बाल दिवस, पर्यावरण और बच्चे
बाल दिवस, 14 नवम्बर 2015 पर विशेष
हम
बच्चे को अधिक-से-अधिक शिक्षा देकर जागरूक बना रहे हैं, बेहतर जिन्दगी
जीने की सीख दे रहे हैं या फिर अच्छा पैसा कमाने के लिये तैयारी करवा रहे
हैं।
उम्मीदों, सपनों, चुहलताओं और समाज व देश का भविष्य बनने को आतुर बच्चों के
लिये यह बाल दिवस महज एक खेल का दिन नहीं है, यह संकट सामने खड़ा है कि वे
जब बड़े होंगे या उनका वंश आगे बढ़ेगा तो वे किस दुनिया में साँस लेंगे,
किस तरह का पानी पीएँगे, उनकी बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल समाज की खुशहाली
के लिये होगा या फिर मानवता को बचाने के लिये संघर्षरत रहेंगे।
हमारी शिक्षा की भाषा, समाजिक विज्ञान व विज्ञान की पुस्तकों का बड़ा
हिस्सा अतीती को याद करने का होता है लेकिन आज जरूरत है कि उनमें भविष्य की
दुनिया पर विमर्श हो। बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक शब्द ही हैं।
वहीं जिज्ञासा का सीधा सम्बन्ध विज्ञान से है।
शिशुकाल में उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेश की हर गुत्थी को सुलझाने की
जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल-प्रवृत्ति है। भौतिक सुखों व बाजारवाद की
बेतहाशा दौड़ के बीच दूषित हो रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों की नैसर्गिक
जिज्ञासु प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ और इम्तेहानों की बौद्धिक तंगी के कारण
एक बोझिल सा माहौल पैदा हो गया है। ऐसे में बच्चों के चारों ओर बिखरे
विज्ञान की रोचक जानकारी सही तरीके से देना बच्चों के लिये राहत देने वाला
कदम होगा।
यह हमारे नीति निर्धारक लगातार चेता रहे हैं कि हमारे देश में विज्ञान पर
नए शोध करने वालों की संख्या लगातार घट रही है। कम्प्यूटर, सूचना तकनीक,
अन्तरिक्ष विज्ञान में दुनिया को टक्कर देने वाले देश में भविष्यवाणियाँ
करने वाले कारपोरेट बाबा-फकीरों के जलवे चरमोत्कर्ष पर हैं और बच्चे
विज्ञान से विमुख हो रहे हैं।
यह अजीब विरोधाभास है और शायद चेतावनी का बिन्दु भी। किसी भी प्रगतिगामी और
आधुनिक देश के लिये जरूरी है कि वहाँ के बाशिन्दों की सोच वैज्ञानिक हो।
बच्चे के सामने दुनिया के मौजूदा संकट का एक नक्शा हो व उससे जूझने या संकट
को कम करने के सपने हों।
यह कतई जरूरी नहीं कि छोटे से बचे को भविष्य की चुनौतियों या पर्यावरणीय
संकट के डर से मुस्कुराना भुलाने पर मजबूर कर दिया जाये, लेकिन ऐसा भी नहीं
कि वे उससे बेखबर रहें।
एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि ‘पर्यावरण’ स्वयं कुछ करने का नाम है, ना कि
पढ़ने का ; हाँ, यह बात जरूर है कि क्या, क्यों, कैसे, कब, कहाँ जैसे
सवालों का जवाब तलाशने में पढ़ना मदद अवश्य कर सकता है। लेकिन पढ़े हुए का
आनन्द लेने और उसे अपने व्यावहारिक जीवन में उतारने के लिये उसे स्वयं करना
जरूरी है।
घर के बाहर की ज़मीन कच्ची रहे तो किस तरह पानी को ज़मीन में जज्ब कर बचाया
जा सकता है, पेड़ लगाने के बाद उसे बड़ा करने के लिये क्या किया जाये, या
बिजली का व्यय बचाकर हम कैसा भविष्य बना सकते हैं?.....ऐसे सवाल बच्चे के
मन में उपजना जरूरी है।
आज बच्चे जिस दुनिया में आँख खोल रहे हैं वह पूरी तरह विज्ञानमय और
पर्यावरण के लिये चुनौतीमय है। उनका मन एक सपाट तख्ती की तरह होता है, वे
अपने परिवेश में जो कुछ देखते-सुनते हैं, उनके मन पर अंकित हो जाता है।
बड़े होने के साथ ही उनके सामने क्या? क्यों? कैसे? के सवालों का पहाड़
खड़ा हो जाता है।
जब उनको मिलने वाले सवालों के जवाबों में तथ्यों व तर्क का अभाव होता है तो
उनमें अन्धविश्वास की ग्रंथि घर कर जाती है। लेकिन यदि जिज्ञासाओं का
समाधान विज्ञान-सम्मत होता है तो एक वैज्ञानिक प्रवृत्ति जन्म लेती है,
जिसकी हमारे देश को बेहद जरूरत है। पंडित नेहरू ने भी भारत में इसी
साइंटिफिक टेंपर या वैज्ञानिक प्रवृत्ति लाने पर जोर दिया था।
सवा सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश में छह से 17 वर्ष के स्कूल
जाने वाले बच्चों की संख्या लगभग 16 करोड़ है। इसके अलावा कई करोड़ ऐसी
बच्चियाँ व लड़के भी हैं, जो कि अपने देश, काल और परिस्थितियों के कारण
स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। पर वे साँस लेते हैं, भोजन, पानी उनकी भी
आवश्यकता है, फिर उन्हें पर्यावरण के ज्ञान से वंचित कैसे रखा जा सकता है।
लेकिन इतना बड़ा बाजार और इस मसले पर सकारात्मक पुस्तकें ना के बराबर।
अनुमान है कि हमारे देश में सभी भाषाओं में मिलाकर पाठ्येत्तर पर्यावरणीय
विज्ञान पुस्तकों का सालाना आँकड़ा मुश्किल से पाँच सौ को पार कर पाता है।
यह एक कटु सत्य है कि दूरस्थ अंचलों को छोड़ दें, दिल्ली जैसे महानगर में
एक फीसदी बच्चों के पास उनके पाठ्यक्रम के अलावा कोई विज्ञान पुस्तक पहुँच
ही नहीं पाती है।
उन बच्चों के लिये विज्ञान के मायने एक उबासी देने वाली, कठिन परिभाषाओं और
कठिन कहे जाने वाला विषय मात्र है। लेकिन इन बच्चों को जब कुछ प्रयोग करने
को कहा जाता है या फिर यूँ ही अपनी प्रकृति में विचरण के लिये कहा जाता है
तो वे उसमें डूब जाते हैं।
पुस्तक मेलों में ही देख लें, जहाँ जादू, मनोरंजक खेल, कम्प्यूटर पर नए
प्रयोग सिखाने वाली सी.डी. बिक रही होती है, वहाँ बच्चों की भीड़ होती है।
आज भी मानसिक रोग के इलाज के लिये लोग डॉक्टर के बनिस्पत झाड़ फूँक या
मजार-मन्दिर पर जाने को प्राथमिकता देते हैं।
इन दिनों विज्ञान-गल्प के नाम पर विज्ञान के चमत्कारों पर ठीक उसी तरह की
कहानियों का प्रचलन भी बढ़ा है, जिनमें अन्धविश्वास या अविश्वनीयता की हद
तक के प्रयोग होते हैं। किसी अन्य गृह से आये अजीब जन्तु या एलियन या फिर
रोबोट के नाम पर विज्ञान को हास्यास्पद बना दिया जाता है। समय से बहुत आगे
या फिर बहुत पीछे जाकर कुछ कल्पनाएँ की जाती हैं।
लेकिन ये कल्पनाएँ 140 साल पहले की फ्रांसीसी लेखक ज्यूल वार्न के बाल
उपन्यास ‘ट्वेंटी थाउजेंड लीग अंडर दी सी’ जैसी कतई नहीं होती हैं। जान कर
आश्चर्य होगा कि लेखक ने उस काल में समुद्र की उर्जा, वहाँ मिलने वाली काई
से जीवन जीने की कल्पना करते हुए रोमांचक उपन्यास लिख दिया था।
यह विडम्बना ही है कि आज बाजार पौराणिक, लोक और परी कथाओं से पटा हुआ है,
हालांकि इसमें से अधिकांश बाल साहित्य कतई नहीं है। भूत-प्रेत, चुड़ैल के
कामिक्स बच्चों को खूब भा रहे हैं।, लेकिन हमारे देश के लेखक एक ऐसा अच्छा
विज्ञान-गल्प तैयार करने में असफल रहे हैं, जिसके गर्भ में नव- सृजन के कुछ
अंश हों, किसी नई खोज की शुरुआत हो सके।
सवा
सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश में छह से 17 वर्ष के स्कूल जाने
वाले बच्चों की संख्या लगभग 16 करोड़ है। इसके अलावा कई करोड़ ऐसी बच्चियाँ
व लड़के भी हैं, जो कि अपने देश, काल और परिस्थितियों के कारण स्कूल नहीं
जा पा रहे हैं। पर वे साँस लेते हैं, भोजन, पानी उनकी भी आवश्यकता है, फिर
उन्हें पर्यावरण के ज्ञान से वंचित कैसे रखा जा सकता है। लेकिन इतना बड़ा
बाजार और इस मसले पर सकारात्मक पुस्तकें ना के बराबर। अनुमान है कि हमारे
देश में सभी भाषाओं में मिलाकर पाठ्येत्तर पर्यावरणीय विज्ञान पुस्तकों का
सालाना आँकड़ा मुश्किल से पाँच सौ को पार कर पाता है। बच्चों के बीच
प्रकृति पर केन्द्रित पुस्तकें लोकप्रिय बनाने और उनके ज्ञान के माध्यम से
समाज में जागरुकता लाने की यदि ईमानदारी से कोशिश करना है तो पुस्तकों को
तैयार करते समय पुस्तकों की भाषा, स्थानीय परिवेश का विज्ञान, वे जो कुछ
पढ़ रहे हैं, उसका उनके जीवन में उपयोग कहाँ और कैसे होगा, पुस्तकों के
मुद्रण की गुणवत्ता और उनके वाजिब दाम पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
याद रखना होगा कि अपने परिवेश को जानने-बूझने का गुण बच्चों में अधिक होता
है। बच्चों की इस रुचि को बनाए रखने और इसको विस्तार देने में बालपन की
रोमांचक दृष्टि की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। (जैसे की बचपन में ही
बादलों को देख कर उसमें हाथी या अन्य छवि खोजना, घास के हरेपन को महसूस
करने जैसे एहसास होते हैं।) जाहिर है कि हर बच्चा नैसर्गिक रूप से
वैज्ञानिक नजरिए वाला होता है। जरूरत तो होती है बस उसे अच्छी पुस्तकों व
प्रयोगों के माध्यम से तार्किक बनाने की।
पर्यावरण - पठन को लोकप्रिय बनाने के लिये भी कुछ प्रयास करने
होंगे। बड़ी संख्या में बच्चे और उनके अभिभावक यह मान लेते हैं कि विज्ञान
कुछ जटिल विशय है जोकि कुछ ‘होशियार’ बच्चों के बस की ही बात है। यह
भ्रान्ति भी व्यापक है कि विज्ञान वही पढ़े जो कि डॉक्टर, इंजीनियर या
वैज्ञानिक बनना चाहता है।
प्रकृति विचरण के नियमित कार्यक्रम, बच्चों से उनकी जिज्ञासाओं को नियमित
रूप से डायरी में नोट करने व उसके सम्भावित सिद्धान्तों पर चर्चा करने के
लिये प्रेरित करना, जन्तर-मन्तर, तारा मंडल , औषधीय पौधों के बगीचों,
चिड़ियाघर, छोटे कारखानों आदि में बच्चों के नियमित भ्रमण आयोजित करना,
स्कूल / सामुदायिक पुस्तकालयों में ‘खुद करके देखो’, रोचक तथ्यों जैसे
विषयों की पुस्तकों के लिये अलग से स्थान रखना और वहाँ बच्चों के नियमित,
मुक्त आवागमन को सुनिश्चित करना जैसे कार्य स्कूलों में करने होंगे।
ग्रहण, मंगल ग्रह अभियान, किसी बीमारी के फैलने, भूकम्प/बाढ़ आदि प्राकृतिक
विपदाओं के समय टीवी चैनलों पर आमतौर पर अन्धविश्वास, बाबा-बैरागियों के
भयग्रस्त प्रवचन समाज, विशेष तौर पर बच्चों में भय पैदा करते हैं। काश
बच्चों के बीच चर्चाओं का आयोजन और उस पर अधिक-से-अधिक सामग्री एकत्र कर
पोस्टर/वालपेपर/हस्त लिखित पुस्तक तैयार करने के लिये प्रेरित किया जाये।
एक बात और, हमारे देश में बच्चों के लिये किये जा रहे किसी भी काम को
प्रायः धर्मार्थ मान लिया जाता है, जबकि जरूरत इस बात की है कि बच्चों को
विज्ञान के करीब लाने के कार्य को सरकार मानव संसाधन विकास की मूलभूत
योजनाओं में प्राथमिकता से शामिल करे।
आज हमारा जीवन आये दिन नई-नई तकनीकी खोजों से आलोकित हो रहा है, लेकिन इनकी
खोज के पीछे की कहानियाँ, व्यक्ति, संस्था गुमनाम ही हैं। ऐसे अन्वेषणों
पर तत्काल पुस्तकें जरूरी हैं ताकि बच्चों का कौतुहल और जागृत हो और वे खुद
ऐसी खोजों के लिये प्रेरित हों।
इसमें प्राथमिकता के आधार पर बच्चों के लिये ढेर सारी विज्ञान पुस्तकों का
प्रकाशन तथा उनकी बच्चों तक सहजता से पहुँच बनाना बेहद सस्ता और आसान उपाय
है। जरूरत बस सशक्त इच्छाशक्ति की है।