आधी आबादी: चौखट से चौपाल तक
पंकज चतुर्वेदी
17चीं लोकसभा के लिए अपनी पसंदीदा सरकार के चुनने की प्रक्रिया के पहले चरण में जिन 91 सीटों पर मतदान हुआ, उसकी सबसे सुखद बात यही है कि आधी आबादी अपना चूल्हा-चौका, घूंघट-घर की चौखट पार कर अपने मताधिकार का प्रयोग करने को मुखर हो कर निकली। पहले चरण में बिहार की जिन चार सीटों पर मतदान हुआ, उनमें महिला मतदाताओं का प्रतिशत 54.25 रहा जबकि 52.76 फीसदी पुरुष मतदाता ही मतदान केंद्र तक पहुंचे। उडिसा में भी महिला मतदान का प्रतिशत 74.43 रहा जोकि पुरुष मतदाता 73.09 फीसदी से अधिक था। सनद रहे अभी तक माना जाता रहा है कि घर की महिला प्रायः अपने घर के प्रमुख या पुरुष के निर्देश पर वोट डालती रही है लेकिन जब महिला मतदाता की संख्या के आंकड़े इस तरह उत्साहवर्धक आ रहे है। तो आशा की जा सकती है कि अब औरतों की बड़ी संख्या वास्तव में लोकतंत्र के पर्व में अपनी इच्छा व स्वतंत्रता से मतदान कर पा राही है। आखिर ऐसा होता भी क्यों नहीं ? हर राजनीतिक दल की आकांक्षा अधिक से अधिक महिलाओं का रुझान अपने पक्ष में करने का जो है। सभी दल महिला सुरक्षा, रोजगार, स्व सहायता समूह, महिला और बाल विकास की परियोजनओं, बेटी के जन्म पर प्रोत्साहन राशि, बच्च्यिों की पढ़ाई के लिए विशेष वजीफा या बच्ची के विवाह पर सरकारी सहायता जैसी अनगिनत योजनाओं को अपने वायदों के पिटारे में सहेजे हुए हैं जिनसे महिला को समाज में पुरूश की बराबरी का दर्जा मिले।
हालांकि लेाकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। सन 1893 में न्यूजीलैंड ऐसा पहला देश बना था जहां औरतों को मर्दो के बराबर अपनी सरकार चुनने के लिए मतदान का हक मिला था, उसके बाद सन 1902 में आस्ट्रेलिया में यह हक महिलाओं को मिला। खुद को सबसे सुसंस्कृत कहने वाले ग्रेट ब्रिटेन में औरतों की अपपी पसंद की सरकार चुनने में भागीदारी सन 1928 में हुई। तभी सन 1935 में जब ब्रितानी संसद में भारतीयों को स्वशासन के हक के लिए सरकार को निर्वावित करने का बिल पास होना था, तब बहुत से सांसद औरतों के लिए मतदान के हक में नहीं थे। लेकिन आजादी की लड़ाई के अगुआ नेता इसके लिए अड़ गए और सन 1937 में संपन्न पहले आम चुनाव में महिलओं को समान मत देने का हक मिला। हालांकि उस चुनाव में बहुत कम औरतें वोट देने पहुंचीं। सन 1952 के पहले आम चुनाव में तो औरतों के नाम मतदाता सूची में दर्ज करना भी कठिन था। निरक्षरता तो थी ही, साथ में महिलाएं अपने पति या पिता का नाम तक नहीं बोलती थीं। कई महिलाएं किसकी बेटी या किसकी पत्नी के रूप् में ही पहचानी जाती थीं। जान कर आश्चर्य होगा कि पहली मतदाता सूची में कोई 28 लाख नाम इसी तरह के थे - अमुक की पत्नी या बेटी।
इसके बाद में जैसे-जैसे हमारा लोकंतत्र परिपक्व हुआ, संसद और विधानसभाओं में ना केवल निर्वाचित महिलाओं की संख्या बढ़ी, बल्कि उन्हें महत्वर्पूर्ण जिम्मेदारियां भी मिली। आज देश में लोकसभा की अध्यक्ष, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री महिलाएं हैं। इससे पूर्व प्रधानमंत्रीं, रा ष्ट्रपति पदों तक महिलाएं पहुंची हैं। यह स्थिति तब है जब सदन में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें सुरक्षित करने का विधेयक सालों से लटका हुआ है। सन 2019 के आम चुनाव में बीजू जनता दल ने अपने कुल टिकटों का 33 प्रतिशत महिलाओं को दिया है तो त्रिणमूल कां्रगेस ने अपने टिकटों के 45 प्रतिशत पर महिलाओं को खड़ा किया है। पूरे देश में राश्ट्रीय दलों ने लगभग आठ फीसदी उम्मीदवार महिला घोशित की हैं।
नीचे दी गई तालिका दर्शाती है कि 1952 में प्रथम लोक सभा में महिलाओं की भागीदारी जो मात्र 5 प्रतिशत थी जो 16वीं लोक सभा में दुगनी ही हो पाई है।
तालिका-
सन लोकसभा संख्या प्रतिशत
1952 1 5
1957 2 5
1962 3 7
1967 4 6
1971 5 5
1977 6 4
1980 7 6
1984 8 8
1989 9 5
1991 10 8
1996 11 8
1998 12 8
1999 13 10
2004 14 9
2009 15 11
2014 16 11.3
यह बहुत सुखद है कि पंचायत व स्थानीय निकायों में महिलओं के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित रहने के 73वें संविधान संशोधन के बाद देश में महिला राजनैतिक नेतृत्व की बडी जमात सामने आई हैं। यह भी सच है कि बहुत से निकायों में जीतती तो महिला है लेकिन सारा काम ‘‘सरचंप-पति’ या ‘‘पार्शद पति’’ के नाम पर होता है। 73वें संविधान संशोधन में महिलाओं को सदस्य व अध्यक्ष पदों के आरक्षण प्राप्त हुआ जिसके कारण लगभग 2.5 लाख ग्राम पंचायत, 5000 से अधिक पंचायत समितियों व 500 से अधिक जिला पंचायतों में विभिन्न वर्गों की लगभग 11 लाख महिलाएँं चुनकर आई हैं। इस प्रावधान ने महिलाओं की दबी ऊर्जा को उजागर किया है। शुरू में संदेह किया जा रहा था कि इतनी महिलाएँं कहां से ढूंढी जाएँंगी। लेकिन यह संदेह निराधार साबित हुआ क्योंकि पंचायतों में महिलाएँं कुछ राज्यों में तो एक-तिहाई से ज्यादा चुनकर आईं। फ्रांस के लेखक गुअवर्ट ने कहा था कि पुरुष कानून बनाता है और महिलाएँं उन पर आचरण करती हैं। महिला आरक्षण विधेयक महिलाओं को योग्य बनाता है, कानून बनाने के लिए भी और आचरण करने के लिए भी। सच्चाई यह है कि प्रकृति ने स्त्री को बहुत शक्ति दी है, जबकि कानून ने उन्हें बहुत कम शक्ति दी है।
सारे देश से हजारों-हजार उदाहरण अब ऐसे सामने आ रहे हैं जहां महिला सरपंचों ने अधिक पारदर्शिता से बेहतर काम किए हैं । कई एक जगह देश-विेदश से उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुकी महिलाओं ने पंचायतों की जिम्मेदारी संभाली और समूचे परिवेश को ही बदल दिया। आज भारत में महिलाएं एक बड़े सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। जिसमें उनके शिक्षा,स्वास्थय और सुरक्षा जैसे मुद्दे सभी दलों की प्राथमिकता में हैं। अब महिलाएं मतदान में भी निर्णायक भूमिका निभा रही हैं , जाहिर है कि कानून के निर्माण में भी उनकी सहभागिता सुनिश्चित करने का माकूल समय आ गया है।
यहां महात्मा गांधी को याद करना जरूरी होगा। महात्मा गांधी के सार्वजनिक जीवन में आगमन से पहले भारत में जितने भी सुधारवादी आंदोलन चले, उनका बल महिलाओं को उचित स्थान व सम्मान दिलाने पर था, लेकिन महिलाओं को स्थानीय, राज्य व केंद्र स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी मिले, इसके लिए कोई खास प्रयोग नहीं हुए। महात्मा गांधी ने पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन को महिलाओं की मुक्ति से जोड़ा था। सन 1925 में उन्होंने कहा था, ‘‘जब तक भारत की महिलाएँं सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेंगी, तब तक इस देश को मुक्ति नहीं मिल सकती। ... मेरे लिए ऐसे स्वराज का कोई अर्थ नहीं है, जिसको प्राप्त करने में महिलाओं ने अपना भरपूर योगदान न किया हो।’’ गांधीजी की पहले पर पहली बार महिलाएँं बड़े पैमाने पर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हुईं। उन्होंने अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित की। यह भी सिद्ध किया कि भारत के पिछड़ेपन का एक कारण उनकी उपेक्षा भी है।
समूचा परिदृश्य उत्साहवर्धक तो है लेकिन हालात अभी भी उतने सकारात्मक नहीं हैं। रोजगार व मेहनताना में औरतों के साथ भेदभाव, रीति-रिवाज और मर्यादा के नाम पर महिला को दबा कर रखना, बच्ची के जन्म पर नाखुशी, घरेलू हिंसा जैसी कई चुनौतियां अपने घेरे को तोड़ कर बाहर आ रही महिलाओं के रास्तें में खड़ी हैं। इनसे निबटने के लिए आवश्यक है कि विधायिका में उनकी निर्णायक भागीदारी जरूरी हैं। उम्मीद की जाना चाहिए कि आज उनकी मतदान में भागीदारी बढत्री हैं, घोशणापत्रों में उनके मुद्दों पर विमर्श बढत्रा है, वह दिन दूर नहीं जब उनकी संदन में भागीदारी भी निर्णायक होगी।
बाक्स
नौ राज्यों में महिला मतदाता पुरूश से ज्यादा
नवीनतम मतदाता सूची के अनुसार, देश में कुल मतदाताओं की संख्या 89.87 करोड़ है जिनमें 46.70 करोड़ पुरुष और 43.17 करोड़ महिलाएं हैं। मतदाता सूची के अनुसार, पूर्वाेत्तर और दक्षिण भारत के 9 राज्यों में पुरुषों की तुलना में महिला मतदाताओं की संख्या अधिक है। चुनाव आयोग द्वारा आम चुनाव के लिए जारी आंकड़ों के अनुसार, लैंगिक अनुपात के मामले दक्षिणी राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और पुदुचेरी के अलावा पूर्वाेत्तर राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और मिजोरम अग्रणी राज्य हैं। शेष भारत से सिर्फ गोवा एकमात्र राज्य है जहां महिला मतदाताओं की अधिकता है। राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं का लैंगिक अनुपात 958 है।
आंकड़ों के अनुसार, लैंगिक अनुपात के लिहाज से पुडुचेरी में एक हजार पुरुषों पर 1117 महिला मतदाता हैं। केरल में यह संख्या 1066, तमिलनाडु में 1021 और आंध्र प्रदेश में 1015 है। वहीं पूर्वाेत्तर राज्यों में यह संख्या 1054 से 1021 के बीच है। मतदाताओं के लैंगिक अनुपात के मामले में दिल्ली देश में सबसे पीछे है। यहां एक हजार पुरुषों की तुलना में 812 महिला मतदाता है। दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा सहित सात राज्यों में मतदाताओं का लैंगिक अनुपात 800 से 900 के बीच है।
पंकज चतुर्वेदी
17चीं लोकसभा के लिए अपनी पसंदीदा सरकार के चुनने की प्रक्रिया के पहले चरण में जिन 91 सीटों पर मतदान हुआ, उसकी सबसे सुखद बात यही है कि आधी आबादी अपना चूल्हा-चौका, घूंघट-घर की चौखट पार कर अपने मताधिकार का प्रयोग करने को मुखर हो कर निकली। पहले चरण में बिहार की जिन चार सीटों पर मतदान हुआ, उनमें महिला मतदाताओं का प्रतिशत 54.25 रहा जबकि 52.76 फीसदी पुरुष मतदाता ही मतदान केंद्र तक पहुंचे। उडिसा में भी महिला मतदान का प्रतिशत 74.43 रहा जोकि पुरुष मतदाता 73.09 फीसदी से अधिक था। सनद रहे अभी तक माना जाता रहा है कि घर की महिला प्रायः अपने घर के प्रमुख या पुरुष के निर्देश पर वोट डालती रही है लेकिन जब महिला मतदाता की संख्या के आंकड़े इस तरह उत्साहवर्धक आ रहे है। तो आशा की जा सकती है कि अब औरतों की बड़ी संख्या वास्तव में लोकतंत्र के पर्व में अपनी इच्छा व स्वतंत्रता से मतदान कर पा राही है। आखिर ऐसा होता भी क्यों नहीं ? हर राजनीतिक दल की आकांक्षा अधिक से अधिक महिलाओं का रुझान अपने पक्ष में करने का जो है। सभी दल महिला सुरक्षा, रोजगार, स्व सहायता समूह, महिला और बाल विकास की परियोजनओं, बेटी के जन्म पर प्रोत्साहन राशि, बच्च्यिों की पढ़ाई के लिए विशेष वजीफा या बच्ची के विवाह पर सरकारी सहायता जैसी अनगिनत योजनाओं को अपने वायदों के पिटारे में सहेजे हुए हैं जिनसे महिला को समाज में पुरूश की बराबरी का दर्जा मिले।
हालांकि लेाकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। सन 1893 में न्यूजीलैंड ऐसा पहला देश बना था जहां औरतों को मर्दो के बराबर अपनी सरकार चुनने के लिए मतदान का हक मिला था, उसके बाद सन 1902 में आस्ट्रेलिया में यह हक महिलाओं को मिला। खुद को सबसे सुसंस्कृत कहने वाले ग्रेट ब्रिटेन में औरतों की अपपी पसंद की सरकार चुनने में भागीदारी सन 1928 में हुई। तभी सन 1935 में जब ब्रितानी संसद में भारतीयों को स्वशासन के हक के लिए सरकार को निर्वावित करने का बिल पास होना था, तब बहुत से सांसद औरतों के लिए मतदान के हक में नहीं थे। लेकिन आजादी की लड़ाई के अगुआ नेता इसके लिए अड़ गए और सन 1937 में संपन्न पहले आम चुनाव में महिलओं को समान मत देने का हक मिला। हालांकि उस चुनाव में बहुत कम औरतें वोट देने पहुंचीं। सन 1952 के पहले आम चुनाव में तो औरतों के नाम मतदाता सूची में दर्ज करना भी कठिन था। निरक्षरता तो थी ही, साथ में महिलाएं अपने पति या पिता का नाम तक नहीं बोलती थीं। कई महिलाएं किसकी बेटी या किसकी पत्नी के रूप् में ही पहचानी जाती थीं। जान कर आश्चर्य होगा कि पहली मतदाता सूची में कोई 28 लाख नाम इसी तरह के थे - अमुक की पत्नी या बेटी।
इसके बाद में जैसे-जैसे हमारा लोकंतत्र परिपक्व हुआ, संसद और विधानसभाओं में ना केवल निर्वाचित महिलाओं की संख्या बढ़ी, बल्कि उन्हें महत्वर्पूर्ण जिम्मेदारियां भी मिली। आज देश में लोकसभा की अध्यक्ष, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री महिलाएं हैं। इससे पूर्व प्रधानमंत्रीं, रा ष्ट्रपति पदों तक महिलाएं पहुंची हैं। यह स्थिति तब है जब सदन में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें सुरक्षित करने का विधेयक सालों से लटका हुआ है। सन 2019 के आम चुनाव में बीजू जनता दल ने अपने कुल टिकटों का 33 प्रतिशत महिलाओं को दिया है तो त्रिणमूल कां्रगेस ने अपने टिकटों के 45 प्रतिशत पर महिलाओं को खड़ा किया है। पूरे देश में राश्ट्रीय दलों ने लगभग आठ फीसदी उम्मीदवार महिला घोशित की हैं।
नीचे दी गई तालिका दर्शाती है कि 1952 में प्रथम लोक सभा में महिलाओं की भागीदारी जो मात्र 5 प्रतिशत थी जो 16वीं लोक सभा में दुगनी ही हो पाई है।
तालिका-
सन लोकसभा संख्या प्रतिशत
1952 1 5
1957 2 5
1962 3 7
1967 4 6
1971 5 5
1977 6 4
1980 7 6
1984 8 8
1989 9 5
1991 10 8
1996 11 8
1998 12 8
1999 13 10
2004 14 9
2009 15 11
2014 16 11.3
यह बहुत सुखद है कि पंचायत व स्थानीय निकायों में महिलओं के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित रहने के 73वें संविधान संशोधन के बाद देश में महिला राजनैतिक नेतृत्व की बडी जमात सामने आई हैं। यह भी सच है कि बहुत से निकायों में जीतती तो महिला है लेकिन सारा काम ‘‘सरचंप-पति’ या ‘‘पार्शद पति’’ के नाम पर होता है। 73वें संविधान संशोधन में महिलाओं को सदस्य व अध्यक्ष पदों के आरक्षण प्राप्त हुआ जिसके कारण लगभग 2.5 लाख ग्राम पंचायत, 5000 से अधिक पंचायत समितियों व 500 से अधिक जिला पंचायतों में विभिन्न वर्गों की लगभग 11 लाख महिलाएँं चुनकर आई हैं। इस प्रावधान ने महिलाओं की दबी ऊर्जा को उजागर किया है। शुरू में संदेह किया जा रहा था कि इतनी महिलाएँं कहां से ढूंढी जाएँंगी। लेकिन यह संदेह निराधार साबित हुआ क्योंकि पंचायतों में महिलाएँं कुछ राज्यों में तो एक-तिहाई से ज्यादा चुनकर आईं। फ्रांस के लेखक गुअवर्ट ने कहा था कि पुरुष कानून बनाता है और महिलाएँं उन पर आचरण करती हैं। महिला आरक्षण विधेयक महिलाओं को योग्य बनाता है, कानून बनाने के लिए भी और आचरण करने के लिए भी। सच्चाई यह है कि प्रकृति ने स्त्री को बहुत शक्ति दी है, जबकि कानून ने उन्हें बहुत कम शक्ति दी है।
सारे देश से हजारों-हजार उदाहरण अब ऐसे सामने आ रहे हैं जहां महिला सरपंचों ने अधिक पारदर्शिता से बेहतर काम किए हैं । कई एक जगह देश-विेदश से उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुकी महिलाओं ने पंचायतों की जिम्मेदारी संभाली और समूचे परिवेश को ही बदल दिया। आज भारत में महिलाएं एक बड़े सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। जिसमें उनके शिक्षा,स्वास्थय और सुरक्षा जैसे मुद्दे सभी दलों की प्राथमिकता में हैं। अब महिलाएं मतदान में भी निर्णायक भूमिका निभा रही हैं , जाहिर है कि कानून के निर्माण में भी उनकी सहभागिता सुनिश्चित करने का माकूल समय आ गया है।
यहां महात्मा गांधी को याद करना जरूरी होगा। महात्मा गांधी के सार्वजनिक जीवन में आगमन से पहले भारत में जितने भी सुधारवादी आंदोलन चले, उनका बल महिलाओं को उचित स्थान व सम्मान दिलाने पर था, लेकिन महिलाओं को स्थानीय, राज्य व केंद्र स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी मिले, इसके लिए कोई खास प्रयोग नहीं हुए। महात्मा गांधी ने पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन को महिलाओं की मुक्ति से जोड़ा था। सन 1925 में उन्होंने कहा था, ‘‘जब तक भारत की महिलाएँं सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेंगी, तब तक इस देश को मुक्ति नहीं मिल सकती। ... मेरे लिए ऐसे स्वराज का कोई अर्थ नहीं है, जिसको प्राप्त करने में महिलाओं ने अपना भरपूर योगदान न किया हो।’’ गांधीजी की पहले पर पहली बार महिलाएँं बड़े पैमाने पर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हुईं। उन्होंने अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित की। यह भी सिद्ध किया कि भारत के पिछड़ेपन का एक कारण उनकी उपेक्षा भी है।
समूचा परिदृश्य उत्साहवर्धक तो है लेकिन हालात अभी भी उतने सकारात्मक नहीं हैं। रोजगार व मेहनताना में औरतों के साथ भेदभाव, रीति-रिवाज और मर्यादा के नाम पर महिला को दबा कर रखना, बच्ची के जन्म पर नाखुशी, घरेलू हिंसा जैसी कई चुनौतियां अपने घेरे को तोड़ कर बाहर आ रही महिलाओं के रास्तें में खड़ी हैं। इनसे निबटने के लिए आवश्यक है कि विधायिका में उनकी निर्णायक भागीदारी जरूरी हैं। उम्मीद की जाना चाहिए कि आज उनकी मतदान में भागीदारी बढत्री हैं, घोशणापत्रों में उनके मुद्दों पर विमर्श बढत्रा है, वह दिन दूर नहीं जब उनकी संदन में भागीदारी भी निर्णायक होगी।
बाक्स
नौ राज्यों में महिला मतदाता पुरूश से ज्यादा
नवीनतम मतदाता सूची के अनुसार, देश में कुल मतदाताओं की संख्या 89.87 करोड़ है जिनमें 46.70 करोड़ पुरुष और 43.17 करोड़ महिलाएं हैं। मतदाता सूची के अनुसार, पूर्वाेत्तर और दक्षिण भारत के 9 राज्यों में पुरुषों की तुलना में महिला मतदाताओं की संख्या अधिक है। चुनाव आयोग द्वारा आम चुनाव के लिए जारी आंकड़ों के अनुसार, लैंगिक अनुपात के मामले दक्षिणी राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और पुदुचेरी के अलावा पूर्वाेत्तर राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और मिजोरम अग्रणी राज्य हैं। शेष भारत से सिर्फ गोवा एकमात्र राज्य है जहां महिला मतदाताओं की अधिकता है। राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं का लैंगिक अनुपात 958 है।
आंकड़ों के अनुसार, लैंगिक अनुपात के लिहाज से पुडुचेरी में एक हजार पुरुषों पर 1117 महिला मतदाता हैं। केरल में यह संख्या 1066, तमिलनाडु में 1021 और आंध्र प्रदेश में 1015 है। वहीं पूर्वाेत्तर राज्यों में यह संख्या 1054 से 1021 के बीच है। मतदाताओं के लैंगिक अनुपात के मामले में दिल्ली देश में सबसे पीछे है। यहां एक हजार पुरुषों की तुलना में 812 महिला मतदाता है। दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा सहित सात राज्यों में मतदाताओं का लैंगिक अनुपात 800 से 900 के बीच है।