्य है कि हिंदी की मूल आत्मा उसकी बोलियां हैं और विभिन्न बोलियों को संविधान सम्मत भाषाओं में शािमल करवाने, बोलियों के लुप्त होने पर बेपरवाह रहने से हिंदी में विदेशी और अग्रहणीय शब्दों का अंबार लग रहा है। भारतीय भाषाओं और बोलियों को संपन्न, समृद्ध किए बगैर हिंदी में काम करने को प्रेरित करना मुश्किल है। 1संचार माध्यमों की हिंदी आज कई भाषाओं से प्रभावित है। विशुद्ध हिंदी बहुत ही कम माध्यमों में है। दृश्य और श्रव्य माध्यमों में हिंदी की विकास-यात्र बड़ी लंबी है। हिंदी के इस देश में जहां की जनता गांव में बसती है, हिंदी ही अधिकांश लोग बोलते-समझते हैं, इन माध्यमों में हिंदी विकसित एवं प्रचारित हुई है। इसके लिए मानक हिंदी कळ्छ बनी हैं। ध्वनि-संरचना, शब्द संरचना में उपसर्ग-प्रत्यय, संधि, समास, पद संरचना, वाक्य संरचना आदि में कुछ मानक प्रयोग, कळ्छ पारंपरिक प्रयोग इन दृश्य- श्रव्य माध्यमों में हुए हैं, किंतु कुछ हिंदीतर शब्दों के मिलने से यहां विशुद्ध खड़ी बोली हिंदी नहीं है, मिश्रित शब्द, वाक्य प्रसारित, प्रचारित हो रहे हैं।1असल में कोई भी भाषा ‘बहता पानी निर्मला’ होती है, उसमें समय के साथ शब्दों का आना-जाना लगा रहता है। यदि हिंदी को वास्तव में एक जीवंत भाषा बना कर रखना है तो शब्दों का यह लेन-देन पहले अपनी बोलियों व फिर भाषाओं से हो, वरना हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी।

रविवार, 2 सितंबर 2018

China is using Siang river as "water bomb"

कहीं पूर्वोत्तर के लिए ‘जल-बम’ न बन जाए सियांग
पंकज चतुर्वेदी 

अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को पत्र भेजकर अनुरोध किया है कि उनके राज्य की चीन से लगती सीमा पर स्थित सियांग नदी के चकित करने वाले व्यवहार का गंभीरता से अध्ययन किया जाए। सियांग नदी एक बार फिर उसके किनारे बसे लोगों में खौफ पैदा कर रही है। चीन ने पानी छोड़ने की चेतावनी क्या दी, अरुणाचल प्रदेश और असम में भारी बाढ़ का खतरा मंडराने लगा। आश्चर्य इस बात का है कि जहां गत एक सप्ताह से सियांग के किनारे बसे कई गांवों पर तबाही आई है तो सियांग घाटी के कई इलाकों मेंे सूखे का संकट है।
अरुणाचल प्रदेश की जीवन रेखा कहलाने वाली सियांग नदी एक बार फिर उसके किनारे बसे लोगों में खौफ पैदा कर रही है। चीन ने उसी तरफ से पानी छोड़ने की चेतावनी क्या दी, अरूणाचल प्रदेश और असम में भारी बाढ़ का खतरा मंडराने लगा। हालांकि यह चेतावनी भी तब जारी की गई जब बीते दो सप्ताह से सियांग नदी में हो रही कुछ असामान्य हरकतों पर भारत ने चीन के सामने सवाल खड़े किए। हालांकि फिलहाल नदी का जल स्तर खतरे के निशान से भी नीचे हैं लेकिन उसमें दो-दो मीटर ऊंची लहरें उठ रही है, जैसे कि समुद्र में ज्वार-भाटे के समय उठती हैं। पीढियों से इस नदी के सहारे अपना जीवन काट रहे पासीघाट इलाके के लोगों का कहना है कि नदी में ऐसी असामानरू ऊंची लहरें उन्होंने कभी देखी नहीं।  इस समय इलाके का मौसम बेहद सामान्य है और ऐसे में तेज आवाज के साथ असामान्य रूप से उछलती लहरें केवल मेबो क्षेत्र को प्रभावित कर रही हैं । वहीं मेबो क्षेत्र से करीब 31 किलोमीटर आगे नामसिंग और इसके आसपास के इलाकों में नदी का प्रवाह बिल्कुल सामान्य है। याद करें पिछले साल भी अक्तूबर में इसी नदी का पानी पूरी तरह काला हो गया था।

सियांग नदी का उदभव पश्चिमी तिब्बत के कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील से दक्षिणपूर्व में स्थित तमलुंग त्सो (झील) से हैं। तिब्बत में अपने कोई 1600 किलोमीटर के रास्ते में इसेयरलुंग त्संगपो  कहते हैं। भारत में दाखिल होने के बाद इस नदी को सियांग या दिहांग नाम से जाना जाता है । कोई  230 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद यह लोहित नदी से जुड़ती है। अरूणाचल के पासीघाट से 35 किलोमीटर नीचे उतर कर इसका जुड़ाव दिबांग नी से होता है। इसके बाद यह ब्रह्मपुत्र में परिवर्तित हो जाती है।  बीते दो सप्ताह से सियांग नदी में उठ रहीं रहस्यमयी लहरों के कारण लोगों में भय है। आम लेागों मे ंयह धरणा है कि इसके पीछे चीन की ही साजिश है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चीन अरूणाचल प्रदेश के बड़े हिस्से पर अपना दावा करता है और यहां वह आए रोज कुछ न कुछ हरकतें करता है। अंतरराश्ट्रीय नदियों के प्रवाह में गड़बड़ी कर वह भारत को परेशान करने की साजिशें करता रहा है।

14 अगस्त  की रात से अचानक उठ रहीं भयंकर लहरेां के कारण बोरगुली, सिंगार, सेरम, नामसेंग आदि दर्जनों गांवों की नदी किनारे की हजारों हेक्टेयर जमीन पानी में समा गई व नदी का विस्तार आबादी की ओर हो गया। यही नहीं इससे पहले अपर सियांग, जोकि चीन के करीब है, के तुतिंग औरगेलियों गांव में मछली व मवेशी मरने की खबरें भी आई थीं। पिछले साल अक्तूबर में भी बेहद साफ और निर्मल जल वाली सियांग नदी का पानी बेहद मटमैला हो गया था। उसमें सीमेंट जैसी हजारों टन कीचड़ आई थी। नदी का कई सौ किलामीटर हिस्से का पानी एकदम काला हो गया था व पीने के लायक नहीं बचा था।, वहां मछलियां भी मर गई थीं। नदी के पानी में सीमेंट जसा पतला पदार्थ होने की बात जिला प्रशासन ने अपनी रिपोर्ट में कही थी। सनद रहे सियांग नदी के पानी से ही अरूधाचल प्रदेश की प्यास बुझती है। तब संसद में भी इस पर हल्ला हुआ था और चीन ने कहा था कि उसके इलाके में 6.4 ताकत का भूकंप आया था, संभवतया यह मिट्टी उसी के कारण नदी में आई होगी। हालांकि भूगर्भ वैज्ञानिकों के रिकार्ड में इस तरह का कोई भूकंप उस दौरान चीन में महसूस नहीं किया गया था।  इसी साल जुलाई में विदेया राज्य मंत्री वी के सिंह ने संसद में सूचित किया था कि चीन के साथ द्विपक्षीय वार्ता में सियंग नदी का मसला उठाया गया था और भारत सरकार ने नदी के सीमावर्ती इलाकांें में जल-प्रवाह निरीक्षण के लिए विशेश व्यवस्था कर रही है।

इससे पहले सन 2012 में सियांग नदी रातों -रात अचानक सूख गई थी। तब सितंबर के दूसरे सप्ताह में पूर्वी सियांग जिले के पासीघाट शहर के लोगों ने पाया था । इससे पहले नौ जून 2000 को सियांग नदी का जल स्तर अचानक 30 मीटर उठ गया था और लगभग पूरा शहर डूब गया जिससे संपत्ति की व्यापक क्षति हुई थी. इसके अलावा तिब्बत में एक जलविद्युत बांध के ढह जाने से सात लोगों की मौत हो गयी थी।
सियांग नदी में यदि कोई गड़बड़ होती है तो अरूणाचल प्रदेश की बड़ी आबादी का जीवन संकट में आ जाता है। पीने का पानी, खेती, मछली पालन सभी कुछ इसी पर निर्भर हैं सबसे बड़ी बात सियंाग में प्रदूशण का सीधा असर ब्रह्मपुत्र जैसी विशाल नदी और उसके किनारे बसे सात राज्यों के जन-जीवन व अर्थ व्यवस्था पर पड़ता है। असम के लखीमपुर जिले में पिछले साल आई कीचड़ का असर आज देखा जा रहा है। वहां के पानी में आज भी आयरन की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक पाई जा रही है।


तिब्बत राज्य में यारलुंग सांगपो नदी को शिनजियांग प्रांत के ताकलीमाकान की ओर मोड़ने के लिए चीन दुनिया की सबसे लंबी सुरंग के निर्माण की योजना पर काम कर रहा है।  हालांकि सार्वजनिक तौर पर चीन ऐसी किसी योजना से इनकार करता रहा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चीन ने इस नदी को जगह-जगह रोक कर यूनान प्रांत में आठ जल विद्युत परियोजना प्रारंभ की हैं और कुल मिला कर इस नदी का सारा प्रवाह नियंत्रण चीन के हाथ में है। पिछले साल मई-2017 में चीन भारत के साथ सीमावर्ती नदियों की बाढ़ आदि के आंकड़े साझा करने से इंकार करचुका है। वह जो आंकड़े हमें दे रहा है वह हमारे कोई काम के ही नहीं हैं।
भले ही चीन सरकार के वायदों के आधार पर भारत सरकार भी यह इंकार करे कि चीन, अरूणाचल प्रदेश से सटी सीमा पर कोई खनन गतिविधि नहीं कर रहा है। लेकिन हांगकांग से प्रकाशित ‘‘साएथ चाईना मॉर्निंग पोस्ट’’ की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि चीन अरूणाचल प्रदेश से सटी सीमा पर भारी मात्रा में खनन कर रहा हीै क्योंकि उसे वहां चांदी व सोने के अयस्क के कोई 60 अरब डालर के भंडार मिले हैं। नदी में पानी गंदला होना या लहरें ऊंची होना जैसी अस्वाभावकि बातों का कारण चीन की ऐसी हरकतें भी हो सकता है। भारत सरकार को इस क्षेत्र में अपने खुफिया सूत्र विकसित कर चीन की जल-जंगल-जमीन से जुड़ी गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए, वरना जल-बम का असर परमाणु बम से भी भयंकर होगा।


How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...