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गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

US- ARAb tension ; Only pressure tectic

अमेरिका-सउदी अरब  तनाव तो है लेकिन टकराव नहीं होगा

संदर्भ बराक ओबामा का अरब दौरा व 9/11 की गोपनीय रिपोर्ट में अरब की भूमिका 

                                                                पंकज चतुर्वेदी
जिस सउदी अरब के सहयोग, शह से अमेरिका बीते तीन दशकों से मध्य पूर्वी और पश्चिम एशिया के अरब जगत में रंगदारी करता रहा है, आज उसी देश से अमेरिका के संबंधों में खटास आती दिख रही है। भले ही मसला लगभग 15 साल पुराने 9/11 हमले के कथत आरोपी पर मुकदमा चलाने का हो, लेकिन हकीकत तो यह है कि एक तो अमेरिका की सउदी अरब पर तेल की निर्भरता कम हो गई है,  दूसरा राष्ट्रपति चुनाव के दौर से गुजर रहे अमेरिका में बराक हुसैन ओबामा की अरब-नीति की जम कर आलेाचना हो रही है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अब अरब बदल रहा है, वह महज तेल का व्यापार करने वाले शेखों का देश नहीं रह गया है, अरब अमीरात के नए राजकुमार तकनीक, शिक्षा, संस्कृति के माध्यम से देश की तस्वीर बदलने में लगे हैं।  श्री ओबामा इस समय अपने राष्ट्रपति काल के अंतिम दिनों में अरब के दौरे पर हैं और सउदी अरबने चेतावनी दे दी है कि यदि अमेरिका ने  सन 1976 के फारेन सोवरजिन इम्यूनिटी एक्ट(एफएसआईए) में बदलाव करने का प्रयास किया तो वे भी चुप नहीं बैठेंगंे।
इस विवाद को समझने के लिए जरा पीछे जाना होगा, सन 2001 के नौ सितंबर को अमेरिका के मेनहट्टन की गगनचुुंबी दो इमारतों में हवाई जहाज घुसते व उनको ढहते पूरी दुनिया ने देखा था। विश्व व्यापार केंद्र की इन मीनारों का गिरना असल में अमेरिका के दंभ, सुरक्षा व दुनिया पर बादशाहत की इरादों का ढहना था। उस कांड में अलकायदा का षडयंत्र उजागर हुआ था। हाल ही में अमेरिका में एक ऐसी 28 पेज की गोपनीय रिपोर्ट को लेकर हंगामा मचा हुआ है , जिसमें दावा किया गया है कि उस हमले में शामिल लेागों को सउदी अरबसे मदद मिली थी। सनद रहे ओसामा बिन लादेन अरब से था और आज भी उसका वहां बड़ा व्यापार है। अमेरिका के दोनों बड़े दलों-डेमोक्रेट्स व रिपब्लिकन के सांसदों ने एक ऐसा बिल पेश किया है जिसेमं अमेरिकी जमीन पर हुए आतंकवादी हमले में शामिल देशों पर अमेरिका में कानूनी कार्यवाही की छुट होगी। जोकि  फारेन सोवरजिन इम्यूनिटी एक्ट(एफएसआईए) के तहत अरब को मिली छूट को समाप्त करता है। सउदी अरबको डर है कि अमेरिका उस कथित रिपोर्ट के आघार पर सउदी अरब को नथना चाहता है और यदि ऐसा हुआ तो अमेरिका में स्थित अरब की 750 करोड़ अमेरिकी डालर यानि 2.75 अरब डिरहम की संपत्ति राजसात करने का रास्ता खुल जाएगा। वैसे ओबामा ने आश्वासन दिया है कि उक्त रिर्पोअ की जांच आला खुफिया अफसर कर रहे हैं व उस पर निर्णय जल्दबाजी में नहीं होगा, लेकिन सउदी अरबके शासकों को अमेरिका की नियत पर शक है।
हालांकि अरब यानि सउदी अरब और अमेरिका के बीच तनाव के और भी कई कारण हैं। इसमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण ईरान पर से परमाणु पांबदी उठाने का मसला है। सउदी अरब सुन्नी देश है, जबकि ईरान को शियाओं का गढ़ कहा जाता है और दोनों एकदूसरे के कट्टर दुश्मन हैं।  ईरान के साथ पश्चिमी देशों का परमाणु समझौता सऊदी अरब को कतई रास नहीं आया है और वह इस समझौते से नाराज है। खाड़ी के दूसरे सुन्नी देश अमेरिका की सीरिया व ईरान से संबंधित नीति की आलेचना करते रहे हैं। इस मसले पर समझाने की अमेरिकी सभी कोशिशें असफल रही हैं। अमेरिका की सउदी अरब से नाराजगी एक वजह मानवाधिकारों का हनन भी है। अमेरिका के लाख चेतावनी देने के बावजूद रइफ बदावी जैसे ब्लॉगरों को कोड़ों और कैद की सजा देकर सऊदी सल्तनत पश्चिमी अनुरोधों की अनदेखी करता रहा है।
हालांकि अब अरब की दुनिया बदलने को बेकरार है। यहां की 70 फीसदी आबादी 30 साल से कम की है। यहां यूट्यूब व ट्वीटर इस्तेमाल करने वालों की संख्या पूरे मध्य-पूर्व एशिया में सबसे ज्यादा है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के लगातार गिरने से सउदी अरब की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव पड़ा है, लेकिन नए शहजादे व भावी राजा मुहम्मद बिन कासिम ने देश की अर्थ व्यवसथा को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया हे। वहां अब कई विभागों में निजी कंपनियां आ रही हैं। देश में तेल पर निर्भरता कम हो रही है। युवा सामाजिक व लोकतांत्रिक सुधार पर जोर दे रहे हैं। ऐसे में इस बात की संभावना कम होती जा रही है कि देश को सुरक्षा व अन्य मसलों पर अमेरिका की ओर मुंह बाए रहना होगा।
गौरतलब है कि अमेरिका की तेल के मामले में अब सऊदी अरब निर्भरता कम हो गई हे। 2015 में अमेरिका ने 82 देशों से प्रतिदिन 94 लाख बैरल तेल का आयात किया। इसमें सिर्फ 11 प्रतिशत तेल का आयात सऊदी अरब से किया गया। फिर भी सउदी अरब को नाराज कर अमेरिका का इस क्षेत्र से अपनी शतों। पर मनमाना तेल लेना संभव नहीं होगा।
कुल मिला कर यह एक-दूसरे पर दवाब बनाने का मानसिक गेम है। अमेरिका को यदि पश्चिमी एशिया में अपना वर्चस्व कायम करना है तो उसे सउदी अरब का सहयोग चाहिए ही होगा। खाड़ी सहयेाग परिषद के देशों पर भी सउदी अरब का वर्चस्व है। ऐसे में अमेरिका कुछ घुड़की देकर अरब को झुकाना चाहता है जबकि अरब के शासक बताना चाह रहे हैं कि हालात बदल रहे हैं  अभी तक चली दादागिरी चलने वाली नहीं है।

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

Drought needs constant attantion

हर समय तैयार रहना होगा अल्प वर्षा के लिए
.पंकज चतुर्वेदी


   
लगातार चैथे साल सूखा झेल रहे बुंदेलखंड व मराठवाड़ा के अंचलों में प्यास व पलायन से हालात भयावह है। जंगलों में पालतू मवेशियों की लाशों का अंबार लग गया है और अभी तक सरकार तय नहीं कर पा रही है कि सूखे से जूझा कैसे जाए? जब पानी नहीं है तो राहत का पैसा लेकर लोग क्या करेंगे? महज खेत या किसान ही नहीं, खेतों में काम करने वाले मजदूर व अन्य श्रमिक वर्ग भी सूखे से बेहाल है। अब यह जान लेना चाहिए कि सूखे या पानी की कमी के लिए हमें हर साल मौसम विभाग या पटवारी की गिरदावरी का इंतजार नहीं करना चाहिए। हमने अपने पारंपरिक जल संसाधनों की जो दुर्गति की है, जिस तरह नदियों के साथ खिलवाड़ किया है, खेतों में रासायनिक खाद व दवा के प्रयोग से सिंचाई की जरूरत में इजाफा किया है, इसके साथ ही धरती का बढ़ता तापमान, भौतिक सुखों के लिए पानी की बढ़ती मांग और भी कई कारक हैं जिनसे पानी की कमी तो होना ही है। ऐसे में सारे साल, पूरे देश में, कम पानी से बेहतर जीवन और जल-प्रबंधन, ग्रामीण अंचल में पलायन थामने और वैकल्पिक रोजगार मुहैया करवाने की योजनाएं बनाना अनिवार्य हो गया है।
इन दिनेां सुप्रीम कोर्ट एक संगठन की जनहित याचिका पर देश में सूखे के हालात पर शासकीय कोताही की धज्जियों उड़ा रहा है। राज्य अपने यहां सूखे के सही हालात का आकलन तक नहीं कर पा रहे हैं जाहिर है कि जब तक आंकड़े जमा होंगे तब तक बारिश हो जाएगी व लोक समाज अपना पुराना दर्द भूल कर आगे की तैयारी में लग जाएगा व सरकारी अमला सुप्तावस्था में होगा। यह बानगी है कि हमारी व्यवस्था किस तरह सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने व लाल बस्ते के घोड़े दौड़ाने में ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है।    
आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादो में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गरमी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब.... ? अब क्या होगा.... ?  यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि  करती है। खतरा यह है कि ऐसे जिलों की संख्या अब बढ़ती जा रही है। इस बार यह संक्ष्या 230 के पार है।
असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है। एक तो यह जान लें कि पानी उलीचने की मशीनों ने पानी की सबसे ज्यादा बर्बादी की हे। जब आंगन में एक कुंआ होता था तो इंसान अपनी जरूरत की एक बाल्टी खींचता था और उसी से काम चलाता था। आज एक गिलास पानी के लिए भी हैंड पंप या बिजली संचालित मोटर का बटन दबा कर एक बाल्टी से ज्यादा पानी बेकार कर देता है। दूसरा शहरी नालियों की प्रणाली, और उनका स्थानीय नदियों में मिलना व उस पानी का सीधा समुद्र के खारे पान में घुल जाने के बीच जमीन में पानी की नमी को सहेज कर रखने के साधन कम हो गए हे।ं कुएं तो लगभग खतम हो गए, बावड़ी जैसी संरचनांए उपेक्षा की खंडहर बन गईं व तालाब गंदा पानी निस्तारण के नाबदान । जरा इस व्यवस्था को भी सुधारना होगा या यों कहं कि इसके लिए अपने अतीन व परंपरा की
ओर लौटना होगा।
जरा सरकारी घोशणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देष की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाध्नों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिषत है। हमें हर साल बारिष से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिष का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिष में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केष क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिष पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थेाड़ा भी कम पान बरसने पर किसान रोता दिखता है। देष के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी  का अस्सी फीसदी जूमन से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में  यह आंकडा 90 प्रतिषत का है। जाहिर है कि षेश आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिष से होती है और ना ही नदियों से। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं ।
    कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी कमी इंसान के जीवन के रंगो को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढि़यों से बेहद कम बारिश्ष होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियांॅ हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं। सबसे बड़ी बात अब यह विचार करना होगा कि किन इलाकों में किस तरह की फसल हो या कौन सी परियोजनाए हों। अब मराठवाड़ा के लेाग महसूस कर रहे हैं कि जिस पैसे के लालच में उन्होंने गन्ने की अंधाधंुध फसल उगाई वही उन्हें प्यासा कर गया है। गन्ने में पानी की खपत ज्यादा होती है, लेकिन इलाके के ताकतवर नेताओं की चीनी मिलों के लिए वहां गन्ना उगवाया गया था।
बुंदेलखंड में लागातर सूखे के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। यहां गांव के गांव वीरान हैं, पानी की कमी के चलते। मनगरेगा या अन्य सरकारी योजना में काम करने वले मजदूर नहीं है, क्योंकि लोग बगैर पानी के महज पैसा ले कर क्या करेंगे। इस ग्रेनाईट संरचना वाले पठारी इलाके का सूखे या अल्प वर्शा से साथ सदियों का है। जाहिर है कि यहां ऐसी गतिविधियों को प्राथमिकता दी जाना थी जिसमें पानी का इस्तेमाल कम हो, लेकिन यहां खजुराहो के पास 17 करोड़ का एनटीपीसी की बिजली परियोजना पर काम चल रहा है। इसमें 650 मेगावाट के तीन हिस्से हैं, जाहिर है कि कोयला आधारित इस परियोजना में अंधाधुंध पानी की जरूरत होती है। यही नहीं इस्तेमाल के बाद निकला उच्च तापमान वाला दूशित पानी का निबटारा भी एक बड़ा संकट होता है। इसके लिए मझगांव बांध और ष्यामरी नदी से पानी लेने की योजना है। जाहिर है कि इलाके की जल कंुडली में ‘‘कंगाली में आटा गीला’’ होगा। विडंबना है कि उच्च स्तर पर बैठे लेागों ने महाराश्ट्रके दाभौल में बंद हुए एनराॅन परियोजना के बंद होने के उदाहरण से कुछ सीखा नहीं।
यह तो बानगी है कि हम पानी को ले कर कितने गैरसंवेदनषील  हैं। इस साल के बजट में केंद्र सरकार ने पांच लाख खेत-तालाब बनाने के लिए बजट का प्रावधान रखा है,। प्रधानमंत्रीजी के पिछले मन की बात प्रसारण में भी कई लाख तालाब खोदने पर जोर दिया गया था। जाहिर है कि बादल से बरसते ंपानी को बेकार होने से रोकने के लिए तालाब जैसी संरचनाओं को सहेजना अब अनिवार्यता है। लेकिन हकीकत में हम अभी भी तालाबों को सहेजने के संकल्प को दिल से स्वीकार नहीं कर पाए है।। इटावा के प्राचीन तालाब को वहां की नगर पालिका टाईल्स लगवा कर पक्का कर रही है। षायद यह जाने बगैर कि इससे एकबारगी तालाब सुदर तो दिखने लगेगा, लेकिन उसके बाद वह तालाब नहीं रह जाएगा और उसमें पानी भी बाहरी स्त्रोत से भरना होगा। इसके पक्का होने के बाद ना तो मिट्टी की नमी बरकरार रहेगी और ना ही पर्यावरणीय तंत्र। ज्यादा दूर क्या जाएं, दिल्ली से सटे गाजियाबाद में ही पिछले साल नगर निगम के बजट में पारंपरिक तालाबों को सहेजने के लिए पचास लाख के बजट का प्रावधान था, लेकिन उसमें से एक छदाम भी खर्च नहीं की गई। यहां वार्ड क्रमांक छह के बहरामपुर गांव के पुराने तालाब को हाल ही में मषीनों से समतल कर बिजलीघर बनाने के लिए दे दिया गया। सरकारी अभिलेख में यह स्थान जोहड़ की जमीन के तौर पर 2910 हैक्टेयर क्षेत्र में दर्ज है।  इससे पहले यहां सामुदायिक भवन बनाने की योजना भी थी। अब समय आ गया है कि सरकार व समाज ऐसी गलतियों को छोटा मानकर नजरअंदाज करने की प्रवृति से पूरी तरह बचे। यही आगे चल कर भारी जल संकट का कारक बनते हैं।
आज यह आवष्यक हो गया है कि किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोशित करने, वहां राहत के लिए पैसा भेजने जैसी पारंपरिक व छिद्रयुक्त योजनाओं को रोक जाए, इसके स्थान पर पूरे देष के संभावित अल्प वर्शा वाले क्षेत्रों में जल संचयन, खेती, रोजगार, पषुपालन क की नई परियोजनाएं स्थाई रूप् से लागू की जाएं जाकि इस आपदा को आतंक के रूप में नहीं, प्रकृतिजन्य अनियमितता मान कर सहजता से जूझा जा सके। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्शा से जुड़ी परेषानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

Bumper Production slash market rates of Tomato




टके सेर टमाटर



पंकज चतुर्वेदी
लेखक



 

मध्य प्रदेश के धार जिले के अमझेरा के किसानों को जब टमाटर के सही दाम नहीं मिले तो उन्होंने इस बार टमाटर से ही रंगपंचमी मना ली.
सनद रहे मालवा अंचल में होली पर रंग नहीं खेला जाता, रंगपंचमी पर ही अबीर-गुलाल उड़ता है. मंडी में टमाटर की एक क्रैट यानी लगभग  25 किलो के महज पचास रुपये मिल रहे थे, जबकि फसल को मंडी तक लाने का किराया प्रति क्रेट रु. 25, तुड़ाई रु. 10, हम्माली रु. 5 व दीगर खर्च मिला कर कुल 48 रुपये का खर्च आ रहा था. अब दो रुपये के लिए व क्या दिनभर मंडी में दिन खपाते.
यही हाल गुजरात के साबरकांठा जिले के टमाटर उत्पादक गांवों-ईडर, वडाली, हिम्मतनगर आदि का है. जब किसानों ने टमाटर बोए थे तब उसके दाम तीन सौ रुपये प्रति बीस किलो थे. लेकिन पिछले पखवाड़े जब उनकी फसल आई तो मंडी में इसके तीस रुपये देने वाले भी नहीं थे. थक-हारकर किसानों ने फसल मवेशियों को खिला दी. गुजरात में गांवों तक अच्छी सड़क है, मंडी में भी पारदर्शिता है, लेकिन किसान को उसकी लागत का दाम भी नहीं.
जिन इलाकों में टमाटर का यह हाल हुआ, वे भीषण गर्मी की चपेट में आए हैं और वहां कोल्ड स्टोरेज की सुविधा है नहीं, सो फसल सड़े इससे बेहतर उसको मुफ्त में ही लोगों के बीच डाल दिया गया. सनद रहे इस समय दिल्ली एनसीआर में टमाटर के दाम चालीस रुपये किलो से कम नहीं है. यदि ये दाम और बढ़े तो सारा मीडिया व प्रशासन इस की चिंता करने लगेगा, लेकिन किसान की चार महीने की मेहनत व लागत मिट्टी में मिल गई तो कहीं चर्चा तक नहीं हुई.


बुंदेलखंड व मराठवाड़ा-विदर्भ में किसान इसलिए आत्महत्या कर रहा है कि पानी की कमी के कारण उसके खेत में कुछ उगा नहीं, लेकिन इन स्थानों से कुछ सौ किलोमीटर दूर ही मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ इलाके के किसान की दिक्कत उसकी बंपर फसल है.
भोपाल की करोद मंडी में इस समय प्याज के दाम महज दो सौ से छह सौ रुपये कुंटल है. आढ़तिये मात्र दो-तीन रुपये किलो के लाभ पर माल दिल्ली बेच रहे हैं. यहां हर दिन कोई 1500 क्विंटल प्याज  आ रहा है. वेयर हाउस वाले प्याज गीला होने के कारण उसे रखने को तैयार नहीं है, जबकि जबरदस्त फसल होने के कारण मंडी में इतना माल है कि किसान को उसकी लागत भी नहीं निकल रही है.
याद करें यह वही प्याज है जो पिछले साल सौ रुपये किलो तक बिका था. नीमच, मंदसौर में तो किसान प्याज की अच्छी फसल होने पर आंसू बहा रहा है. वहां प्याज तीस पैसे किलो भी नहीं बिक रहा. आज के हालात यह है कि किसान की प्याज उनके घर-खेत पर ही सड़ रहा है. अभी छह महीने पहले पश्चिम बंगाल में यही हाल आलू के किसानों का हुआ था व हालात से हार कर 12 आलू किसानों ने आत्महत्या का मार्ग चुना था.
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक के कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मशहूर हरी मिर्च को सड़क पर लावारिस फेंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैं. उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है. साथ होती है तो केवल एक चिंता. मिर्ची की खेती के लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कज्रे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारों किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं. 
दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक में ऐसा लगभग हर साल किसी न किसी फसल के साथ होता है. सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले.
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देष में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है.
सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल, तेल-बीजों (तिलहनों) और अन्य खाद्य पदाथरे के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं. जरूरत है कि खेतों में कौन-सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे. इसकी नीतियां ताल्लुका या जनपद स्तर पर ही बनें. कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो. ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों की सहकारी संस्थाओं द्वारा संचालित प्रसंस्करण के कारखाने लगें.

 

शनिवार, 16 अप्रैल 2016

IPL is not a sport it is killer of Enviornment

पर्यावरण विरोधी है आईपीएल


एक मैच के दौरान व्यय बिजली, पानी, वहाँ बजने वाले संगीत के शोर, वहाँ पहुँचने वाले लोगों के आवागमन और उससे उपजे सड़क जाम से हो रहे प्रदूषण से प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान तो हो ही रहा है, साथ ही यह सब गतिविधियाँ कार्बन का उत्सर्जन बढ़ाती है। अभी हम ‘अर्थ ऑवर’ मनाकर एक घंटे बिजली उपकरण बन्द कर इसी कार्बन उत्सर्जन को कम करने का स्वांग करेंगे। हकीकत तो यह है कि पूरा देश जितना कार्बन उत्सर्जन एक ‘अर्थ ऑवर’ में कम करेगा, उतना तो पदो-तीच आईपीएल मैच में ही हिसाब बराबर हो जाएगा।
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बांबे हाईकोर्ट के सामने यह तो उजागर हो गया कि एक आईपीएल मैच करवाने के लिये महज मैदान पर छिड़कने के लिये साठ लाख लीटर पानी की जरूरत होती है और आईपीएल के मैच महाराष्ट्र से बाहर करवाने के आदेश भी दे दिये गए हैं। उस महाराष्ट्र में जहाँ, जिला मुख्यालयों से लोग पानी की कमी के कारण पलायन कर रहे हैं, कम-से-कम तीन जिलों में पानी सप्ताह में एक दिन मिल रहा है वह भी महज पीने के लिये। असल में आईपीएल ना तो खेल है और ना ही मनोरंजन।

यह तथ्य अभी दबा-छुपा है कि आईपीएल के नाम पर इतनी बिजली स्टेडियमों में फूँकी जा रही है, जितने से कई गाँवों को साल भर रोशनी दी जा सकती है। यहाँ यह जानना भी जरूरी है कि बिजली के बेजा इस्तेमाल से हमारा कार्बन फुट प्रिंट अनुपात बढ़ रह है और हम संयुक्त राष्ट्र में वायदा कर चुके हैं कि आने वाले सालों में हमारा कार्बन उत्सर्जन कम होगा। यह तो सभी जानते हैं कि वायुमण्डल में सभी गैसों की मात्रा तय है और 750 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में वातावरण में मौजूद है।

कार्बन की मात्रा बढ़ने का दुष्परिणाम है कि जलवायु परिवर्तन व धरती के गरम होने जैसेे प्रकृतिनाशक बदलाव हम झेल रहे हैं। कार्बन की मात्रा में इजाफे से दुनिया पर तूफान, कीटों के प्रकोप, सुनामी या ज्वालामुखी जैसे खतरे मँडरा रहे हैं। दुनिया पर तेजाबी बारिश की सम्भावना बढ़ने का कारक भी है कार्बन की बेलगाम मात्रा। जब देश का बड़ा हिस्सा खेतों में सिंचाई या घरों में रोशनी के लिये बिजली आने का इन्तजार कर रहा होगा, तब देश के किसी महानगर में हजारों लोग ऊँचे खम्बों पर लगी हजारों फ्लड-लाइटों में मैच का लुत्फ उठा रहे होंगे।

जनता के प्रति जवाबदेह कहलाने वाले स्थानीय अफसर, नेता रात्रि क्रिकेट का लुत्फ उठाते हैं। उन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं रहती कि स्टेडियम को जगमगाने के लिये कई गाँवों में अन्धेरा किया गया होगा। सनद रहे कि आईपीएल के दौरान भारत के विभिन्न शहरों में 15 अप्रैल से 29 मई के बीच कुल 60 मैेच हो रहे हैं, जिनमें से 48 तो रात आठ बजे से ही हैं। बाकी मैच भी दिन में चार बजे से शुरू होंगे यानी इनके लिये भी स्टेडियम में बिजली से उजाला करना ही होगा। जाहिर है कि इन मैचों में कम-से-कम आठ घंटे स्टेडियम को जगमगाने के लिये बिजली फूँकी जाएगी।

रात के क्रिकेट मैचों के दौरान आमतौर पर स्टेडियम के चारों कोनों पर एक-एक प्रकाशयुक्त टावर होता है। हरेक टावर में 140 मेटल हेलाईड बल्ब लगे होते हैं इस एक बल्ब की बिजली खपत क्षमता 180 वाट होती है। यानी एक टावर पर 2,52000 वाट या 252 किलोवाट बिजली फुँकती है।

इस हिसाब से समूचे मैदान को जगमगाने के लिये चारों टावरों पर 1008 किलोवाट बिजली की आवश्यकता होती हैं । रात्रिकालीन मैच के दौरान कम-से-कम छह घंटे तक चारों टावर की सभी लाइटें जलती ही हैं। अर्थात एक मैच के लिये 6048 किलोवाट प्रति घंटा की दर से बिजली की जरूरत होती है। इसके अलावा एक मैच के लिये दो दिन कुछ घंटे अभ्यास भी किया जाता है। इसमें भी 4000 किलोवाट प्रतिघंटा (केवीएच) बिजली लगती है। अर्थात एक मैच के आयोजन में दस हजार केवीएच बिजली इसके अतिरिक्त हैं।

दूसरी तरफ एक गाँव का घर जहाँ दो लाइटें, दो पंखे, एक टीवी और अन्य उपकरण हैं, में दैनिक बिजली खपत .5 केवीएच है। एक मैच के आयोजन में खर्च 10 हजार केवीएच बिजली को यदि इस घर की जरूरत पर खर्च किया जाये तो वह बीस हजार दिन यानी 54 वर्ष से अधिक चलेगी। यदि किसी गाँव में सौ घर हैं और प्रति घर में औसतन 0.5 केवीएच बिजली खर्च होती है, तो वहाँ 50 केवीएच प्रतिदिन की बिजली माँग होगी।

जाहिर है कि यदि एक क्रिकेट मैच दिन की रोशनी मेें खेल लिया जाये तो उससे बची बिजली से एक गाँव में 200 दिन तक निर्बाध बिजली सप्लाई की जा सकती है। काश ये सभी मैच सूर्य के प्रकाश में आयोजित किये जाते तो कई गाँवों को गर्मी के तीन महीने बिजली की किल्लत से निजात मिल सकती थी और यह तथ्य सभी खेल विशेषज्ञ भी स्वीकारते हैं कि प्राकृतिक प्रकाश में खेल का मजा ही कुछ और होता है।

हमारे देश के कुल 5,79,00 आबाद गाँवों में से 82,800 गाँवों तक बिजली की लाइन ना पहुँचने की बात स्वयं सरकारी रिकार्ड कबूल करता है। जरूरत की तुलना में 16.5 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कम हो पा रहा है, यह अलग से है। चोरी, बिजली सप्लाई में तारों द्वारा अवशोषण व अन्य कारणों के चलते उपभोक्ताओं की आवश्यकता से लगभग 40 फीसदी बिजली की कमी है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में कुल उत्पादित बिजली के मात्र 35 फीसदी का ही वास्तविक उपभोग हो पाता है। वरना देश में कभी बिजली की कमी ही नहीं रहे।

हर साल देश के कोने-कोने में खेतों को बिजली की बाधित आपूर्ति के कारण माकूल सिंचाई नहीं हो पाने से हजारों एकड़ फसल नष्ट होने के किस्से सुनाई देते हैं। इस अत्यावश्यक माँग से बेखबर तथाकथित खेल प्रेमी बिजली माँग के पीक-आवर यानी शाम छह बजे से रात साढ़े नौ के बीच सैंकड़ों गाँवों में अन्धेरा कर एक स्टेडियम को रोशन करते हैं। यह कहाँ तक न्यायोचित है? इसके अलावा देर रात तक मैच देखकर अगले दिन अपने दफ्तरों में देर से पहुँचने या सोने के कारण होने वाले काम के हर्जे से हुए सरकारी नुकसान का तो कोई आकलन नहीं है।

जनता की मूलभूत जरूरतों में जबरिया कटौती कर कतिपय लोगों के ऐशो-आराम के लिये रात में क्रिकेट मैच आयोजित करना कुछ यूरोपीय देशों की नकल से अधिक कुछ नहीं है। यूरोपीय देशों में साफ आसमान नहीं रहने और जल्दी सूर्यास्त होने की समस्या रहती है। साथ ही वहाँ बिजली का उत्पादन माँग से बहुत अधिक है।

चूँकि उन देशों में लोग दिन के समय अपने जीविकोपार्जन के कार्यों में व्यस्त रहते हैं, अतएव वहाँ कृत्रिम प्रकाश में रात में क्रिकेट खेलना लाजिमी व तर्कसंगत है। लेकिन भारत में जहाँ एक तरफ बिजली की त्राहि-त्राहि मची है, वहीं सूर्य देवता यहाँ भरपूर मेहरबान हैं। वैसे भी यह महीने सूर्य देवता के भरपूर आशीर्वाद के हैं फिर यहाँ का क्रिकेट प्रेमी जगत अपनी शान बघारने के लिये जरूरी काम छोड़कर मैच देखने के लिये स्टेडियम में दिन भर बैठने को तत्पर रहता है। फिर भी रात्रि मैच की अंधी नकल करना क्या खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारना नहीं है?

याद रहे एक मैच के दौरान व्यय बिजली, पानी, वहाँ बजने वाले संगीत के शोर, वहाँ पहुँचने वाले लोगों के आवागमन और उससे उपजे सड़क जाम से हो रहे प्रदूषण से प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान तो हो ही रहा है, साथ ही यह सब गतिविधियाँ कार्बन का उत्सर्जन बढ़ाती है। अभी हम ‘अर्थ ऑवर’ मनाकर एक घंटे बिजली उपकरण बन्द कर इसी कार्बन उत्सर्जन को कम करने का स्वांग करेंगे। हकीकत तो यह है कि पूरा देश जितना कार्बन उत्सर्जन एक ‘अर्थ ऑवर’ में कम करेगा, उतना तो पदो-तीच आईपीएल मैच में ही हिसाब बराबर हो जाएगा। इन मैचों से उत्पादित हो रहे सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदूषण के परिमाप की गणना तो कहीं कोई कर नहीं रहा है।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

Vandematram: keep away from controvercies

विवादों से परे रखें वंदेमातरम को

                                                                   पंकज चतुर्वेदी

औवेसी ने अपनी आदत के अनुसार संघ प्रमुख के बयान पर फिर भड़काउ बयानबाजी कर डाली और इसके जवाब में राज्य सभा में प्रख्यात गीतकार व षायर जावेद अख्तर ने दिल से बोला ‘‘भारत माता की जय’’। भारत माता की जय एक ऐसा नारा है जोकि ‘‘जनगण मण--’’ के समापन पर स्वाभाविक रूप से ही मुंह से निकल जाता है।  ठीक वैसे ही ‘वंदेमातरम’ देश का राष्ट्रीय गान है, यह बीती एक सदी से देश की एकता और सौहार्द का प्रतीक रहा है। गाहे-बगाहे इसे सांप्रदायिक चश्मे से देखने की नौटंकी होती है और जवाब में दूसरे खेमे के चरमपंथी ऐसा ढिंढोरा पीटा जाता है कि पूरा एक संप्रदाय इस गीत के खिलाफ है और यह प्रचारित करने वाले सक्रिय हो जाते हैं कि देशभक्ति का एक ही मापदंड है - जो इस गीत  को गाते हैं, वे देशप्रेमी, बांकी के देशद्रोही ! विडंबना है कि इस गीत के बारे वितंडा खड़ा करने वाले ना तो इसके संदर्भ को समझते हैं, ना ही गीत की भावना को और ना ही इससे परहेज करने वालों के असली मंतव्य को। काष यदि इसकी असल भावना को समझ लिया जाए तो कुछ अनपढ़ मुसलमानों को ऐसे मसलों में गुमराह कर भड़काने वालों की दुकान बंद हो जाएगी।
प्रख्यात लेखक बंकीम चंद चटर्जी(1838-1894) ने 07 नवंबर 1876 को बंगाल के कंतलपाड़ा गांव में इस गीत की रचना की थी। उनका चर्चित उपन्यास ‘‘आनंद मठ’’ सन 1882 में प्रकाश में आया। संन्यासी विद्रोह पर केंद्रित इस उपन्यास में लेखक ने अपने गीत को भी शामिल किया। सन 1896 में कांग्रेस के सम्मलेन में यह गीत गाया गया। सन 1901 में कांग्रेस के कलकत्ता सम्मेलन के लिए इस गीत की सांगीतिक प्रस्तुति का कार्य  दकिना चरण सेन के मार्गदर्शन में हुआ। 16 अक्तूबर 1905 के बंग-भंग आंदोलन तथा 07 अगस्त 1905 के स्वदेशी आंदोलन के दौरान यह गीत पूरे देश में हर जाति, धर्म के कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धक रहा है। 07 सितंबर 1905 को कांग्रेस के बनारस सम्मेलन में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भतीजी सरलादेवी चैधरानी ने  गीत गाया, हालांकि उस समय अंग्रज सरकार ने इस पर पाबंदी लगा रखी थी।
सन 1906 में लाल लाजपत राय ने ‘वंदेमातरम’ के नाम से लाहौर से एक पत्रिका शुरू की, जबकि इसी साल 06 अगस्त को श्री अरविन्द ने इसी नाम से एक अखबार शुरू किया। सन 1907 में मेडम भीकाजी कामा ने कांग्रस के लिए तिरंगा झंडा तैयार किया, जिसकी सफेद पट्टी पर वंदेमातरम लिखा था।
जैसे-जैसे मुस्लिम लीग का विकास और सांप्रदायिक आधार पर देश के विभाजन की अंगे्रजांे की साजिश कामयाब हो रही थी, कतिपय मुस्लिम नेता इस गीत पर आपत्ति करने लगे थे। इस गीत में दुर्गा व अन्य हिंदु देवियों की अर्चना है और मुस्लिम समाज में किसी भी तरह की मूर्ति पूजा निष्ेाध है। विवाद को बढ़ता देख 28 अक्तूबर 1937 को कांग्रेस ने एक कमेटी बनाई थी, जिसमें महात्मा गांधी, मौलान अबुल कलाम आजाद और सुभाषचंद बोस थे। इस समिति ने पाया कि गीत के पहले दो पदों में कोई धार्मिक तत्व नहीं है, अतः भविष्य में कांग्रेस के सम्मेलन में केवल दो प्रारंभिक पद ही गाए जाएंगे। उसके बाद यह गीत स्वतंत्राता संग्राम की ताकत बना। सुभाषचंद्र बोस द्वारा सिंगापुर में स्थापित किए गए रेडियो स्टेशन से इस गीत का सतत प्रसारण होता रहा। आजादी के बाद जनवरी-1950 में इस गीत को ‘‘राष्ट्रगीत’’ घोषित किया गया। हालांकि सन 1940 के आसपास इस गीत को गाने को ले कर उप्र व बिहार में कुछ जगहों पर सांप्रदायिक दंगे भी भड़के थे। इसे मुस्लिम लीग की हरकत बताया गया था।
सन 2003 में बीबीसी वल्र्ड सर्विस ने सबसे लोकप्रिय गीत के लिए दुनियाभर में एक सर्वे किया। इसमें अलग-अलग देशों के विभिन्न भाषाओं के 7000 गाने शामिल किए गए। इस सर्वे में ‘वंदेमातरम’ को पहले 10 गीतों में स्थान मिला।  आजादी के बाद भी इक्का-दुक्का लोग इस गीत को इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विपरीत बताते हुए इसका गायन ना करने की बात कहते रहे। दारूल उलूम का मानना है कि हम अपने मुल्क से प्यार करते हैं, लेकिन इसे अल्लाह के बराबर का दर्जा नहीं दे सकते। इस लिए मुल्क की पूजा करना इस्लाम विरोधी है। सनद रहे कि यह भाव ‘‘वंदे’’ शब्द की व्याख्या से व्यक्त किया गया है।
07 सितंबर 2005 को वंदेमातरम गीत के 150 वर्ष पूरा होने के अवसर पर पूरे देश के सभी स्कूलों में इसके गायन का निर्णय लिया गया था। तभी तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्राी अर्जुन सिंह ने इस विवाद को हवा दी थी और कह दिया था कि इस गीत का गाना अनिवार्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे मुसलमानों की भावनाएं आहत होगीें। सितंबर 2006 में दारूल उलूम, देवबंद के सालाना जलसे में बाकायदा फतवा जारी कर इस गीत को ना गाने की बात कही गई। 03 नवंबर 2009 को एक बार फिर यह मसला खड़ा हुआ।
इसके विपरीत प्रख्यात लेखक व मौलाना आजाद के पर-भतीजे फिरोज अहमद बख्त का कहना है कि मौलाना आजाद ने वंदेमातरम गीत के पहले दो पदों में इस्लाम की दो मूल भावनाओं - ‘वहादत -ए- दीन’ यानी सर्वधर्म समभाव तथा ‘सुलह-ए-कुल’ यानी दुनिया में शांति को पाया था। तभी उन्होंने इसे देशभक्ति की गीत माना था। श्री बख्त का कहना है कि जब किसी मस्जिद या चर्च में जाने से कोई हिंदू अपवित्रा नहीं होता है तो इसे गाने से मुसलमान के सामने धर्म संकट कहां से खड़ा हो जाता है? देश के सवा सौ से अधिक चर्चित मुस्लिम चेहरों, जैसे नसिरूद्दीन शाह, शबाना आजमी, जावेद अख्तर,  सईज अख्तर मिर्जा आदि ने बाकायदा सार्वजनिक बयान जारी कर उस फतवे की आलेाचन की, जिसमें वंदेमातरम को गैर इसलामी कहा गया। इन लोगों का कहना था कि ना तो इस गीत के गाने को राष्ट्रभक्ति का पैमाना मानना चाहिए और ना ही जमायत को इसकी व्याख्या कर धर्म से जोड़ना चाहिए, जबकि इस गीत के आपत्ति वाले हिस्सों का गायन सन 1930 से ही नहीं हो रहा है।
एक बड़ा वर्ग मुसलमानों के सकारात्मक और पुनर्जागरण के प्रयासों को दबाना-छुपाना चाहता है और वही तीन दिन के जलसे में लिए गए कई बड़े फैसलों के बनिस्पत वंदेमातरम जैसे मसले को उछालता है। दूसरी तरफ ऐसे शगूफों की तलाश में रहने वाले पुतला फूंकने पर उतारू हो जाते है। विडंबना है कि इस मसले का गरमाने वाले सभी पक्ष भावनाओं को समझे बगैर महज लफ्फाजी पर होहल्ला करते हैं। कोई कह रहा है कि भारत में रहना है तो वंदेमातरम बोलना होगा, तो कोई कहता है कि इस संस्कृत गीत का उर्दू में अनुवाद करा दो ताकि मुसलमान इसे भलीभांति समझ सकें।  दोनेा ही पक्षों की बुद्धि पर तरस आता है। भारत में रह कर वंदेमातरम गा कर क्या कुछ भी काला-सफेद करने वाले को सच्चे देशभक्त का तमगा मिल जाता है? क्या कुरान शरीफ, जोकि खालिस अरबी में है, का पाठ करने वाले सभी इसका अर्थ और मर्म समझते हैं ?
पूरी हिंदी पट्टी के गांव-कस्बों में लाखों-लाख ऐसे लोग मिल जाएंगे, जोकि सुबह टहलते, खेत या दिशा-मैदान जाते समय रास्तों में मिलने वाले हर आमो-खास को ‘‘राम-राम’’, ‘राधे’’, ‘‘हरे कृष्ण’ या अस्लाम वालेकुम कहते मिल जाएंगे। ईमानदारी से लोग उसका जवाब भी देते हैं, चाहे वह कोई भी जाति-धर्म के हों। जाहिर है कि राम-राम करने वाला व उसका जवाब देने वाला दोनों ही इस भावना को समझते हैं कि यह ‘शुभ प्रभात’’ का एक तरीका है।  देश में विरले ही ऐसे लोग होंगे, जिन्हें नमस्कार या अस्लाम वालेकुम का शाब्दिक अर्थ  पता होगा। यह मान लिया जाता है कि यह कुछ शुभ ही है। ‘जन गण मण अधिनायक’ का सही अर्थ जानने वाले भी बहुत कम होंगे, इसके बावजूद सभी जानते हैं कि यह राष्ट्रगीत है और इसकी धुन का सम्मान करना चाहिए।
कुछ साल पहले पर्सनल ला बोर्ड के उपाध्यक्ष व शिया समुदाय के संत कल्बे सादिक ने ‘‘वंदे मातरम’’ शब्द का शाब्दिक अर्थ सही तरीके से प्रस्तुत करने की बात कह कर एक नया घालमेल खड़ा करने का प्रयास किया था। यहां मसला भावनाओं को समझने का है ना कि व्याकरण के अर्थ का। यही नहीं क्या वंदेमातरम गाने वाला प्रत्येक व्यक्ति देशभक्त ही होता है ? क्या इसकी गारंटी देने को कोई तैयार है! जैसा कि वीर सावरकर भी कहते थे कि क्या इस बात का कोई बंधन है कि मैं अपने देश को ‘मां’ ही मानूं, ‘पिता’ नहीं ? क्या देशभक्ति की परिभाषा वैश्वीकरण के दौर में अपने देश या नस्ल के भले तक ही सीमित हो गई है? ऐसे सवालों को गंभीरता से विचार किए बगैर शरीयत की दुहाई या सड़कों पर पुतले जलाने वाले ना तो धार्मिक हैं और ना ही देशभक्त।
जब मुस्लिम नेता सरकार से उम्मीद करते हैं कि उन्हें कटघरे में खड़ा करने की साजिश से बचाया जाए तो कहीं न कहीं उनकी भी जिम्मेदारी बनती है कि वे कुछ ऐसा न करें, जिससे एक आदमी की करतूत से सारा समाज शर्मिंदा हो । खुद को पूरे देश के मुसलमानों का रहनुमा जताने वालों ने यदि गालिब के कलाम पढ़े होंगे तो शायद उन्हें सबकुछ शरीयत के खिलाफ ही नजर आया होगा । यह विडंबना है कि पर्सनल ला बोर्ड के कई सदस्य अपना व्यक्तिगत जीवन तो पाश्चात्य शैली से जीने में कतई परहेज नहीं करते हैं, लेकिन जब राष्ट्रहित की कोई बात आती है तेा उन्हें शरीयत याद आ जाती है । क्या वे पेंट-शर्ट नहीं पहनते हैं, क्या वे बैंक में खाता  नहीं रखते हैं ? क्या वे उनके द्वारा किए गए किसी अपराध की सजा शरीयत के अनुसार भुगतने को तैयार हैं ? नहीं, तो फिर राष्ट्रगीत में शरीयत की बात क्यों ले कर आते हैं ? जबकि इस्लाम में जन्मभूमि या अपने देश को उतनी ही इज्जत दी गई है जितनी अन्य धर्मों में । यदि आप अपनी धरती को नमस्कार कर लेते हो तो यह कैसे अधार्मिक हो जाएगा। जब झूठ, फरेब, चोरी, धोखा देने वालों को इस्लाम से निकालने की हिम्मत मुल्ला-मौलवी नहीं कर पाते हैं तो वे देश के प्रति सम्मान(झुके बगैर) प्रकट करने को कैसे धर्म-विरोधी करार देने का फतवा(फतवे का मतलब सलाह होता है ना कि कड़ाई से मानने का आदेश) कैसे जारी कर देते हैं।
यह भी तय है कि देश में मुसलमानों और हिंदुअेां की जो नई पीढ़ी आ रही है, उसके लिए देश-विभाजन के समय भड़के दंगों का दर्द बेमानी हो गया है । यह पीढ़ी व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर आर्थिक विकास को ही अपना धर्म और संकल्प मान रही है और इसके लिए प्रण-प्राण से जुटी हुई है। ऐसे में वंदेमातरम पर  बयान, न तो किसी मुसलमान को सहन हो रहा है और नहीं किसी अन्य धर्म को मानने वाले को । हां, इसका गलत तरीके से फायदा फिरकापरस्त जरूर उठा रहे हैं । आम मुसलमान अपनी अशिक्षा, गरीबी, रोजगार, मजहब में बढ़ रही कुरीतियों को ले कर चिंतित है। वह धीरे-धीरे समझ रहा है कि उन्हें कौन लोग महज ‘वोट की खेती’’ के रूप में देखते हैं।
यदि वास्तव में मुसलमान अपनी छबि के लिए चिंतित है तो उसे धर्म के नाम पर अपनी दुकानें चलाने वालों के खिलाफ खुल कर सामने आना होगा । आम पढ़ा-लिखा मुसलमान अपनी व्यक्तिगत समृद्धि में इतना मशगूूल है कि वह समाज पर उठ रहे इन खतरों पर अपनी राय व्यक्त करना भी गवारा नहीं समझता है । जहां सरकार की जिम्मेदारी है कि वह प्रत्येक मुसलमान को शक से देखने वालांे के खिलाफ सख्त कार्यवाही करे, वहीं प्रत्येक मुसलमान का भी फर्ज है कि कानून से उपर समझने वाले इमामों को खुद ही पुलिस के हाथों में सौंप दे ।




”वंदे मातरम्“
(यह पूरा गीत है, इसके केवल पहले दो पद ही राष्ट्रगीत के रूप में मान्य हैं)

वंदे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्            केवल यही राष्ट्रगीत है।
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनी,
फुल्लकुसुमित-दु्रमदलशोभिनी,
सुहासिनी सुमधुरभाषिणी
सुखदां, वरदां मातरम्।
वंदे मातरम्...

    सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले,
    द्विसप्तकोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
    अबला केनो माँ एतो बले!
    बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं,
    रिपुदलवारिणीं मातरम्।
    वंदे मातरम्...
    तुमी विद्या, तुमी धर्म,
    तुमी हृदि, तुमी मम्र्म,
    त्वं हि प्राणः शरीरे।
    बाहुते तुमी माँ शक्ति,
    हृदये, तुमी माँ भक्ति
    तोमारई प्रतिमा गड़ी मंदिरे मंदिरे।
    त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
    कमला कमल-दलविहारिणीं,
    वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वां
    नमामि कमला, अमलां, अतुलाम्,
    सुजलां, सुफलां, मातरम्।
    वंदे मातरम्..
    श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्
    धरणीं, भरणीम् मातरम्।
    वंदे मातरम्


वन्दे मातरम् का सरल हिन्दी अनुवाद

हे! धरती माता, मैं आपको प्रणाम करता हूं। यहां स्वच्छ जल वाली नदियां बहती हैं, यह फलदार वृक्षों से युक्त है, यहां शीतल चंदनयुक्त हवाएं चलती हैं, और यहां की धरती सघन धानों से युक्त होने के कारण काली दृष्टिगोचर होती है, ऐसी धरती माता को मैं प्रणाम करता हूं।

यहां रात्रि में श्वेत चांदनी छिटक कर पुलकित होती है। यहां खिले हुए पुष्प और घने पत्तों वाले वृक्ष शोभायमान होते हैं। यह सुंदर हंसी युक्त और मधुरवाणी बोलने वाली है। सदैव सुख देने वाली और वर देने वाली माता मैं आपको प्रणाम करता हूं।

यहां रहने वाले सत्तर करोड़ कण्ठ कभी प्रसन्नतापूर्वक शांत नदी की धारा के समान कल-कल करते हैं और कभी-कभी चंडी का विकराल रूप धारण कर गरजते हैं। जिसकी दुगुनी भुजाएं तीक्ष्ण तलवारें धारण किए हुए हैं। ऐसी माता को कौन कहता है कि तुम अबला हो। अपार बल धारण करने वाली माता आपको प्रणाम करता हूं। आप सभी दुखों से तारने वाली हैं, मुक्ति देने वाली माता हैं। शत्राुओं के समूह से लड़ने की शक्ति देने वाली माता मैं आपको प्रणाम करता हूं।

तुम ही विद्या हो, तुम ही धर्म हो, तुम ही हृदय हो, कर्म भी तुम ही हो, तुम ही शरीर में प्राण हो।

हे मां! तुम ही भुजाओं की शक्ति हो, तुम ही हृदय की भक्ति हो।

तुम्हारी प्रतिमा प्रत्येक मंदिर में विराजमान है। तुम ही दुर्गा हो, जिसकी दसों भुजाएं शस्त्रा धारण किए हुए हैं। तुम ही कमल के दल पर विहार करने वाली लक्ष्मी हो। तुम ही विद्या दान करने वाली सरस्वती हो। मैं आपको प्रणाम करता हूं।

लक्ष्मी के समान, स्वच्छ, अतुलनीय बल धारण करने वाली माता आपको प्रणाम है। यहां स्वच्छ जल से युक्त नदियां बहती हैं, यह फलदार वृक्षों से युक्त हैं। हे! माता आपको मैं प्रणाम करता हूं।

सघन धान युक्त श्यामल रंगों की, सरल, सुखद मुस्कान युक्त, आभूषण से सुसज्जित, सभी को धारण करने वाली, सभी का भरण-पोषण करने वाली माता, आपको मैं प्रणाम करता हूं।

हे धरती माता! आपको मैं प्रणाम करता हूं।



 .. बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा रचित वंदेमातरम गीत का श्री अरविन्द द्वारा किया गया अनुवाद



  Mother, I bow to thee!  
Rich with thy hurrying streams,  
bright with orchard gleams,  
Cool with thy winds of delight,  
Dark fields waving Mother of might,  
Mother free.  

Glory of moonlight dreams,  
Over thy branches and lordly streams,  
 Clad in thy blossoming trees,  
Mother, giver of ease  
Laughing low and sweet!  
Mother I kiss thy feet,  
Speaker sweet and low!  
Mother, to thee I bow.  
  

Who hath said thou art weak in thy lands  
When the sword flesh out in the seventy million hands  
And seventy million voices roar  
Thy dreadful name from shore to shore?  
With many strengths who art mighty and stored,  
To thee I call Mother and Lord!  
Though who savest, arise and save!  
To her I cry who ever her foeman drove  
Back from plain and Sea  
And shook herself free.  
    

Thou art wisdom, thou art law, 
Thou art heart, our soul, our breath 
Though art love divine, the awe 
In our hearts that conquers death. 
Thine the strength that nervs the arm, 
Thine the beauty, thine the charm. 
Every image made divine 
In our temples is but thine. 
 
 

Thou art Durga, Lady and Queen, 
With her hands that strike and her 
swords of sheen, 
Thou art Lakshmi lotus-throned, 
And the Muse a hundred-toned, 
Pure and perfect without peer, 
Mother lend thine ear, 
Rich with thy hurrying streams, 
Bright with thy orchard gleems, 
Dark of hue O candid-fair 

In thy soul, with jewelled hair 
And thy glorious smile divine, 
Lovilest of all earthly lands, 
Showering wealth from well-stored hands! 
Mother, mother  mine! 
Mother sweet, I bow to thee, 
Mother great and free!

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

complete ban on liqure in Bihar must be appreciated

बिहार में पूर्ण शराबबंदी: जड़मत होत सुजान
पंकज चतुर्वेदी

कुछ लोग अतीत में विभिन्न राज्यों में असफल हुई शराब पाबंदी की विफलता का हवाला दे रहे हैं तो कुछ हजारों लोगों के बेरोजगार हो जाने का। कुछ आशंका जता रहे हैं कि ब झारखंड व उत्तर प्रदेश से जमकर तस्करी होगी तो बहुत से लेाग राज्य को चार हजार करोड़ के राजस्व के घाअे का भय दिखा रहे हैं। एक वर्ग ऐसा भी है जो हर तरह की पाबंदी के खिलाफ खुद को बता कर बिहार में शराब बंी को गैरलोकतांत्रिक तक कह रहे हैं। लेकिन जरा उन गरीब, दूरस्थ अंवल की औरतों के स्वर भी सुनें जिनके पति अपनी पूरी कमाई शराब में लुटाते रहे हैं, उसके बाद नशाखेरी से उपजी बीमारियों में शरीर तो गंवाते ही हैं घर तक बिकवा देते हैं। एक ऐसा राज्य जहां 28 फीसदी मर्द नियमित शराब पीते हों, वहां के मानव संसाधन, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक जीवन की दुर्गति की कल्पना करें तो शराब बंदी की संभावित असफलता के कारण गिनाने वालों का शुतुरर्मुग ही बनना पड़ेगा। इसमें कोई शक नहीं कि बिहार के विधान सभा चुनाव में औरतों ने नीतिश कुमार को दिल खोलकर वोट दिया था और उसके पीछे सबसे बड़ा कारण शराबबंदी का वायदा था। यदि कोई सरकार जन कल्याण के ऐसे वायदे पूरे करने को कुछ राजस्व की हानि सहती है तो यह भी एक जन कल्याणकारी कार्य ही हे। यदि शराब नहीं बिकेगी तो चिकित्सा व्यय कम होंगे, सड़क दुर्घटना, पारिवारिक कलह आदि में थानाा-कचहरी कम होगा, यह सब भी तो राज्य के धन में कमी के कारक होंगे ही।
अपने वायदे के मुताबिक नीतीश कुमार ने बीते एक अप्रैल से राज्य में देशी और मसालेदार शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। इस फैसले का पूरे राज्य में जबरदस्त स्वागत हुआ और कुछ लोगों ने शहरों में भारत में बनी विदेशी शराब की बिक्री को ले कर आशंकाएं व्यक्त कीं तो चार दिन बाद ही नीतीश सरकार ने शहरी इलाके में भी भारत में निर्मित अंग्रेजी शराब की बिक्री बिहार स्टेट बिवेरेज कार्पोरेशन लिमिटेड (बीएसबीसीएल) के माध्यम किये जाने की अनुमति को भी रद्द कर दिया. प्रदेश में पूर्ण शराबबंदी लागू कर दी है. इसके साथ ही वर्ष 1991 की अधिसूचना को लागू किये जाने के साथ ताड़ के उत्पाद ‘नीरा’ को प्रोत्साहित करने का निर्णय किया है। नीतीश कुमार ने कहा कि शराब बंदी से सामाजिक परिवर्तन की बुनियाद पड़ी है । अभी तक जो राशि शराब में खर्च हो रही थी वह लोगों के पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च होगी, लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठेगा, सामाजिक परिवर्तन आएगा। उन्हांेने बताया कि फौजी छावनी में शराब की बिक्री उनके द्वारा अपने ढंग से संचालित की जाती है उसे छोड़कर होटल, बार अथवा क्लब हो, कहीं भी शराब का प्रचलन नहीं रहेगा। होटल एवं क्लब को बार का किसी प्रकार का लाइसेंस निर्गत नहीं किया जाएगा। राज्य में विदेशी शराब के थोक एवं खुदरा व्यापार अथवा उपभोग को प्रतिबंधित करने का निर्णय लिया गया है
गांधीजी को गिनी-चुनी चीजों से नफरत थी, उनमें सबसे ऊपर षराब का नाम था ।  ‘‘ यंग इंडिया’’  के 03 मार्च 1927 के अंक में उन्होंने एक लेख में उल्लेख किया था कि षराब और अन्य मादक द्रव्यों से होने वाली हानि कई अंषों में मलेरिया आदि बीमारियों सें होने वाली हानियों से असंख्य गुना ज्यादा है । कारण, बीमारियों से तो केवल षरीर को ही हानि पहंुचती है, जबकि षराब आदि से षरीर और आत्मा दोनों का ही नाष होता है ।  गांधी के आदर्षेंा के प्रति कृतसंकल्पित होने का दावा करने वाली सरकारों के सर्वोच्च स्थान राश्ट्रपति भवन से ले कर हर छेाटे-बड़े नेता द्वारा षराब की खरीदी व उसका भोज-पार्टी में सार्वजनिक वितरण क्या गांधी की आत्मा को हर पल कचोटता नहीं होगा ?
‘‘यंग इंडिया’’ के ही 15 सितंबर 1927 अंक में गांधीजी ने  मदिरापान पर एक कड़ी टिप्पणी कर इस दिषा में अपनी मंषा जताई थी- ‘‘ मैं भारत का गरीब होना पसंद करूंगा, लेकिन मैं यह नहीं बर्दाष्त करूंगा कि हजारों लेाग षराबी हों ।  अगर भारत में षराब पांबदी जारी रखने के लिए लेागों को षिक्षा देना बंद करना पड़े तो कोई परवाह नहीं । मैं यह कीमत चुका कर भी षराबखोरी बंद करूंगा । ’’ राजघाट पर फूल चढ़ाते समय हमारे ‘‘भारत भाग्य विधाता’’  क्या कभी  गांधी के इस संकल्प को याद करने का प्रयास करते हैं ? आज हर सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के संचालन के लिए धन जुटाने में षराब से आ रहे राजस्व का बहुतायत है । पंजाब में अधिक षराब बेच कर किसानों को मुफ्त बिजली-पानी देने की घोशणाओं में किसी को षर्म नहीं आई । हरियाणा में षराबबंदी को समाप्त करना चुनावी मुद्दा बना था । दिल्ली में घर-घर तक षराब पहुंचाने की योजनाओं में सरकार यूरोप की नकल कर रही है । उत्तर प्रदेष और मध्यप्रदेष के कई कांग्रेसी षराब के ठेकों से परोक्ष-अपरोक्ष जुड़े हैं । यही नहीं भारत सरकार के विदेष महकमे बाकायदा सरकारी तौर पर षराब-पार्टी देते हैं। हालांकि देश में गुजरात,नगालैंड, लक्ष्यद्वीप और मणिपुर के कुछ हिस्सों में पूर्ण शराबबंदी कई सालों से लागू है और अब वहां के समाज का बड़ा वर्ग अब मदिरा के बगैर जीने को अपनी जीवन शैली भी बना चुका है। फिर भी यदि किसी राज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू करनी हो तो सीमावर्ती राजयें में भी ऐसा हो तो बेहतर होता है। एक बात और जान लें शराब बंदी व उसके कारण बंद हुए शराब कारखाने भले ही कुछ लोगों को बेरोजगार करें, लेकिन इससे राज्य में जल की खपत कम होगी, नदियों व तालाबों में जल-प्रदूषण कम होगा और साथ ही श्रम के घंटों में विस्तार होगा, जो बेशकीमती है।
बिहार में शराब बंदी को ले कर जो चुनौतियों हैं, उसमें से कुछ तो वही हैं जो कि ऐसा करने की आकांक्षा करने वाले राजयों के सामने आती रही है। कुछ की इच्छा शक्ति कमजोर थी सो वे चुनौती के सामने असफल भी रहे। सबसे बड़ा संकट होता है इसकी तस्करी ,जिसे रोकना कोई आसान काम नहीं। इसी तरह शराबबंदी के दौर में गांव के घर-घर में शराब निकालने का सिलसिला शुरू हो जाता है। ऐसे में जहरीली शराब कहां से बन कर लोगों के हलक में पहुंच जाती है, यह पता लगाना तक प्रशासन के लिए चुनौती बन जाता है। इसी जहरीली शराब के सेवन की वजह से लोग मारे जाते हैं और फिर पीडि़त के परिवार सरकारी ठेके को ही सही बताने लगते हैं। शराब बंदी पर्यटन पर भी विपरीत असल डालती है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के व्यापार पर भी।
बिहार में शराब बंदी को कड़ाई से लागू करने और अवैध शराब की बिक्री पर नकेल कसने के लिए उत्पाद एवं मद्य निषेध विभाग के पास पर्याप्त कर्मचारी की कमी भी एक बड़ी दिक्क्त है। विभाग में अधिकारी से लेकर सिपाही तक के कुल 2124 पद हैं। इनमें से मात्र 856 पद पर ही कर्मचारी कार्यरत हैं। बाकी 1268 पद खाली हैं। हालांकि विभाग ने 516 सैप के जवान मांगे हैं। कुछ जवान विभाग को उपलब्ध हो भी चुके हैं। लेकिन सैप के जवानों पर कार्रवाई का अधिकार विभाग को नहीं रहेगा। सिपाहियों की कमी के कारण ही जिलों से 5618 होमगार्ड की मांग की गई है।
यह तय है कि आने वाले कम से कम दो साल इस फैसले के अमल व उसके प्रभाव के लिए जटिल हैं। शराब बिकी के आखिरी दिन जिस तरह राज्य की दुकानों पर लंबी-लंबी कतारे देखी गईं, जिस तरह कुछ जगह शराब ना मिलने से साबनु या दवाएं खाने की घटनाएं सामने आ रही हैं, उससे यह तो तय है कि शराबियों को यही रास्ते पर लाने के लिए केवल कानून की नहीं, मनोचिकित्सक, सामाजिक परिवेश में भी बदलाव के क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। बहरहाल गांधी के देश में ऐसे प्रयासों की सराहना जरूर करनी चाहिए क्यों ‘‘करत-करत अभ्यास के जडमत होत सुजान.........’’

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

journalist between the lines in Bastar

बस्तर की हिंसा-प्रतिहिंसा में पिस रहे हैं पत्रकार


0 दक्षिण बस्तर में नक्सली शहीदी सप्ताह का आतंक फैला रहे थे। एक सीआरपीएफ कैंप के पास ही एक पुल को क्षतिग्रस्त कर उन्होंने सड़क को काट दिया। जब कुछ पत्रकार इसके फोटो खींचने लगे तो सुरक्षा बलों ने उन्हें जबरिया रोकते हुए कहा कि ऐसी खबरों से नक्सलियों के हौसले बुलंद होते हैं।
0 बस्तर में आने वाले अखबारों और क्षेत्रीय खबरिया चैनलों का अंशकालिक संवाददाता कौन होगा, इसका फैसला भी अब सुरक्षा बलों के दबाव में हो रहा है। पुलिस चाहे तो अखबार न बंटे। जब तब कोई संवाददाता हटा दिया जाता है, जब चाहो तब किसी को गैरपत्रकार बता दिया जाता है। 
0 30 मार्च की दिन दोपहर दंतेवाड़ा जिले के जंगलों में सीआरपीएफ के एक वाहन को नक्सली आईडी लगा कर उड़ा देते हैं, जिसमें हमारे सात जवान शहीद हो जाते हैं। यह घटना मुख्य सड़क की है। घटनास्थल पर इतना डायनामाइट था कि पक्की सड़क पर पांच फुट गहरा गड्ढा बन गया। मिनी ट्रक के परखच्चे दूर-दूर तक उड़े। जाहिर है कि इतना बारूद लगाने के लिए नक्सलियों ने पर्याप्त समय लगाया होगा, पर कैसे इसकी भनक भी स्थानीय पुलिस को नहीं लगी। या फिर स्थानीय पुलिस व केंद्रीय बलों के बीच सूचना व संवाद की इतनी बड़ी खाई है या फिर और कुछ है?
0 उत्तर बस्तर का जिला मुख्यालय कांकेर, 20 मार्च को होली के पहले का आखिरी रविवार। आमतौर पर यह मौसम जनजातियों के मदमस्त हो कर गीत-संगीत में डूबने का, अपने दुख-दर्द भूल कर प्रकृति के साथ तल्लीन हो जाने का होता है, लेकिन पूरा बाजार उदास था, कुछ सहमा सा। न मांदर बिक रहे थे, न रंग खरीदने वालों में उत्साह। करीबी जंगलों से आदिवासी न के बराबर हाट में आए थे।

यदि दक्षिण बस्तर यानी सबसे विषम हालात वाले इलाकों की बात करें तो वहां होली या तो सुरक्षाकर्मी मना रहे थे या फिर कुछ सरकारी योजनाओं के तहत पैसा पाने वाले सांस्कृतिक दल। कोई घर से बाहर झांकने को तैयार नहीं, पता नहीं किस तरफ से कोई आकर अपनी चपेट में ले ले। बस्तर अब एक ऐसा क्षेत्र बन चुका है, जहां पुलिस कार्रवाई के प्रति प्रतिरोध जताने का अर्थ है, जेल की हवा। यह भी संभावना रहती है कि जेल से बाहर निकलो तो नक्सली अपना निशाना बना लें। पिछले छह महीनों में छह पत्रकार जेल में डाले जा चुके हैं, वह भी निर्ममता से। कुछ पत्रकारों को जबरिया इलाका छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा तो कुछ को धमकियां मिलीं। मार्च के तीसरे सप्ताह में प्रभात सिंह की गिरफ्तारी का मसला गर्म ही था कि दैनिक दैन्दिनी के संवाददाता दीपक जायसवाल को भी पुलिस ने पकड़कर अंदर कर दिया। आरोप लगाया कि किसी स्कूल के प्राचार्य से उन्होंने बदसलूकी की। सनद रहे, ठीक ऐसा ही एक आरोप प्रभात सिंह पर भी थोपा गया है। यह जान लें कि बस्तर में पुलिस का हर कानून आईजी, शिवराम कल्लूरी की मर्जी ही है। माथे पर भभूत का बड़ा सा तिलक लगाए कल्लूरी को राज्य शासन से छूट है कि वे किसी को भी उठाएं, बंद करें, पीटें, धमकी दें। पत्रकार प्रभात सिंह ने अदालत में बताया कि किस तरह उन्हें थाने में निर्ममता से पीटा गया और बाद में डाक्टर से जबरिया प्रमाण पत्र बनवा लिया गया। प्रभात सिंह के शरीर पर कई गहरे जख्म हैं। प्रभात को ईटीवी से भी हटवाया गया, जबकि दीपक जायसवाल को संवाददाता का कार्ड जारी करने वाले अखबार ने पुलिसिया दबाव में लिख कर दे दिया कि वह हमारा संवाददाता है ही नहीं। यहां एक बात गौर करने वाली है कि पिछले
एक साल के दौरान कल्लूरी ने जितने कथित नक्सली मारे या आत्मसमर्पण करवाए, शायद उतने असली नक्सली जंगल में हैं भी नहीं। रही बची कसर पूरी कर दी है भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों द्वारा बनाए गए एक संगठन सामाजिक एकता मंच ने। मान लें कि यह संगठन सलवा जुडूम भाग दो ही है। इसके कार्यकर्ता शहरी इलाकों में लोगों को डरा-धमका रहे हैं। गौर करें कि अभी पिछले चुनाव तक जब बस्तर की बारह विधान सभा सीटों पर भाजपा का वर्चस्व रहता था, तब ये नेता अपने घर बैठकर तमाशा देखते थे, लेकिन इस बार झीरम घाटी कांड में कई बड़े कांग्रेसी नेताओं के मारे जाने के बाद बस्तर में कांग्रेस का दबदबा बढ़ गया तो ये नेता नक्सलियों के कथित विरोध में खडे़ हो रहे हैं, इसके पीछे की सियासत को जरा गंभीरता से समझना होगा। इसी संगठन की गुंडागर्दी के चलते लंबे समय से जगदलपुर में रह कर विभिन्न अंग्रेजी अखबारों के लिए काम कर रही मालिनी सुब्रहण्यम को बस्तर छोड़कर कर जाना पड़ा। असल में मालिनी उस मसय आंख की किरकिरी बन गई थीं, जब उन्होंने बीजापुर जिले के बासागुड़ा थाने के तहत तलाशी के नाम पर 12 आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार की खबर की थी। उसके बाद मालिनी के मकान मलिक को थाने में ब्ैाठा लिया गया, उनके घर काम करने वाले नौकरों को पूरे परिवार सहित उलटा लटका कर मारा गया। बाजार में कह दिया गया कि इनको कोई सामान न बेचे। हार कर फरवरी में मालिनी को बस्तर छोड़ना पड़ा। कहने की जरूरत नहीं कि इसकी शिकायतों का कोई अर्थ नहीं है। ताजा मामला दंतोवाड़ा के पत्रकार प्रभात सिंह की गिरफ्तारी का है। वे ‘पत्रिका’ के लिए काम करते हैं और लंबे समय से जंगलों में सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों पर अत्याचार तथा पुलिस की झूठी कहानियों का पर्दाफाश करते रहे। कुछ महीनों पहले पकड़े गए पत्रकार द्वय- सोमारू नाग व संतोष यादव की रिहाई के लिए अभियान चला रहे प्रभात की कभी भी गिरफ्तारी के बाबत समाचार लंबे समय से विभिन्न अखबारों में छप रहे थे, इसकी संभावना की दर्जनों शिकायतें की गईं। लेकिन एक सप्ताह पहले प्रभात को घर से उठाया गया, फिर दो दिन बाद आईटी एक्ट में गिरफ्तारी दिखाई गई। मसला एक व्हाट्सएप संदेश का था, जिसमें ‘गोद’ की जगह हिंदी में गलती से चंद्रबिंदु और द की जगह ड टाईप हो गया था। उसके बाद चार ऐसे ही बेसिरपैर के मामले लादे गए। पुलिस अभिरक्षा में प्रभात को निर्ममता से पीटा गया, खाना नहीं दिया गया और कहा गया कि पुलिस का विरोध कर रहे थे, अब उससे सहयोग की उम्मीद मत रखना। प्रभात के मामले में मानवाधिकार आयोग ने भी राज्य शासन को नोटिस भेजा है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि ये नोटिस व आयोग महज हाथी के दांत होते हैं व राज्य शासन की रिपोर्ट को ही आधार मानते हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज को विदेशी दलाल व उनकी महिला मित्र बेला भाटिया को बस्तर छोड़ने की धमकी के पोस्टर भी 28-29 मार्च के दरमियान शहर में लगाए गए। दुखी हो कर ज्यां द्रेज को एक लेख लिख कर बताना पड़ा कि वे भारतीय हैं और किसी भी तरह के सशस्त्र संघर्ष का विरोध करते हैं। उन्होंने बेला भाटिया को नक्सली समर्थक बताने के पर्चे को बेहद गंभीर बताते हुए कहा कि झारखंड में उनके करीबी दोस्त नियामत अंसारी को इसी लाल दस्ते ने मार डाला था। वे आगे लिखते हैं कि बेला को परेशान व बदनाम करने का असल कारण यह है कि वह बीजापुर जिले में सुरक्षा बलों द्वारा निरीह आदिवासी महिलाओं के यौन शोषण के मामले में औरतों को न्याय दिलवाने में मदद कर रही हैं।यहां पत्रकार नेमीचंद जैन व साईं रेड्डी को याद करना भी जरूरी है। कुछ साल पहले दोनों को पुलिस ने नक्सली समर्थक बता कर जेल भेजा। अदालतों ने लचर मामलों के कारण उन्हें रिहा कर दिया, लेकिन बाद में कथित तौर पर नक्सलियों ने उन्हें मार दिया कि वे पुलिस के मुखबिर थे। हालांकि पुलिस कहती है कि दोनों को नक्सलियों ने मारा, लेकिन अंदर दबी-छिपी खबरें कुछ और भी कहती हंै। बीबीसी के स्थानीय संवाददाता आलोक पुतुल और दिल्ली से गए वात्सल्य राय से तो कल्लूरी ने मिलने से इनकार किया, वह बानगी है कि बस्तर में पत्रकारिता किस गंभीर दौर से गुजर रही है- आपकी रिपोटिंर्ग निहायत पूर्वाग्रह से ग्रस्त और पक्षपातपूर्ण है, आप जैसे पत्रकारों के साथ अपना समय बर्बाद करने का कोई अर्थ नहीं है, मीडिया का राष्ट्रवादी और देशभक्त तबका कट्टरता से मेरा समर्थन करता है, बेहतर होगा मैं उनके साथ अपना समय गुजारूं, धन्यवाद। यह एक लिखित संदेश में भेजा गया था। बस्तर के आईजी शिवराम प्रसाद कल्लूरी से कई बार संपर्क करने की कोशिशों के जवाब में उन्होंने पुतुल को यह मैसेज मोबाइल पर भेजा था। कुछ ही देर बाद लगभग इसी तरह का जवाब बस्तर के एसपी आरएन दास ने भेजा- आलोक, मेरे पास राष्ट्रहित में करने के लिए बहुत से काम हैं, मेरे पास आप जैसे पत्रकारों के लिए कोई समय नहीं है, जोकि पक्षपातपूर्ण तरीके से रिपोटिंर्ग करते हैं, मेरे लिए इंतजार न करें। यही नहीं जब ये पत्रकार जंगल में ग्रामीणों से बात कर रहे थे, तभी उन्हें बताया गया कि कुछ हथियारबंद लोग आपको तलाश रहे हैं। हालांकि, एडीटर्स गिल्ड ने 13 से 15 मार्च तक बस्तर अंचल में भ्रमण कर अपनी रपट में लिखा है कि बस्तर में पत्रकारिता पर खतरा है। पत्रकारों पर पुलिस व माओवादी दोनों ही दबाव बनाते हैं। आम जनता ही नहीं पत्रकार भी पुलिस व माओवादियों के बीच की हिंसा में पिस रहे हैं। बस्तर एक जंग का मैदान बन गया है। इन दिनों नक्सलियों के हाथों कई ग्रामीण मारे जा रहे हैं मुखबिर होने के शक में, पुलिस ग्रामीणों को पीट रही है कि दादा लोगों को खाना न दें। लोग पलायन कर रहे हैं। जेल में बंद निर्दोष लोगों की पैरवी करने वाले वकील नहीं मिल रहे हैं। जो कोई भी फर्जी कार्यवाहियों पर रिपोर्ट करे, उनकी हालत प्रभात जैसी हो रही है। असल में यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, जहां प्रतिरोध या असहमति के स्वर को कुचलने के लिए तर्क का नहीं, वरन सुरक्षा बलों के बूटों का सहारा लिया जा रहा है। दक्षिण पत्रकार संघ ने अब निर्णय लिया है कि वे नक्सवाद से जुड़ी किसी भी खबर का बहिष्कार करेंगे, क्योंकि पुलिस उन्हें पत्रकार नहीं, पक्षकार बनाना चाहती है।

After all, why do death houses become sewers?

      आखिर मौतघर क्यों बन जाते हैं   सीवर? पंकज चतुर्वेदी केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय  मंत्रालय  द्वारा कराए गए एक सोशल ऑडिट की एक...