My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

Women in Democracy festival

आधी आबादी: चौखट से चौपाल तक
पंकज चतुर्वेदी

17चीं लोकसभा के लिए अपनी पसंदीदा सरकार के चुनने की प्रक्रिया के पहले चरण में जिन 91 सीटों पर मतदान हुआ, उसकी सबसे सुखद बात यही है कि आधी आबादी अपना चूल्हा-चौका, घूंघट-घर की चौखट पार कर अपने मताधिकार का प्रयोग करने को मुखर हो कर निकली।  पहले चरण में बिहार की जिन चार सीटों पर मतदान हुआ, उनमें महिला मतदाताओं का प्रतिशत 54.25 रहा जबकि 52.76 फीसदी पुरुष  मतदाता ही मतदान केंद्र तक पहुंचे। उडिसा में भी महिला मतदान का प्रतिशत 74.43 रहा जोकि पुरुष  मतदाता 73.09 फीसदी से अधिक था। सनद रहे अभी तक माना जाता रहा है कि घर की महिला प्रायः अपने घर के प्रमुख या पुरुष  के निर्देश पर वोट डालती रही है लेकिन जब महिला मतदाता की संख्या के आंकड़े इस तरह उत्साहवर्धक आ रहे है। तो आशा की जा सकती है कि अब औरतों की बड़ी संख्या वास्तव में लोकतंत्र के पर्व में अपनी इच्छा व स्वतंत्रता से मतदान कर पा राही है।  आखिर ऐसा होता भी क्यों नहीं ? हर राजनीतिक दल की आकांक्षा अधिक से अधिक महिलाओं का रुझान अपने पक्ष में करने का जो है। सभी दल महिला सुरक्षा, रोजगार, स्व सहायता समूह, महिला और बाल विकास की परियोजनओं, बेटी के जन्म पर प्रोत्साहन राशि, बच्च्यिों की पढ़ाई के लिए विशेष  वजीफा या बच्ची के विवाह पर सरकारी सहायता जैसी अनगिनत योजनाओं को अपने वायदों के पिटारे में सहेजे हुए हैं जिनसे महिला को समाज में पुरूश की बराबरी का दर्जा मिले।
हालांकि लेाकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। सन 1893 में न्यूजीलैंड ऐसा पहला देश बना था जहां औरतों को मर्दो के बराबर अपनी सरकार चुनने के लिए मतदान का हक मिला था, उसके बाद सन 1902 में आस्ट्रेलिया में यह हक महिलाओं को मिला। खुद को सबसे सुसंस्कृत कहने वाले ग्रेट ब्रिटेन में औरतों की अपपी पसंद की सरकार चुनने में भागीदारी सन 1928 में हुई। तभी सन 1935 में जब ब्रितानी संसद में भारतीयों को स्वशासन के हक के लिए सरकार को निर्वावित करने का बिल पास होना था, तब बहुत से सांसद औरतों के लिए मतदान के हक में नहीं थे। लेकिन आजादी की लड़ाई के अगुआ नेता इसके लिए अड़ गए और सन 1937 में संपन्न पहले आम चुनाव में महिलओं को समान मत देने का हक मिला।  हालांकि उस चुनाव में बहुत कम औरतें वोट देने पहुंचीं। सन 1952 के पहले आम चुनाव में तो औरतों के नाम मतदाता सूची में दर्ज करना भी कठिन था। निरक्षरता तो थी ही, साथ में महिलाएं अपने पति या पिता का नाम तक नहीं बोलती थीं। कई महिलाएं किसकी बेटी या किसकी पत्नी के रूप् में ही पहचानी जाती थीं। जान कर आश्चर्य होगा कि पहली मतदाता सूची में कोई 28 लाख नाम इसी तरह के थे - अमुक की पत्नी या बेटी।
इसके बाद में जैसे-जैसे हमारा लोकंतत्र परिपक्व हुआ, संसद और विधानसभाओं में ना केवल निर्वाचित महिलाओं की संख्या बढ़ी, बल्कि उन्हें महत्वर्पूर्ण जिम्मेदारियां भी मिली। आज देश में लोकसभा की अध्यक्ष, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री महिलाएं हैं। इससे पूर्व प्रधानमंत्रीं, रा ष्ट्रपति  पदों तक महिलाएं पहुंची हैं। यह स्थिति तब है जब सदन में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें सुरक्षित करने का विधेयक सालों से लटका हुआ है। सन 2019 के आम चुनाव में बीजू जनता दल ने अपने कुल टिकटों का 33 प्रतिशत महिलाओं को दिया है तो त्रिणमूल कां्रगेस ने अपने टिकटों के 45 प्रतिशत पर महिलाओं को खड़ा किया है। पूरे देश में राश्ट्रीय दलों ने लगभग आठ फीसदी उम्मीदवार महिला घोशित की हैं।
नीचे दी गई तालिका दर्शाती है कि 1952 में प्रथम लोक सभा में महिलाओं की भागीदारी जो मात्र 5 प्रतिशत थी जो 16वीं लोक सभा में दुगनी ही हो पाई है।
तालिका-
सन लोकसभा संख्या प्रतिशत
1952 1 5
1957 2 5
1962 3 7
1967 4 6
1971 5 5
1977 6 4
1980 7 6
1984 8 8
1989 9 5
1991 10 8
1996 11 8
1998 12 8
1999 13 10
2004 14 9
2009 15 11
2014 16 11.3

यह बहुत सुखद है कि पंचायत व स्थानीय निकायों में महिलओं के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित रहने के 73वें संविधान संशोधन के बाद देश में महिला राजनैतिक नेतृत्व की बडी  जमात सामने आई हैं। यह भी सच है कि बहुत से निकायों में जीतती तो महिला है लेकिन सारा काम ‘‘सरचंप-पति’ या ‘‘पार्शद पति’’ के नाम पर होता है। 73वें संविधान संशोधन में महिलाओं को सदस्य व अध्यक्ष पदों के आरक्षण प्राप्त हुआ जिसके कारण लगभग 2.5 लाख ग्राम पंचायत, 5000 से अधिक पंचायत समितियों व 500 से अधिक जिला पंचायतों में विभिन्न वर्गों की लगभग 11 लाख महिलाएँं चुनकर आई हैं। इस प्रावधान ने महिलाओं की दबी ऊर्जा को उजागर किया है। शुरू में संदेह किया जा रहा था कि इतनी महिलाएँं कहां से ढूंढी जाएँंगी। लेकिन यह संदेह निराधार साबित हुआ क्योंकि पंचायतों में महिलाएँं कुछ राज्यों में तो एक-तिहाई से ज्यादा चुनकर आईं। फ्रांस के लेखक गुअवर्ट ने कहा था कि पुरुष कानून बनाता है और महिलाएँं उन पर आचरण करती हैं। महिला आरक्षण विधेयक महिलाओं को योग्य बनाता है, कानून बनाने के लिए भी और आचरण करने के लिए भी। सच्चाई यह है कि प्रकृति ने स्त्री को बहुत शक्ति दी है, जबकि कानून ने उन्हें बहुत कम शक्ति दी है।
सारे देश से हजारों-हजार उदाहरण अब ऐसे सामने आ रहे हैं जहां महिला सरपंचों ने अधिक पारदर्शिता से बेहतर काम किए हैं । कई एक जगह देश-विेदश से उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुकी महिलाओं ने पंचायतों की जिम्मेदारी संभाली और समूचे परिवेश को ही बदल दिया। आज भारत में महिलाएं एक बड़े सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। जिसमें उनके शिक्षा,स्वास्थय और सुरक्षा जैसे मुद्दे सभी दलों की प्राथमिकता में हैं। अब महिलाएं मतदान में भी निर्णायक भूमिका निभा रही हैं , जाहिर है कि कानून के निर्माण में भी उनकी सहभागिता सुनिश्चित करने का माकूल समय आ गया है।
यहां महात्मा गांधी को याद करना जरूरी होगा। महात्मा गांधी के सार्वजनिक जीवन में आगमन से पहले भारत में जितने भी सुधारवादी आंदोलन चले, उनका बल महिलाओं को उचित स्थान व सम्मान दिलाने पर था, लेकिन महिलाओं को स्थानीय, राज्य व केंद्र स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी मिले, इसके लिए कोई खास प्रयोग नहीं हुए। महात्मा गांधी ने पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन को महिलाओं की मुक्ति से जोड़ा था। सन 1925 में उन्होंने कहा था, ‘‘जब तक भारत की महिलाएँं सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेंगी, तब तक इस देश को मुक्ति नहीं मिल सकती। ... मेरे लिए ऐसे स्वराज का कोई अर्थ नहीं है, जिसको प्राप्त करने में महिलाओं ने अपना भरपूर योगदान न किया हो।’’ गांधीजी की पहले पर पहली बार महिलाएँं बड़े पैमाने पर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हुईं। उन्होंने अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित की। यह भी सिद्ध किया कि भारत के पिछड़ेपन का एक कारण उनकी उपेक्षा भी है।
समूचा परिदृश्य उत्साहवर्धक तो है लेकिन हालात अभी भी उतने सकारात्मक नहीं हैं। रोजगार व मेहनताना में औरतों के साथ भेदभाव, रीति-रिवाज और मर्यादा के नाम पर महिला  को दबा कर रखना, बच्ची के जन्म पर नाखुशी, घरेलू हिंसा जैसी कई चुनौतियां  अपने घेरे को तोड़ कर बाहर आ रही महिलाओं के रास्तें में खड़ी हैं। इनसे निबटने के लिए आवश्यक है कि विधायिका में उनकी निर्णायक भागीदारी जरूरी हैं।  उम्मीद की जाना चाहिए कि आज उनकी मतदान में भागीदारी बढत्री हैं, घोशणापत्रों में उनके मुद्दों पर विमर्श बढत्रा है, वह दिन दूर नहीं जब उनकी संदन में भागीदारी भी निर्णायक होगी।

बाक्स
नौ राज्यों में महिला मतदाता पुरूश से ज्यादा
नवीनतम मतदाता सूची के अनुसार, देश में कुल मतदाताओं की संख्या 89.87 करोड़ है जिनमें 46.70 करोड़ पुरुष और 43.17 करोड़ महिलाएं हैं। मतदाता सूची के अनुसार, पूर्वाेत्तर और दक्षिण भारत के 9 राज्यों में पुरुषों की तुलना में महिला मतदाताओं की संख्या अधिक है। चुनाव आयोग द्वारा आम चुनाव के लिए जारी आंकड़ों के अनुसार, लैंगिक अनुपात के मामले  दक्षिणी राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और पुदुचेरी के अलावा पूर्वाेत्तर राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और मिजोरम अग्रणी राज्य हैं। शेष भारत से सिर्फ गोवा एकमात्र राज्य है जहां महिला मतदाताओं की अधिकता है। राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं का लैंगिक अनुपात 958 है।
आंकड़ों के अनुसार, लैंगिक अनुपात के लिहाज से पुडुचेरी में एक हजार पुरुषों पर 1117 महिला मतदाता हैं। केरल में यह संख्या 1066, तमिलनाडु में 1021 और आंध्र प्रदेश में 1015 है। वहीं पूर्वाेत्तर राज्यों में यह संख्या 1054 से 1021 के बीच है। मतदाताओं के लैंगिक अनुपात के मामले में दिल्ली देश में सबसे पीछे है। यहां एक हजार पुरुषों की तुलना में 812 महिला मतदाता है। दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा सहित सात राज्यों में मतदाताओं का लैंगिक अनुपात 800 से 900 के बीच है।

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

Irrigation from Ponds can able to sustain agriculture

तालाबों से सिंचाई के जरिये बच सकती है खेती
पंकज चतुर्वेदी 

भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में भले ही खेती-किसानी का योगदान महज 17 फीसदी हो लेकिन आज भी यह रोजगार मुहैया करवाने का सबसे बड़ा माध्यम हे। ग्रामीण भारत की 70 प्रतिशत आबादी का जीवकोपार्जन खेती-किसानी पर निर्भर है।  लेकिन दुखद पहलु यह भी है कि हमारी लगभग 52 फीसदी खेती इंद्र देवता की मेहरबानी पर निर्भर है। महज 48 फीसदी खेतों को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है और इसमें भी ाूजल पर निर्भरता बढ़ने से बिजी, पंप, खाद, कीटनााशक के मद पर खेती की लागत बढ़ती जा रही है। एक तरफ देश की बढ़ती आबादी के लिए अन्न जुटाना हमारे लिए चुनौती है तो दूसरी तरफ लगातार घाअे का सौदा बनती जा रही खेती-किसानी को हर साल छोड़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। खेती-किसानी भारत की संस्कृति का हिस्सा है और इसे सहेजने के लिए जरूरी है कि अन्न उगाने की लगात कम हो और हर खेत को सिंचाई सुविधा मिले।
जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव अब सभी के सामने है, मौसम की अनिश्तिता और चरम हो जाने की मार सबसे ज्यादा किसान पर है। भूजल के हालात पूरे देश में दिनों-दिन खतरनाक होते जा रहे हैं। उधर बड़े बांधों के असफल प्रयोग  और कुप्र्रभावों के चलते पूरी दुनिया में इनका बहिष्कार हो रहा है। बड़ी सिंचाई परियोजनाएं एक तो बेहद महंगी होती हैं, दूसरा उनके विस्थापन व कई तरह की पर्यावरणीय समस्याएं खड़ी होती हैं। फिर इनके निर्माण की अवधि बहुत होती है। ऐसे में खेती को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए भारतीय समाज को डअपनी जड़ों की ओर लौटना होगा- फिर से खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों पर निर्भरता। यह जमीन की नमी सहेजने सहित कई पर्यावरणीय संरक्षण के लिए तो सकातरात्मक है ही, मछली पालन, मखाने, कमल जैसे उत्पादों के उगाने की संभावना के साथ किसान को अतिरिक्त आय का जरिया भी देता है। तालाबा को सहेजने और उससे पानी लेने का व्यय कम है ही। यही नहीं हर दो-तीन साल में तालाबों की सफाई से मिली गाद बेशकीमती खाद के रूप में किसान की लागत घटाने व उत्पादकता बढ़ाने का मुफ्त माध्यम अलग से है।
आजादी के बाद सन 1950-51 में लगभग 17 प्रतिशत खेत(कोई 36 लाख हैक्टेयर) तालाबों से सींचे जाते थे। आज यह रकवा घट कर 17 लाख हैक्टेयर अर्थात महज ढाई फीसदी रह गया है। इनमें से भी दक्षिणी राज्यों ने ही अपनी परंपरा को सहजे कर रखा। हिंदी पट्टी के इलाकों में तालाब या तो मिट्टी से भर कर उस पर निर्माण कर दिया गया या फिर तालाबों को घरेलू गंदे पानी के नाबदान मे बदल दिया गया। यह बानगी है कि किस तरह हमो किसानों ने सिंचाई की परंपरा से विमुख हो कर अपने व्यय, जमीन की बर्बादी को आमंत्रित किया।
आजादी के पहले पूरे देश में तालाबों को सहेजने, उसके पानी के इस्तेमाल करने की कई स्थानीय संस्थाएं थीं। दक्षिणी राजयों मे ‘एरी’ को संभालने का काम समाज ही करता था। बुंदेलखंड में काछी-ढीमर जैसे समाज के लेाग तालबों की देखााल करते थे और उसके एवज में वे तालबा की मछली, सब्जी आदि बेचते थे। जैसे ही तालबों के ठके उठने शुरू हुए, ज्यादा मछली और सब्जियों व अन्य उत्पाद के लोभ में ठेकेदारों ने इसमें रसायन, विदेशी मछली के बीज , ज्यादा पानी निकालने के लिए तालाब की संरचना से छेड़छाड़ और उसके जलआगम क्षेत्र में निर्माण जैसी कुरीतियों का प्रारंभ हुआ। अब ठेकेदार का उद्देश्य तो ज्यादा पैसा कमाना होता सो उसके  पानी या तालाब की परवाह क्यों कर होती।
कागजों पर तालाब संरक्षण के  प्रयोग भी खूब हुए। अब जिसने बोरिंग मशीन खरीदी है, उसे तो ज्यादा नलकूप खोदने के लिए घर-आंगन व खेतों के कुओं व तालाबों पर ग्रहण डालना ही था। सरकरों की नीति पर तालाबों के प्रति सकारात्मक नहीं रही। पहल सभी तालाब सन 2012 की ‘वेटलैंड नीति’ के तहत आर्द्रभूमि माना जता था।, एक जल स्त्रोत। सन 2017 की नीति में छोटे तालाबों से आर्द्रभूमि का रूतबा छीन लिया गया और इससे तालाबों पर अतिक्रमण करना, नष्ट करना और सरल हो गया। आज जब पाताल की गहराई तक सीना चीरने पर भी पानी की बूद नहीं मिल रही है तो समाज को याद आ रहा है कि यही तालाब जमीन को तर रखते थे।
उल्लेखनीय है कि हमारे देश में औसतन 1170 मिमी पानी सालाना आसमान से नियामत के रूप में बरसता है।  देश में कोई पांच लाख 87 हजार के आसपास गांव हैं।  यदि औसत से आधा भी पानी बरसे और हर गांव में महज 1.12 हैक्ेयर जमीन पर तालाब बने हों तो  देश की कोई 78 करोड़ आबादी के लिए पूरे साल पीने, व अन्य प्रयोग के लिए 3.75 अरब लीटर पानी आसानी से जम किया जा सकता है। एक हैक्टेयर जमीन पर महज 100मिमी बरसात होने की दशा में 10 लाख लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है। देश के अभी भी अधिकांश गांवों-मजरों में पारंपरिक तालाब-जोहड़, बावली, झील जैसी संरचनांए उपलब्ध हैं जरूरत है तो बस उन्हें करीने से सहेजने की और उसमें जमा पानी को गंदगी से बचाने की। ठीक इसी तरह यदि इतने क्षेत्रफल के तालाबों को निर्मित किया जाए तो किसान को अपने स्थानीय स्तर पर ही सिंचाई का पानी भी मिलेगा। चूंिक तालाब लबालब होंगे तो जमन की पर्याप्त नमी के कारण सिंचाई-जल कम लगेगा, साथ ही खेती के लिए अनिवार्य प्राकृतिक लवण आदि भी मिलते रहेंगे।
बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में 41 करोड़ खर्च कर सदानीरा जामनी नदी से चंदेलकालीन(900 से 1100वी सदी कंे बीच) तालाबों को जोड़ कर 188 एकड अतिरिक्त सिंचाई का रकवा बढ़ाने का प्रयोग हो चुका है। इस तरह की परियोजनाओं में इसान या जंगल के विसथापन की कोई संभावना नहीं रहतीं नहरें भी छोटी होती हैं तो उनकारख्रखाव स्थानीय समाज सहजता से कर सकता है।

यदि देश में खेती-किसानी को बचना है, अपी आबादी का पेट भरने के लिए विदेश से अन्न मंगवा कर विदेशी मुद्रा के व्यय  से बचना है, यदि शहर की ओर पलायन रोकना है तो जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर उपलब्ध तालाबों की ओर लौटा जाए। खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों के इस्तेमाल को बढ़ाया जाए और तालाबों को सहजेने के लएि सरकारी महकमों के बनिस्पत स्थानीय समजा को ही शामिल किया जाए।


शनिवार, 20 अप्रैल 2019

Easter

21 अप्रेल 2015
ईस्टर पर विशेष
वसंत का पर्व है ईस्टर
पंकज चतुर्वेदी
ईसाइयों के सबसे महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है ईस्टर। यह हमेशा 22 मार्च से 25 अपै्रल के बीच किसी रविवार के दिन मनाया जाता है। वसंत ऋतु की पहली पूर्णमासी के बाद आने वाला पहला रविवार। शुरुआत में इस बात पर बड़ा विवाद था, क्योंकि ईस्टर का आरंभ यहूदी फसह पर्व से जुड़ा हुआ था, जो महीने के चौदहवें दिन मनाया जाता था। 325वें रोमन केथोलिक सम्राट कांस्टेंटाइन ने नीकिया में अपने साम्राज्य के सारे धर्मगुरुओं का महा-अधिवेशन बुलाया और यह प्रस्ताव रखा कि मध्य वसंत की पहली पूर्णमासी के बाद आने वाले रविवार को ईस्टर घोषित करें। 1752 में ब्रिटिश संसद ने इस तिथि को धर्मनियम की संसद के जरिए कानूनी जामा पहनाया।

ईस्टर, ईसामसीह के दुखों, सलीब पर मृत्यु और तीसरे दिन उनके पुनर्जीवन की याद में मनाया जाता है। ‘ईस्टर’ का मतलब पुरानी ‘ऐंग्लो-सेक्शन जाति की वसंत की देवी ‘ओस्टर’ है, जिसके नाम पर ‘ईस्टर का महीना’ यानी अपै्रल का महीना था। नार्वे की भाषा में वसंत ऋतु में फसह का पर्व मनाते थे। यहूदियों के मिस्र की गुलामी से मुक्ति तथा फसल कटाई दोनों का प्रतीक था। फसह के दिन करीब तीन बजे  ईसामसीह को सलीब पर लटकाया गया था। लेकिन वे तीसरे दिन पुनर्जीवित हो गए थे। यह इस्राइली नबियों की प्राचीन नबूवतों के अनुसार हुआ। इस तरह यहूदी फसह पर्व में ईसा के पुनर्जीवन का नया तत्व जुड़ गया। शुरूआत में यहूदी ही ईसा के मानने वाले बने थे।

फसह की तरह ही ईसामसीह के पुनर्जीवन की याद में ईस्टर मनाया जाने लगा। प्राचीन यूनानी और पूर्वी यूरोप के ईसाई ईस्टर को पवित्रा और महान मानते हैं, और इस दिन एक-दूसरे का ‘ईसा जी उठे हैं’ कहकर अभिवादन करते हैं। निस्संदेह वह जी उठे हैं। कहकर उत्तर दिया जाता है।

शुरू में ईस्टर शनिवार के उपवास के बाद शनिवार शाम से रविवार सूर्योदय तक मनाया जताा था। रात के अंधकार के बाद सूर्योदय का प्रकाश नवजीवन का प्रतीक है। इसलिए चर्चों में रविवार की सुबह बपतिस्मा संस्कार किया जाता है। ईस्टर रात में मनाया जाता था इसलिए ‘ज्योति पर्व’ के रूप में मनाया जाने लगा। ईस्टर पर गिरजाघर, गांव और शहर, मोमबत्तियों, बिजली के लट्टुओं से प्रकाशित किए जाते हैं। ‘यरूशलम के गिरजाघरों में आठ दिन तक मोमबत्तियां जलायी जाती हैं।

लोक कथाओं में खरगोश का निवास चंद्रमा बताया जाता । चीन में इन राजवंश के युग कौंसे का एक आईना खुदाई में मिला, जिस पर यह चित्र अंकित है; खरगोश चंद्रमा में ऊखल से मूसल से अमृत की औषधि कूट रहा है।’ दक्षिण अफ्रीका की खोइ और सन् जनजातियों की संस्कृति में भी खरगोश का निवास चंद्रमा माना गया है। यूनानी-रोमन संस्कृति में खरगोश की कई उपयोगिताएं हैं। वह कामुकता का प्रतीक माना जाता है। वह उभयलिंगी होता है और उसका मांस खाने से कामोत्तेजना बढ़ती है। कामदेवता इरोस को, जो पशुओं का शिकार करता है, उसका मांस प्रिय है। सबसे महत्वपूर्ण संबंध है डायोनिस देवता के साथ। यह प्रेम उर्वरता, जीवन, मृत्यु तथा अमरत्व का देवता है। यूनानी रोमन खरगोश का शिकार करते, उसके टुकड़े-टुकड़े करते, उसको खाते और एक-दूसरे के प्रति प्रेम प्रकट करने के लिए मांस का उपहार देते थे।

अंडा नवजीवन का प्रतीक है। नवजीवन बड़े (अर्थात मृत्यु को) अंडकवच को तोड़कर बाहर निकलता है। यह ईसाई धर्म के शुरू होने से बहुत पहले शायद सारी दुनिया की संस्कृतियों में प्रचलित था। शुरूआत से ही अंडा को मनुष्य को आश्चर्यचकित करता रहा है कि इस कठोर जीवनरहित चिकनी वस्तु में से कैसे जीवित चूजा निकल पड़ता है। वह यह रचनात्मक-प्रक्रिया जानना चाहता था। सृष्टि की रचना केसे हुई?

ईसा पूर्व 1569-1085 में लिखित और मिस्र में प्राप्त पपीरस (पटेरा, तालपत्रा) पांडुलिपि में बताया गया है कि धरती एक अंडा थी, जो आदिम जलाशय में से ऊपर निकलता है। भारतीय ग्रंथों में-उपनिषद में सृष्टि रचना का प्रथम कार्य अंडे का दो भागों में विभाजन है। ऋग्वेद में सृष्टिकर्ता, प्रजापति, सृष्टि-जल को उर्वर बनाते हैं और वह स्वर्ण अंडे में परिवर्तित हो जाता है। उसके भीतर ब्रह्मा शयन करते हैं और उनके साथ भूमि, सागर, पर्वत,  नक्षत्रा देवता तथा समस्त मानवजाति है। ऐसी कथाएं चीन तथा बौद्ध जातकों में भी पाई जाती हैं।

यहूदी परंपरा में अंडे का महत्व उल्लेखनीय है, फसह पर्व तथा पेंतिकुस्त पर्वों के मध्य तैंतीसवें दिन रब्बी शिमौन बार मौखई की स्मृति में ‘लग-बा-उमेर’ नामक आनंद उल्लास का एक पर्व मनाया जाता है। माता-पिता अपने बच्चों के साथ खुले मैदान में पिकनिक मनाते हैं और रंगीन अंडे खाते हैं। फसह के भोजन में उबला अंडा खाया जाता है, जो पुनर्जन्म का प्रतीक माना गया है।

ईसाइयों के लिए ईस्टर अंडा ईसा के मृतकोत्थान का प्रतीक है। जैसे चूजा अंडा फोड़कर बाहर निकलता है, वैसे ही ईसामसीह कब्र के बाहर पुनर्जीवित होकर निकल आते हैं। किसी-किसी गिरजाघर में कब्र की अनुकृति बनाकर उस पर अंडा रखा जाता है और पुरोहित, आराधकों का अभ्विादन करता है, ‘ईसा फिर जीवित हो गये हैं’ आराधक उत्तर देते हैं, ‘निश्चय ही ईसा जीवित हो गये हैं।’

सच तो यह है कि सारी दुनिया की संस्कृतियों में अंडा जीवन, सृष्टि, उर्वरता और पुनरुत्थान का प्रतीक है। जीवन चक्र की संपूर्ण घटनाओं से यह जुड़ा है: जन्म, प्रेम, विवाह, बीमारी तथा मृत्यु। अंडे से शक्ति प्राप्त होती है, क्योंकि अंडे में जीवन का बीज है। चर्च के शुरूआती वर्षों में मृतक के साथ कब्र में अंडे रख दिए जाते थे। बाद में अंडे को ईस्टर से जोड़ दिया गया। चर्च ने इस गैर ईसाई प्रथा का विरोध नहीं किया, क्योंकि अंडा पुनरुत्थान का एक सशक्त प्रतीक था। वह मृत्यु को जीवन में परिवर्तित करता था।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

Election reforms are immediate requirement

बड़े सुधारों के बगैर बेमानी है लोकतंत्र का मौजूदा स्वरूप
पंकज चतुर्वेदी


17वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार का दूसरा चरण भी हो गया। आम जनता के मुद्दे नदारद है।। सांसद  का चुनाव लड़ने वाले नाली साफ करवाने या बगीचा या सड़क बनवाने के वायदे कर रहे हैं, । असल में ये काम तो स्थानीय निकाय के पार्शद या सरपंच के होते हैं। न तो उम्मीदवार और न ही जनता समझ पा रही है कि हमें सरपंच के साथ-साथ सांसद की जरूरत क्यों है। और सांसद का असली काम क्या है। चुनाव प्रचार में गाय, जिन्ना, पाकिस्तान और उससे आगे निजी आरोप-गालीगलौज की जो भरमार हुई उससे साफ हो गया कि सियासत का जन सरोकार से कोई वास्ता रह नहीं गया है।  चुनाव के प्रचार अभियान ने यह साबित कर दिया कि लाख पाबंदी के बावजूद चुनाव ना केवल महंगे हो रहे हैं, बल्कि सियासी दल जिस तरह एक दूसरे पर शुचिता के उलाहने देते दिखेे, खुद को पाक-साफ व दूसरे को चोर साबित करते रहे हैंें, असल में समूचे कुंए में ही भांग घुली हुई हैं। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई हैं और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं। वास्तव में यह लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र था, यह चरम बिंदू है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है। जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिशा में काम नहीं करना चाहता है।

आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रूचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना - ये कुछ ऐसी बुराईयां हैं जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और इस बार ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं। कहीं पर हजारों मतदाताओं के नाम गायब हैं तो नगालैंड में एक राजनेता कैमरे के सामने 11 वोट डाल लेता है। गाजियाबाद में रहने वाले पुर्व मुख्य चुनाव आयुक्त या कर्नाटक निर्वान आयोग के ब्रंाड एंबेसेडर राहुल द्रविड का नाम ही मतदाता सूची में नहीं होता और किसी भी जिम्मेदार पर कड़ी कार्यवाही होती नहीं। कई बार निर्वाचन आयोग असहाय सा दिखा और फिर आयोग ने ही अपने खर्चे इतने बढ़ा लिए हैं कि वह आम आदमी के विकास के लिए जरूरी बजट पर डाका डालता प्रतीत होता है।
जाति, गौत्र, धर्म के नाम पर या शराब, साड़ी के लालच में या फिर बाहुबल से धमका कर मतदान को अपने पक्ष में करने की जुगाड़ तलाशना जब दिल्ली जैसे शिक्षित, जागरूक व सत्ता-शिखर में सरेआम होती दिखती है तो जरा कल्पना करें उन गांवंों की जहां सरकारी अमला पहुंचता नहीं है, मीडिया को उसका पता ही नहीं है, वहां क्या हाल होता होगा। बड़े-बड़े रणनीतिकार  मतादता सूची का विश्लेशण कर तय करे लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां एक वोट या पांच लाख वोट से जीते दोनेां तरह के सांसदों के समान अधिकार होते हैं। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राहण वोट के। केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर सांसदों का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा।
कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राशि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयशुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याशी चुनने  में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रशासनिक  दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याशी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं । सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याशी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविशेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजुट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मशीन का आकार बढ़ जाता है । चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्दों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों,, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देश के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है ।
यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लेमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। ऐसे में सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की पीढ़ी बढ़ती जा रही है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीशाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा।
इस समय चुनाव करवाना बेहद खर्चीला होता जा रहा है, तिस पर यदि किसी राज्य में दो चुनाव हो जाएं तो सरकारी खजाने का दम तो निकलता ही ही है, राज्य के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवश्यक काम भी आचार संहिता के कारण रूके रहते हैं । ऐसे में नए चुनाव सुधारों में तीनों चुनाव(कम से कम दो तो अवश्य) लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एकसाथ करवाने की व्यवस्था करना जरूरी है। रहा सवाल सदन की स्थिरता को तो उसके लिए एक मामूली कदम उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव खुले सदन में वोट की कीमत यानी जो जितने वोट से जीता है, उसके वोट की सदन में उतनी ही अधिक कीमत होगी; के आधार पर पांच साल के लिए हो।
सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुश भी स्थाई व मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में कम से कम दो प्रतिशत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम ‘दिल्ली में घोडा़ मंडी’’ की रोक का सशक्त जरिया बन सकता है। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की षर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याशी लोकतंत्र का मजाक ना बना पाएं। सनद रहे कि 16 से अधिक उम्मीदवार होने पर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन की एक से अधिक यूनिट लगानी पड़ती है, जो खर्चीली भी है  और जटिल भी। जमानत जब्त होने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को अगले दो किसी भी चुनावों में लड़ने से रोकना जैसे कुछ कड़े कानून समय की मांग हैं।
1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा । चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घड़ियाली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि  राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरेक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित ऑडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाता है तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा करती हैं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है । यहां तक कि नई नई राजनीति में आई आम आदमी पार्टी पर अपने विदेशी चंदे के हिसाब को सबके सामने रखने में गोलमोल करने के आरोप हैैंं।
एक बात और हमें पाकिस्तान से सीख लेना चाहिए कि चुनाव से पहले सरकार भ्ंाग हो और किसी वरिश्ठ न्यायाधीश को कार्यवाहक सरकार का जिम्मा दे दी जाए। इससे चुनाव में सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल की कुरीति से बचा जा सकता हे। आज प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री सरकारी जहाज व सुविधा पर प्रचार करते हैं, कई जगह अफसरों को प्रभाचित करने की खबरें भी आती हैं।
पंकज चतुर्वेदी ,
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376




गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

expansion of urbanisation is eating traditional water resources

पारंपरिक जल-निधियों को उजाड़ कर हो रहा नगरीय विस्तार

पंकज चतुर्वेदी 

दिल्ली का चमचमाती सड़कें, बंगलूरू के आलीषान आफिस या हैदराबाद व चैन्ने के बड़े-बड़े कारखाने भले ही हमें देष के वैभव व संपन्नता पर गर्व करने का एहसास कराते हों, लेकिन हकीकत यह है कि इस भौतिक चमक-दमक पाने के लिए हमने उन जल-निधियों की कुर्बानी दी है जिनके बगैर धरती पर इंसान के अस्तित्व को खतरा है। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और, उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचाैंंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृति का परिणाम है कि षहरों का विस्तार हो रहा है और इस बढ़ती आबादी के लिए आवास, सड़क, रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए अनिवार्य जमीन की मांग को पूरा करेने के लिए उन नदी-तालाब- झील-बावली को उजाड़ा जा रहा है जो सदियों-पुष्तों से समाज को जिंदा रखने के लिए जलापूर्ति करते रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर में कई ऐसी बस्तियों हैं जहां गगनचुंबी इमारतें भले ही भव्य दिखती हों, लेकिन जल-संपदा के मामले में वे कंगाल हैं और इसका कारण है कि हजारों की प्यास बुझाने वाले संसाधन को सुखा कर वे इमारतें खड़ी की गईं।


महानगर या षहर की ओर पलायन देष की सबसे बड़ी त्रासदी है तो इसे अर्थषास्त्र की भाशा में सबसे बड़ी प्रगति कहा जाता है। चौड़ी सड़कें, चौबीसों घंटे बिजली, दमकते बाजार, बेहतर स्वास्थ्य और षिक्षा सुविधाएं केवल इंसान को ही नहीं व्यापार-उद्योग को भी अपनी तरफ खींचती हैं। बीते एक दषक में महानगरों में आबादी विस्फोट हुआ और बढ़ती आबादी को सुविधांए देने के लिए खूब सड़कें-ब्रिज, भवन भी बने। यह निर्विवाद तथ्य है कि पानी के बगैर मानवीय सभ्यता के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। विकास के प्रतिमान बने इन षहरों में पूरे साल तो जल संकट रहता है और जब बरसात होती है तो वहां जलभराव के कारण कई दिक्क्तें खड़ी होती हैं। षहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना जिसका परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए , दैनिक कार्यों के लिए , नाकि उसमें गंदगी बहाने के लिए। और दूसरी तरफ षहर हैं कि हर साल बढ़ रहे हैं। देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गयी है । जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे । यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है । इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गयी है । पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैंकड़ा हो गये हैंं । विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है । विष्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले षहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देष के सकल घरेलू उत्पाद मे ंयोगदान 70 प्रतिषत होगा।

राजधानी दिल्ली के नदी-तालाब रूठे
राधानी दिल्ली की बढ़ती बेतहाषा आबदी, पानी की कमी और उस पर सियासत किसी से छुपी नहीं है। कहने को दिल्ली की सीमा में यमुना जैसी सदानीरा नदी 28 किलोमीटर बहती है, लेकिन दिल्ली में यमुना को जो नुकसान होता है उससे वह अपने विसर्जन-स्थल तक नहीं उबर पाती। राजधानी में यमुना में हर दिन लाखों लीटर घरों के निस्तार व काराानों का जहरीला पानी तो मिलता ही है, इसके तटों को सिकोड़ कर निर्माण करना, इसके तटों के पर्यावास से छेड़छाड़ निरंकुष है परिणाम  है कि जिस यमुना के कारण दिल्ली षहर को बसाया गया, वही यमुना अब षहर की बैरन हो गई है। दिल्ली में अकेले यमुना से 724 मिलियन घनमीटर पानी आता है, लेकिन इसमें से 580 मिलियन घन मीटर पानी बाढ़ के रूप में यहां से बह भी जाता है। हर साल गरमी के दिनों में पानी की मांग और सप्लाई के बीच कोई 300 एमजीडी पानी की कमी होना आम बात है।  राजधानी का चमकता चेहरा कई तालाबों की बलि चढ़ा कर किया गया है, यह बात अदालतें भी जानती हैं।
दिल्ली-गुड़गांव अरावली पर्वतमाला के तले है और अभी सौ साल पहले तक इस पर्वतमाला पर गिरने वाली हर एक बूंद ‘डाबर‘ में जमा होती थी। ‘डाबर यानि उत्तरी-पश्चिम दिल्ली का वह निचला इलाका जो कि पहाड़ों से घिरा था। इसमें कई अन्य झीलों व नदियों का पानी आकर भी जुड़ता था। इस झील का विस्तार एक हजार वर्ग किलोमीटर हुआ करता था जो आज गुडगांव के सेक्टर 107, 108 से ले कर दिल्ली के नए हवाई अड्डे के पास पप्पनकलां तक था। इसमें कई प्राकृतिक नहरें व सरिता थीं, जो दिल्ली की जमीन, आवोहवा और गले को तर रखती थीं। आज दिल्ली के भूजल के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक बना नजफगढ़ नाला कभी जयपुर के जीतगढ़ से निकल कर अलवर, कोटपुतली, रेवाड़ी व रोहतक होते हुए नजफगढ़ झील व वहां से दिल्ली में यमुना से मिलने वाली साहिबी या रोहिणी नदी हुआ करती थी । इस नदी के जरिये नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना में मिल जाया करता था।
ठीक इसी तरह  दिल्ली से सटे गाजियाबाद में मकान का सुरसामुख हर प्राकृतिक संरचना को निरंकुष रूप से उदरस्थ कर रहा । अकेले गाजियाबाद नगरनिगम क्षेत्र के 95 तालाबों पर पक्के निर्माण हो गए। षहर के 28 तालाब अभी भी अपने अस्तित्व की लड़ाई समाज से लड़ रहे हैं जबकि 78 तालाबों को रसॅूखदार लोग पी गए। जाहिर है कि जब बाड़ ही खेत चर रही है तो उसका बचना संभव ही नहीं है। अब एक और हास्यास्पद बात सुनने में आई है कि कुछ सरकारी महकमे हड़प किए गए तालाबों के बदले में और कहीं जमीन देने व तालाब खुदवाने की बात कर रहे हैं।  कंक्रीट का विस्तार यहीं नहीं रूका, हिंडन नदी के तट पर दस हजार से ज्यादा मकान खड़े कर दिए गए। सदानीरा हिंडन में घरों व कारखानों का इतना कचरा गिराया गया कि अब इसमें जीव या वनस्पित का नामोनिशान नहीं है या यों कहें कि नदी अब मृतप्राय है।
यह तो बानगी है दिल्ली व उससे सटे महानगरीय क्षेत्रों की। बंगलूरू में तो सरकारी रिकार्ड में 167 तालाबों पर सड़क, कालेानी, स्टेडियम, कारखाने बना दिए गए। अब किसी भी षहर में जाएं कुछ दषक पहले तक जहां पानी लहलहाता था, अब कंक्रीट संरचनांए दिख रही हैं। यह समझना जरूरी है कि समाज जिन जल-निधियों को उजाड़ रहा है, वैसी नई संरचनांए बनाना असंभव है क्योंकि उन जल निधियों को हमारे पूर्वजों ने अपने पारंपरिक ज्ञान व अनुभव से इस तरह रचा था कि कम से कम बरसात में भी समाज का गला तर रहे।आज समय की मांग है कि मानवीय अस्तित्व को बचाना है तो महानगरों के विस्तार के बनिस्पत  जल संरचनओं को अक्षुण्ण रखना अनिवार्य हे।






रविवार, 7 अप्रैल 2019

Save the life of border fishermen

       मछुआरों पर तो सहमति बना ले भारत-पाक

पंकज चतुर्वेदी

छह अप्रैल, 2019 को पाकिस्तान के एक बड़े अंग्रेजी अखबार 'डॉन' ने पेज तीन पर दो कॉलम की बड़ी खबर छापी, जिसमें भारत के 360 'बंदी' रिहा करने की बात थी। हालांकि ये बंदी नहीं, बल्कि तकदीर के मारे वे मछुआरे थे जो जल के अथाह सागर में कोई सीमा रेखा नहीं खिंचे होने के कारण सीमा पार कर गए थे और हर दिन अपनी जान की दुहाई मांगकर जिंदगी काट रहे थे। ठीक उसी दिन इसी अखबार के पहले पन्ने के ऊपरी हिस्से में और फिर पेज तीन पर बड़ी स्टोरी छापी, जिसमें भारत की जेल में बंद नूर उल आलिम की लाश बाघा सीमा के जरिए करांची पहुंचने की खबर है। अखबार कहता है कि मृतक की दोनों आंखें व किडनी गायब थी, उसका सिर फटा हुआ था। कहा गया कि भारतीय जेल में हुई मारापीटी में उसकी मौत हुई। एक तरफ निर्दोष मछुआरों को छोड़ने के प्रयास हैं तो दूसरी तरफ दोनों तरफ की समुद्री सीमओं के रखवाले चौकन्ने हैं कि मछली पकड़ने वाली कोई नाव उनके इलाके में न आ जाए। 

जैसे ही कोई मछुआरा मछली की तरह दूसरे के जाल में फंसा, स्थानीय प्रशासन व पुलिस अपनी पीठ थपथपाने के लिए उसे जासूस घोषित कर ढेर सारे मुकदमे ठोक देती है और पेट पालने को समुद्र में उतरने के लिए जान जोखिम में डालने वाला मछुआरा किसी अंजान जेल में नारकीय जिंदगी काटने लगता है। सनद रहे यह दिक्कत केवल पाकिस्तान की सीमा पर ही नहीं है, श्रीलंका के साथ भी मछुआरों की धरपकड़ ऐसे ही होती रहती है। जो 360 बंदी रिहा हो रहे हैं उनके अलावा हमारे देश के कई सौ ऐसे मछुआरे और भी हैं जो गलती से पानी की सीमा पार कर दूसरी तरफ चले गए और वहां नारकीय जीवन जी रहे हैं।
ठीक ऐसा ही पाकिस्तान के मुछआरों के साथ भी है जो पेट भरने के लिए मछली पकड़ने दरिया में उतरे, लेकिन खुद ही सुरक्षा बलों के जाल में फंस गए। कसाब वाले मुंबई हमले व अन्य कुछ घटनाओं के बाद समुद्र के रास्तों पर संदेह होना लाजिमी है, लेकिन मछुआरों व घुसपैठियों में अंतर करना इतना भी कठिन नहीं है जितना जटिल एक-दूसरे देशों की जेल में समय काटना है। एक तो पकड़े गए लोगों की आर्थिक हालत ऐसी नहीं होती कि वे दूसरे देश में कानूनी लड़ाई लड़ सकें। दूसरा दीगर देशों के उच्चायोग के लिए मछुआरों के पकड़े जाने की घटना उनकी चिंता का विषय नहीं होती। पिछले साल गुजरात का एक मछुआरा दरिया में तो गया था मछली पकड़ने, लेकिन लौटा तो उसके शरीर पर गोलियां छिदी हुई थीं। उसे पाकिस्तान की समुद्री पुलिस ने गोलियां मारी थीं। इब्राहीम हैदरी (कराची) का हनीफ जब पकड़ा गया था तो महज 16 साल का था, जब वह 23 साल बाद घर लौटा तो पीढ़ियां बदल गर्इं, उसकी भी उमर ढल गई। इसी गांव का हैदर अपने घर तो लौट आया, लेकिन वह अपने पिंड की जुबान 'सिंधी' लगभग भूल चुका है, उसकी जगह वह हिंदी या गुजराती बोलता है। उसके अपने साथ के कई लोगों का इंतकाल हो गया और उसके आसपास अब नाती-पोते घूम रहे हैं जो पूछते हैं कि यह इंसान कौन है? दोनों तरफ लगभग एक से किस्से हैं, दर्द हैं- गलती से नाव उस तरफ चली गई, उन्हें घुसपैठिया या जासूस बता दिया गया, सजा पूरी होने के बाद भी रिहाई नहीं, जेल का नारकीय जीवन, साथ के कैदियों द्वारा शक से देखना, अधूरा पेट भोजन, मछली पकड़ने से तौबा....। पानी पर लकीरें खींचना नामुमकिन है, लेकिन कुछ लोग चाहते हैं कि हवा, पानी, भावनाएं सब कुछ बांट दिया जाए। एक-दूसरे देश के मछुआरों को पकड़ कर वाहवाही लूटने का यह सिलसिला न जाने कैसे 1987 में शुरू हुआ और तब से तुमने मेरे इतने पकड़े तो मैं भी तुम्हारे उससे ज्यादा पकड़ूंगा की तर्ज पर समुद्र में इंसानों का शिकार होने लगा। भारत और पाकिस्तान में साझा अरब सागर के किनारे रहने वाले कोई 70 लाख परिवार सदियों से समुद्र से निकलने वाली मछलियों से अपना पेट पालते आए हैं। आखिर समुद्र के असीम जल पर कैसे सीमा खींची जाए। कच्छ के रन के पास सर क्रकी विवाद सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। असल में वहां पानी से हुए कटाव की जमीन को नापना लगभग असंभव है, क्योंकि पानी से आए दिन जमीन कट रही है और वहां का भूगोल बदल रहा है। कई बार तूफान आ जाते हैं तो कई बार मछुआरों को अंदाज नहीं रहता कि वे किस दिशा में जा रहे हैं। परिणामस्वरूप वे एक-दूसरे के सीमाई बलों द्वारा पकड़े जाते हैं। जब से शहरी बंदरगाहों पर जहाजों की आवाजाही बढ़ी है तब से गोदी के कई-कई किमी तक तेल रिसने, शहरी सीवर डालने व अन्य प्रदूषणों के कारण समुद्री जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है।
अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए बस्तियों, आबादियों और बंदरगाहों से काफी दूर निकलना पड़ता है। जो खुले समु्रद में आए तो वहां सीमाओं को तलाशना लगभग असंभव होता है और वहीं दोनों देशों के बीच के कटु संबंध, शक और साजिशों की संभावनाओं के शिकार मछुआरे हो जाते हैं। जब उन्हें पकड़ा जाता है तो सबसे पहले सीमा की पहरेदारी करने वाला तटरक्षक बल अपने तरीके से पूछताछ व जामा तलाशी करता है। चूंकि इस तरह पकड़ लिए गए लोगों को वापिस भेजना सरल नहीं है, सो इन्हें स्थानीय पुलिस को सौंप दिया जाता है। इन गरीब मछुआरों के पास पैसा-कौड़ी तो होता नहीं, सो ये 'गुड वर्क' के निवाले बन जाते हैं। घुसपैठिए, जासूस, खबरी जैसे मुकदमें उन पर होते हैं। वे दूसरे तरफ की बोली-भाषा भी नहीं जानते, सो अदालत में क्या हो रहा है, उससे बेखबर होते हैं। कई बार इसी का फायदा उठा कर प्रोसिक्यूशन उनसे जज के सामने हां कहलवा देता है और वे अनजाने में ही देशद्रोह जैसे आरोप में फंस जाते हैं। दो महीने पहले रिहा हुए पाकिस्तान के मछुआरों के एक समूह में एक 8 साल का बच्चा अपने बाप के साथ रिहा नहीं हो पाया, क्योंकि उसके कागज पूरे नहीं थे। वह बच्चा आज भी जामनगर की बच्चा जेल में है। ऐसे ही हाल में पाकिस्तान द्वारा रिहा किए गए 163 भारतीय मछुआरों के दल में एक 10 साल का बच्चा भी है, जिसने सौंगध खा ली कि वह भूखा मर जाएगा, लेकिन मछली पकड़ने को अपना व्यवसाय नहीं बनाएगा। यहां जानना जरूरी है कि दोनों देशों के बीच सर क्रीक वाला सीमा विवाद भले ही न सुलझे, लेकिन मछुआरों को इस जिल्लत से छुटकारा दिलाना कठिन नहीं है। एमआरडीसी यानि मेरीटाइम रिस्क डिडक्शन सेंटर की स्थापना कर इस प्रक्रिया को सरल किया जा सकता है। यदि दूसरे देश का कोई व्यक्ति किसी आपत्तिजनक वस्तु जैसे- हथियार, संचार उपकरण या अन्य खुफिया यंत्रों के बगैर मिलता है तो उसे तत्काल रिहा किया जाए। पकड़े गए लोगों की सूचना 24 घंटे में ही दूसरे देश को देना, दोनों तरफ माकूल कानूनी सहायता मुहैया करवा कर इस तनाव को दूर किया जा सकता है। वैसे संयुक्त राष्ट्र के समुद्री सीमाई विवाद के कानूनों यूएनसीएलओ में वे सभी प्रावधान मौजूद हैं जिनसे मछुआरों के जीवन को नारकीय होने से बचाया जा सकता है। जरूरत तो बस उनके दिल से पालन करने की है।
वरिष्ठ पत्रकार

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

Ban on packed water


 दिक्कतें  बढ़ाता बोतलबंद पानी 

पंकज चतुर्वेदी
हम भूल चुके हैं कि तीन साल पहले मई-2016 में केंद्र सरकार ने आदेश दिया था कि अब सरकारी आयोजनों में टेबल पर बोतलंबद पानी की बोतलें नहीं सजाई जाएंगी, इसके स्थान पर साफ पानी को पारंपरिक तरीके से गिलास में परोसा जाएगा। सरकार का यह शा नदार कदम असल में केवल प्लास्टिक बोतलों के बढ़ते कचरे पर नियंत्रण मात्र नहीं था, बल्कि साफ पीने का पानी को आम लोगों तक पहुंचाने की एक पहल भी थी। दुखद है कि उस आदेश पर केबिनेट या सांसदों की बैठकों में भी पूरी तरह पालन नहीं हो पाया। कई बार महसूस होता है कि बोतलबंद पानी आज की मजबूरी हो गया है लेकिन इसी दौर में ही कई ऐसे उदाहरण सामने आ रहे हैं जिनमें स्थानीय समाज ने बोतलबंद पानी पर पाबंदी का संकल्प लिया और उसे लागू भी किया।  कोई दो सालं पहले ही सिक्किम राज्य के लाचेन गांव ने किसी भी तरह की बोतलबंद पानी को अपने क्षेत्र में बिकने पर सख्ती से पाबंदी लगा दी। यहां हर दिन सैंकड़ों पर्यटक आते हैं लेकिन अब यहां कोई भी बोतलबंद पानी या प्लास्टिक की पैकिंग का प्रवेश नहीं होता। यही नहीं अमेरिका का सेनफ्रांसिस्को जैसा विशाल और व्यावसायिक नगर भी दो साल से अधिक समय से बोतलबंद पानी पर पाबंदी के अपने निर्णय का सहजता से पालन कर रहा है।  सिक्किम में ग्लेशियर की तरफ जाने पर पड़ने वाले आखिरी गांव लाचेन की स्थानीय सरकार ‘डीजुमा’  व नागरिकों ने मिलकर सक्ष्ती से लागू किया कि उनके यहां किसी भी किस्म का बोतलबंद पानी  नहीं बिकेगा।
भारत की लोक परंपरा रही है कि जो जल प्रकृति ने उन्हें दिया है उस पर मुनाफाखोरी नहीं होना चाहिए।
 तभी तो अभी एक सदी पहले तक लोग प्याऊ, कुएं, बावड़ी और तालाब खुदवाते थे। आज हम उस समृद्ध परंपरा को बिसरा कर पानी को स्त्रोत से शुद्ध करने के उपाय करने की जगह उससे कई लाख गुणा महंगा बोतलबंद पानी को बढ़ावा दे रहे है।ं पानी की तिजारत करने वालों की आंख का पानी मर गया है तो प्यासे लेागों से पानी की दूरी बढ़ती जा रही हे। पानी के व्यापार को एक सामाजिक समस्या और अधार्मिक कृत्य के तौर पर उठाना जरूरी है वरना हालात हमारे संविधान में निहित मूल भावना के विपरीत बनते जा रहे हैं जिसमें प्रत्येक को स्वस्थय तरीके से रहने का अधिकार है व पानी के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।
घर पर नलों से आने वाले एक हजार लीटर पानी के दाम बामुश्किल चार रूपए होता है। जो पानी बोतल में पैक कर बेचा जाता है वह कम से कम बीस रूपए लीटर होता है यानि सरकारी सप्लाई के पानी से शायद चार हजार गुणा ज्यादा। इसबे बावजूद स्वच्छ, नियमित पानी की मांग करने के बनिस्पत दाम कम या मुफ्त करने के लिए हल्ला-गुल्ला करने वाले असल में बोतल बंद पानी की उस विपणन व्यवस्था के सहयात्री हैं जो जल जैसे प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी, परिवेश में प्लास्टिक घेालने जैसे अपराध और जल के नाम पर जहर बांटने का काम धड़ल्ले से वैध तरीके से कर रहे हैं।
क्या कभी सोचा है कि जिस बोतलबंद पानी का हम इस्तेमाल कर रहे हैं उसका एक लीटर तैयार करने के लिए कम से कम चार लीटर पानी बर्बाद किया जाता है।  आरओ से निकले बेकार पानी का इस्तेमाल कई अन्य काम में हो सकता है लेकिन जमीन की छाती छेद कर उलीचे गए पानी से पेयजल बना कर बाकी हजारों हजार लीटर पानी नाली में बहा दिया जाता है। प्लास्टिक बोतलों का जो अंबार जमा हो रहा है उसका महज बीस फीसदी ही पुनर्चक्रित होता है, कीमतें तो ज्यादा हैं ही; इसके बावजूद जो जल परोसा जा रहा है, वह उतना सुरक्षित नहीं है, जिसकी अपेक्षा उपभोक्ता करता है। कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके संपर्क में आ कर सबकुछ पवित्र हो जाता हे। विडंबना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फंस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है।

दिल्ली एनसीआर सहित देश भर में ऐसे  अपार्टमेंट का प्रचलन बढ़ा है जिनके पास स्थानीय प्रशासन के नल कनेक्शन के स्थान पर अपने नलकूप होते हैं ंऔर भूजल बेहद खारा है। यदि पानी को कुछ घंटे बाल्टी में छोड़ दें तो उसके ऊपर सफेद परत और तली पर काला-लाल पदार्थ जम जाएगा। यह पूरी आबादी पीने के पानी के लिए या तो अपने घरों में आर ओ का इस्तेमाल करती है या फिर बीस लीटर की केन की सप्लाई लेती है। इस समय देश में बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कम्पनियां और 1200 बॉटलिंग प्लांट वैध हैं । इस आंकड़े में पानी का पाउच बेचने वाली और दूसरी छोटी कम्पनियां शामिल नहीं है। इस समय भारत में बोतलबंद पानी का कुल व्यापार 14 अरब 85 करोड़ रुपये का है। यह देश में बिकने वाले कुल बोतलबंद पेय का 15 प्रतिशत है। बोतलबंद पानी का इस्तेमाल करने वाले देशों की सूची में भारत 10वें स्थान पर है। भारत में 1999 में बोतलबंद पानी की खपत एक अरब 50 करोड़ लीटर थी, आज यह दो अरब लीटर के पार है।
पर्यावरण को  नुकसान कर, अपनी जेब में बड़ा सा छेद कर हम जो पानी खरीद कर पीते हैं, यदि उसे पूरी तरह निरापद माना जाए तो यह गलतफहमी होगी।  कुछ महीनों पहले  भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर के एनवायर्नमेंटल मानिटरिंग एंड एसेसमेंट अनुभाग की ओर से किए गए शोध में बोतलबंद पानी में नुकसानदेह मिले थे।  हैरानी की बात यह है कि यह केमिकल्स कंपनियों के लीनिंग प्रोसेस के दौरान पानी में पहुंचे हैं।  यह बात सही है कि बोतलबंद पानी में बीमारियां फैलाने वाला पैथोजेनस नामक बैक्टीरिया नहीं होता है, लेकिन पानी से अशुद्धियां निकालने की प्रक्रिया के दौरान पानी में ब्रोमेट क्लोराइट और क्लोरेट नामक रसायन खुद ब खुद मिल जाते हैं। ये रसायन प्रकृतिक पानी में हाते ही नहीं है । भारत में ऐसा कोई नियमक नहीं है जो बोतलबंद पानी में ऐसे केमिकल्स की अधिकतम सीमा को तय करे। एक नए अध्ययन में कहा गया कि पानी भले ही बहुत ही स्वच्छ हो लेकिन उसकी बोतल के प्रदूषित  होने की संभावनाएं बहुत ज्यादा होती है और इस कारण उसमें रखा पानी भी प्रदूषित हो सकता है। बोतलबंद पानी की कीमत भी सादे पानी की तुलना में अधिक होती है, इसके बावजूद इसके संक्रमण का एक स्त्रोत बनने का खतरा बरकरार रहता है । बोतलबंद पानी की जांच बहुत चलताऊ तरीके से होती है । महीने में महज एक बार इसके स्त्रोत का निरीक्षण किया जाता है, रोज नहीं होता है । एक बार पानी बोतल में जाने और सील होने के बाद यह बिकने से पहले महीनों स्टोर रूम में पड़ा रह सकता है । फिर जिस प्लास्टिक की बोतल में पानी है, वह धूप व गरमी के दौरान कई जहरीले पदार्थ उगलती है और जाहिर है कि उसका असर पानी पर ही होता है। घर में बोतलबंद पानी पीने वाले एक चौथाई मानते हैं कि वे बोतलबंद पानी इसलिए पीते हैं क्योंकि यह सादे पानी से यादा अच्छा होता है लेकिन वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि नगर निगम द्वारा सप्लाई पानी को भी कठोर निरीक्षण प्रणाली के तहत रोज ही चेक किया जाता है । सादे पानी में क्लोरीन की मात्रा भी होती है जो बैक्टीरिया के खतरे से बचाव में कारगर है। जबकि बोतल में क्लोरीन की तरह कोई पदार्थ होता नहीं है। उल्टे रिवर ऑस्मोसिस के दौरान प्राकृतिक जल के कई महत्वपूर्ण लवण व तत्व नष्ट हो जाते हैं। इसे केवल सरकारी आदेश नहीं, बल्कि अपनी परंपरा और सहूलियत का मसला माना जाए और समाज  जल के व्यापार पर अंकुश लगाने के लिए खुद ही पहले छोटी बोतलों या पाउच और उसके बाद बड़ी बोतलों पर पाबंदी की खुद पहल करे।

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...